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Bimla jain

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  1. जीव और अजीव की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्था को भाव कहते हैं। भाव ५ होते हैं १. ओपशमिक भाव कर्म के उपशम से होने वाले भावों को औप़शमिक भाव कहते हैं।यह भाव केवल मोहनीश कर्म में ही पाया जाता हैं। अर्थात हम अपनी कषायों का कुछ समय के लिए दबाने पर हमारे भावों की जो शुभ स्थिति उत्पन्नहोती है उसेऔपशमिक भाव कहते हैं। जैसे गन्दे जल को एक ग्लास में कुछ समय के लिए रख दिया जाए तो गंदगी नीचे बैठ जातीहैऔर ऊपरपानी साफ़ दिखता है लेकिन यदि उसे हिला दिया जाए तो पानी पुन:गंदा हो जाता है। इसी प्रकार हम अपनीकषायों को थोड़े समय के दबा लें तो उतने समय में हमारे भाव शुभ हो जातेहैं।इसी स्थिति में उत्पन्न शुभ भावों को औपशमिक भाव कहते हैं। लेकिन भावों का शमन अधिकतम एक मुहुर्त (४८मिनट) तक ही किया जा सकता है इसके पश्चात पूर्व स्थिति में आना ही पड़ता है। २ क्षायिक भाव कर्म के सम्पूर्ण रूप से क्षय होने से उत्पन्न होने वाले भाव क्षायिक भाव कहलाते हैं। यह भाव आठों कर्मों में पाया जाता है।जैसे ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से केवलज्ञान,दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से केवल दर्शन, मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व,तथा अन्तराय कर्म के क्षय से क्षायिक दान,लाभ,भोग,उपभोग वीर्य आदि क्षायिक का अर्थ स्थायी नाश।उदाहरण गन्दे जल से भरे हुए गिलास को कुछ समय तक रखने के पश्चात गंदगी नीचे बैठ जाने पर ऊपर के साफ़ जल को किसी दूसरे ग्लास में अलग कर लेना। अब यह दूसरे ग्लास का साफ़ जल कितना भी हिलाने पर कभीपुन: गंदा नहीं होगा।इसी प्रकार कर्मों के क्षय होने से उत्पन्न शुभ भाव फिर कभी दूषित नहीं होते।इसे ही क्षायिक भाव कहतेहें।स्थायी हैं। क्षायोपशमिक भाव उदय में आये हुएकर्मों का क्षय तथा जो कर्म बँधे तो हैं,लेकिन अभी उदय में नहीं हें,भविष्य में उदय में आयेंगें,उनका शमन करने के परिणाम स्वरूप जो भाव उत्पन्न होते हैं,उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं।केवल ४ घातिया कर्मों में ही क्षायोपशमिक होते हैं।अघातिया कर्म क्षायोपशमिक नहीं होते।आपने कहते सुना होगा कि हमारे क्षयोपशम कम है यानि हम हमने विभिन्न पुरुषार्थों से ज्ञान की वृध्दि कर लेते हैं,अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से साता कर्म की वृध्दि करते हैं,आदि आदि। इसमें ४घातिया कर्मों ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय कर्मों का तप आदि के बल से आंशिक रूप से कुछ कर्मों का(जो उदय में रहते हैं) उनका तो स्थायी नाश कर दिया जाता है एवं जो कर्म उदय में आने वाले हैं,उन्हें कुछ समय के लिए तपस्या के बल से कुछ समय के लिए उदय में आने से रोक देते हैं। इस स्थिति में उत्पन्न शुभ भावों को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं।उदाहरण गंदे जल से भरे ग्लास को कुछ समय रखने के अधिकतर गंदगी तो नीचे बैठ जातीहै लेकिन बहुत सूक्ष्म गंदगी ऊपरके जल में फिर भी तैरती रहती है जिसके कारण पानी का रंग हल्का हल्का मटमैला सा रहता है। अब इस ऊपर कम गंदगी वाले जल को अलग बर्तन में निकाल लें। इस जल को हिलाने से भी अब बड़ी गंदगी जल में नहीं आयेगी अपितु सूक्ष्म प्रकार की गंदगी अवश्य दिखेगी,।बस यही स्थिति क्षायोपशमिक भावों की होतीहैं। अर्थात क्षायोपशमिक भावों में स्थ्ति जीव अधिकांश रूप में शुभ भावों में स्थिर रहताहै ओदायिक भाव कर्मों के उदय से होने वाले भावों को औदायिक भाव कहते हैं।यह आठों कर्मों में पाये जाते हैं।जब जिस कर्म का उदय होता है,उसी के अनुरूप उत्पन्न भावों को औदायिक भाव कहते हैं। यह सामान्य भाव है, जैसे ४ गति,४कषाय ६ लेश्या,३ वेद(स्त्री,पुरुष,नपुंसक),मिथ्यात्व,अज्ञान,असंयम और असिध्दत्व यह सब अशुभ भावहैं जो कर्मों के उदय मैं होते हैं। पारिणामिक भाव इस संबंध में विस्तार से पूर्व में बताया जा चुका है।
  2. पृथ्वी जीव पृथ्वी कायिक नाम कर्म के उदय वाला जब तक विग्रहगति में रहता है तब तक वह पृथ्वीजीव कहलाता है। पृथ्वीकाय जिस शरीर में पृथ्वीकायिक जीव जन्म लेता है उसे पृथ्वीकाय कहते हैं।निर्जीव ईंट पत्थर आदि पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय में जन्मलेने वालाजीव पृथ्वीकायिक जीव कहलाता हैअर्थात पृथ्वी है शरीरजिसका उसे पृथ्वी कायिक जीव कहते हैं। उदाहरण जब तक सोना चाँदी तांबा कोयला मार्बल आदि खनिज पदार्थ खान में रहते हैं,उनमें वृध्दि होती रहती है तब तक वह पृथ्वी कायिक जीव कहलाताहै लेकिन जब उसे खान से बाहरनिकाल लिया जाता है तो उसमें वृध्दि रुक जाती है क्यों कि खान से बाहर निकलने पर पृथ्वीकायिकजीव का मरण हो जाता है और वहाँ केवल पृथ्वी काय (शरीर) शेष रह जाता है। इसी प्रकार जब तक जल अपने स्वाभाविक रूप(सामान्य) रूप में रहता है तब तक उसमें जलकायिक जीव रहता है लेकिनजैसे ही जल को गर्म करते हैं तो गर्म करनेसे जलकायिक जीव का मरण हो जाता है और वहाँ केवल जलकाय शेष रह जाता है। पृथ्वी मार्ग की उपमर्दित धूल को पृथ्वी कहते हैं।अपनी मूल स्थिति में(without disturbed) में भूमि को पृथ्वी कहतेहैं।खुदाई करने के बाद तो बह पृथ्वी काय रह जाता है जिसमें पृथ्वी कासिक जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। पृथ्वी और पृथ्वीकाय दोनों अचित्त है तथापिपृथ्वी में जीव पुन:उत्पन्न होसकता है लेकिन पृथ्वीकाय मेंनहीं। इसी प्रकार जलकायिक,अग्नि कायिक वायू कायिक आदिमें लगालेना चाहिए।
  3. अस्तित्व जिसका लोक में हमेशा अस्तित्व रहता है जिसको किसी के द्वारा न तो उत्पन्न किया जासकता है एवं न ही किसीके द्वारा नाश किया जा सकता है। नित्यत्व जो नित्य है अर्थात नाशवान नहीं है। प्रदेशत्व जिसके निश्चित प्रदेश है उन्हें न कम किया जा सकता एवं न ज्यादा।जिस शक्तियों के कारण द्र्व्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है। पर्याय एक द्रव्य के विभिन्न अवस्थाओं,रूपों आदि को उस द्रव्य की पर्याय कहते हैं
  4. असाधारण पारिणामिक भाव पारिणामिक भाव उन्हें कहते हैं जो स्वभाव रूप में जीव और अजीव दोनों द्रव्यों में पाये जाते हैं। वह स्वभाव जोअचलित हो तथा जिससे कोई द्रव्य कभी भी चलित न हो ,च्युत न हो उसे ही पारिणामिक भाव कहते हैं। उदाहरण के तौर पर जीव द्रव्य कभी अजीव द्रव्य नहीं हो सकता तथा अजीव द्रव्य कभी जीव द्रव्य नहीं हो सकता।पारिणामिक भाव दो प्रकार के होते हैं। १. असाधारण पारिणामिक भाव जीव के वो भाव जो केवल जीव द्रव्य में ही पाये जाते हैं,अन्य शेष पाँच द्रव्यों में नहीं पायेजाते हैं।जैसे जीवत्व,भव्यत्व और अभव्यत्व ।ये जीव के असाधारण पारिणामिक भाव हैं। साधारण पारिणामिक भाव एसे पारिणामिक भाव जो जीव व अजीव दोनों में पाये जाए,उन्हें साधारण पारिणामिकभाव कहतें हैं।जैसे अस्तित्व,नित्यत्व ,प्रदेशतत्व,पर्यायत्व ,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेयत्व ,अगुरूलघुत्व आदि आदि
  5. मोहनीय कर्म की कुल २८ प्रकृतियाँ होती हैं जिसमें से तीन दर्शन मोहनीय की(मिथ्यात्व,सम्यक् मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृति) एवं ४ चारित्र मोहनीय(अनन्तानुबंधी क्रोध, मान ,माया और लोभ) इन ७ प्रकृतियाँ के उपशम,क्षायोपशम अथवा क्षय से क्रमश: औपशमिक,क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति होती है। शेष २१ प्रकृतियाँ निम्न हैं प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध,मान,माया,लोभ ४ प्रकृतियाँ अप्रत्याख्यावरणीय क्रोध मान माया लोभ ४ प्रकृतियाँ संज्वलन क्रोध मान माया लोभ ४ प्रकृतियाँ नोकषाय हास्य, रति,अरति जुगुत्सा ,शोक भय स्त्री वेद,पुरुष वेद और नपुंसक वेद ९ प्रकार इस प्रकार कुल शेष २१ प्रकृतियाँ हैं।
  6. हाँ आप का समझना सही है।रूपी को मूर्तिक एवं अमूर्तिक को अरूपी कहा जा सकता है।इनको एक दूसरे का पर्यायवाची माना जा सकता है।
  7. Supposeआप नाव में सफ़र कर रहें एवं नाव में छेद हो जाए एवं छेद से पानी नाव में प्रवेश करने लगे।इस क्रिया को आस्रव कहते हें। अब पानी नाव में भर जाए।इस क्रिया को बंध कहते हैं। अब यदि नाव के छेद को किसी तरह बंद कर दिया जाए तो पानी का प्रवेश रुक जाएगा।इस क्रिया को सँवर कहते हें। नाव में भरे हुए पानी को किसी तरह बाहर निकाल कर नाव को पानी से ख़ाली कर देना निर्जरा कहलाता है। उपरोक्त कथन में नाव कीजगह आत्मा और पानी की जगह कर्म को substitute करें तो आप को स्पष्ट समझ में आ जाएगा। आत्मा में कर्मों के आने को आस्रव,आकर आत्मा से चिपक कर रुक जाने को बंध तथा कर्मों के आने की प्रक्रिया का रोक देना सँवर कहलाता है।आत्मा में चिपके हुए कर्मों को आत्मा से अलग करदेना निर्जरा कहलाता है।
  8. निक्षेप किसी भी पदार्थ अथवा वस्तु को लोक व्यवहार से पहचान हेतु निम्नप्रकार पहचान/नाम दिये जाने को निक्षेप कहते हें। नाम निक्षेप लोक व्यवहार हेतु किसी का नाम एसा नाम रख देना जिसके गुणों सेउसका दूर दूर तक कोई नाता नहीं हो ,जैसे इन्द्र,गणेश महादेव स्थापना निक्षेप जैसे किसी मूर्ति में भगवान की स्थापना कर उन्हें भगवान महावीर कहना,शतरंज की गोटियों में हाथी ,घोडे ऊँट,राजा,रानी इत्यादि मानना जब कि उनकी बनावट वैसी नहीं होती द्रव्य निक्षेप किसी राजा के पुत्र को भविष्य का राजा मान कर राजा कहना इत्यादि भाव निक्षेप जो वर्तमान में जो है,उसे वैसा ही कहना जैसे देवों के राजा कोइन्द्र कहना,राजा कोराजा कहना, पुजारी को पुजारी कहना इत्यादि
  9. जिन पदार्थों में स्पर्श,रस,गंध वर्ण इत्यादि गुण पाये जाते हें,उन्हें मूर्तिक पदार्थ कहते हैं।सभी पुदगल पदार्थ मूर्तिक होते हैं। उक्त के विपरीत जिन पदार्थों में स्पर्श,रस,गंध वर्ण इत्यादि गुण नहींपाये जातेहैं,उन्हें अमूर्तिक पदार्थ कहते हैं। जैसे जीव द्रव्य(आत्मा), आकाश द्रव्य,धर्म द्रव्य,अधर्म द्रव्य और काल द्रव्य इत्यादि
  10. जिन पदार्थों में स्पर्श,रस,गंध और वर्ण इत्यादि गुण पाये जाते हैं,उन्हें रूपी पदार्थ कहते हैं। जितने भी पुदगल द्रव्य हैं,वह सभी रूपी पदार्थों की श्रेणी में आते हें। एवं अवधि ज्ञान केवल इन्हीं को जानता है।आत्मा के गुणों को जैसे किसी का गुणस्थान,परिणामों की विशुध्दता इत्यादिको अरूपी पदार्थ कहते हें जिनको केवल केवल ज्ञान के द्वारा ही जाना जा सकता है।
  11. यहाँ पर जीव से तात्पर्य आत्मा से है।और आत्मा को स्वभाव से शुद्ध कहा गया है।लेकिन यह आत्मा हमेशा से शुध्द अवस्था में नहीं होती अपितु इसे शुध्द करने के लिए मोक्ष पुरुषार्थ करने कीआवश्यकता होती है। जैसे स्वर्ण कभी शुध्दरूप सेउपलब्ध नहीं होता है अपितु वह खान में अशुध्दियों के साथ ore रूप में उपलब्ध रहता है जिसे स्वर्ण शुधद करने के पुरुषार्थ के पश्चात ही शुध्दरूप में प्राप्त किया जा सकता है।यदि यहआत्मा हमेशा शुध्द रूप में ही रहती तो मोक्ष में ही रहती एवं फिर मोक्ष पुरुषार्थ का कोई औचित्य ही नहीं रहता जब कि वास्तविकता में एसा नहीं है। वास्तविकता में आत्मा अनादिकाल से अशुध्द है।अशुध्दियों से मेरा तात्पर्य कर्म रूपी अशुध्दियां हैं और यह कर्म अजीव हैं।एवं आत्मा अनादिकाल से इन कर्मों से बंधी है,एवं कर्मों सेबंधे होने के कारण ही यह आत्मा संसार में है।जिस दिन यह आत्मा कर्मों से मुक्त हो जाएगी,वह मोक्ष में स्थित होजाएगी। उक्त से स्पष्ट है कि आत्मा केवल कर्मों से बंध के कारण ही संसार में है।अत:स्पष्ट है कि कर्म जो कि अजीव हैं, के कारण ही आत्मा संसार में है।अत: यह भी स्पष्ट है कि कर्म है तो आत्मा संसार में है अन्यथा नहीं। अत:यह भी स्पष्ट है कि अजीव है तो संसार है ।और जीव(आत्मा) का अजीव (कर्मों ) से बँधने के कारण ही संसार है।इसी कर्मों से बंधी आत्मा को कर्मों से मुक्त करने के लिए ही मोक्ष पुरुषार्थ की आवश्यकता को तत्वार्थ सूत्र ग्रन्थ में उद्घाटित कियागयाहै।
  12. मति ज्ञान। हमें मन और इन्द्रियों की सहायता से जो ज्ञान होता है,उसे मतिज्ञान कहते हैं। श्रुत ज्ञान मन और इन्द्रियों के द्वारा जानी हुई वस्तु को औरअधिक विशेष रूप से जानना श्रुत ज्ञान कहते हैं। उपशम अशुभ भावों को/परिणामों को कुछ समय तक दबा कर शुभ भावों में परिणमन करना उपशम कहलाता है।लेकिन इसका अधिकतम समय अन्तर्मुहुर्त (४८ मिनट) होता है इसके पश्चात पुन: शुध्द से शुभ और शुभ से अशुभ में आना ही पडताहै। क्षयोपशम जब अधिकतम अशुभ परिणामों का पूणर्तया क्षय हो जाता है एवं छुटपुट अवशेष अशुभ परिणामों को दबाकर शुभ भावों में परिणमन करने की स्थिति को क्षयोपशम कहते हैं।इसका अधिकतम समय ६६ सागर होताहै यदि उक्त में आगमानुसार कोई त्रुटि हो तो कृपया त्रुटियों का निवारण करें ताकि में अपने के correct कर सकूँ। जयजिनेंद्र
  13. सम्यक् दर्शन के अभाव में कितना भी ज्ञान हो,वह मिथ्याज्ञान ही होता है।लेकिन सम्यक् दर्शन होते ही वह ज्ञान सम्यक् ज्ञान हो जाता है।अत:सम्यक् दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान की उत्पत्ति कभी संभव नहीं।
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