कबै निरग्रंथ स्वरूप धरूंगा, तप करके मुक्ति वरूंगा॥
कब गृह वास आस सब छाडूं, कब वन में विचरूंगा
बाह्याभ्यंतर त्याग परिग्रह, उभय लोक विचरूंगा ॥
होय एकाकी परम उदासी, पंचाचार धरूंगा
कब स्थिर योग धरु पद्मासन, इन्द्रिय दमन करूंगा ॥
आतम ध्यान साजि दिल अपने, मोह अरि से लडूंगा
त्याग उपाधि समाधि लगाकर, परिषह सहन करूंगा ॥
कब गुणस्थान श्रेणी पर चढ के करम कलंक हरूंगा
आनन्दकंद चिदानन्द साहब, बिन तुमरे सुमरूंगा ॥
ऐसी लब्धि जबे मैं पाऊं, आप में आप तिरूंगा
’अमोलकचंद सुत हीराचंद’ कहै यह, चहुरि जग में ना भ्रमूंगा॥