रोम रोम से निकले प्रभुवर
रोम रोम से निकले प्रभुवर नाम तुम्हारा, हां नाम तुम्हारा ।
ऐसी भक्ति करूं प्रभु जी, पाऊं न जन्म दुबारा ॥
जिनमंदिर में आया, जिनवर दर्शन पाया,
अंतर्मुख मुद्रा को देखा, आतम दर्शन पाया,
जनम जनम तक ना भूलूंगा, यह उपकार तुम्हारा ॥
अरहंतों को जाना, आतम को पहिचाना,
द्रव्य और गुण पर्यायों से, जिन सम निज को माना,
भेद ज्ञान ही महामंत्र है, मोह तिमिर क्षयकारा ॥
पंच महाव्रत धारूं, समिति गुप्ति अपनाऊं,
निर्ग्रथों के पथ पर चलकर, मोक्ष महल में आऊं,
पुण्य पाप की बंध श्रॄंखला, नष्ट करूं दुखकारा ॥
देव-शास्त्र-गुरु मेरे, हैं सच्चे हितकारी,
सहज शुद्ध चैतन्य राज की, महिमा जग से न्यारी,
भेदज्ञान बिन नहीं मिलेगा, भव का कभी किनारा ॥