जैन मंदिरों में दर्शन, पूजन में भगवान के समक्ष अर्घ्य स्वरूप अक्षत (चावल) पुंज चढ़ाने की परंपरा है। ये अक्षत भगवान की तरह अक्षय मोक्ष पद प्राप्त करने की भावना से अर्पित किए जाते हैं पर विडंबना यह है कि श्रद्धा भक्ति से अर्पित किए गए यह अक्षत सभी जैन मंदिरों में फर्श पर लगभग चारों तरफ यत्र-तत्र बिखरे पड़े रहते हैं और दर्शनार्थियों के पैरों से रौंदे जाते दिखाई पड़ते हैं। परम पूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज प्रायः अपने प्रवचन में इन बिखरे हुए चावलों पर पैर रखकर दर्शन, पूजन ना करने की हिदायत बार-बार देते हैं। हमने स्वयं उन्हें कभी भी बिखरे चावलों पर पैर रखकर मंदिर में जाते हुए नहीं देखा। जहां मंदिर में अंदर चावल बिखरे पड़े हों वहां वे प्राय: बाहर खड़े होकर ही भगवान के दर्शन कर लेते हैं लेकिन बारंबार उनके श्रीमुख से यह देशना सुनने के बावजूद अधिकांशत: हमारे आचरण से कभी भी, कहीं भी ऐसा प्रतीत नहीं होता कि उनकी इस हिदायत और अनुकरणीय आचरण से हम कोई शिक्षा ग्रहण करते हों।
अक्षत चढ़ाने वाला मोक्ष रूपी अक्षय पद प्राप्ति की भावना से ये अक्षत चढ़ाता है। इसमें से एक दाना भी अगर बाहर गिरता है, इसका मतलब है वह अपने अर्पण में सावधान नहीं है, प्रमादी है। उसकी भावना में गहराई और समग्रता नहीं है। यदि होती तो वह इतना सावधान होता कि एक दाना भी नीचे गिरने नहीं देता। इसका मतलब है कि उसके द्वारा अर्पित पूरे पुंज का जितना अंश द्रव्य बाहर गिरा है उतने ही अंश में अभी उसमें मोक्ष जाने की योग्यता का अभाव है, उसके लिए अभी मोक्ष बहुत दूर है।
पूजा करते हुए जो अष्ट द्रव्य के आठ अर्घ्य हम जन्म, जरा, मृत्यु, संसार ताप का विनाश कर, अक्षय पद की प्राप्ति, क्षुधा रोग, मोहान्धकार, अष्ट कर्म विनाश कर मोक्ष फल की प्राप्ति हेतु चढ़ाते हैं।
यदि हम समर्पण पात्र से बाहर बिना गिराए प्रत्येक अर्घ्य का पुंज पूरा थाली में चढ़ाते हैं तो समझो हमारे लिए सिद्ध शिला करीब है। यदि अर्पित द्रव्य, समर्पण पात्र के बाहर गिरता है तो समझो जिस भावना से हम चढ़ा रहे हैं उस भावना की पूर्ति में अभी देर है। इसलिए हमें दर्शन, पूजन करते समय अक्षत पुंज और प्रत्येक अर्घ्य बहुत ही सतर्कता और सावधानी से भावना पूर्वक, श्रद्धा पूर्वक इस तरह चढ़ाना चाहिए कि उसमें से कुछ भी समर्पण पात्र के बाहर ना गिरे। पूजा का समर्पण पात्र एक तरह से हवन कुंड है जिसमें अर्ध्य चढ़ाकर हम अपने सभी कर्मों को भस्म करते हैं। इस हवन कुंड से बाहर द्रव्य गिरने का अर्थ है अपने लिए कई भवों तक जन्म, मरण और जरा की श्रंखला को बचाए रखना।
अर्घ्य के द्रव्य के किसी भी अंश के बाहर गिरने के गंभीर परिणाम होते हैं। जो लोग श्री जी को समर्पित इन बिखरे हुए चावलों पर पैर रखकर भगवान के दर्शन, पूजन आदि क्रियाएं करते हैं, वे भगवान का अविनय करते हैं। इस तरह अपनी क्रियाओं से पुण्य बंध की अपेक्षा पाप बंध करते हैं। इसका दोष चावलों पर पैर रखने वाले को भी लगता है और चढ़ाने वाले को भी।
इन बिखरे चावलों की चुभन से जिन दर्शनार्थियों को शारीरिक कष्ट और मानसिक क्लेष होता है उसका पाप भी दर्शनार्थी और चढ़ाने वाले, दोनों के खाते में जाता है।
गिरे हुए द्रव्य को खाने के लिए चींटी और उससे भी सूक्ष्म आंखों से न दिखने वाले जीव तत्काल सक्रिय हो जाते हैं जो हमारे पैरों से कुचले जाकर मरण को प्राप्त होते हैं। हमारे प्रमाद से श्रीजी के समक्ष हुई इस हिंसा से हमें असीम पाप बंध होता है।
कई बार इन बिखरे हुए चावलों को चुगने के लिए चिड़ियाएं, कबूतर जैसे पक्षी मंदिर प्रांगण में उड़ते फिरते हैं, जो छत पर चलते हवा के पंखों से कट कर मर जाने/ घायल हो जाने की पूरी संभावना रहती है।
चढ़ाया हुआ द्रव्य हमारे लिए निर्माल्य हो जाता है। चढ़ाने के उपरांत वह मंदिर के मालिक की संपत्ति है। ऐसे निर्माल्य द्रव्य पर पैर रखकर चलने का मतलब है माली के स्वामित्व की संपत्ति को बिना उसकी अनुमति के कुचलना। यह भी एक अपराध है।
जैन समाज संभवत विश्व का सबसे सभ्य, साक्षर, सात्विक, जागृत और अग्रणी समाज है लेकिन हमारे भव्य मंदिरों में बिखरे ये चावल हमारी सभ्यता, प्रतिभा और व्यवस्था की पोल खोल देने के लिए पर्याप्त हैं। मुझे इस बात पर अतिशय आश्चर्य होता है कि बड़े-बड़े पंडित, इंजीनियरों से सुसज्जित जैन समाज आज तक इस समस्या का कोई स्थाई हल नहीं निकाल पाया। कई जगह जालीदार पेटियां सामग्री चढ़ाने के लिए रखी होती हैं लेकिन कई दर्शनार्थी पुंज चढ़ाने का ही आग्रह रखते हैं। वे प्रायः जालीदार पेटियों का उपयोग नहीं करते।
मुझे लगता है इस मामले में हमें पश्चिम से सीखने की जरूरत है। वे न केवल अपने पूजा घरों की अपितु अपने हर संस्थान कि स्वच्छता का पूरा प्रबंध रखते हैं।
हमें सीखना चाहिए उन पंजाबियों से जो चाहे गुरुद्वारे की स्वच्छता का मामला हो या गुरुद्वारा निर्माण का या उनके गुरुओं की जन्म जयंती पर अपने पूजा स्थल और जुलूस के लिए सड़क साफ करने का, वे वेतन भोगी नौकरों या मजदूरों से काम नहीं लेते, इन सभी कार्यों में स्वयं कार सेवा करके स्वयं को धन्य मानते हैं। और हम हैं कि अपने मंदिरों को इन बिखरे चावलों की समस्या से मुक्त करने के लिए कोई ठोस पहल आज तक नहीं कर पाए जबकि इसका उपाय बहुत सरल है। यदि दर्शन पूजन के अर्घ्य चढ़ाते हुए द्रव्य समर्पण पात्र बाहर गिरता है तो हमें इस त्रुटि का प्रायश्चित लेना चाहिये जो निम्न में से कोई एक या अधिक उपाय अपना लेने से हो सकता है-
१)जालीदार पेटियां रखने की बजाय जालीदार पटल (टेबल) ही निर्माण कराए जाएं और सब लोग उन्हीं में अ
२)अर्घ्य पटल (टेबल) पर बड़े-बड़े थाल रख दिए जाएं और उन्हें खाली करने के लिए वेदी के पास ही कहीं एक-एक बड़ा भगोना/ तसला रख दिया जाए, जिसमें समय-समय पर स्वयं दर्शनार्थी ही थालों को खाली करते रहें।
३)वेदी के पास ही किसी नियत स्थान पर एक कोमल झाड़ू रख दी जाए जिससे समाज जन समय-समय पर झाड़ू लगाकर बिखरे चावलों को एक तरफ़ करते रहें।
४)सभी समाज जन मंदिर आते समय अपने साथ कोमल वस्त्र का एक टुकड़ा लेकर आएं और दर्शन, पूजन करने से पूर्व अपने खड़े होने, बैठने के स्थान से चावलों को बुहार कर बैठें/खड़े हों।
५) हाथ में चिपके गीले चावलों चावलों को जमीन पर न गिराएं।
ये सभी उपाय एक साथ या इनमें से कोई एक या दो उपाय अपना लेने से भी हमारे सभी मंदिर बिखरे चावलों की समस्या से मुक्त होकर सुंदर,व्यवस्थित, अधिक गरिमामय हो सकते हैं। मुझे उम्मीद है कि श्री जी के विनय के प्रति गंभीर और हिंसा के निवारण हेतु प्रतिबद्ध सुधि श्रावकों तक यह बात अवश्य पहुंचेगी और वे इस दिशा में आचार्यश्री की देशना के क्रियान्वयन हेतु समुचित पहल करेंगे।