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बाहुबली जी पूजा - Bahubali ji Pooja


admin

(कवि श्री जिनेश्वरदासजी)

(दोहा)
कर्म-अरिगण जीत के, दरशायो शिव-पंथ |
सिद्ध-पद श्रीजिन लह्यो, भोगभूमि के अंत ||
समर-दृष्टि-जल जीत लहि, मल्लयुद्ध जय पाय |
वीर-अग्रणी बाहुबली, वंदौं मन-वच-काय ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबलीजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट्! (आह्वाननं)
ओं ह्रीं श्रीबाहुबलीजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)।
ओं ह्रीं श्रीबाहुबलीजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणम्)।

अष्टक
जन्म-जरा-मरणादि तृषा कर, जगत-जीव दु:ख पावें |
तिहि दु:ख दूर-करन जिनपद को, पूजन-जल ले आवें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं वर्तमानावसर्पिणीसमये प्रथम कामदेव कर्मारिविजयी वीराधिवीर-वीराग्रणी श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय
जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।१।

यह संसार मरुस्थल-अटवी, तृष्णा-दाह भरी है |
तिहि दु:खवारन चंदन लेके, जिन-पद पूज करी है ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।२।

स्वच्छ शालि शुचि नीरज रज-सम, गंध-अखंड प्रचारी |
अक्षय-पद के पावन-कारन, पूजें भवि जगतारी ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।

हरि हर चक्रपति सुर दानव, मानव पशु बस जा के |
तिहि मकरध्वज-नाशक जिन को, पूजें पुष्प चढ़ा के ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।

दु:खद त्रिजग-जीवन को अति ही, दोष-क्षुधा अनिवारी |
तिहि दु:ख दूर-करन को, चरुवर ले जिन-पूज प्रचारी ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।

मोह-महातम में जग जीवन, शिव-मग नाहिं लखावें |
तिहि निरवारन दीपक कर ले, जिनपद-पूजन आवें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।

उत्तम धूप सुगंध बनाकर, दश-दिश में महकावें |
दशविध-बंध निवारन-कारण, जिनवर पूज रचावें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।

सरस सुवर्ण सुगंध अनूपम, स्वच्छ महाशुचि लावें |
शिवफल कारण जिनवर-पद की, फलसों पूज रचावें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।

वसु-विधि के वश वसुधा सब ही, परवश अतिदु:ख पावें |
तिहि दु:ख दूरकरन को भविजन, अर्घ्य जिनाग्र चढ़ावें ||
परम-पूज्य वीराधिवीर जिन, बाहुबली बलधारी |
तिनके चरण-कमल को नित-प्रति, धोक त्रिकाल हमारी ||

ओं ह्रीं श्रीबाहुबली-परमयोगीन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९।

जयमाला

(दोहा)
आठ-कर्म हनि आठ-गुण, प्रगट करे जिनरूप |
सो जयवंतो बाहुबली, परम भये शिवभूप ||

(कुसुमलता छन्द)
जय! जय! जय! जगतार-शिरोमणि क्षत्रिय-वंश अशंस महान |
जय! जय! जय! जगजन-हितकारी दीनो जिन उपदेश प्रमाण ||
जय! जय! चक्रपति सुत जिनके, शत-सुत जेष्ठ-भरत पहिचान |
जय! जय! जय! श्री ऋषभदेव जिन सो जयवंत सदा जग-जान ||१||
जिनके द्वितीय महादेवी शुचि नाम सुनंदा गुण की खान |
रूप-शील-सम्पन्न मनोहर तिनके सुत बाहुबली महान ||
सवा पंच-शत धनु उन्नत तन हरित-वरण शोभा असमान |
वैडूर्यमणि-पर्वत मानों नील-कुलाचल-सम थिर जान ||२||
तेजवंत परमाणु जगत में तिन करि रच्यो शरीर प्रमाण |
सत वीरत्व गुणाकर जाको निरखत हरि हरषो उर आन ||
धीरज अतुल वज्र-सम नीरज वीराग्रणी सम अति-बलवान |
जिन छवि लखि मनु शशि-रवि लाजे कुसुमायुध लीनों सुपुमान ||३||
बालसमय जिन बाल-चन्द्रमा शशि से अधिक धरे दुतिसार |
जो गुरुदेव पढ़ार्इ विद्या शस्त्र-शास्त्र सब पढ़ी अपार ||
ऋषभदेव ने पोदनपुर के नृप कीने बाहुबली कुमार |
दर्इ अयोध्या भरतेश्वर को आप बने प्रभुजी अनगार ||४||
राज-काज षट्खंड-महीपति सब दल लै चढ़ि आये आप |
बाहुबली भी सन्मुख आये मंत्रिन तीन युद्ध दिय थाप ||
दृष्टि नीर अरु मल्ल-युद्ध में दोनों नृप कीजो बलधाप |
वृथा हानि रुक जाय सैन्य की यातैं लड़िये आपों आप ||५||
भरत बाहुबली भूपति भार्इ उतरे समर-भूमि में जाय |
दृष्टि-नीर-रण थके चक्रपति मल्लयुद्ध तब करो अघाय ||
पगतल चलत चलत अचला तब कंपत अचल-शिखर ठहराय |
निषध नील अचलाधर मानो भये चलाचल क्रोध-बसाय ||६||
भुज-विक्रमबली बाहुबली ने लिये चक्रपति अधर उठाय |
चक्र चलायो चक्रपति तब सो भी विफल भयो तिहि ठाय ||
अतिप्रचंड भुजदंड सूंड-सम नृप-शार्दूल बाहुबलि-राय |
सिंहासन मँगवाय जास पे अग्रज को दीनों पधराय ||७||
राज रमा दामासुर धनमय जीवन दमक-दामिनी जान |
भोग भुजंग-जंग-सम जग को जान त्याग कीनों तिहि थान ||
अष्टापद पर जाय वीर नृप वीर व्रती धर लीनों ध्यान |
अचल-अंग निरभंग संग-तज संवत्सर लों एक ही थान ||८||
विषधर बांबी करी चरनन-तल ऊपर बेल चढ़ी अनिवार |
युगजंघा कटि बाहु बेढ़िकर पहुँची वक्षस्थल पर सार ||
सिर के केश बढ़े जिस माँहीं नभचर-पक्षी बसे अपार |
धन्य-धन्य इस अचल-ध्यान को महिमा सुर गावें उर-धार ||९||
कर्म नासि शिव जाय बसे प्रभु ऋषभेश्वर से पहले जान |
अष्ट-गुणांकित सिद्ध-शिरोमणि जगदीश्वर-पद लह्यो पुमान ||
वीरव्रती वीराग्रगण्य प्रभु बाहुबली जगधन्य महान |
वीरवृत्ति के काज ‘जिनेश्वर’ नमे सदा जिन-बिंब प्रमान ||१०|

(दोहा)
श्रवनबेलगुल इन्द्रगिरि, जिनवर-बिंब प्रधान |
सत्तावन-फुट उतंग तनो, खड्गासन अमलान ||
अतिशयवंत अनंत-बल- धारक बिंब अनूप |
अर्घ्य चढ़ाय नमौं सदा, जय जय जिनवर-भूप||

ओं ह्रीं वर्तमानावसर्पिणीसमये प्रथम कामदेव कर्मारिविजयी वीराधिवीर वीराग्रणी श्रीबाहुबली स्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

।।इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत्।।



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