विचार−जगत् का अनेकान्तदर्शन ही नैतिक जगत् में आकर अहिंसा के व्यापक सिद्धान्त का रूप धारण कर लेता है। इसीलिए जहां अन्य दर्शनों में परमतखण्डन पर बड़ा बल दिया गया है, वहां जैनदर्शन का मुख्य ध्येय अनेकान्त−सिद्धान्त के आधार पर वस्तुस्थिति मूलक विभिन्न मतों का समन्वय रहा है। वर्तमान जगत की विचारधारा की दृष्टि से भी जैनदर्शन के व्यापक अहिंसामूलक सिद्धान्त का अत्यन्त महत्व है। आजकल के जगत की सबसे बड़ी आवश्यकता यह है कि अपने−अपने परम्परागत वैशिष्टय को रखते हुए भी विभिन्न मनुष्य जातियां एक−दूसरे के समीप आयें और उनमें एक व्यापक मानवता की दृष्टि का विकास हो। अनेकान्तसिद्धान्तमूलक समन्वय की दृष्टि से ही यह हो सकता है।
इसमें सन्देह नहीं कि न केवल भारतीय दर्शन के विकास का अनुगमन करने के लिए, अपितु भारतीय संस्कृति के उत्तरोत्तर विकास को समझने के लिए भी जैनदर्शन का अत्यन्त महत्व है। भारतीय विचारधारा में अहिंसावाद के रूप में अथवा परमतसहिष्णुता के रूप में अथवा समन्वयात्मक भावना के रूप में जैनदर्शन और जैन विचारधारा की जो देन है उसको समझे बिना वास्तव में भारतीय संस्कृति के विकास को नहीं समझा जा सकता।
प्राचीन समय से ही भारत देश अपनी अर्वाचीन संस्कृति के लिए पहचाना जाता है। विभिन्न संस्कृति और धर्म वाले देश में जैन धर्म कितना प्राचीन है, यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है। यद्यपि जैन धर्म के तीर्थंकर भगवान महावीर को जैन धर्म का संस्थापक कहा जाता है जबकि इनसे पूर्व भी इस धर्म के 23 तीर्थंकर हुए और महावीर स्वामी अन्तिम व 24वें तीर्थंकर थे। महावीर स्वामी ने कभी नहीं कहा कि वे जैन धर्म के संस्थापक हैं, परन्तु जैन अनुयायियों ने उनसे ही जैन धर्म का उदय माना। यह सत्य है कि जहां इस धर्म के पहले 23 तीर्थंकरों ने उन्हीं शिक्षाओं व सि़द्धांतों का प्रचार−प्रसार किया जिन्हें महावीर स्वामी ने आलोकित और संस्थापित किया।