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  • १.२.३ सत्‍य पुरूषार्थ

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    ३. सत्‍य पुरूषार्थ – अब प्रश्‍न होता है कि क्‍या आज तक प्रयत्‍न नहीं किया ?  नहीं ऐसी बात नहीं है । प्रयत्‍न तो किया और बराबर करता आ रहा है । प्रयत्‍न करने में कमी नहीं है । धन उपार्जन करने में, जीवन की आवश्‍यक वस्‍तुएं जुटाने में, उनकी रक्षा करने में तथा उनको भोगने में अवश्‍य तू पुरूषार्थ कर रहा है और खूब कर रहा है । फिर कमी कहाँ है जो आज तक असफल रहा है, उसकी प्राप्ति में, कमी है प्रयोग को बदलकर न देखने की । प्रयत्‍न तो अवश्‍य करता आ रहा है, पर अव्‍वल तो आज तक कभी तुझे यह विचारने का अवसर ही नहीं मिला कि तुझे सफलता नहीं मिल रही है और यदि कुछ प्रतीति भी हुई तो प्रयोग बदलकर न देखा । वही पुराना प्रयोग चल रहा है जो पहले चलता था-धन कमाने का, भोगों की उपलब्धि व रक्षा का तथा उन्हें भोगने का । कभी विचारा है यह कि अधिक से अधिक प्रयोगों को प्राप्‍त करके भी यह ध्‍वनि शांत नहीं हो रही है तो अवश्‍यमेव मेरी धारणा में ? मेरे विश्‍वास में कहीं भूल है ? धन या भोग शांति की प्राप्ति के उपाय ही नहीं हैं । यदि ऐसा होता तो अवश्‍य ही मैं शांत हो गया होता । आवाज का न दबना ही यह बता रहा है कि मेरा उपाय झूठा है । वास्‍तव में उपाय कुछ और है, जिसे में नहीं जानता । अत: या तो किसी जानकार से पूछकर या स्‍वयं पुरूषार्थ की दिशा घुमाकर देखूँ तो सही । इस उपरोक्‍त प्रयोग को यदि अपनाता, तो अवश्‍य आज तक वह मार्ग पा लिया होता ।

     

    अब सुनने पर तथा अपनी धारणा बदल जाने के कारण कुछ इच्‍छा भी प्रगट हुई हो यदि प्रयत्‍न बदलने की, तो उससे पहले तुझको यह बात जान लेनी आवश्‍यक है कि किस चीज का आविष्‍कार करने जा रहा है तू, क्‍योंकि बिना किसी लक्ष्‍य के किस और लगायेगा अपने पुरुषार्थ को ? केवल शान्ति व सुख कह देने से काम नहीं चलता । उस शान्ति या सुख की पहचान भी होनी चाहिए, ताकि आगे जाकर भूलवश पहले की भाँति उस दु:ख या अशान्ति को सुख या शान्ति न मान बैठे और तृप्‍तवत् हुआ चलता जाये उसी दिशा में, बिल्‍कुल असफल व असंतुष्‍ट ।


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