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जय जिनेन्द्र
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जीव से तात्पर्य आत्मा होता है,और आत्मा को स्वाभाविक रूप में शुद्ध कहा है।लेकिन यदि आत्मा हमेशा शुध्द ही है तो फिर मोक्ष पुरुषार्थ का कोई औचित्य ही नहीं रहेगा।क्यों कि शुध्द आत्मा तो स्वंय मोक्ष रूप है।
यही आत्मा अनादिकाल से अशुध्द है।अशुध्द आत्मा का मतलब यह अनादिकाल से कर्मों से बंधी है एवंकर्मों से बँधे होनेके कारण संसार में है।कर्म अजीव हैं।अत: जब तक आत्मा कर्मों से (अजीव) से बंधी है ,तब तक संसार में रहेगी एवं जब तक संसार में रहेगी,तब तक संसार रहेगा। अत:स्पष्ट है कि जीव अजीव के बँधा होने से हीसंसार है। यहअजीव ही संसार का कारण है।इसीआत्मा को अजीव से मुक्त/शुध्द करने हेतु मोक्ष पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है।
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