(अडिल्ल छन्द)
यह भविजन हितकार, सु रविव्रत जिन-कही |
करहु भव्यजन सर्व, सु-मन देके सही ||
पूजो पार्श्व-जिनेन्द्र, त्रियोग लगायके |
मिटे सकल-संताप, मिले निधि आयके ||
मतिसागर इक सेठ, सुग्रंथन में कह्यो |
उनने भी यह पूजा, कर आनंद लह्यो ||
ता तें रविव्रत सार, जो भविजन कीजिये |
सुख सम्पति संतान, अतुल निधि लीजिये ||
(दोहा)
प्रणमो पार्श्व-जिनेश को, हाथ-जोड़ सिर-नाय |
परभव-सुख के कारने, पूजा करो बनाय ||
रविवार-व्रत के दिना, ये ही पूजन ठान |
ता-फल सम्पति को लहें, निश्चय लीजे मान ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र!अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्।
(जोगीरासा)
उज्ज्वल जल भरके अति लावो, रतन-कटोरन माँहीं |
धार देत अतिहर्ष बढ़ावत, जन्म-जरा मिट जाहीं ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
मलयागिर केशर अतिसुन्दर, कुंकुम रंग बनार्इ |
धार देत जिन चरनन आगे, भव आताप नशार्इ ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
मोती-सम अति उज्जवल तंदुल, लावो नीर पखारो |
अक्षयपद के हेतु भाव सों, श्री जिनवर-ढिंग धारो ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
बेला अरु मचकुंद चमेली, पारिजात के ल्यावो |
चुन-चुन श्रीजिन अग्र चढ़ावो, मनवाँछित-फल पावो ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
घेवर फैनी गुजिया आदिक, घृत में लेहु पकार्इ |
कंचन-थार मनोहर भरके, चरनन देहु चढ़ार्इ ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
मणिमय दीप रतनमय लेकर, जगमग जोति जगार्इ |
जिनके आगे आरति करके, मोह तिमिर नश जार्इ ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
चूरन कर मलयागिर-चंदन, धूप-दशांग बनार्इ |
तट पावक में खेवो भाव सों, कर्मनाश हो जार्इ ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
श्रीफल आदि बदाम सुपारी, भाँति-भाँति के लावो |
श्रीजिन-चरन चढ़ाय हरषकर, ता तें शिवफल पावो ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
जल-गंधादिक अष्ट-द्रव्य ले, अर्घ बनावो भार्इ |
नाचो गावो हर्षभाव सों, कंचनथार धरार्इ ||
पारसनाथ-जिनेश्वर पूजो, रविव्रत के दिन भार्इ |
सुख-सम्पत्ति बहु होय तुरत ही, आनंद-मंगलदार्इ ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
(गीतिका छन्द)
मन-वचन-काय त्रिशुद्ध करके, पार्श्वनाथ सु पूजिये |
जल आदि अर्घ बनाय भविजन, भक्तिवंत सु हूजिये |
पूज्य पारसनाथ जिनवर, सकल सुखदातार जी |
जे करत हैं नर-नारि पूजा, लहत सौख्य अपार जी ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नम: पूर्णार्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
जयमाला
(दोहा)
सब जग में विख्यात हैं, पारसनाथ महान् |
तिन गुण की जयमालिका, भाषा करो बखान ||१||
(पद्धरि छन्द)
जय जय प्रणमो श्री पार्श्व-देव, इन्द्रादिक तिनकी करत सेव |
जय जय सु बनारस जन्म लीन, तिहुँ लोकविषैं उद्योत कीन ||२||
जय जिन के पितु श्री अश्वसेन, तिनके घर भये सुख-चैन देन |
जय वामादेवी मात जान, तिनके उपजे पारस महान् ||३||
जय तीन लोक आनंद देन, भविजन के दाता भये ऐन |
जय जिनने प्रभु की शरण लीन, तिनकी सहाय प्रभुजी सु कीन ||४||
जय नाग-नागिनी भये अधीन, प्रभु-चरणन लाग रहे प्रवीन
तज देह देवगति गये जाय, धरणेन्द्र-पद्मावति पद लहाय ||५||
जय अंजन चोर अधम अजान, चोरी तज प्रभु को धरो ध्यान |
जय मृत्यु भये वह स्वर्ग जाय, ऋद्धी अनेक उनने सु पाय ||६||
जय मतिसागर इक सेठ जान, तिन अशुभकर्म आयो महान् |
तिन के सुत थे परदेश माँहि, उनसे मिलने की आश नाँहि ||७||
जय रविव्रत-पूजन करी सेठ, ता फल कर सबसे भर्इ भेंट |
जिन-जिन ने प्रभु का शरण लीन, तिन ऋद्धि-सिद्धि पार्इ नवीन ||८||
जय रविव्रत-पूजा करहिं जेय, ते सौख्य अनंतानंत लेय |
धरणेन्द्र पद्मावति हुये सहाय, प्रभु भक्त जान तत्काल आय ||९||
पूजा-विधान इहिविधि रचाय, मन वचन काय तीनों लगाय |
जो भक्तिभाव जयमाल गाय, सोही सुख-सम्पति अतुल पाय ||१०||
बाजत मृदंग बीनादि सार, गावत-नाचत नाना प्रकार |
तन नन नन नन नन ताल देत,सन नन नन नन सुर भर सो लेत ||११||
ता थेर्इ थेर्इ पग धरतजाय, छम छम छम छम घुंघरू बजाय |
जे करहिं निरत इहि भाँत-भाँत,ते लहहिं सुक्ख शिवपुर सुजात ||१२||
(दोहा)
रविव्रत-पूजा पार्श्व की, करे भविकजन जोय |
सुख-सम्पति इहभव लहे, आगे सुरपद होय ||
ओं ह्रीं श्रीपार्श्वनाथजिनेन्द्राय नम: जयमाला-पूर्णार्यं r निर्वपामीति स्वाहा ।
(अडिल्ल छन्द)
रविव्रत पार्श्व-जिनेन्द्र, पूज भवि मन धरें |
भव-भव के आताप, सकल छिन में टरें ||
होय सुरेन्द्र नरेन्द्र, आदि पदवी लहे |
सुख सम्पति संतान, अटल लक्ष्मी रहे ||
फेर सर्व विधि पाय, भक्ति प्रभु अनुसरें |
नानाविध सुख भोग, बहुरि शिवतिय वरें ||
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।