हम तो कबहुँ न निज घर आये ।
परघर फिरत बहुत दिन बीते, नाम अनेक धराये ॥
परपद निजपद मानि मगन ह्वै, परपरनति लपटाये,
शुद्ध बुद्ध सुख कन्द मनोहर, चेतन भाव न भाये ।१।
नर पशु देव नरक निज जान्यो, परजय बुद्धि लहाये,
अमल अखण्ड अतुल अविनाशी, आतमगुन नहिं गाये ।२।
यह बहु भूल भई हमरी फिर, कहा काज पछताये,
दौल तजौ अजहूँ विषयनको, सतगुरु वचन सुनाये ।३।