ऐसा मोही क्यों न अधोगति जावै,
जाको जिनवानी न सुहावै ।टेक.।
वीतरागसे देव छोड़कर, भैरव यक्ष मनावै ।
कल्पलता दयालुता तजि, हिंसा इन्द्रायनि वावै ।१।
रुचै न गुरु निर्ग्रन्थ भेष बहु, - परिग्रही गुरु भावै ।
परधन परतियको अभिलाषै, अशन अशोधित खावै ।२।
परकी विभव देख ह्वै सोगी, परदुख हरख लहावै ।
धर्म हेतु इक दाम न खरचै, उपवन लक्ष बहावै ।३।
ज्यों गृह में संचै बहु अघ त्यों, वनहू में उपजावै ।
अम्बर त्याग कहाय दिगम्बर, बाघम्बर तन छावै ।४।
आरम्भ तज शठ यंत्र मंत्र करि, जनपै पूज्य मनावै ।
धाम वाम तज दासी राखै, बाहिर मढ़ी बनावै ।५।
नाम धराय जती तपसी मन, विषयनिमें ललचावै
दौलत सो अनन्त भव भटकै, ओरनको भटकावै ।६।