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  • १.२.५ संसार-वृक्ष

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    admin

    ५. संसार-वृक्ष – देख तेरी वर्तमान दशा का एक सुंदर चित्र दर्शाता हूँ । एक व्‍यापारी जहाज में  माल भरकर विदेश को चला । अनेकों आशायें थी उसके हृदय में । पर उसे क्‍या खबर थी कि अदृष्‍ट उसके लिये क्‍या लिये बैठा है । देर क्षितिज में से साँय-साँय की भयंकर ध्‍वनि प्रकट हुई, जो बराबर बढ़ती हुई उसकी और आने लगी । घबरा गया वह । हैं ! यह क्‍या ?  तूफान सर पर आ गया । आँधी का वेग मानों सागर को अपने स्‍थान से उठाकर अन्‍यत्र ले जाने की होड़ लगाकर आया है । सागर ने अपने अभिमान पर इतना बड़ा आघात कभी न देखा था । वह एकदम गर्ज उठा, फुंकार मारने लगा  और उछल-उछल कर वायुमण्‍डलों को ताड़ने लगा ।

     

          वायु व सागर का यह युद्ध कितना भयंकर है । दिशायें भयंकर गर्जनाओं से भर गई हैं । दोनों नये-नये हथियार लेकर सामने आ रहे थे । सागर के भयंकर थपेड़ों से आकाश का साहस टूट गया । वह एक भयंकर चीत्‍कार के साथ सागर के पैरों में गिर गया । घड़ड़ड़ड़ । ओह ! यह क्‍या आफत आई ? आकाश फट गया और उसमें भीतर से क्षण भर को एक महान प्रकाश की रेखा प्रकट हुई । रात्रि के इस गहन अंधकार में भी इस वज्रपात के अद्वितीय प्रकाश में सागर का क्षोभ तथा इस युद्ध का प्रकोप स्‍पष्‍ट दिखाई दे रहा था । व्‍यापारी की नब्‍ज ऊपर चढ़ गई, मानों वह निष्‍प्राण हो चुका ।

     

          इतने ही पर बस क्‍यों हों ? आकाश की इस पराजय को मेघराज सहन न कर सका । महा-काल की भाँति राक्षस सेना गर्जकर आगे बढ़ी और एक बार पुन: घोर अंधकार में सब कुछ विलीन हो गया । व्‍यापारी अचेत होकर गिर पड़ा । सागर उछला, गड़गड़ाया, मेघराज ने जलबाणों की घोर वर्षा की । मूसलाधार पानी पड़ने लगा । जहाज में जल भर गया । व्‍यापारी अब भी अचेत था । दो भयंकर राक्षसों के युद्ध में बेचारे व्‍यापारी की कौन सुने ? सागर की एक विकराल तरंग – ओह ! यह क्‍या ?  पुन: वज्रपात हुआ और उसके प्रकाश में......?  जहाज जोर से ऊपर की और उछला और नीचे गिरकर जल में विलुप्‍त हो गया । सागर  की गोद में समा गया । उसके अगोंपांग इधर उधर बिखर गये । हाय, बेचारा व्‍यापारी, कौन जाने उसकी क्‍या दशा हुई ?

     

          प्रभात हुआ । एक तखते पर पड़ा सागर में बहता हुआ कोई अचेत व्‍यक्ति भाग्‍यवश किनारे पर आ लगा । सूर्य की किरणों ने उसके शरीर में कुछ स्‍फूर्ति उत्‍पन्‍न की, उसने  आँखें खोलीं । मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ हूँ ? यह कौन देश है ? किसने मुझे यहाँ पहुँचाया, मैं कहाँ से आ रहा हूँ ? क्‍या काम करने के लिये घर से निकला था ? मैं, मेरे पास क्‍या है ? कैसे निर्वाह करूँ ?  सब कुछ भूल चुका अब वह ।

     

          उसे नवजीवन मिला है, यह भी पता नहीं है उसे । किसकी सहायता पाऊँ, कोई दिखाई नहीं देता । गर्दन लटकाये चल दिया जिस और मुँह उठा । एक भयंकर चीत्‍कार । अरे ! यह क्‍या ? उसकी मानसि‍क स्‍तब्‍धता भंग हो गई । पीछे मुड़कर देखा । मेघों से भी काला, जंगम-पर्वत तुल्‍य, विकराल गजराज सूंढ़ ऊपर उठाये, चीख मारता हुआ, उसकी और दौड़ा । प्रभु ! बचाओ । अरे पथिक ! कितना अच्‍छा होता यदि इसी प्रभु को अपने अच्‍छे दिनों में भी याद कर लिया होता । अब क्‍या बनता है, यहाँ कोई भी तेरा सहारा नहीं ।

     

           दौड़ने के अतिरिक्‍त शरण नहीं थी । पथिक दौड़ा, जितनी जोर से उससे दौड़ा गया । हाथी सर पर आ गया और धैर्य जाता रहा उसका । अब जीवन असम्‍भव है । ‘‘नहीं पथिक तूने एक बार जिह्वा से प्रभु का नाम लिया है, वह निरर्थक नहीं जायेगा, तेरी रक्षा अवश्‍य होगी’’, आकाशवाणी हुई, आश्‍चर्य से आँख उठाकर देखा, कुछ संतोष हुआ, सामने एक बड़ा वटवृक्ष खड़ा था । एक बार पुन: साहस बटोरकर पथिक दौड़ा और वृक्ष के नीचे की और लटकती दो उपशाखाओं को पकड़कर वह ऊपर चढ़ गया ।

     

          हाथी का प्रकोप और भी बढ़ गया, यह उसकी मानहानि है । इस वृक्ष ने उसके शिकार को शरण दी है । अत: वह भी अब रह न पायेगा । अपनी लम्‍बी सूंढ से वह वृक्ष को जोर से हिलाने लगा । पथिक का रक्‍त सूख गया । अब मुझे बचाने वाला कोई नहीं । नाथ ! क्‍या मुझे जाना ही होगा, बिना कुछ देखे, बिना कुछ चखे ? “नहीं प्रभु का नाम बेकार नहीं जाता । ऊपर दृष्टि उठाकर देख”, आकाशवाणी ने पुन: आशा का संचार किया । ऊपर की और देखा मधु का एक बड़ा छत्‍ता जिसमें से बूंद-बूंद करके झर रहा था उसका मद ।

     

          आश्‍चर्य से मुँह खुला का खुला रह गया । यह क्‍या ? और अकस्‍मात् ही- आ हा हा, कितना मधुर है यह ? एक मधुबिन्‍दु उसके खुले मुँह में गिर पड़ा । वह चाट रहा था उसे और कृतकृत्‍य मान रहा था अपने को । एक बूँद और । मुँह खोला, और पुन: वही स्‍वाद । एक बूंद और......। और इस प्रकार मधुबिन्‍दु के इस मधुर स्‍वाद में खो गया वह, मानो उसका जीवन बहुत सुखी बन गया है । अब उसे और कुछ नहीं चाहिए, एक मधुबिन्‍दु । भूल गया वह अब प्रभु के नाम को । उसे याद करने से अब लाभ भी क्‍या है ? देख कोई भी मधुबिन्‍दु व्यर्थ पृथ्वी पर न पड़ने पावे । उसके सामने मधुबिन्‍दु के अतिरिक्‍त और कुछ न था । भूल चुका था वह यह कि नीचे खड़ा वह हाथी अब भी वृक्ष की जड़ में सूंड़ से पानी दे-देकर उसे जोर-जोर से हिला रहा है । क्‍या करता उसे याद करके, मधुबिन्‍दु जो मिल गया है उसे, मानो उसके सारे भय टल चुके हैं । वह मग्‍न है मधुबिन्‍दु की मस्‍ती में ।

     

          वह भले न देखे, पर प्रभु तो देख रहे हैं । अरे रे ! कितनी दयनीय है इस पथिक की दशा । नीचे हाथी वृक्ष को समूल उखाड़ने पर तत्‍पर है और ऊपर वह देखो दो चूहै बैठे उस डाल को धीरे-धीरे कुतर रहे हैं जिस पर कि वह लटका हुआ है । उसके नीचे उस अन्‍धकूप में, मुँह फाड़े विकराल दाड़ों के बीच में लम्‍बी लम्‍बी भयंकर जिह्वा लपलपा रही है जिनकी लाल-लाल नेत्रों से, ऊपर की और देखते हुये चार भयंकर अजगर मानो इसी बात की प्रतीक्षा में हैं कि कब डाल कटे  और उनको एक ग्रास खाने को मिले । उन बेचारों का भी क्‍या दोष, उनके पास पेट भरने का एक यही तो साधन है । पथभ्रष्‍ट अनेकों भूले भटके पथिक आते हैं और इस मधुबिन्‍दु के स्‍वाद में खोकर अंत में उन अजगरों के पास ग्रास बन जाते हैं । सदा से ऐसा होता आ रहा है, तब आज भी ऐसा ही क्‍यों न होगा ?

     

          गड़ गड़ गड़ वृक्ष हिला । मधु मक्षिकाओं का संतुलन भंग हो गया । भिनभिनाती हुईं, भन्‍नाती हुईं वे उड़ीं । इस नवागन्‍तुक ने ही हमारी शांति में भंग डाला है । चिपट गईं वे सब उसको, कुछ सर पर, कुछ कमर पर, कुछ हाथों में, कुछ पांवों में, सहसा घबरा उठा वह..... यह क्‍या ? उनके तीखे डंकों की पीड़ा से व्‍याकुल होकर एक चीख निकल पड़ी उसके मुँह से, ‘प्रभु !  बचाओ  मुझे ।’ पुन: वही मधुबिन्‍दु । जिस प्रकार रोते हुये शिशु के मुख में मधु भरा रबर का निपल देकर माता उसे सुला देती है और वह शिशु भी इस भ्रम में कि मुझे स्‍वाद आ रहा है, संतुष्‍ट होकर सो जाता है; उसी प्रकार पुन: खो गया वह उस मधुबिन्‍दु में और भूल गया उन डंकों की पीड़ा को । पथिक प्रसन्‍न था, वह सामने बैठे करम करूणाधारी, शांतिमूर्ति जगत हितकारी, प्रकृति की गोद में रहने वाले, निर्भय गुरूदेव मन ही मन उसकी इस दयनीय दशा पर आँसू बहा रहे थे । आखिर उनसे रहा न गया । उठकर निकल आये । “भो पथिक ! एक बार नीचे देख, यह हाथी जिससे डरकर तू यहाँ आया है, अब भी यहाँ ही खड़ा इस वृक्ष को उखाड़ रहा है । ऊपर वह देख, सफेद व काले दो चूहै तेरी इस डाल को काट रहे हैं । नीचे देख अजगर मुँह बाये तुझे ललचाई-ललचाई दृष्टि से ताक रहे हैं । इस शरीर को देख जिस पर चिपटी हुई मधु-मक्षिकायें तुझे चूंट-चूंट कर खा रही हैं । इतना होने पर भी तू प्रसन्‍न है । यह बढ़ा आश्‍चर्य है । आँख खोल, तेरी दशा बड़ी दयनीय है । एक क्षण भी विलम्ब करने को अवकाश नहीं । डाली कटने वाली है । तू नीचे गिरकर नि:संदेह उन अजगरों का ग्रास बन जायेगा । उस समय कोई भी तेरी रक्षा करने को समर्थ न होगा । अभी भी अवसर है । आ मेरा हाथ पकड़ और धीरे से नीचे उतर आ । यह हाथी मेरे सामने तुझे कुछ नहीं कहैगा । इस समय में तेरी रक्षा कर सकता हूँ । सावधान हो, जल्‍दी कर ।”

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    परन्‍तु पथिक को कैसे स्‍पर्श करें वे मधुर-वचन । मधुबिन्‍दु के मधुराभास में उसे अवकाश ही कहाँ है यह सब कुछ विचारने का ? “बस गुरूदेव, एक बिन्‍दु और, वह आ रहा है, उसे लेकर चलता हूँ अभी आपके साथ ।” बिंदु गिर चुका । “चलो भय्या चलो,” पुन: गुरू जी की शांति ध्वनि आकाश में गूंजी दिशाओं से टकराई और खाली ही गुरू जी के पास लौट आई । “बस एक बूंद और अभी चलता हूँ”, इस उत्‍तर के अतिरिक्‍त और कुछ न था पथिक के पास । तीसरी बार पुन: गुरूदेव का करूणापूर्ण हाथ बढ़ा । अब की बार वे चाहते थे कि इच्‍छा न होने पर उस पथिक को कौली भरकर वहाँ से उतार लें । परंतु पथिक को यह सब स्‍वीकार ही कब था ? यहाँ तो मिलता है मधुबिंदु और शांति मूर्ति इन गुरूदेव के पास है वह भूख व प्‍यास, गर्मी व सर्दी तथा अन्‍य अनेकों संकट । कौन मूर्ख जाये इनके साथ ? लात मारकर गुरूदेव का हाथ झटक दिया उसने और क्रुद्ध होकर बोला, “जाओ अपना काम करो, । मेरे आनंद में विघ्‍न मत डालो ।”  गुरूदेव चले गये, डाली कटी और मधुबिंदु की मस्‍ती को हृदय में लिये, अजगर के मुँह में जाकर अपनी जीवन लीला समाप्‍त कर दी उसने ।

     

                कथा कुछ रोचक लगी है आपको, पर जानते हो किसकी कहानी है ? आपकी और मेरी सबकी आत्‍म कथा है यह । आप हंसते हैं उस पथिक की मूर्खता पर, काश एक बार हँस लेते अपनी मूर्खता पर भी ।

          इस अपार व गहन संसार-सागर में जीवन के जर्जरित पोत को खेता हुआ मैं चला आ रहा हूँ । नित्‍य ही अनुभव में आनेवाले जीवन के थपेड़ों के कड़े अघातों को सहन करता हुआ, यह मेरा पोत कितनी बार टूटा और कितनी बार मिला, यह कौन जाने ?  जीवन के उतार चढ़ाव के भयंकर तूफान में चेतना को खोक‍र मैं बहता चला आ रहा हूँ, अनादि काल से ।

          माता के गर्भ से बाहर निकलकर आश्‍चर्य भरी दृष्‍टी से इस संपूर्ण वातावरण को देखकर खोया-खोया सा मैं रोने लगा क्‍योंकि मैं यह न जान सका कि मैं कौन हूँ ? मैं कहाँ हूँ ? कौन मुझे यहाँ लाया है, मैं कहाँ से आया हूँ,  क्‍या करने के लिए आया हूँ, और मेरे पास क्‍या है, जीवन निर्वाह के-लिए ? संभवत: माता के गर्भ से निकलकर बालक इसीलिए रोता है । ‘मानो मैं कोई अपूर्व व्‍यक्ति हूँ, ऐसा सोचकर मैं इस वातावरण में कोई सार देखने लगा । दिखाई दिया मृत्‍यु रूपी विकराल हाथी का भय । डरकर भागने लगा कि कहीं शरण मिले ।

     

          बचपन बीता, जवानी आई और भूल गया मैं सब कुछ । विवाह हो गया, सुंदर स्‍त्री घर में आ गई, धन कमाने और भोगने में जीवन घुलमिल गया, मानो यही है मेरी शरण, अर्थात् गृहस्थ-जीवन जिसमें है अनेक प्रकार के संकल्‍प विकल्‍प, आशायें व निराशायें । यही हैं वे शाखायें व उपशाखायें जिनसे समवेत यह गृहस्थजीवन है वह शरणभूत वृक्ष । आयुरूपी शाखा से संलग्‍न आशा की दो उपशाखाओं पर लटका हुआ मैं मधुबिंदु की भाँति इन भागों में से आने वाले क्षणिक स्‍वाद में खोकर भूल बैठा हूँ सब कुछ ।

     

          काल रूप विकराल हा‍थी अब भी जीवन तरू को समूल उखाड़नें में तत्‍पर बराबर इसे हिला रहा है । अत्‍यंत वेग से बीतते हुए दिनरात ठहरे सफेद और काले दो चूहै, जो बराबर आयु की इस शाखा को काट रहे हैं । नीचे मुँह बाये हुए चार अजगर हैं चार गतियें- नरक, तिर्यंच, मनुष्‍य व देव, जिनका ग्रास बनता, जिनमें परिभ्रम करता मैं सदा से चला आ रहा हूँ और अब भी निश्चित रूप से ग्रास बन जाने वाला हूँ, यदि गुरूदेव का उपदेश प्राप्‍त करके इस विलासिता का आश्रय न छोड़ा तो । मुधमक्षिकायें हैं स्‍त्री, पुत्र व कुटुम्‍ब जो नित्‍य चुंट-चुंट कर मुझे खाए जा रहे हैं तथा जिनके संताप से व्‍याकुल हो मैं कभी-कभी पुकार उठता हूँ ‘प्रभु ! मेरी रक्षा करें ।’ मधु बिंदु है वह क्षणिक इंद्रिय सुख, जिसमें मग्‍न हुआ मैं न बीतती हुई आयु को देखता हूँ, न मृत्‍यु से भय खाता हूँ, न कौटुम्बिक चिंताओं की परवाह करता हूँ और न चारों गतियों के परिभ्रमण को गिनता हूँ । कभी कभी लिया प्रभु का नाम है वह पुण्‍य,  जिसके कारण कि यह तुच्‍छ इंद्रिय सुख कदाचित्‍ प्राप्‍त हो जाता है ।

     

          यह मधुबिंदु रूपी इंद्रिय सुख भी वास्‍तव में सुख नहीं, सुखावास है । जिस प्रकार कि बालक के मुँह में दिया जाने वाला वह निपल, जिसमें से कुछ भी स्‍वाद बालक को वास्‍तव में नहीं आता,  क्‍योंकि रबर के बंद उस निपल में से किंचित्‍ मात्र भी मधु बाहर निकलकर उसके मुँह में नहीं आता । जिस प्रकार वह केवल मिठास की कल्‍पना मात्र करके सो जाता है उसी प्रकार इन इंद्रिय-सुखों में मिठास की कल्‍पना करके मेरा विवेक सो गया है, जिसके कारण गुरू देव की करूणा भरी पुकार मुझे स्‍पर्श नहीं करती तथा जिसके कारण उनके करूणा भरे हाथ की अवहैलना करते हुए भी मुझे लाज नहीं आती । गुरू के स्‍थान पर है यह गुरूवाणि, जो नित्‍य ही पुकार-पुकाकर मुझे सावधान करने का निष्‍फल प्रयास कर रही है ।

     

          यह है संसार-वृक्ष का मुँह बोलता चित्रण व मेरी आत्‍म गाथा । भो चेतन ! कब तक इस सागर के थपेड़े सहता रहेगा ? कब तक गतियों का ग्रास बनता रहेगा ? कब तक काल द्वारा भग्‍न होता रहेगा ? प्रभो ! ये इ्ंद्रिय सुख मधुबिंदु की भाँति निःसार है, सुख नहीं सुखाभास है, ‘एक बिन्दुसम’ ये तृष्‍णा को भड़काने वाले हैं, मेरे विवेक को नष्‍ट करने वाले हैं । इनके कारण ही तुझे हितकारी गुरूवाणि सुभाती नहीं । आ ! बहुत हो चुका, अनादि काल से इसी सुख के झूठे आभास में तूने आज तक अपना हित न किया । अब अवसर है, बहती गंगा में मुँह धोले । बिना प्रयास के ही गुरूदेव का यह पवित्र संसर्ग प्राप्‍त हो गया है । छोड़ दे अब इस शाखा को शरण ले इन गुरूओं की और देख अदृष्ट में तेरे लिए वह परम आनंद पड़ा है, जिसे पाकर तृप्‍त हो जायेगा तू,  सदा के लिए प्रभु बन जायेगा तू ।


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