हम तो कबहूँ न हित उपजाये
सुकुल-सुदेव-सुगुरु सुसंग हित, कारन पाय गमाये! ॥
ज्यों शिशु नाचत, आप न माचत, लखनहारा बौराये
त्यों श्रुत वांचत आप न राचत, औरनको समुझाये ।१।
सुजस-लाहकी चाह न तज निज, प्रभुता लखि हरखाये
विषय तजे न रजे निज पदमें, परपद अपद लुभाये ।२।
पापत्याग जिन-जाप न कीन्हौं, सुमनचाप-तप ताये
चेतन तनको कहत भिन्न पर, देह सनेही थाये ।३।
यह चिर भूल भई हमरी अब कहा होत पछताये
दौल अजौं भवभोग रचौ मत, यौं गुरु वचन सुनाये ।४।