धनि मुनि निज आतमहित कीना
भव प्रसार तप अशुचि विषय विष, जान महाव्रत लीना ॥
एकविहारी परिग्रह छारी, परीसह सहत अरीना
पूरव तन तपसाधन मान न, लाज गनी परवीना ।१।
शून्य सदन गिर गहन गुफामें, पदमासन आसीना
परभावनतैं भिन्न आपपद, ध्यावत मोहविहीना ।२।
स्वपरभेद जिनकी बुधि निजमें, पागी वाहि लगीना
`दौल' तास पद वारिज रजसे,किस अघ करे न छीना ।३।