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Rajendra K. Daftary

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  1. जुआ खेलना, मांस खाना, मदिरा पीना, वेश्यासेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना ये सातों व्यसन महापाप को उत्पन्न करने वाले हैं ।
  2. भद्रबाहु स्वामी चंद्रगिरि पर्वत (प्राचीन नाम : कटवप्र) पर एक छोटी सी गुफा को अपनी साधना की स्थली बनाकर आत्म साधना में मग्न हो गए। साधना करते-करते उस गुफा में उनका समाधिमरण हुआ।
  3. इष्टोपदेश में कुल ५१ श्लोक है।
  4. ४९ पटल होते हैं। प्रथम नरक में १३, द्वितीय नरक में ११, तीसरे नरक में ९, चौथे नरक में ७, पांचवें नरक में ५, छठे नरक में ३ और सातवें नरक में १ इस तरह कुल ४९ पटल होते हैं।
  5. गुणस्थान चौदह होते हैं जो निम्न हैं— ०१) मिथ्यादृष्टि, ०२) सासादन सम्यग्दृष्टि, ०३) सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्र, ०४) असंयत या अविरत सम्यग्दृष्टि, ०५) संयतासंयत या देशविरत, ०६) प्रमत्तसंयत या प्रमत्तविरत, ०७) अप्रमतसंयत, ०८) अपूर्वकरण या अपूर्वकरण-प्रविष्टशुद्धिसंयत, ०९) अनिवृत्तिकरण या अनिवृत्तिकरणबादरसांपराय-प्रविष्टशुद्धिसंयत, १०) सूक्ष्मसांपराय या सूक्ष्म सांपराय प्रविष्ट शुद्धि संयत, ११) उपशांतकषाय या उपशांतकषाय वीतराग छद्मस्थ, १२) क्षीणकषाय या क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, १३) सयोगकेवली और १४) अयोगकेवली नरक गति में १ से ४ गुणस्थान, तिर्यञ्चगति में १ से ५ गुणस्थान, देवगति में १ से ४ गुणस्थान, एवं मनुष्य गति में १ से १४ गुणस्थान । मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में नारकी होते हैं।मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पाँच गुणस्थानों में तिर्यंच होते हैं।मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि इन चार गुणस्थानों में देव पाये जाते हैं। मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि या मिश्र, असंयत या अविरत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत या देशविरत, प्रमत्तसंयत या प्रमत्तविरत, अप्रमतसंयत, अपूर्वकरण या अपूर्वकरण-प्रविष्टशुद्धिसंयत, अनिवृत्तिकरण या अनिवृत्तिकरणबादरसांपराय-प्रविष्टशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपराय या सूक्ष्म सांपराय प्रविष्ट शुद्धि संयत, उपशांतकषाय या उपशांतकषाय वीतराग छद्मस्थ, क्षीणकषाय या क्षीणकषाय वीतराग छद्मस्थ, सयोगकेवली और अयोगकेवली इन चौदह गुणस्थानों में मनुज पाये जाते हैं।
  6. . अष्ट मूलगुण- १. मद्य, २. मांस, ३. मधु, ४. बड़, ५. पीपल, ६. पाकर, ७. कठूमर, ८. गूलर। इन आठों का त्याग अष्ट मूलगुण है। द्वितीय प्रकार से अष्ट मूलगुण- १. मद्य त्याग, २. मांस त्याग, ३. मधु त्याग, ४. रात्रि भोजन त्याग, ५. पाँच उदुम्बर फलों का त्याग, ६. जीव दया का पालन करना, ७. जल छानकर पीना ८. पंच परमेष्ठी को नमस्कार करना। ये आठ मूलगुण हैं। जो गुणों में मूल हैं उन्हें मूलगुण कहते हैं, जैसे-मूल (जड़) के बिना वृक्ष नहीं हो सकता है, वैसे ही इन आठ मूलगुणों के बिना श्रावक नहीं कहला सकता है। .
  7. (०१) ऐरावत हाथी (०२) शुभ्र बैल (०३) सिंह (०४) लक्ष्मी देवी (०५) दो फूूलमाता (०६) उदित होता हुआ सूर्य (०७) तारावलि से वेष्ठित पूर्ण चन्द्रमा (०८) जल में तैरती हुई मछलियों का युग्म (०९) कमल से ढके दो पूर्ण स्वर्ण कलश (१०) सरोवर (११) समुद्र (१२) सिंहासन (१३) देवविमान (१४) धरणेन्द्र विमान (१५) रत्नों की राशि और (१६) निर्धूम अग्नि ये सोलह स्वप्न हैं।
  8. कर्मो का आस्रव 108 द्वारों से होता है, उसको रोकने हेतु 108 बार णमोकार मन्त्र जपते हैं।
  9. अरिहंत - ४६ मूलगुण सिद्ध - ८ मूलगुण आचार्य - ३६ मूलगुण उपाध्याय - २५ मूलगुण साधु - २८ मूलगुण ~ राजेन्द्र कनैयालाल दफतरी, कोलकाता
  10. यह पर्वत एक लाख चालीस योजन ऊँचा है। इसकी नींव पृथ्वी के अन्दर १ हजार योजन की है अतः ऊपर में यह ९९००० योजन ऊँचा है इसकी चूलिका ४० योजन प्रमाण है। पृथ्वी के ऊपर इसका विस्तार १०००० योजन है। आगे घटते-घटते चूलिका के अग्रभाग में इसका विस्तार ४ योजन मात्र रह गया है। पृथ्वी पर जहां पर इसका विस्तार १०००० योजन है । भद्रशाल वन में चारों ही दिशाओं में चार जिनमन्दिर हैं। नंदनवन में चारों ही दिशाओं में एवं पांडुकवन की चारों ही दिशाओं में चार जिनमन्दिर होने से कुल १६ जिनमन्दिर हो जाते हैं। भद्रसाल के जिनमन्दिर का विस्तार २०० कोश, लम्बाई ४०० कोश और ऊँचाई ३०० कोश प्रमाण है। यही प्रमाण नंदनवन के चारों चैत्यालयों का है। सौमनवन के मन्दिरों का प्रमाण इनसे आधा है अर्थात् विस्तार १०० कोश, लम्बाई २०० कोश और ऊंचाई १५० कोश है। पांडुकवन के जिनमन्दिर इससे भी अर्धप्रमाण वाले हैं अर्थात् विस्तार ५० कोश, लम्बाई १०० कोश और ऊंचाई ७५ कोश प्रमाण है। पांडुकवन के जिनमन्दिर के प्रमुख द्वार की ऊंचाई १६ कोश, विस्तार ८ कोश है। मन्दिर के दक्षिण-उत्तर के द्वारों का प्रमाण इससे आधा होता है। ये तीनों ही द्वार दिव्य तोरण स्तम्भों से संयुक्त हैं। ये जिनमन्दिर कुन्दपुष्प सदृश धवल मणियों से निर्मित हैं। इनके दरवाजे कर्वेâतन आदि मणियों से निर्मित वङ्कामयी हैं। जिनमंदिर के मध्य में स्फटिक मणिमय १०८ उन्नत सिंहासन हैं। उन सिंहासनों पर ५०० धनुष१ प्रमाण ऊंची १०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं जो कि अनादि अनिधन हैं, अकृत्रिम हैं, इन जिनप्रतिमाओं मेें से प्रत्येक जिनप्रतिमा के आजू-बाजू में श्रीदेवी, श्रुतदेवी तथा सर्वाण्हयक्ष व सनत्कुमार यक्षों की मूर्तियां रहती हैं। प्रत्येक जिनप्रतिमा के निकट भृंगार, कलश, दर्पण, चंवर, ध्वजा, बीजना, छत्र और सुप्रतिष्ठ ये ८ मंगलद्रव्य प्रत्येक १०८-१०८ होते हैं। इन जिनमंदिरों में सुवर्ण, मोती आदि की मालाएं लटकती रहती हैं। धूपघट, मंगलघट आदि के प्रमाण अलग-अलग बताये हुए हैं। इन अकृत्रिम जिनमंदिरों का विस्तृत वर्णन त्रिलोकसार, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रन्थों से समझना चाहिए।
  11. एकत्व भावना। ~ राजेन्द्र कनैयालाल दफतरी, कोलकाता
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