सुनो जिया ये सतगुरु की बातैं, हित कहत दयाल दया तैं ॥
यह तन आन अचेतन है तू, चेतन मिलत न यातैं
तदपि पिछान एक आतमको, तजत न हठ शठ-तातैं ॥
चहुँगति फिरत भरत ममताको, विषय महाविष खातैं
तदपि न तजत न रजत अभागै, दृग व्रत बुद्धिसुधातैं ॥
मात तात सुत भ्रात स्वजन तुझ, साथी स्वारथ नातैं
तू इन काज साज गृहको सब, ज्ञानादिक मत घातै ॥
तन धन भोग संजोग सुपन सम, वार न लगत विलातैं
ममत न कर भ्रम तज तू भ्राता, अनुभव-ज्ञान कलातैं ॥
दुर्लभ नर-भव सुथल सुकुल है, जिन उपदेश लहा तैं
दौल तजो मनसौं ममता ज्यों, निवडो द्वंद दशातैं ॥