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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. वेबसाईट पर लॉगिन कर उत्तर दे पाएंगे : login or Register एक ही बार उत्तर दें : अपना फोन नंबर उत्तर के साथ कभी न लिखें xxxx ( नहीं लिखें ) अपना फोन नंबर, स्थान इत्यादि अपनी प्रोफाइल पर अपडेट करें आपके उत्तर किसी को भी नहीं दिखेंगे : सबके उत्तर Hide रहेंगे अपने परिवार के सभी सदस्यों को भाग दिलाएँ : iसभी को उत्तर याद हो जाएँ आपका स्वाध्याय ही आपका उपहार हैं Follow Whatsapp Channel https://whatsapp.com/channel/0029Va9SzGj8vd1I3uECQR2R
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  4. वर्तमान शासन नायक भगवान महावीर स्वामी जी के 2550 वें निर्वाण महामहोत्सव (दीपावली) एवम जैन नववर्ष की आप सभी को हार्दिक बधाई एवम शुभकामनाएं🙏🏻
  5. श्री गौतम गणधर (गणपति) जय जय इन्द्रभूति गौतम गणधर स्वामी मुनिवर जय जय । तीर्थंकर श्री महावीर के प्रथम मुख्य गणधर जय जय ॥ द्वादशाङ्ग श्रुत पूर्ण ज्ञानधारी गौतम स्वामी जय जय । वीर प्रभु की दिव्यध्वनि जिनवाणी को सुन हुए अभय ॥ ऋद्धि सिद्धि मङ्गल के दाता मोक्ष प्रदाता गणधर देव । मङ्गलमय शिव पथ पर चलकर मैं श्री सिद्ध बनूँ स्वयमेव ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिन् अत्र मम् सन्निहितो भव भव वषट् । मैं मिथ्यात्व नष्ट करने को निर्मल जल की धार करूँ । सम्यक्दर्शन पाऊँ जन्म-मरण क्षय कर भव रोग हरूँ ॥ गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलम्. नि.स्वाहा । पञ्च पाप अविरति को त्यागूँ शीतल चन्दन चरण धरूँ। भवआताप नाश करके प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥ गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने संसारतापविनाशनाय चन्दनं. नि. स्वाहा । पञ्च प्रमाद नष्ट करने को उज्जवल अक्षत भेंट करूँ। अक्षय पद की प्राप्ति हेतु प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥ गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन। देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतम् नि. स्वाहा । चार कषाय अभाव हेतु मैं पुष्प मनोरम भेंट करूँ । कामवाण विध्वंस करूँ प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥ गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन। देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने कामवाणविध्वंसनाय पुष्पम् नि. स्वाहा। मन वच काया योग सर्व हरने को प्रभु नैवेद्य धरूँ । क्षुधा व्याधि का नाम मिटाऊँ मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥ गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् नि. स्वाहा । सम्यक्ज्ञान प्राप्त करने को अन्तर दीप प्रकाश करूँ । चिर अज्ञान तिमिर को नाशँ मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥ गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने मोहान्धकारविनाशनाय दीपम् नि. स्वाहा । मैं सम्यक्चारित्र ग्रहण कर अन्तर तप की धूप वरूँ । अष्ट कर्म विध्वंस करूँ प्रभु मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥ गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अष्टकर्मविनाशनाय धूपम् नि. स्वाहा। रत्नत्रय का परम मोक्ष फल पाने को फल भेंट करूँ। शुद्ध स्वपद निर्वाण प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरूँ ॥ गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने मोक्षफलप्राप्तये फलम् नि. स्वाहा । जल फलादि वसु द्रव्य अर्घ्य चरणों में सविनय भेंट करूँ। पद अनर्घ्य सिद्धत्व प्राप्त कर मैं अनादि भव रोग हरु ।। गौतम गणधर स्वामी के चरणों की मैं करता पूजन । देव आपके द्वारा भाषित जिनवाणी को करूँ नमन ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा । श्रावण कृष्ण एकम के दिन समवशरण में तुम आए । मानस्तम्भ देखते ही तो मान मोह अघ गल पाए ॥ महावीर के दर्शन करते ही मिथ्यात्व हुआ चकचूर । रत्नत्रय पाते ही दिव्यध्वनि का लाभ लिया भरपूर ॥ ॐ ह्रीं श्री दिव्यध्वनिप्राप्ताय गौतमगणधरस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा । कार्तिक कृष्ण अमावस्या को कर्म घातिया करके क्षय । सायंकाल समय में पाई केवलज्ञान लक्ष्मी जय ॥ ज्ञानावरण दर्शनावरणी मोहनीय का करके अंत। अंतराय का सर्वनाश कर तुमने पाया पद भगवंत ॥ ॐ ह्रीं श्री केवलज्ञानप्राप्ताय गौतमगणधरस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा। विचरण करके दुखी जगत के जीवों का कल्याण किया। अन्तिम शुक्ल ध्यान के द्वारा योगों का अवसान किया ॥ देव बानवे वर्ष अवस्था में तुमने निर्वाण लिया। क्षेत्र गुणावा करके पावन सिद्ध स्वरूप महान लिया ॥ ॐ ह्रीं श्री मोक्षपदप्राप्ताय गौतमगणधरस्वामिने अर्घ्यं नि. स्वाहा। जयमाला मगध देश के गौतमपुर वासी वसु भूति ब्राह्मण पुत्र । माँ पृथ्वी के लाल लाड़ले इन्द्रभूति तुम ज्येष्ठ सुपुत्र ॥ अग्निभूति अरु वायुभूति लघु भ्राता द्वय उत्तम विद्वान । शिष्य पाँच सौ साथ आपके चौदह विद्या ज्ञान निधान ॥ शुभ बैसाख शुक्ल दशमी को हुआ वीर को केवलज्ञान । समवशरण की रचना करके हुआ इन्द्र को हर्ष महान ॥ बारह सभा बनी अति सुन्दर गन्धकुटी के बीच प्रधान । अंतरीक्ष में महावीर प्रभु बैठे पद्मासन निज ध्यान ॥ छियासठ दिन हो गए दिव्यध्वनि खिरी नहीं प्रभु की यह ज्ञान । अवधिज्ञान से लखा इन्द्र ने “गणधर की है कमी प्रधान”॥ इन्द्रभूति गौतम पहले गणधर होंगे यह जान लिया। वृद्ध ब्राह्मण वेश बना, गौतम के गृह प्रस्थान किया । पहुँच इन्द्र ने नमस्कार कर किया निवेदन विनयमयी । मेरे गुरु श्लोक सुनाकर, मौन हो गए ज्ञानमयी ॥ अर्थ, भाव वे बता न पाए वही जानने आया हूँ। आप श्रेष्ठ विद्वान् जगत में शरण आपकी आया हूँ। इन्द्रभूति गौतम श्लोक श्रवण कर मन में चकराए। झूठा अर्थ बताने के भी भाव नहीं उर में आए ॥ मन में सोचा तीन काल, छः द्रव्य, जीव, षट् लेश्या क्या? नव पदार्थ, पंचास्तिकाय, गति, समिति, ज्ञान, व्रत, चारित क्या? बोले गुरू के पास चलो मैं वहीं अर्थ बतलाऊँगा। अगर हुआ तो शास्त्रार्थ कर उन पर भी जय पाऊँगा ॥ अति हर्षित हो इन्द्र हृदय में बोला स्वामी अभी चलें। शंकाओं का समाधान कर मेरे मन की शल्य दलें ॥ अग्निभूति अरू वायुभूति दोनों भ्राता संग लिए जभी। शिष्य पांचसौ संग ले गौतम साभियान चल दिए तभी ॥ समवशरण की सीमा में जाते ही हुआ गलित अभिमान । प्रभु दर्शन करते ही पाया सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान ॥ तत्क्षरण सम्यक्चारित धारा मुनि बन गणधर पद पाया। अष्ट ऋद्धियाँ प्रगट हो गई ज्ञान मन:पर्यय छाया ॥ खिरने लगी दिव्य ध्वनि प्रभु की परम हर्ष उर में आया। कर्म नाश कर मोक्ष प्राप्ति का यह अपूर्व अवसर पाया ॥ ओंकार ध्वनि मेघ गर्जना सम होती है गुणशाली। द्वादशांग वाणी तुमने अंतर्मुहूर्त में रच डाली ॥ दोनों भ्राता शिष्य पांचसौ ने मिथ्यात तभी हरकर । हर्षित हो जिन दीक्षा ले ली दोनों भ्रात हुए गणधर ॥ राजगृही के विपुलाचल पर प्रथम देशना मंगलमय । महावीर संदेश विश्व ने सुना शाश्वत शिव सुखमय ॥ इन्द्रभूति, श्री अग्निभूति, श्री वायुभूति, शुचिदत्त महान । श्री सुधर्म, माण्डव्य, मौर्यसुत, श्री अकम्य अति ही विद्वान ॥ अचल और मेदार्य प्रभास यही ग्यारह गणधर गुणवान । महावीर के प्रथम शिष्य तुम हुए मुख्य गणधर भगवान ॥ छह-छह घड़ी दिव्य ध्वनि खिरती चार समय नित मंगलमय । वस्तुतत्त्व उपदेश प्राप्त कर भव्य जीव होते निजमय ॥ तीस वर्ष रह समवशरण में गूंथा श्री जिनवाणी को । देश-देश में कर विहार फैलाया श्री जिनवाणी को ॥ कार्तिक कृष्ण अमावस प्रातः महावीर निर्वाण हुआ । संध्याकाल तुम्हें भी पावापुर में केवलज्ञान हुआ ॥ ज्ञान लक्ष्मी तुमने पाई और वीर प्रभु ने निर्वाण । दीपमालिका पर्व विश्व में तभी हुआ प्रारम्भ महान ॥ आयु पूर्ण जब हुई आपकी योग नाश निर्वाण लिया। धन्य हो गया क्षेत्र गुणावा देवों ने जयगान किया। आज तुम्हारे चरण कमल के दर्शन पाकर हर्षाया। रोम-रोम पुलकित है मेरे भव का अंत निकट आया ॥ मुझको भी प्रजा छैनी दो मैं निज पर में भेद करूँ। भेदज्ञान की महाशक्ति से दुखदायी भव खेद हरूँ ॥ पद सिद्धत्व प्राप्त करके मैं पास तुम्हारे आ जाऊँ । तुम समान बन शिव पद पाकर सदा-सदा को मुस्काऊँ ॥ जय-जय गौतम गणधर स्वामी अभिरामी अंतरयामी । पाप पुण्य पर भाव विनाशी मुक्ति निवासी सुखधामी ॥ ॐ ह्रीं श्री गौतमगणधरस्वामिने अनर्घ्यपदप्राप्तये महाअर्घ्यं नि. स्वाहा । गौतम स्वामी के वचन भाव सहित उर धार । मन, वच, तन जो पूजते वे होते भव पार ॥ (इत्याशीर्वादः)
  6. इस प्रतियोगिता का उद्देश्य - सवाध्यय के साथ वेबसाईट पर लॉगिन कर कैसे भाग लेते है - सिखाना हैं विशेष सवाध्यय लिंक : https://vidyasagar.guru/paathshala/ अध्याय 12 उत्तर आपको नीचे कमेन्ट में लिखने हैं उत्तर एक बार ही दे वेबसाईट पर लॉगिन करने के बाद ही आप उत्तर दे पाएंगे लॉगिन लिंक https://jainsamaj.vidyasagar.guru/register (गूगल से भी लॉगिन कर सकते हैं ) कम से काम शब्दों मे उत्तर दें सभी के उत्तर छुपे रहेंगे उपहार आपका स्वाध्याय आपका सर्वश्रेष्ट उपहार हैं सही उत्तर देने वाले किसी दो विजेताओं को मिलेगा एक आकर्षक उपहार अपनी व्यक्तिगत जानकारी ( फोन नंबर इत्यादि ) उत्तर मे न दें - आपसे इस वेबसाईट पर मैसेज के माध्यम से संपर्क किया जाएगा भारतीय समय अनुसार 9 अप्रैल रात्री 10 बजे तक उत्तर दे सकते हैं
  7. विशेष सवाध्यय लिंक : https://vidyasagar.guru/paathshala/ उत्तर आपको नीचे कमेन्ट में लिखने हैं उत्तर एक बार ही दे वेबसाईट पर लॉगिन करने के बाद ही आप उत्तर दे पाएंगे लॉगिन लिंक https://jainsamaj.vidyasagar.guru/register (गूगल से भी लॉगिन कर सकते हैं ) कम से काम शब्दों मे उत्तर दें सभी के उत्तर छुपे रहेंगे उपहार आपका स्वाध्याय आपका सर्वश्रेष्ट उपहार हैं सही उत्तर देने वाले किसी एक विजेता को मिलेगा एक आकर्षक उपहार अपनी व्यक्तिगत जानकारी उत्तर मे न दें - आपसे इस वेबसाईट पर मैसेज के माध्यम से संपर्क किया जाएगा उपहार सहयोग : अनु जैन (Banglore) भरतोय समय अनुसार 8 अप्रैल रात्री 10 बजे तक उत्तर दे सकते हैं
  8. संसार द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को, सर्वश्रेष्ठ गिनी जाने वाली जिनवाणी को और राग, द्वेष, मोह, माया आदि दोषों से रहित परम वीतरागी साधुओं को नमस्कार कर जिनपूजा द्वारा फल प्राप्त करने वाले एक मेंढक की कथा लिखी जाती है ॥१॥ शास्त्रों में उल्लेख किए उदाहरणों द्वारा यह बात खुलासा देखने में आती है कि जिन भगवान् की पूजा पापों की नाश करने वाली और स्वर्ग - मोक्ष के सुखों की देने वाली है। इसलिए जो भव्यजन पवित्र भावों द्वारा धर्मवृद्धि के अर्थ जिनपूजा करते हैं वे ही सच्चे सम्यग्दृष्टि हैं और मोक्ष जाने के अधिकारी हैं। इसके विपरीत पूजा की जो निन्दा करते हैं वे पापी हैं और संसार में निन्दा के पात्र हैं। ऐसे लोग सदा दुःख, दरिद्रता, रोग, शोक आदि कष्टों को भोगते हैं और अन्त में दुर्गति में जाते हैं। अतएव भव्यजनों को उचित है कि वे जिनभगवान् का अभिषेक, पूजन, स्तुति, ध्यान आदि सत्कर्मों को सदा किया करें। इसके सिवा तीर्थयात्रा, प्रतिष्ठा, जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार आदि द्वारा जैनधर्म की प्रभावना करना चाहिए। इन पूजा प्रभावना आदि कारणों से सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है। जिनभगवान् इंद्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुषों द्वारा पूज्य हैं। इसलिए उनकी पूजा तो करनी ही चाहिए। जिनपूजा के द्वारा सभी उत्तम - उत्तम सुख मिलते हैं। जिनपूजा करना महापुण्य का कारण है, ऐसा शास्त्रों में जगह-जगह लिखा मिलता है। इसलिए जिनपूजा समान दूसरा पुण्य का कारण संसार में न तो हुआ और न होगा। प्राचीन काल में भरत जैसे अनेक बड़े-बड़े पुरुषों ने जिनपूजा द्वारा जो फल प्राप्त किया है, किसकी शक्ति है जो उसे लिख सके । आठ द्रव्यों से पूजा करने वाले जिनपूजा द्वारा जो फल लाभ करते हैं, उनके सम्बन्ध में हम क्या लिखें, जब कि केवल फूल से पूजा कर एक मेंढक ने स्वर्ग सुख प्राप्त किया ॥२-११॥ समन्तभद्र स्वामी ने भी इस विषय में लिखा है - राजगृह में हर्ष से उन्मत्त हुए एक मेंढक ने सत्पुरुषों को यह स्पष्ट बतला दिया कि केवल एक फूल द्वारा भी जिन भगवान् की पूजा करने से उत्तम फल प्राप्त होता है जैसा कि मैंने प्राप्त किया। अब मेंढक की कथा सुनिए यह भारतवर्ष जम्बूद्वीप के मेरु की दक्षिण दिशा में है। इसमें अनेक तीर्थंकरों का जन्म हुआ है। इसलिए यह महान् पवित्र है । मगध भारतवर्ष एक प्रसिद्ध और धनशाली देश है। सारे संसार की लक्ष्मी जैसे यहीं आकर इकट्ठी हो गई हो। यहाँ के निवासी प्रायः धनी है, धर्मात्मा है, उदार है और परोपकारी हैं॥१२-१३॥ जिस समय की यह कथा है उस समय मगध की राजधानी राजगृह एक बहुत सुन्दर शहर था । सब प्रकार की उत्तम से उत्तम भोगोपभोग की वस्तुएँ वहाँ बड़ी सुलभता से प्राप्त थीं । विद्वानों का उसमें निवास था। वहाँ के पुरुष देवों से और स्त्रियाँ देवबालाओं से कहीं बढ़कर सुन्दर थीं। स्त्री- पुरुष प्रायः सब ही सम्यक्त्वरूपी भूषण से अपने को सिंगारे हुए थे और इसलिए राजगृह उस समय मध्यलोक का स्वर्ग कहा जाता था । वहाँ जैनधर्म का ही अधिक प्रचार था । उसे प्राप्त कर सब सुख-शान्ति लाभ करते थे ॥१४-१६॥ राजगृह के राजा तब श्रेणिक थे । श्रेणिक धर्मज्ञ थे । जैनधर्म और जैनतत्त्व पर उनका पूर्ण विश्वास था। भगवान् की भक्ति उन्हें उतनी ही प्रिय थी, जितनी कि भौरे को कमलिनी । उनका प्रताप शत्रुओं के लिए मानों धधकती आग थी । सत्पुरुषों के लिए वे शीतल चन्द्रमा थे। पिता अपनी सन्तान को जिस प्यार से पालता है श्रेणिक का प्यार भी प्रजा पर वैसा ही था । श्रेणिक की कई रानियाँ थी। चेलना उन सबमें उन्हें अधिक प्रिय थी । सुन्दरता में, गुणों में, चतुरता में चेलना का आसन सबसे ऊँचा था। उसे जैनधर्म से, भगवान् की पूजा - प्रभावना से बहुत ही प्रेम था । कृत्रिम भूषणों द्वारा सिंगार करने को महत्त्व न देकर उसने अपने आत्मा को अनमोल सम्यग्दर्शन रूप भूषण से भूषित किया था । जिनवाणी सब प्रकार के ज्ञानविज्ञान से परिपूर्ण है और अतएव वह सुन्दर है, चेलना में किसी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की कमी न थी । इसलिए उसकी रूपसुन्दरता ने और अधिक सौन्दर्य प्राप्त कर लिया था । ' सोने में सुगन्ध' की उक्ति उस पर चरितार्थ थी ॥१७–२०॥ राजगृह में एक नागदत्त नाम का सेठ रहता था । वह जैनी न था । इसकी स्त्री का नाम भवदत्ता था। नागदत्त बड़ा मायाचारी था। सदा माया के जाल में वह फँसा हुआ रहता था। इस मायाचार के पाप से मरकर यह अपने घर के आँगन की बावड़ी में मेंढक हुआ । नागदत्त यदि चाहता तो कर्मों का नाश कर मोक्ष जाता, पर पाप कर वह मनुष्य पर्याय से पशुजन्म में आया, एक मेंढक हुआ । इसलिए भव्य-जनों को उचित है कि वे संकट समय भी पाप न करें ॥२१-२३॥ एक दिन भवदत्ता इस बावड़ी पर जल भरने को आई उसे देखकर मेंढक को जातिस्मरण हो गया। वह उछल कर भवदत्ता के वस्त्रों पर चढ़ने लगा । भवदत्ता ने डरकर उसे कपड़ों पर से झिड़क दिया। मेंढक फिर भी उछल-उछलकर उसके वस्त्रों पर चढ़ने लगा। उसे बार-बार अपने पास आता देखकर भवदत्ता बड़ी चकित हुई और डरी भी । पर इतना उसे भी विश्वास हो गया कि इस मेंढक का और मेरा पूर्वजन्म का कुछ न कुछ सम्बन्ध होना ही चाहिए। अन्यथा बार-बार मेरे झिड़क देने पर भी यह मेरे पास आने का साहस न करता । जो हो, मौका पाकर कभी किसी साधु-सन्त से इसका यथार्थ कारण पूछूंगी ॥२४-२७॥ भाग्य से एक दिन अवधिज्ञानी सुव्रत मुनिराज राजगृह में आकर ठहरे। भवदत्ता को मेंढक का हाल जानने की बड़ी उत्कण्ठा थी । इसलिए वह तुरन्त उनके पास गई उनसे प्रार्थना कर उसने मेंढक का हाल जानने की इच्छा प्रकट की । सुव्रत मुनिराज ने तब उससे कहा-जिसका तू हाल पूछने को आई है, वह दूसरा कोई न होकर तेरा पति नागदत्त है। वह बड़ा मायाचारी था, इसलिए मर कर माया के पाप से यह मेंढक हुआ है। उन मुनि के संसार - पार करने वाले वचनों को सुनकर भवदत्ता को सन्तोष हुआ। वह मुनि को नमस्कार कर घर पर आ गई उसने फिर मोहवश हो उस मेंढक को भी अपने यहाँ ला रखा। मेंढक वहाँ आकर बहुत प्रसन्न रहा ॥२८-३०॥ इसी अवसर में वैभार पर्वत पर महावीर भगवान् का समवसरण आया। वनमाली ने आकर श्रेणिक को खबर दी कि राजराजेश्वर, जिनके चरणों को इन्द्र, नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि प्रायः सभी महापुरुष पूजा-स्तुति करते हैं, वे महावीर भगवान् वैभार पर्वत पर पधारे हैं। भगवान् के आने के आनन्द-समाचार सुनकर श्रेणिक बहुत प्रसन्न हुए । भक्तिवश हो सिंहासन से उठकर उन्होंने भगवान् को परोक्ष नमस्कार किया। इसके बाद इन शुभ समाचारों की सारे शहर में सबको खबर हो जाए, इसके लिए उन्होंने आनन्द घोषणा दिलवा दी। बड़े भारी लाव-लश्कर और वैभव के साथ भव्यजनों को संग लिए वे भगवान के दर्शनों को गए। वे दूर से उन संसार का हित करने वाले भगवान के समवसरण को देखकर उतने ही खुश हुए, जितने खुश मोर मेघों को देखकर होते हैं । रासायनिक लोग अपना मन चाहा रस लाभ कर होते हैं। समवसरण में पहुँचे। भगवान के उन्होंने दर्शन किए और उत्तम से उत्तम द्रव्यों से उनकी की । अन्त में उन्होंने भगवान् के गुणों का गान किया ॥३१-३७॥ हे भगवान्! हे दया के सागर ! ऋषि- महात्मा आपको 'अग्नि' कहते हैं, इसलिए कि आप कर्मरूपी ईंधन को जला कर खाककर देने वाले हैं। आपको वे 'मेघ' भी कहते हैं, इसलिए कि आप प्राणियों को जलाने वाली दुःख, शोक, चिन्ता, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि दावाग्नि को क्षणभर में अपने उपदेश रूपी जल से बुझा डालते हैं । आप 'सूरज' भी हैं, इसलिए कि अपने उपदेशरूपी किरणों से भव्यजनरूपी कमलों को प्रफुल्लित कर लोक और अलोक के प्रकाशक हैं। नाथ, आप एक सर्वोत्तम वैद्य हैं, इसलिए कि धन्वन्तरी से वैद्यों की दवा से भी नष्ट न होने वाली ऐसी जन्म, जरा, मरण रूपी महान् व्याधियों को जड़ मूल से खो देते हैं । प्रभो, आप उत्तमोत्तम गुणरूपी जवाहरात के उत्पन्न करने वाले पर्वत हो, संसार के पालक हो, तीनों लोक के अनमोल भूषण हो, प्राणी मात्र के निःस्वार्थ बन्धु हो, दुःखों के नाश करने वाले हो और सब प्रकार के सुखों के देने वाले हो । जगदीश! जो सुख आपके पवित्र चरणों की सेवा से प्राप्त हो सकता है वह अनेक प्रकार के कठिन से कठिन परिश्रम द्वारा भी प्राप्त नहीं होता। इसलिए हे दयासागर ! मुझ गरीब को अपने चरणों को पवित्र और मुक्ति का सुख देने वाली भक्ति प्रदान कीजिए। जब तक कि मैं संसार से पार न हो जाऊँ । इस प्रकार बड़ी देर तक श्रेणिक ने भगवान् का पवित्र भावों से गुणानुवाद किया। बाद वे गौतम गणधर आदि महर्षियों को भक्ति से नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गए ॥३८-४४॥ भगवान् के दर्शनों के लिए भवदत्ता सेठानी भी गई, आकाश में देवों का जय-जयकार और दुन्दुभी बाजों की मधुर - मनोहर आवाज सुनकर उस मेंढक को जातिस्मरण हो गया । वह भी तब बावड़ी में एक कमल की कली को अपने मुँह में दबाये बड़े आनन्द और उल्लास के साथ भगवान् की पूजा के लिए चला । रास्ते में आता हुआ वह हाथी के पैर नीचे कुचला जाकर मर गया। पर उसके परिणाम त्रैलोक्य पूज्य महावीर भगवान् की पूजा में लगे हुए थे, इसलिए वह उस पूजा के प्रेम से उत्पन्न होने वाले पुण्य से सौधर्म स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ । देखिये, कहाँ तो वह मेंढक और कहाँ अब स्वर्ग का देव पर इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं । कारण जिनभगवान् की पूजा से सब कुछ प्राप्त हो सकता है ॥४५-५०॥ एक अंतर्मुहूर्त में वह मेंढक का जीव आँखों में चकाचौंध लाने वाला तेजस्वी और सुन्दर युवा देव बन गया। नाना तरह के दिव्य रत्नमयी अलंकारों की कान्ति से उसका शरीर ढक रहा था, बड़ी सुन्दर शोभा थी। वह ऐसा जान पड़ता था, मानों रत्नों की एक बहुत बड़ी राशि रखी हो या रत्नों का पर्वत बनाया गया हो। उसके बहुमूल्य वस्त्रों की शोभा देखते ही बनती थी । गले में उसके स्वर्गीय कल्पवृक्षों के फूलों की सुन्दर मालाएँ शोभा दे रही थी। उनकी सुन्दर सुगन्ध ने सब दिशाओं को सुगन्धित बना दिया था। उसे अवधिज्ञान से जान पड़ा कि मुझे जो यह सब सम्पत्ति मिली है और मैं देव हुआ हूँ, यह सब भगवान् की पूजा की पवित्र भावना का फल है। इसलिए सबसे पहले मुझे जाकर पतित-पावन भगवान् की पूजा करनी चाहिए। इस विचार के साथ ही वह अपने मुकुट पर मेंढक का चिह्न बनाकर महावीर भगवान् के समवसरण में आया । भगवान् की पूजन करते हुए इस देव के मुकुट पर मेंढक के चिह्न को देखकर श्रेणिक को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने गौतम भगवान् को हाथ जोड़ कर पूछा-हे संदेहरूपी अँधेरे को नाश करने वाले सूरज ! कृपाकर कहिए कि इस देव के मुकुट पर मेंढक का चिह्न क्यों है? मैंने तो आज तक देव के मुकुट पर ऐसा चिह्न नहीं देखा । ज्ञान की प्रकाशमान ज्योतिरूप गौतम भगवान् ने तब श्रेणिक को नागदत्त के भव से लेकर जब तक की सब कथा कह सुनाई उसे सुनकर श्रेणिक को तथा अन्य भव्यजनों को बड़ा ही आनन्द हुआ। भगवान की पूजा करने में उनकी बड़ी श्रद्धा हो गई। जिनपूजन का इस प्रकार उत्कृष्ट फल जानकर अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे सुख देने वाली इस जिन पूजन को सदा करते रहें। जिन पूजा के फल से भव्यजन धन- दौलत, रूप-सौभाग्य,राज्य - वैभव, बाल-बच्चे और उत्तम कुछ जाति आदि सभी श्रेष्ठ सुख-चैन की मनचाही सामग्री लाभ करते हैं, वे चिरकाल तक जीते हैं, दुर्गति में नहीं जाते और उनके जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो जाते हैं। जिनपूजा सम्यग्दर्शन और मोक्ष का बीज है, संसार का भ्रमण मिटाने वाली है और सदाचार, सद्विद्या तथा स्वर्ग - मोक्ष के सुख की कारण है । इसलिए आत्महित के चाहने वाले सत्पुरुषों को चाहिए कि वे आलस छोड़कर निरन्तर जिनपूजा किया करें। इससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा ॥५१-६४॥ यही जिन-पूजा सम्यग्दर्शनरूपी वृक्ष के सींचने को वर्षा सरीखी है, भव्यजनों को ज्ञान देने वाली मानों सरस्वती हैं, स्वर्ग की सम्पदा प्राप्त कराने वाली दूती है, मोक्षरूपी अत्यन्त ऊँचे मन्दिर तक पहुँचाने को मानो सीढ़ियों की श्रेणी है और समस्त सुखों को देने वाली है। यह आप भव्यजनों की पाप कर्मों से सदा रक्षा करें । जिनके जन्मोत्सव के समय स्वर्ग के इन्द्रों ने जिन्हें स्नान कराया, जिनके स्नान का स्थान सुमेरु पर्वत नियम किया गया और समुद्र जिनके स्नानजल के लिए बावड़ी नियत की गई, देवता लोगों ने बड़े आदर के साथ जिनकी सेवा बजाई, देवांगनाएँ जिनके इस मंगलमय समय में नाची और गन्धर्व देवों ने जिनके गुणों को गाया, जिनका यश बखान किया ऐसे जिन भगवान् आप भव्य-जनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें ॥६५-६६॥ वह भगवान् की पवित्र वाणी जय लाभ करे, संसार में चिर समय तक रहकर प्राणियों को ज्ञान के पवित्र मार्ग पर लगाये, जो अपने सुन्दर वाहन मोर पर बैठी हुई अपूर्व शोभा को धारण किए हैं, मिथ्यात्वरूपी गाढ़े अँधेरे को नष्ट करने के लिए जो सूरज के समान तेजस्विनी है, भव्यजनरूपी कमलों के वन को विकसित कर आनन्द की बढ़ाने वाली है, जो सच्चे मार्ग को दिखाने वाली है और स्वर्ग के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुष जिसे बहुत मान देते हैं ॥६७॥ मूलसंघ के सबसे प्रधान सारस्वत नाम के गच्छ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में प्रभाचन्द एक प्रसिद्ध आचार्य हुए हैं। वे जैनागमरूपी समुद्र के बढ़ाने के लिए चन्द्रमा की शोभा को धारण किए थे। बड़े-बड़े विद्वान् उनका आदर सत्कार करते थे। वे गुणों के मानों जैसे खजाने थे, बड़े गुणी थे ॥६८॥ इसी गच्छ में कुछ समय बाद मल्लिभूषण भट्टारक हुए। वे मेरे गुरु थे । वे जिनभगवान् के चरण-कमलों के मानों जैसे भौरे थे - सदा भगवान् की पवित्र भक्ति में लगे रहते थे। मूलसंघ में इनके समय में यही प्रधान आचार्य गिने जाते थे । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय के ये धारक थे। विद्यानन्दि गुरु के पट्टरूपी कमल को प्रफुल्लित करने को ये जैसे सूर्य थे। इनसे उनके पट्ट की बड़ी शोभा थी। ये आप सत्पुरुषों को सुखी करें ॥६९॥ वे सिंहनन्दी गुरु भी आपको सुखी करें, जो जिन भगवान् की निर्दोष भक्ति में सदा लगे रहते थे। अपने पवित्र उपदेश से भव्यजनों को सदा हितमार्ग दिखाते रहते थे। जो कामरूपी निर्दयी हाथी का दुर्मद नष्ट करने को सिंह सरीखे थे, काम को जिन्होंने वश कर लिया था । वे बड़े ज्ञानी ध्यानी थे, रत्नत्रय के धारक थे और उनकी बड़ी प्रसिद्धि थी ॥७०॥ वे प्रभाचन्द्राचार्य विजय लाभ करें, जो ज्ञान के समुद्र हैं। देखिये, समुद्र में रत्न होते हैं आचार्य महाराज सम्यग्दर्शनरूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किए हैं। समुद्र में तरंगें होती हैं वे भी सप्तभंगीरूपी तरंगों से युक्त हैं-स्याद्वादविद्या के बड़े ही विद्वान् हैं। समुद्र की तरंगें जैसे कूड़े-करकट को निकाल बाहर फेंक देती हैं उसी तरह ये अपनी सप्तभंगी वाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकट को हटा दूर करते थे, अन्य मत के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजय लाभ करते थे । समुद्र में मगरमच्छ, घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग-द्वेषरूपी भयानक मगरमच्छ न थे। समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिन भगवान् का वचनमयी अमृत समाया हुआ था और समुद्र में अनेक बिकने योग्य वस्तुएँ रहती है ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्यरूपी विक्रय वस्तु को धारण किए थे। अतएव वे समुद्र की उपमा दिये गए ॥७१॥ इन्हीं के पवित्र चरणकमलों की कृपा से जैनशास्त्रों के अनुसार मुझ नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप को प्राप्त करने वालों की इन पवित्र पुण्यमय कथाओं को लिखा है । कल्याण करने वाली ये कथाएँ भव्यजनों की धन-दौलत, सुख-चैन, शान्ति-सुयश और आमोद-प्रमोद आदि सभी सुख सामग्री प्राप्त कराने में सहायक हो । यह मेरी पवित्र कामना है ॥७२॥
  9. संसार द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर करकण्डु राजा का सुखमय पवित्र चरित लिखा जाता है ॥१॥ जिसने पहले केवल एक कमल से जिन भगवान् की पूजा कर जो महान् फल प्राप्त किया, उसका चरित जैसा ग्रन्थों में पुराने ऋषियों ने लिखा है उसे देखकर या उनकी कृपा से उसका थोड़ा सार मैं लिखता हूँ ॥२-३॥ नील और महानील तेरपुर के राजा थे । तेरपुर कुन्तल देश की राजधानी थी । यहाँ वसुमित्र नाम का एक जिनभक्त सेठ रहता था। सेठानी वसुमती उसकी स्त्री थी। धर्म से उसे बड़ा प्रेम था। इन सेठ- सेठानी के यहाँ धनदत्त नाम का एक ग्वाला नौकर था । वह एक दिन गाय चराने को जंगल में गयाहुआ था। एक तालाब में उसने कोई हजार पंखुड़ियों वाला एक बहुत सुन्दर कमल देखा। उस पर यह मुग्ध हो गया। तब तालाब में कूद कर उसने उस कमल को तोड़ लिया। उस समय नागकुमारी ने उससे कहा–धनदत्त, तूने मेरा कमल तोड़ा तो हैं, पर इतना तू ध्यान में रखना कि यह उस महापुरुष को भेंट किया जाए, जो संसार में सबसे श्रेष्ठ हो । नागकुमारी का कहा मानकर धनदत्त कमल लिए अपने सेठ के पास गया और उनसे सब हाल इसने कहा । वसुमित्र ने तब राजा के पास जाकर उनसे यह सब हाल कहा। सबसे श्रेष्ठ कौन है और यह कमल किसको भेंट चढ़ाया जाए, यह किसी को समझ में न आया। तब सब विचार कर चले कि यह हाल मुनिराज से कहें। संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है, इस बात का पता वे अपने को देंगे। यह निश्चय कर राजा, सेठ, ग्वाला तथा और बहुत से लोग सहस्रकूट नाम के जिन मन्दिरों में गए। वहाँ सुगुप्ति मुनिराज ठहरे हुए थे। उनसे राजा ने पूछा- हे करुणा के समुद्र, हे पवित्र धर्म के रहस्य को समझने वाले ! कृपया बतलाइए कि संसार में सबसे श्रेष्ठ कौन है? जिन्हें यह पवित्र कमल भेंट किया जाये । उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन् ! सारे संसार के स्वामी, राग-द्वेषादि दोषों से रहित जिन भगवान् सर्वोत्कृष्ट हैं क्योंकि संसार उन्हीं की पूजा करता है । यह सुनकर सबको बड़ा सन्तोष हुआ जिसे वे चाहते थे वह अनायास मिल गया। उसी समय वे सब भगवान् के सामने आए। धनदत्त ग्वाले ने तब भगवान् को नमस्कार कर कहा - हे संसार में सबसे श्रेष्ठ गिने जाने वाले, आपको यह कमल मैं भेंट करता हूँ। इसे आप स्वीकार कर मेरी आशा को पूरी करें। यह कहकर वह ग्वाला उस कमल को भगवान् के चरणों में चढ़ाकर चला गया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि पवित्र कर्म मूर्ख लोगों को भी सुख देने वाला होता है। इस कथा से सम्बन्ध रखने वाली एक दूसरी कथा यहाँ लिखी जाती है उसे सुनिए - ॥४-१७॥ श्रावस्ती के रहने वाले सागरदत्त सेठ की स्त्री नागदत्त बड़ी पापिनी थी । उसका चाल-चलन अच्छा न था। एक सोमशर्मा ब्राह्मण के साथ उसका अनुचित बरताव था । सच है, कोई-कोई स्त्रियाँ तो बड़ी दुष्ट और कुल- कुलंकिनी हुआ करती है। उन्हें अपने कुल की मान-मर्यादा की कुछ लाज- शरम नहीं रहती। अपने उज्ज्वल कुलरूपी मन्दिर को मलिन करने के लिए वे काले धुएँ के समान होती है। बेचारा सेठ सरल स्वभावी था और धर्मात्मा था । इसलिए अपनी स्त्री का ऐसा दुराचार देखकर उसे बड़ा वैराग्य हुआ । उसने फिर संसार के भ्रमण को मिटाने वाली जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। वह बहुत ही कंटाल गया था। सागरदत्त तपस्या कर स्वर्ग गया। स्वर्गायु पूरी कर वह अंगदेश की राजधानी चम्पा नगरी में वसुपाल राजा की रानी वसुमती के दन्तिवाहन नाम का राजकुमार हुआ। वसुपाल सुख से राज करते रहे ॥ १८-२३॥ इधर वह सोमशर्मा मर कर पाप के फल से बहुत समय तक दुर्गतियों में घूमा । एक से एक दुःसह कष्ट उसे सहना पड़ा। अन्त में वह कलिंग देश के जंगल में नर्मदा तिलक राजा का हाथी हुआ और ठीक ही है पाप से जीवों को दुर्गतियों के दुःख भोगने ही पड़ते हैं । कर्म से इस हाथी को किसी ने पकड़ लाकर वसुपाल को भेंट किया ॥२४-२५॥ उधर इस हाथी के पूर्वभव के जीव सोमशर्मा की स्त्री नागदत्ता ने भी पाप के उदय से दुर्गतियों में अनेक कष्ट सहे। अन्त में वह ताम्रलिप्तनगर में भी वसुदत्त सेठ की स्त्री नागदत्ता हुई उस समय इसके धनवती और धनश्री नाम की दो लड़कियाँ हुई ये दोनों बहिनें बड़ी सुन्दर थीं। स्वर्ग कुमारियाँ इनका रूप देखकर मन ही मन बड़ी कुढ़ा करती थीं। इनमें धनवती का ब्याह नागानन्द पुर के रहने वाले वनपाल नाम के सेठ पुत्र के साथ हुआ और छोटी बहिन धनश्री कौशाम्बी के वसुमित्र की स्त्री हुई। वसुमित्र जैनी था। इसलिए उसके सम्बन्ध से धनश्री को कई बार जैनधर्म के उपदेश सुनने का मौका मिला। वह उपदेश उसे बहुत रुचि कर हुआ और फिर वह भी श्राविका हो गई। लड़की के प्रेम गोद को आज एकाएक भरी पा बहुत आनन्दित हुई। वह आनन्द इतना था कि उसके हृदय में भी न समा सका। यही कारण था कि उसका रोम-रोम पुलकित हो रहा था। उसने बड़े प्रेम से इसे छाती से लगाया ॥२६-४०॥ पद्मावती उस समय कोई तेरह - चौदह वर्ष की है। उसके सुकोमल, सुगन्धित और सुन्दर यौवनरूपी फूल की कलियाँ कुछ-कुछ खिलने लगी हैं। ब्रह्मा ने उसके शरीर को लावण्य सुधा-धारा से सींचना शुरू कर दिया है। वह अब थोड़े ही दिनों में स्वर्ग के देव कुमारियों से भी अधिक सुन्दरता लाभ कर ब्रह्मा को अपनी सृष्टि का अभिमानी बनायेगी। लोग स्वर्गीय सुन्दरता की बड़ी प्रशंसा करते हैं। ब्रह्मा को उनकी इस थोथी तारीफ से बड़ी डाह है। इसलिए कि इससे उसकी रचना सुन्दरता में कमी आती है और उस कमी से उन्हें नीचा देखना पड़ता है। ब्रह्मा ने सर्व साधारण के इस भ्रम को मिटाने लिए कि जो कुछ सुन्दरता है वह स्वर्ग में है, मानो पद्मावती को उत्पन्न किया है। इसके सिवा उन लोगों की झूठी प्रशंसा जो अमरांगनाएँ अभिमान के ऊँचे पर्वत पर चढ़कर सारे संसार को अपनी सुन्दरता की तुलना में ना- कुछ चीज समझ बैठी हैं, उनके इस गर्व को चूर-चूर करना है। इन्हीं सब अभिमान, ईर्ष्या, मत्सर आदि के वश हो ब्रह्मा पद्मावती को त्रिभुवन - सुन्दर बनाने में विशेष यत्नशील है। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि पद्मावती कुछ दिनों बाद तो ब्रह्मा की सब तरह आशा पूरी करेगी ही। पर इस समय भी उसका रूप-सौंदर्य इतना मनोमधुर है कि उसे देखते रहने की इच्छा होती है। प्रयत्न करने पर भी आँखें उस ओर से हटना पसन्द नहीं करती है । अस्तु । पद्मावती की इस अनिंद्य सुन्दरता का समाचार किसी ने चम्पा के राजा दन्तिवाहन को कह दिया। दन्तिवाहन उसकी सुन्दरता की तारीफ सुनकर कुसुमपुर आए । पद्मावती को एक माली की लड़की को इतनी सुन्दरी, इतनी तेजस्विनी देखकर उसके विषय में उन्हें कुछ सन्देह हुआ। उन्होंने तब उस माली को बुलाकर पूछा -सच कह यह लड़की तेरी ही है क्या ? और यदि तेरी नहीं तो इसे कहाँ से और कैसे लाया ? माली डर गया । उससे राजा के सवालों का कुछ उत्तर देते न बना। सिर्फ उसने इतना ही किया जिस सन्दूक में पद्मावती निकली थी, उसे राजा के सामने ला रख दिया और कह दिया था महाराज, मुझे अधिक तो कुछ मालूम नहीं, पर यह लड़की इस सन्दूक में से निकली थी। मेरे कोई लड़का-बाला न होने से इसे मैंने अपने यहाँ रख लिया। राजा ने सन्दूक खोलकर देखा तो उसमें एक अंगूठी निकली। उस पर कुछ इबादत खुदी हुई थी । उसे पढ़कर राजा को पद्मावती के सम्बन्ध में कोई सन्देह करने की जगह न रह गई । जैसे वे राजपुत्र हैं वैसे ही पद्मावती भी एक राजघराने की राजकन्या है। दन्तिवाहन तब उसके साथ ब्याह कर उसे चम्पा में ले आए और सुख से अपना समय बिताने लगे ॥४१-४५॥ दन्तिवाहन के पिता वसुपाल ने कुछ वर्षों तक और राज्य किया । एक दिन उन्हें अपने सिर पर यमदूत सफेद केश दीख पड़ा । उसे देखकर इन्हें संसार, शरीर, विषय- भोगादि से बड़ा वैराग्य हुआ। वे अपने राज्य का सब भार दन्तिवाहन को सौंप कर जिनमन्दिर गए। वहाँ उन्होंने भगवान् का अभिषेक किया, पूजन किया, दान किया, गरीबों की सहायता की। उस समय उन्हें जो उचित कार्य जान पड़ा उसे उन्होंने खुले हाथों किया बाद वे वहीं एक मुनिराज द्वारा दीक्षा ले योगी हो गए। उन्होंने योगदशा में खूब तपस्या की। अन्त में समाधि से शरीर छोड़कर वे स्वर्ग गए। दन्तिवाहन अब राजा हुए प्रजा का शासन वे भी अपने पिता की भाँति प्रेम के साथ करते थे । धर्म पर उनकी भी पूरी श्रद्धा थी । पद्मावती सी त्रिलोक-सुन्दरी को पा ये अपने को कृतार्थ मानते थे। दोनों दम्पत्ति सदा बड़े हँसमुख और प्रसन्न रहते थे। सुख की इन्हें चाह न थी, पर सुख ही इनका गुलाम बन रहा था ॥४६-४९॥ एक दिन सती पद्मावती ने स्वप्न में सिंह, हाथी और सूरज को देखा । सबेरे उठकर उसने अपने प्राणनाथ से इस स्वप्न का हाल कहा। दन्तिवाहन ने उसके फल के सम्बन्ध में कहा-प्रिये, स्वप्न तुमने बड़ा ही सुन्दर देखा हैं। तुम्हें एक पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। सिंह का देखना जनाता है, कि वह बड़ा ही प्रतापी होगा हाथी के देखने से सूचित होता है कि वह सबसे प्रधान क्षत्रिय वीर होगा और सूरज यह कहता है कि वह प्रजारूपी कमल-वन को प्रफुल्लित करने वाला होगा, उसके शासन से प्रजा बड़ी सन्तुष्ट रहेगी। अपने स्वामी द्वारा स्वप्न फल सुनकर पद्मावती को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और सच है, पुत्र प्राप्ति की किसे प्रसन्नता नहीं होती ॥५०-५२॥ पाठकों को तेरपुर के रहने वाले धनदत्त ग्वाले का स्मरण होगा, जिसने कि एक हजार पंखुरियों का कमल भगवान् को चढ़ाकर बड़ा पुण्यबन्ध किया था । उसी की कथा फिर लिखी जाती है। धनदत्त को तैरने का बड़ा शौक था । वह रोज-रोज जाकर एक तालाब में तैरा करता था। एक दिन वह तैरने को गया हुआ था। कुछ होनहार ही ऐसा था जो वह तैरता - तैरता एक बार घनी काई में बिंध गया । बहुत यत्न किया पर उससे निकलते न बना । आखिर बेचारा मर ही गया । मरकर वह जिनपूजा के पुण्य से इसी सती पद्मावती के गर्भ में आया ॥ ५३-५४॥ उधर वसुमित्र सेठ को जब इसके मरने का हाल ज्ञान हुआ तो उसे बड़ा दुःख हुआ । सेठ उसी समय तालाब पर आया और धनदत्त की लाश को निकलवा कर उसका अग्नि-संस्कार किया। संसार की यह क्षणभंगुर दशा देखकर वसुमित्र को बड़ा वैराग्य हुआ। वह सुगुप्ति मुनिराज द्वारा योगव्रत लेकर मुनि हो गया। अन्त में वह तपस्या कर पुण्य के उदय से स्वर्ग गया ॥ ५५-५६॥ पद्मावती के गर्भ में धनदत्त के आने पर उसे दोहला उत्पन्न हुआ उसकी इच्छा हुई कि मेघ बरसने लगें और बिजलियाँ चमकने लगे । ऐसे समय पुरुष - वेष में हाथ में अंकुश लिए मैं स्वयं हाथी पर सवार होऊँ और मेरे साथ स्वामी भी बैठे। फिर हम दोनों घूमने के लिए शहर के बाहर निकलें। पद्मावती ने अपनी यह इच्छा दन्तिवाहन से जाहिर की । दन्तिवाहन ने उसकी इच्छा के अनुसार अपने मित्र वायुवेग विद्याधर द्वारा मायामयी कृत्रिम मेघ की काली काली घटाओं द्वारा आकाश आच्छादित करवाया। कृत्रिम बिजलियाँ भी उन मेघों में चमकने लगी । राजा-रानी इस समय उस नर्मदातिलक नाम के हाथी पर, जो सोमशर्मा का जीव था और जिसे किसी ने वसुपाल को भेंट किया था, चढ़कर बड़े ठाट बाट से नौकर-चाकरों को साथ लिए शहर के बाहर हुए । पद्मावती का यह दोहला सचमुच ही बड़ा ही आश्चर्यजनक था। जो हो, जब ये शहर के बाहर होकर थोड़ी ही दूर गए होंगे कि कर्मयोग से हाथी उन्मत्त हो गया । अंकुश वगैरह की वह कुछ परवाह न कर आगे चलने वाले लोगों की भीड़ को चीरता हुआ भाग निकला। रास्ते में एक घने वृक्षों की वनी में होकर वह भागा जा रहा था । सो दन्तिवाहन को उस समय कुछ ऐसी बुद्धि सूझ गई, कि जिससे वे एक वृक्ष की डाली को पकड़ कर लटक गए। हाथी आगे भागा ही चला गया। सच है, पुण्य कष्ट समय में जीवों को बचा लेता हैं। बेचारे दन्तिवाहन उदास मुँह अपनी राजधानी में आए। उन्हें इस बात का अत्यन्त दुःख हुआ कि गर्भिणी प्रिया की न जाने क्या दशा हुई होगी । दन्तिवाहन की यह दशा देखकर समझदार लोगों ने समझा-बुझाकर उन्हें शान्त किया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सत्पुरुषों के वचन चन्दन से कहीं बढ़कर शीतल होते हैं और उनके द्वारा दुखियों के हृदय का दुःख सन्ताप बहुत जल्दी ठण्डा पड़ जाता है ॥५७-६८॥ उधर हाथी पद्मावती को लिए भागा चला गया । अनेक जंगलों और गाँवों को लाँघकर वह एक तालाब पर पहुँचा। वह बहुत थक गया था । इसलिए थकावट मिटाने को वह सीधा उस तालाब घुस गया। पद्मावती सहित तालाब में उसे घुसता देख जलदेवी ने झट से पद्मावती को हाथी पर से उतार कर तालाब के किनारे पर रख दिया । आफत की मारी बेचारी पद्मावती किनारे पर बैठी- बैठी रोने लगी। वह क्या करे, कहाँ जाए, इस विषय में उसका चित्त बिल्कुल धीर न धरता था। सिवा रोने के उसे कुछ न सूझता था । इसी समय एक माली इस ओर होकर अपने घर जा रहा था। उसने इसे रोते हुए देखा। इसके वेष-भूषा और चेहरे के रंग-ढंग से इसे किसी उच्च घराने की समझ उसे उस पर बड़ी दया आई उसने उसके पास आकर कहा- बहिन, जान पड़ता है तुम पर कोई भारी दुःख आकर पड़ा है। यदि तुम कोई हर्ज न समझो तो मेरे घर चलो। तुम्हें वहाँ कोई कष्ट न होगा | मेरा घर यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हस्तिनापुर में है और मैं जाति का माली हूँ । पद्मावती उसे दयावान् देख उसके साथ होली । इसके सिवा उसके लिए दूसरी गति भी न थी । उस माली ने पद्मावती को अपने घर ले जाकर बड़े आदर-सत्कार के साथ रखा। वह उसे अपने बहिन के बराबर समझता था। उसका स्वभाव बहुत अच्छा था। ठीक है, कोई-कोई साधारण पुरुष भी बड़े सज्जन होते हैं। उसके सरल और सज्जन होने पर भी उसकी स्त्री बड़ी कर्कशा थी । उसे दूसरे आदमी का अपने घर रहना अच्छा ही न लगता था। कोई अपने घर में पाहुना आया कि उस पर सदा मुँह चढ़ाये रहना, उससे बोलना-चालना नहीं आदि उसके बुरे स्वभाव की खास बातें थीं। पद्मावती के साथ भी उसका यही बर्ताव रहा। एक दिन भाग्य से वह माली किसी काम के लिए दूसरे गाँव चला गया। पीछे से इसकी स्त्री की बन पड़ी। उसने पद्मावती को गाली-गलौज देकर और बुरा भला कह घर से निकाल दिया। बेचारी पद्मावती अपने कर्मों को कोसती यहाँ से चल दी । वह एक घोर श्मशान में पहुँची । प्रसूति के दिन आ लगे थे। उस पर चिन्ता और दुःख के मारे इसे चैन नहीं था । उसने यहीं पर एक पुण्यवान् पुत्र को जना। उसके हाथ, पाँव, ललाट वगैरह में ऐसे सब चिह्न थे, जो बड़े से बड़े पुरुष के होने चाहिए। जो हो, इस समय तो उसकी दशा एक भिखारी से भी बढ़कर थी । पर भाग्य कहीं छुपा नहीं रहता। पुण्यवान् महात्मा पुरुष कहीं हो, कैसी अवस्था में हो, पुण्य वहीं पहुँच कर उसकी सेवा करता है। पर होना चाहिए पास में पुण्य । पुण्य बिना संसार में जन्म निस्सार है । जिस समय पद्मावती ने पुत्र जना उसी समय पुत्र के पुण्य का भेजा हुआ एक मनुष्य चाण्डाल के वेष में श्मशान में पद्मावती के पास आया और उसे विनय से सिर झुकाकर बोला- माँ, अब चिन्ता न करो। तुम्हारे लड़के का दास आ गया है। वह इसकी सब तरह जी-जान से रक्षा करेगा। किसी तरह का कोई कष्ट इसे न होने देगा। जहाँ इस बच्चे का पसीना गिरेगा वहाँ यह अपना खून गिरावेगा। आप मेरी मालकिन हैं। सब भार मुझ पर छोड़ आप निश्चिन्त होइये । पद्मावती ने ऐसे कष्ट के समय पुत्र की रक्षा करने वाले को पाकर अपने भाग्य को सराहा, पर फिर भी अपना सब सन्देह दूर हो, इसलिए उसने कहा- भाई, तुमने ऐसे निराधार समय में आकर मेरा जो उपकार करना विचारा है, तुम्हारे इस ऋण से मैं कभी मुक्त नहीं हो सकती। मुझे तुमसे दयावानों का अत्यन्त उपकार मानना चाहिए । अस्तु, इस समय मैं और क्या अधिक कह सकती हूँ कि जैसा तुमने मेरा भला किया, वैसा भगवान् तुम्हारा भी भला करे। भाई, मेरी इच्छा तुम्हारा विशेष परिचय पाने की है । इसलिए कि तुम्हारा पहनावा और तुम्हारे चेहरे पर की तेजस्विता देखकर मुझे बड़ा ही सन्देह हो रहा है। अतएव यदि तुम मुझसे अपना परिचय देने में कोई हानि न समझो तो कृपा कर कहो । वह आगत पुरुष पद्मावती से बोला-माँ, मुझ अभागे की कथा तुम सुनोगी। अच्छा तो सुनो, मैं सुनाता हूँ। विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में विद्युत्प्रभ नाम का एक शहर है। उसके राजा का नाम भी विद्युत्प्रभ है। विद्युत्प्रभ की रानी का नाम विद्युल्लेखा है । ये दोनों राजा-रानी मुझ अभागे के माता-पिता हैं। मेरा नाम बालदेव है। एक दिन मैं अपनी प्रिया कनकमाला के साथ विमान में बैठा हुआ दक्षिण की ओर जा रहा था ॥६९-७९॥ रास्ते में मुझे रामगिरी पर्वत पड़ा। उस पर मेरा विमान अटक गया। मैंने नीचे नजर डालकर देखा तो मुझे एक मुनि दीख पड़े। उन पर मुझे बड़ा गुस्सा आया । मैंने तब कुछ आगा-पीछा न सोचकर मुनि को बहुत कष्ट दिया, उन पर घोर उपसर्ग किया। उनके तप के प्रभाव से जिनभक्त पद्मावती देवी का आसन हिला और वह उसी समय वहाँ आई उसने मुनि का उपसर्ग दूर किया। सच है, साधुओं पर किए उपद्रव को सम्यग्दृष्टि कभी नहीं सह सकते । माँ, उस समय देवी ने गुस्सा होकर मेरी सब विद्याएँ नष्ट कर दीं । मेरा सब अभिमान चूर हुआ । मैं एक मद रहित हाथी की तरह निःसत्व-तेज रहित हो गया। मैं अपनी इस दशा पर बहुत पछताया । मैं रोकर देवी से बोला- प्यारी माँ, मैं आपका अज्ञानी बालक हूँ। मैंने जो कुछ यह बुरा काम किया वह सब मूर्खता और अज्ञान से न समझ कर ही किया है। आप मुझे इसके लिए क्षमा करें और मेरी विद्याएँ मुझे लौटा दें। इसमें कोई संदेह नहीं कि मेरी यह दीनता भरी पुकार व्यर्थ न गई। देवी ने शान्त होकर मुझे क्षमा किया और वह बोली-मैं तुझे तेरी विद्याएँ लौटा देती, पर मुझे तुझसे एक महान् कार्य करवाना है इसलिए मैं कहती हूँ वह कर। समय पाकर सब विद्याएँ तुझे अपने आप सिद्ध हो जायेगी। मैं हाथ जोड़े हुए उसके मुँह की ओर देखने लगा । वह बोली - "हस्तिनापुर के श्मशान में एक विपत्ति की मारी स्त्री के गर्भ से एक पुण्यवान् और तेजस्वी पुत्ररत्न जन्म लेगा । उस समय पहुँचकर तू उसकी सावधानी से रक्षा करना और अपने घर लाकर पालना - पोसना। उसके राज्य समय तुझे सब विद्याएँ सिद्ध होगी। माँ उसकी आज्ञा से मैं तभी से यहाँ इस वेष में रहता हूँ । इसलिए कि मुझे कोई पहचान न सके। माँ, यही मुझ अभागे की कथा है। आज मैं आपकी दया से कृतार्थ हुआ। पद्मावती विद्याध का हाल सुनकर दुःखी जरूर हुई, पर उसे अपने पुत्र का रक्षक मिल गया, इससे कुछ सन्तोष भी हुआ । उसने तब अपने प्रिय बच्चे को विद्याधर के हाथ में रखकर कहा- भाई, इसकी सावधानी से रक्षा करना ।अब इसके तुम ही सब प्रकार से कर्ता-धर्ता हो । मुझे विश्वास है कि तुम इसे अपना ही प्यारा बच्चा समझोगे। उसने फिर पुत्र के प्रकाशमान चेहरे पर प्रेमभरी दृष्टि डालकर पुत्र वियोग से भर आए हृदय से कहा-मेरे लाल! तुम पुण्यवान् होकर भी उस अभागिनी माँ के पुत्र हुए हो, जो जन्मते ही तुम्हें छोड़कर बिछुड़ना चाहती है। लाल ! मैं तो अभागिनी थी ही, पर तुम भी ऐसे अभागे हुए जो अपनी माँ के प्रेममय हृदय का कुछ भी पता न पा सके और न पाओगे ही। मुझे इस बात का बड़ा खेद रहेगा कि जिस पुत्र ने अपनी प्रेम - प्रतिमा माँ के पवित्र हृदय द्वारा प्रेम का पाठ न सीखा वह दूसरों के साथ किस तरह प्रेम करेगा? कैसे दूसरों के साथ प्रेम का बरताव कर उनका प्रेमपात्र बनेगा? जो हो, तब भी मुझे इस बात की खुशी है कि तुम एक दूसरी माँ के पास जाते हो और वह भी आखिर है तो माँ ही । जाओ लाल जाओ, सुख से रहना, परमात्मा तुम्हारा मंगल करें । इस प्रकार प्रेममय पवित्र आशीष देकर पद्मावती कड़ा हृदय कर चल दी । बालदेव ने उस सुन्दर और तेजपुंज बच्चे को अपने घर ले आकर अपनी प्रिया कनकमाला की गोद में रख दिया और कहा- - प्रिये, भाग्य से मिली इस निधि को लो। कनकमाला उस बाल - चन्द्रमा से अपनी गोद को भरी देखकर फूली न समाई। वह उसे जितना देखती उसका प्रेम क्षण-क्षण में अनंत गुणा बढ़ता ही गया । कनकमाला का जितना प्रेम होना संभव न था उतना इस नये बालक पर उसका प्रेम हो गया, सचमुच यह आश्चर्य है अथवा नई वस्तु स्वभाव से प्रिय होती है और फिर वह अपनी हो जाये तब तो उस पर होने वाले प्रेम के सम्बन्ध में कहना ही क्या? और वह प्रेम, जिसकी प्राप्ति के लिए आत्मा सदा तड़फा ही करता है और वह पुत्र जैसी परम प्रिय वस्तु तब पढ़ने वाले कनकमाला के प्रेममय हृदय का एक बार अवगाहन करके देखें कि एक नई माँ जिस बच्चे पर इतना प्रेम करती है तब जिसने उसे जन्म दिया उसके प्रेम का क्या कुछ अन्त है-सीमा है! नहीं। माँ का अपने बच्चे पर जो प्रेम होता है उसकी तुलना किसी दृष्टांत या उदाहरण द्वारा नहीं की जा सकती और जो करते हैं वे माँ के अनन्त प्रेम को कम करने का यत्न करते हैं। कनकमाला उसे पाकर बहुत प्रसन्न हुई । उसने उसका नाम करकण्डु रखा। इसलिए कि उस बच्चे के हाथ में उसे खुजली दीख पड़ी थी । कनकमाला ने उसका लालन-पालन करने में अपने खास बच्चे से कोई कमी न की । सच है, पुण्य के उदय से कष्ट समय में भी जीवों को सुख सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है। इसलिए भव्यजनों को जिन पूजा, पात्र - दान, व्रत, उपवास, शील, संयम आदि पुण्य-कर्मों द्वारा सदा शुभ कर्म करते रहना चाहिए ॥८०-९३॥ पद्मावती तब करकण्डु से जुदा होकर गान्धारी नाम की क्षुल्लिका के पास आई उसे उसने भक्ति से प्रणाम किया और आज्ञा पा उसी के पास वह बैठ गई। थोड़ी देर बार पद्मावती ने उस क्षुल्लिका से अपना सब हाल कहा और जिनदीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की । क्षुल्लिका उसे तब समाधिगुप्त मुनि के पास लिवा गई पद्मावती ने मुनिराज को नमस्कार कर उनसे भी अपनी इच्छा कह सुनाई। उत्तर में मुनि ने कहा- बहिन, तू साध्वी होना चाहती है, तेरा यह विचार बहुत अच्छा है पर यह समय तेरी दीक्षा के लिए उपयुक्त नहीं हैं। कारण तूने पहले जन्म में नागदत्ता की पर्याय में जिनव्रत को तीन बार ग्रहण कर तीनों बार ही छोड़ दिया था और फिर चौथी बार ग्रहण कर तू उसके फल से राजकुमार हुई तूने तीन बार व्रत छोड़ा उससे तुझे तीनों बार ही दुःख उठाना पड़ा। तीसरी बार का कर्म कुछ और बचा है। वह जब शान्त हो जाए और इस बीच में तेरे पुत्र को भी राज्य मिल जाए तब कुछ दिनों तक राज्य सुख भोग कर फिर पुत्र के साथ-साथ ही तू भी साध्वी होना । मुनि द्वारा अपना भविष्य सुनकर पद्मावती उन्हें नमस्कार कर उस क्षुल्लिका के साथ चली गई। अब से वह पद्मावती उसी के पास रहने लगी ॥९४-१००॥ इधर करकण्डु बालदेव के यहाँ दिनों-दिन बढ़ने लगा। जब उसकी पढ़ने की उमर हुई तब बालदेव ने अच्छे-अच्छे विद्वान् अध्यापकों को रखकर उसे पढ़ाया। करकण्डु पुण्य के उदय से थोड़े ही वर्षों में पढ़-लिखकर अच्छा होशियार हो गया। कई विषय में उसकी अरोक गति हो गई एक दिन बालदेव और करकण्डु हवा-खोरी करते-करते शहर के बाहर श्मशान में आ निकले। ये दोनों एक अच्छी जगह बैठकर श्मशान भूमि की लीला देखने लगे। इतने में जयभद्र मुनिराज अपने संघ को लिए इसी श्मशान में आकर ठहरे । यहाँ एक नर - कपाल पड़ा हुआ था । उसके मुँह और आँखों के तीन छेदों में तीन बाँस उग रहे थे। उसे देखकर एक मुनि ने विनोद से अपने गुरु से पूछा-भगवान् यह क्या कौतुक है, जो इस नर - कपाल में तीन बाँस उगे हुए हैं? तपस्वी मुनि ने उसके उत्तर में कहा- इस हस्तिनापुर का जो नया राजा होगा, इस बाँसों के उसके लिए अंकुश, छत्र, दण्ड वगैरह बनेंगे। जयभद्राचार्य द्वारा कहे गए इस भविष्य को किसी एक ब्राह्मण ने सुन लिया। अतः वह धन की आशा से इन बाँसों को उखाड़ लाया। उसके हाथ से इन्हें करकण्डु ने खरीद लिया। सच है मुनि लोग जिसके सम्बन्ध में जो बात कह देते हैं वह फिर होकर ही रहती है। उस समय हस्तिनापुर का राजा बलवाहन था। इसके कोई संतान न थी । उसकी मृत्यु हो गई अब राजा किसको बनाया जाए, इस विषय में चर्चा चली। आखिर यह निश्चय हुआ कि महाराज का खास हाथी जल भरा सुवर्ण-कलश देकर छोड़ा जाए। वह जिसका अभिषेक कर राजसिंहासन पर ला बैठा दे, वही इस राज्य का मलिक हो। ऐसा ही किया गया। हाथी राजा को ढूँढ़ने निकला। चलता-चलता वह करकण्डु के पास पहुँचा। वही इसे अधिक पुण्यवान् दीख पड़ा। उसी समय उसने करकण्डु का अभिषेक कर उसे अपने ऊपर चढ़ा लिया और राज्यसिंहासन पर ला रख दिया। सारी प्रजा ने उस तेजस्वी करकण्डु को अपना मालिक हुआ देख खूब जय-जयकार मनाया और खूब आनन्द उत्सव किया । करकण्डु के भाग्य का सितारा चमका। वह राजा हुआ । सच है, जिन भगवान् की पूजा के फल से क्या-क्या प्राप्त नहीं होता। करकण्डु के राजा होते ही बालदेव को उसकी नष्ट हुई विद्याएँ फिर सिद्ध हो गई उसे उसकी सेवा का मनचाहा फल मिल गया। इसके बाद बालदेव विद्या की सहायता से करकण्डु की खास माँ पद्मावती जहाँ थी, वहाँ गया और उसे करकण्डु के पास लाकर उसने दोनों माता-पुत्रों का मिलाप करवाया। पद्मावती आज कृतार्थ हुई उसकी वर्षों की तपस्या समाप्त हुई पश्चात् बालदेव इन दोनों को बड़ी नम्रता से प्रणाम कर अपनी राजधानी में चला गया ॥ १०१-११५॥ करकण्डु के राजा होने पर कुछ राजा लोग उससे विरुद्ध होकर लड़ने को तैयार हुए। पर करकण्डु ने अपनी बुद्धिमानी और राजनीति की चतुरता से सबको अपना मित्र बनाकर देशभर में शत्रु का नाम भी न रहने दिया। वह फिर सुख से राज्य करने लगा । करकण्डु के दिनों-दिन बढ़ते हुए प्रताप की खबर चारों ओर फैलती-फैलती दन्तिवाहन के पास पहुँची । दन्तिवाहन करकण्डु के पिता हैं। पर न तो दन्तिवाहन को यह ज्ञात था कि करकण्डु मेरा पुत्र है और न करकण्डु को इस बात का पता था कि दन्तिवाहन मेरे पिता हैं । यही कारण था कि दन्तिवाहन को इस नये राजा का प्रताप सहन नहीं हुआ । उन्होंने अपने एक दूत को करकण्डु के पास भेजा । दूत ने आकर करकण्डु से प्रार्थना की- " राजाधिराज दन्तिवाहन मेरे द्वारा आपको आज्ञा करते हैं कि यदि राज्य आप सुख से करना चाहते हैं तो उनकी आप आधीनता स्वीकार करें। ऐसे किए बिना किसी देश के किसी हिस्से पर आपकी सत्ता नहीं रह सकती।” करकण्डु एक तेजस्वी राजा और उस पर एक दूसरे की सत्ता, सचमुच करकण्डु के लिए यह आश्चर्य की बात थी। उसे दन्तिवाहन की इस धृष्टता पर बड़ा क्रोध आया। उसने तेज आँखें कर दूत की ओर देखा और उससे कहा-यदि तुम्हें अपनी जान प्यारी है तो तुम यहाँ से जल्दी भाग जाओ। तुम दूसरे के नौकर हो, इसलिए मैं तुम पर दया करता हूँ नहीं तो तुम्हारी इस धृष्टता का फल तुम्हें मैं अभी ही बता देता । जाओ और अपने मालिक से कह दो कि वह रणभूमि में आकर तैयार रहे। मुझे जो कुछ करना होगा मैं वही करूँगा । दूत ने जैसे ही करकण्डु की आँखें चढ़ी देखीं वह उसी समय डरकर राजदरबार से रवाना हो गया ॥११६-१२१॥ इधर करकण्डु अपनी सेना में युद्धघोषणा दिलवा कर आप दन्तिवाहन पर जा चढ़ा और उनकी राजधानी को उसने सब ओर से घेर लिया । दन्तिवाहन तो इसके लिए पहले ही से तैयार थे । वे भी सेना ले युद्धभूमि में उतरे । दोनों ओर की सेना में व्यूह रचना हुई रणवाद्य बजने वाला ही था कि पद्मावती को यह ज्ञान हो कि यह युद्ध शत्रुओं का न होकर खास पिता-पुत्र का है। वह तब उसी समय अपने प्राणनाथ के पास गई और सब हाल उसने उन से कह सुनाया । दन्तिवाहन को इस समय अपनी प्रिया-पुत्र को प्राप्त कर जो आनन्द हुआ, उसका पता उन्हीं के हृदय को हैं । दूसरा वह कुछ थोड़ा बहुत पा सकता है जिस पर ऐसा ही भयानक प्रसंग आकर कभी पड़ा हो । सर्वसाधारण उनके उस आनन्द का, उस सुख का थाह नहीं ले सकते । दन्तिवाहन तब उसी समय हाथी से उतर कर अपने प्रिय-पुत्र के पास आए। करकण्डु को ज्ञात होते ही वह उनके सामने दौड़ा गया और जाकर उनके पाँवों में गिर पड़ा। दन्तिवाहन ने झट से उसे उठाकर अपनी छाती से लगा लिया। पिता-पुत्र का पुण्य मिलाप हुआ । इसके बाद दन्तिवाहन ने बड़े आनन्द और ठाठबाट से पुत्र का शहर में प्रवेश कराया। प्रजा ने अपने युवराज का अपार आनन्द के साथ स्वागत किया। घर-घर आनन्द उत्सव मनाया गया । दान दिया गया। पूजा-प्रभावना की गई महा अभिषेक किया गया। गरीब लोग मनचाही सहायता से खुश किए गए। इस प्रकार पुण्य-प्रसाद से करकण्डु ने राज्यसम्पत्ति के सिवा कुटुम्ब - सुख भी प्राप्त किया। वह अब स्वर्ग के देवों की तरह सुख से रहने लगा ॥१२२-१२८॥ कुछ दिनों बाद दन्तिवाहन ने अपने पुत्र का विवाह समारंभ किया । उसमें उन्होंने खूब खर्च कर बड़े वैभव के साथ करकण्डु का कोई आठ हजार राजकुमारियों के साथ ब्याह किया । ब्याह के बाद ही दन्तिवाहन राज्य का भार सब करकण्डु के जिम्मे कर आप अपनी प्रिया पद्मावती के साथ सुख से रहने लगे। सुख-चैन से समय बिताना उन्होंने अब अपना प्रधान कार्य रखा ॥१२९-१३१॥ इधर करकण्डु राज्यशासन करने लगा। प्रजा को उसके शासन की जैसी आशा थी, करकण्डु ने उससे कहीं बढ़कर धर्मज्ञता, नीति और प्रजा प्रेम बतलाया । प्रजा को सुखी बनाने में उसने कोई बात की कमी न रखी। इस प्रकार वह अपने पुण्य का फल भोगने लगा। एक दिन समय देख मंत्रियों ने करकण्डु से निवेदन किया- महाराज, चेरम, पाण्ड्य और चोल आदि राजा चिर समय से अपने आधीन हैं। पर जान पड़ता है उन्हें इस समय कुछ अभिमान ने आ घेरा है। वे मानपर्वत का आश्रय पा अब स्वतंत्र से हो रहे हैं। राज - कर वगैरह भी अब वे नहीं देते। इसलिए उन पर चढ़ाई करना बहुत आवश्यक है। इस समय ढील कर देने से सम्भव है थोड़े ही दिनों में शत्रुओं का जोर अधिक बढ़ जायें इसलिए इसके लिए प्रयत्न कीजिए कि वे ज्यादा सिर पर न चढ़ें, उसके पहले ही ठीक ठिकाने लगाया जाये। मंत्रियों की सलाह सुन और उस पर विचार कर पहले करकण्डु ने उन लोगों के पास अपना दूत भेजा। दूत अपमान के साथ लौट आया। करकण्डु ने सब सीधी तरह सफलता प्राप्त न होती देखी तब उसे युद्ध के लिए तैयार होना पड़ा। वह सेना लिए युद्धभूमि में जा डटा । शत्रु लोग भी चुपचाप न बैठकर उसके सामने हुए। दोनों ओर की सेना की मुठभेड़ हो गई घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर के हजारों वीर काम आए। अन्त में करकण्डु की सेना के युद्धभूमि से पाँव उखड़े। यह देख करकण्डु स्वयं युद्धभूमि में उतरा। बड़ी वीरता से वह शत्रुओं के साथ लड़ा। इस नई उम्र में उसकी इस प्रकार वीरता देखकर शत्रुओं को दाँतों तले उँगली दबाना पड़ी। विजयश्री ने करकण्डु को ही वरा। जब शत्रु राजा आ-आकर इसके पाँव पड़ने लगे और इसकी नजर उनके मुकुटों पर पड़ी तो देखकर यह एक साथ हतप्रभ हो गया और बहुत- बहुत पश्चाताप करने लगा कि हाय ! मुझ पापी ने यह अनर्थ क्यों किया? न जाने इस पाप से मेरी क्या गति होगी? बात यह थी कि उन राजाओं के मुकुटों में जिन भगवान् की प्रतिमाएँ खुदी हुई थी और वे राजा जैनी थे । अपने धर्मबन्धुओं को जो उसने कष्ट दिया और भगवान् का अविनय किया उसका उसे बेहद दुःख हुआ । उसने उन लोगों को बड़े आदरभाव से उठाकर पूछा- क्या सचमुच आप जैनधर्मी हैं? उनकी ओर से सन्तोषजनक उत्तर पाकर उसने बड़े कोमल शब्दों में उनसे कहा-महानुभावो, मैंने क्रोध से अन्धे होकर जो आपको यह व्यर्थ कष्ट दिया, आप पर उपद्रव किया, इसका मुझे अत्यन्त दुःख है। मुझे इस अपराध के लिए आप लोग क्षमा करें। इस प्रकार उनसे क्षमा कराकर उनको साथ लिए वह अपने देश को रवाना हुआ ॥ १३२-१४२॥ रास्ते में तेरपुर के पास इनका पड़ाव पड़ा। इसी समय कुछ भीलों ने आकर नम्र मस्तक से इनसे प्रार्थना की-राजाधिराज, हमारे तेरपुर से दो - कोस दूरी पर एक पर्वत है । उस पर एक छोटा-सा धाराशिव नाम का गाँव बसा हुआ है। इस गाँव में एक बहुत बड़ा ही सुन्दर और भव्य जिनमन्दिर बना हुआ है। उसमें विशेषता यह है कि उसमें कोई एक हजार खम्भे हैं। वह बड़ा सुन्दर है। उसे आप देखने को चलें। इसके सिवा पर्वत पर एक यह आश्चर्य की बात है कि वहाँ एक बाँवी है। एक हाथी रोज अपनी सूँड में थोड़ा-सा पानी और एक कमल का फूल लिए वहाँ आता है और उस बाँवी की परिक्रमा देकर वह पानी और फूल उस पर चढ़ा देता है। इसके बाद वह उसे अपना मस्तक नवाकर चला जाता है। उसका यह प्रतिदिन का नियम है। महाराज ! नहीं जान पड़ता कि इसका क्या कारण है? करकण्डु भीलों द्वारा यह शुभ समाचार सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ । इस समाचार को लाने वाले भीलों को उचित इनाम देकर वह स्वयं सबको साथ लिए, उस कौतुकमय स्थान को देखने गया। पहले उसने जिनमन्दिर जाकर भक्ति पूर्वक भगवान् की पूजा की, स्तुति की। सच है - धर्मात्मा पुरुष धर्म के कामों में कभी प्रमाद - आलस नहीं करते। बाद में वह उस बाँवी की जगह गया । उसने वहाँ भीलों के कहे माफिक हाथी को उस बाँवी की पूजा करते पाया। देखकर उसे बड़ा अचम्भा हुआ उसने सोचा कि इसका कुछ न कुछ कारण होना चाहिए। नहीं तो इस पशु में ऐसा भक्तिभाव नहीं देखा जाता । यह विचार कर उसने उस बाँवी को खुदवाया । उसमें से एक सन्दूक निकली। उसने उसे खोलकर देखा । सन्दूक में एक रत्नमयी पार्श्वनाथ भगवान् की पवित्र प्रतिमा थी । उसे देखकर धर्मप्रेमी करकण्डु को अतिशय प्रसन्नता हुई उसने तब वहाँ‘अग्गलदेव' नाम का एक विशाल जिन मन्दिर बनवाकर उसमें बड़े उत्सव के साथ उस प्रतिमा को विराजमान किया। प्रतिमा पर एक गाँठ देखकर करकण्डु ने शिल्पकार से कहा-देखो, तो प्रतिमा पर यह गाँठ कैसी है? प्रतिमा की सब सुन्दरता इससे मारी गई इसे सावधानी के साथ तोड़ दो। यह अच्छी नहीं दीख पड़ती ॥१४३-१५५॥ शिल्पकार ने कहा-महाराज, यह गाँठ ऐसी वैसी नहीं है जो तोड़ दी जाये । ऐसी रत्नमयी दिव्य प्रतिमा पर गाँठ होने का कुछ न कुछ कारण जान पड़ता है। इसका बनाने वाला इतना कम बुद्धि न होगा कि प्रतिमा की सुन्दरता नष्ट होने का ख्याल न कर इस गाँठ को रहने देता। मुझे जहाँ तक जान पड़ता है, इस गाँठ का सम्बन्ध किसी भारी जल-प्रवाह से होना चाहिए और यह असंभव भी नहीं । संभवतः इसकी रक्षा के लिए यह प्रयत्न किया गया हो। इसलिए मेरी समझ में इसका तुड़वाना उचित नहीं। करकण्डु ने उसका कहा न माना। उसे उसकी बात पर विश्वास न हुआ। उसने तब शिल्पकार से बहुत आग्रह कर आखिर उसे तुड़वाया ही । जैसे ही वहाँ गाँठ टूटी उसमें से एक बड़ा भारी जल- प्रवाह वह निकला। मन्दिर में पानी इतना भर गया कि करकण्डु वगैरह को अपने जीवन के बचने का भी सन्देह हो गया। तब वह जिनभक्त उस प्रवाह के रोकने के लिए संन्यास ले कुशासन पर बैठ कर परमात्मा का स्मरण चिंतन करने लगा । उसके पुण्य - प्रभाव से नागकुमार ने प्रत्यक्ष आकर उससे कहा- राजन् काल अच्छा नहीं इसलिए प्रतिमा की सुरक्षा के लिए मुझे यह जल पूर्ण लवण बनाना पड़ा इसलिए आप इस जलप्रवाह के रोकने का आग्रह न करें इस प्रकार ककण्डु को नागकुमार ने समझा कर आसन पर से उठ जाने को कहा। करकण्डु नागकुमार के कहने से संन्यास छोड़ उठ गया। उठकर उसने नागकुमार से पूछा- क्यों जी, ऐसा सुन्दर यह लवण यहाँ किसने बनाया और किसने इस बाँवी में इस प्रतिमा को विराजमान किया? नागकुमार ने कहा - सुनिए, विजयार्द्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में खूब सम्पत्तिशाली नभस्तिलक नाम का एक नगर था । उसमें अमितवेग और सुवेग नाम के दो विद्याधर राजा हो चुके हैं। दोनों धर्मज्ञ और सच्चे जिनभक्त थे । एक दिन वे दोनों भाई आर्यखण्ड के जिनमन्दिरों के दर्शन करने के लिए आये । कई मंदिरों में दर्शन-पूजन कर वे मलयाचल पर्वत पर आये यहाँ घूमते हुए उन्होंने पार्श्वनाथ भगवान् की इस रत्नमयी प्रतिमा को देखा । इसके दर्शन कर उन्होंने इसे एक सन्दूक में बन्द कर दिया और सन्दूक को एक गुप्त स्थान पर रखकर वे उस समय चले गए। कुछ समय बाद वे आकर उस सन्दूक को कहीं अन्यत्र ले जाने के लिए उठाने लगे पर सन्दूक अब की बार उनसे न उठी। तब तेरपुर जाकर उन्होंने अवधिज्ञानी मुनिराज से अब हाल कहकर सन्दूक के न उठने का कारण पूछा। मुनि ने कहा- " - "सुनिए, यह सुखकारिणी सन्दूक तो पहले लयण ऊपर दूसरा लयण होगी। मतलब यह कि यह सुवेग आर्तध्यान से मरकर हाथी होगा। वह इस सन्दूक की पूजा किया करेगा। कुछ समय बाद करकण्डु राजा यहाँ आकर इस सन्दूक को निकालेगा और सुवेग का जीव हाथी तब संन्यास ग्रहण कर स्वर्ग गमन करेगा । इस प्रकार मुनि द्वारा इस प्रतिमा की चिरकाल तक अवस्थिति जानकर उन्होंने मुनि से फिर पूछा- तो प्रभो ! इस लयण को किसने बनाया? मुनिराज बोले-इसी विजयार्द्ध की दक्षिण श्रेणी में बसे हुए रथनूपुर में नील और महानील नाम के दो राजा हो गए हैं। शत्रुओं के साथ युद्ध में उनकी विद्या, धन, राज्य वगैरह सब कुछ नष्ट हो गया। तब वे इस मलय पर्वत पर आकर बसे । यहाँ वे कई वर्षों तक आराम से रहे। दोनों भाई बड़े धर्मात्मा थे। उन्होंने यह लयण बनवाया। पुण्य से उन्हें उनकी विद्याएँ फिर प्राप्त हो गई तब वे पीछे अपनी जन्मभूमि रथनूपुर चले गए। इसके बाद कुछ दिनों तक वे दोनों गृह- संसार में रहे। फिर जिनदीक्षा लेकर दोनों भाई साधु हो गए। अन्त में तपस्या के प्रभाव से वे स्वर्ग गए।" इस प्रकार सब हाल सुनकर बड़ा भाई अमितवेग तो उसी समय दीक्षा लेकर मुनि हो गया और अन्त में समाधि से मरकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ और सुवेग- अमितवेग का छोटा भाई आर्तध्यान से मरकर वह हाथी हुआ। सो ब्रह्मोत्तर स्वर्ग से पूर्व जन्म के भातृप्रेम के वश देखने आकर उसे धर्मोपदेश किया, समझाया। उससे इस हाथी को जातिस्मरण हो गया । तब उसने अणुव्रत ग्रहण किए। तब से यह इस प्रकार शान्त रहता है और सदा इस बाँवी की पूजन किया करता है तुमने बाँवी तुड़ाकर उसमें से प्रतिमा निकाल ली तब से हाथी संन्यास लिए यहीं रहता है और राजन्, आप पूर्वजन्म में इसी तेरपुर में ग्वाले थे। आपने तब एक कमल के फल द्वारा जिनभगवान् की पूजा की थी। उसी के फल से समय आप राजा हुए हैं। राजन्, यह जिनपूजा सब पुण्यकर्मों में उत्तम पुण्यकर्म है यही तो कारण है कि क्षणमात्र में इसके द्वारा उत्तम से उत्तम सुख प्राप्त हो सकता है। इस प्रकार करकण्डु को आदि से इति पर्यन्त सब हाल कहकर और धर्म प्रेम से उसे नमस्कार कर नागकुमार अपने स्थान चला गया। सच है यह पुण्य ही का प्रभाव है जो देव भी मित्र हो जाते हैं ॥१५६-१९२॥ हाथी को संन्यास लिए आज तीसरा दिन था । करकण्डु ने उसके पास जाकर उसे धर्म का पवित्र उपदेश किया हाथी अन्त में सम्यक्त्व सहित मरकर सहस्रार स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ। एक पशु धर्म का उपदेश सुनकर स्वर्ग में अनन्त सुखों का भोगने वाला देव हुआ, तब जो मनुष्य जन्म पाकर पवित्र भावों से धर्म पालन करें तो उन्हें क्या प्राप्त न हो? बात यह है कि धर्म से बढ़कर सुख देने वाली संसार में कोई वस्तु है ही नहीं । इसलिए धर्म प्राप्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहना चाहिए। करकण्डु ने इसके बाद इसी पर्वत पर अपने, अपनी माँ के तथा बालदेव के नाम से विशाल और सुन्दर तीन जिनमन्दिर बनवाएँ, बड़े वैभव के साथ उनकी प्रतिष्ठा करवाई जब करकण्डु ने देखा कि मेरा सांसारिक कर्तव्य सब पूरा हो चुका, तब राज्य का सब भार अपने पुत्र वसुपाल को सौंप कर और संसार, शरीर, भोगों को महादोष वाला जानकर करके भोगादि से विरक्त होकर आप अपने माता-पिता तथा और भी कई राजाओं के साथ जिनदीक्षा ले योगी हो गया । योगी होकर करकण्डु मुनि ने खूब तप किया, जो कि निर्दोष और संसार-समुद्र से पार करने वाला है । अन्त में परमात्म-स्मरण में लीन हो उसने भौतिक शरीर छोड़ा। तप के प्रभाव से उसे सहस्रार स्वर्ग में दिव्य देह मिली। पद्मावती, दन्तिवाहन तथा अन्य राजा तो अपने पुण्य के अनुसार स्वर्गलोक गए ॥ १९३ - २०२॥ करकण्डु ने ग्वाले के जन्म में केवल एक कमल के फूल द्वारा भगवान् की पूजा की थी । उसे उसका जो फल मिला उसे आप सुन चुके हैं । तब जो पवित्र भावपूर्वक आठ द्रव्यों से भगवान् की पूजा करेंगे उनके सुख का तो फिर पूछना ही क्या? थोड़े में यों समझिए कि जो भव्यजन भक्ति से भगवान् की प्रतिदिन पूजा किया करते हैं वे सर्वोत्तम - सुख मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं, तब और सांसारिक सुखों की तो उनके सामने गिनती ही क्या हैं? ॥२०३-२०४॥ एक बे-समझ ग्वाले ने जिन भगवान् के पवित्र चरणों की एक कमल के फूल से पूजा की थी, उसके फल से वह करकण्डु राजा होकर देवों द्वारा पूज्य हुआ । इसलिए सुख की चाह करने वाले भव्यजनों को भी उचित है कि वे जिन-पूजा की ओर अपने ध्यान को आकर्षित करें । उससे उन्हें मनचाहा सुख मिलेगा, क्योंकि भावों का पवित्र होना पुण्य का कारण है और भावों के पवित्र करने को जिन-पूजा भी एक प्रधान कारण है ॥२०५॥
  10. मोक्ष की प्राप्ति के लिए भगवान् के चरणों को नमस्कार कर अभय - दान द्वारा फल प्राप्त करने वाली की कथा जैनग्रन्थों के अनुसार यहाँ संक्षेप में लिखी जाती है ॥१॥ भव्यजनों द्वारा भक्ति से पूजी जाने वाली सरस्वती श्रुतज्ञानरूपी महासमुद्र के पार पहुँचाने के लिए नाव की तरह मेरी सहायता करें | परब्रह्म स्वरूप आत्मा का निरन्तर ध्यान करने वाले उन योगियों को शान्ति के लिए मैं सदा याद करता हूँ, जिनकी केवल भक्ति से भव्यजन सन्मार्ग लाभ करते हैं, सुखी होते हैं। इस प्रकार मंगलमय जिनभगवान्, जिनवाणी और जैन योगियों का स्मरण कर मैं वसतिदान-अभयदान की कथा लिखता हूँ ॥२-४॥ धर्म-प्रचार, धर्मोपदेश, धर्म- क्रिया आदि द्वारा पवित्रता लाभ किए हुए भारतवर्ष में मालवा में बहुत काल से प्रसिद्ध और सुन्दर देश है । अपनी सर्वश्रेष्ठ सम्पदा और ऐश्वर्य से वह ऐसा जान पड़ता है मानों सारे संसार की लक्ष्मी यहीं आकर इकट्ठी हो गई है। वह सुख देने वाले बगीचों, प्रकृति- सुन्दर पर्वतों और सरोवरों की शोभा से स्वर्ग के देवों को भी अत्यन्त प्यारा है। वे यहाँ आकर मनचाहा सुख लाभ करते हैं। यहाँ के स्त्री-पुरुष सुन्दरता में अपनी तुलना में किसी को न देखते थे। देश के सब लोग खूब सुखी थे, भाग्यशाली थे और पुण्यवान् थे । मालवे के सब शहरों में, पर्वतों में और सब वनों में बड़े-बड़े ऊँचे विशाल और भव्य जिनमन्दिर बने हुए थे। उनके ऊँचे शिखरों में लगे हुए सोने के चमकते कलश बड़े सुन्दर जान पड़ते थे। रात में तो उनकी शोभा बड़ी ही विलक्षणता धारण करती थी। वे ऐसे जान पड़ते थे मानों स्वर्गों के महलों में दीये जगमगा रहे हों। हवा के झकोरों से इधर-उधर फड़क रही उन मन्दिरों पर की ध्वजाएँ ऐसी देख पड़ती थीं मानों वे पथिकों को हाथों के इशारे से स्वर्ग जाने का रास्ता बतला रही हैं। उन पवित्र जिन मन्दिरों के दर्शन मात्र से पापों का नाश होता था तब उनके सम्बन्ध में और अधिक क्या लिखें। जिनमें बैठे हुए रत्नत्रय धारी साधु-तपस्वियों को उपदेश करते हुए देखकर यह कल्पना होती थी कि मानों वे मोक्ष के रास्ते हों ॥५- १२॥ मालवे में जिन भगवान् के पवित्र और सुख देने वाले धर्म का अच्छा प्रचार है। सम्यक्त्व की जगह-जगह चर्चा है। अनेक सम्यक्त्व रत्न के धारण करने वाले भव्यजनों से वह युक्त हैं। दान-व्रत, पूजा-प्रभावना आदि वहाँ खूब हुआ करते हैं। वहाँ के भव्यजनों का निर्भ्रान्त विश्वास है कि अठारह दोष रहित जिन भगवान् ही सच्चे देव हैं। वे ही केवलज्ञानी - सर्वज्ञ हैं । उनकी स्वर्ग के देव तक सेवा-पूजा करते हैं। सच्चा धर्म दशलक्षणमय है और उनके प्रकटकर्ता जिनदेव हैं। गुरु परिग्रह रहित और वीतरागी है। तत्त्व वही सच्चा हैं जिसे जिन भगवान् ने उपदेश किया है । वहाँ के भव्यजन अपने नित्य-नैमित्तिक कर्मों में सदा प्रयत्नवान् रहते हैं। वे भगवान् की स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाली पूजा सदा करते हैं, पात्रों को भक्ति से पवित्र दान देते हैं, व्रत, उपवास, शील, संयम को पालते हैं और आयु के अन्त में सुख-शांति से मृत्यु लाभ कर सद्गति प्राप्त करते हैं । इस प्रकार मालवा उस समय धर्म का प्रधान केन्द्र बन रहा था, जिस समय की कि यह कथा है ॥१३-१७॥ मालवे में तब एक घटगाँव नाम का सम्पत्ति शाली शहर था । इस शहर में देविल नाम का एक धनी कुम्हार और एक धर्मिल नाम का नाई रहता था। इन दोनों ने मिलकर बाहर के आने वाले यात्रियों के ठहरने के लिए धर्मशाला बनवा दी। एक दिन देविल ने एक मुनि को लाकर इस धर्मशाला में ठहरा दिया। धर्मिल को जब मालूम हुआ तो उसने मुनि को हाथ पकड़ कर बाहर निकाल दिया और वहाँ संन्यासी को लाकर ठहरा दिया। सच है, जो दुष्ट हैं, दुराचारी हैं, पापी हैं, उन्हें साधु-सन्त अच्छे नहीं लगते, जैसे उल्लू को सूर्य । धर्मिल ने मुनि को निकाल दिया, उनका अपमान किया, पर मुनि ने इसका कुछ बुरा न माना। वे जैसे शान्त थे वैसे ही रहे । धर्मशाला से निकल कर वे एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर गए। रात इन्होंने वहीं पूरी की। डांस, मच्छर वगैरह का इन्हें बहुत कष्ट सहना पड़ा। इन्होंने सब सहा और बड़ी शान्ति से सहा । सच है, जिनका शरीर से रत्तीभर मोह नहीं उनके लिए तो कष्ट कोई चीज ही नहीं । सबेरे जब देविल मुनि के दर्शन करने को आया और उन्हें धर्मशाला में न देखकर एक वृक्ष के नीचे बैठा देखा तो उसे धर्मिल की इस दुष्टता पर बड़ा क्रोध आया । धर्मिल का सामना होने पर उसने उसे फटकारा। देविल की फटकार धर्मिल न सह सका और बात बहुत बढ़ गई यहाँ तक कि परस्पर में मारामारी हो गई, दोनों ही परस्पर में लड़कर मर मिटे । क्रूर भावों से मरकर ये दोनों क्रम से सूअर और व्याघ्र हुए। देविल का जीव सूअर विंध्य पर्वत की गुफा में रहता था। एक दिन कर्मयोग गुप्त और त्रिगुप्ति नाम के दो मुनिराज अपने विहार से पृथ्वी को पवित्र करते इसी गुफा में आकर ठहरे। उन्हें देखकर इस सूअर को जातिस्मरण हो गया । इसने उपदेश करते हुए मुनिराज द्वारा धर्म का उपदेश सुन कुछ व्रत ग्रहण किए । व्रत ग्रहण कर यह बहुत सन्तुष्ट हुआ ॥१८-२९॥ इसी समय मनुष्यों की गन्ध पाकर धर्मिल का जीव व्याघ्र मुनियों को खाने के लिए झपटा हुआ आया। सूअर उसे दूर से देखकर गुफा के द्वार पर आकर डट गया । इसलिए कि वह भीतर बैठे हुए मुनियों की रक्षा कर सके । व्याघ्र ने गुफा के भीतर घुसने के लिए सूअर पर बड़ा जोर का आक्रमण किया। सूअर पहले से ही तैयार बैठा था। दोनों के भावों में बड़ा अन्तर था। एक के भाव थे मुनिरक्षा करने के और दूसरे के उनको खा जाने के। इसलिए देविल का जीव सूअर तो मुनिरक्षा रूप पवित्र भावों से मर कर सौधर्म स्वर्ग में अनेक ऋद्धियों को धारी देव हुआ। जिसके शरीर की चमकती हुई कान्ति गाढ़े से गाढ़े अन्धकार को नाश करने वाली है, जिसकी रूप- सुन्दरता लोगों के मन को देखने मात्र से मोह लेती है, जो स्वर्गीय दिव्य वस्त्रों और मुकुट, कुण्डल, हार आदि बहुमूल्य भूषणों को पहनता है, अपनी स्वभाव-सुन्दरता से जो कल्पवृक्षों को नीचा दिखाता है, जो अणिमादि ऋद्धि-सिद्धियों का धारक है, अवधिज्ञानी है, पुण्य के उदय से जिसे सब दिव्य सुख प्राप्त हैं, अनेक सुन्दर-सुन्दर देव- कन्याएँ और देवगण जिसकी सेवा में सदा उपस्थित रहते हैं, जो महा वैभवशाली हैं, महा सुखी हैं, स्वर्गों के देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं ऐसे जिन भगवान् की, जिन प्रतिमाओं की और कृत्रिम तथा अकृत्रिम जिन मन्दिरों की जो सदा भक्ति और प्रेम से पूजा करता है, दुर्गति के दुःखों को नाश करने वाले तीर्थों की यात्रा करता है, महामुनियों की भक्ति करता है और धर्मात्माओं के साथ वात्सल्यभाव रखता है ऐसी उसकी सुखमय स्थिति है । जिस प्रकार वह सूअर धर्म के प्रभाव से उक्त प्रकार सुख का भोगने वाला हुआ उसी प्रकार जो और भव्यजन इस पवित्र धर्म का पालन करेंगे वे भी उसके प्रभाव से सब सुख-संपत्ति लाभ करेंगे। समझिए, संसार में जो-जो धन प्राप्त होता है, स्त्री, पुत्र, सुख, ऐश्वर्य आदि अच्छी-अच्छी आनन्द भोग की वस्तुएँ प्राप्त होती है, उनका कारण एक मात्र धर्म है। इसलिए सुख की चाह करने वाले भव्यजनों को जिन-पूजा, पात्र - दान, व्रत, उपवास, शील, संयम आदि धर्म का निरन्तर पवित्र भावों से सेवन करना चाहिए। देविल तो पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग गया और धर्मिल ने मुनियों को खा जाना चाहा था इसलिए वह पाप के फल से मरकर नरक गया। इस प्रकार पुण्य और पाप का फल जानकर भव्यजनों को उचित है कि वे पुण्य के कारण पवित्र जैनधर्म में अपनी बुद्धि दृढ़ करें ॥३०-४६॥ इस प्रकार परम सुख-मोक्ष के कारण, पापों का नाश करने वाले और पात्र - भेद से विशेष आदर योग्य इस पवित्र अभयदान की कथा अन्य जैन शास्त्रों के अनुसार संक्षेप में यहाँ लिखी गई। यह सत्य कथा संसार में प्रसिद्ध होकर सबका हित करे ॥४७॥
  11. संसार-समुद्र से पार करने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुख प्राप्ति की कारण शास्त्र - दान की कथा लिखी जाती है ॥१॥ मैं उस भारती सरस्वती को नमस्कार करता हूँ, जिसके प्रकटकर्ता जिनभगवान् हैं और जो आँखों के आड़े आने वाले, पदार्थों का ज्ञान न होने देने वाले अज्ञान -पटल को नाश करने वाली सलाई है। भावार्थ-नेत्ररोग दूर करने के लिए जैसे सलाई द्वारा सूरमा लगाया जाता है या कोई सलाई ऐसी वस्तुओं की बनी होती है जिसके द्वारा सब नेत्र रोग नष्ट हो जाते हैं, उसी तरह अज्ञानरूपी रोग को नष्ट करने के लिए सरस्वती-जिनवाणी सलाई का काम देने वाली है। इसकी सहायता से पदार्थों का ज्ञान बड़े सहज में हो जाता है ॥२॥ उन मुनिराजों को मैं नमस्कार करता हूँ, जो मोह को जीतने वाले हैं, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र से विभूषित हैं और जिनके चरण-कमल लक्ष्मी के-सब सुखों के स्थान हैं ॥३॥ इस प्रकार देव, गुरु और शास्त्र को नमस्कार कर शास्त्रदान करने वाले की कथा संक्षेप में यहाँ लिखी जाती है। जिससे कि इसे पढ़कर सत्पुरुषों के हृदय में ज्ञानदान की पवित्र भावना जागृत हो । ज्ञान जीवमात्र का सर्वोत्तम नेत्र है । जिसके यह नेत्र नहीं, उसके चर्म नेत्र होने पर भी वह अन्धा है, उसके जीवन का कुछ मूल्य नहीं होता। इसलिए अकिंचित्कर जीवन को मूल्यवान् बनाने के लिए ज्ञान-दान देना चाहिए। यह दान सब दानों का राजा हैं और दानों द्वारा थोड़े समय की और एक ही जीवन की ख्वाहिशें मिटेंगी, पर ज्ञान-दान से जन्म-जन्म की ख्वाहिशें मिटकर वह दाता और दान लेने वाला ये दोनों ही उस अनन्त स्थान को पहुँच जाते हैं, जहाँ ज्ञान के सिवा कुछ नहीं है, ज्ञान ही जिनका आत्मा हो जाता है। यह हुई परलोक की बात। इसके सिवा ज्ञानदान से इस लोक में भी दाता की निर्मल कीर्ति चारों ओर फैल जाती है । सारा संसार उसकी शत- मुख से बड़ाई करता है। ऐसे लोग जहाँ जाते हैं। वहीं उनका मनमाना आदरमान होता है। इसलिए ज्ञान-दान भुक्ति और मुक्ति इन दोनों का ही देने वाला है। अतः भव्यजनों को उचित है - उनका कर्तव्य है कि वे स्वयं ज्ञान-दान करें और दूसरों को भी इस पवित्र मार्ग में आगे करें । इस ज्ञान-दान के सम्बन्ध में एक बात ध्यान देने की यह है कि यह सम्यक्त्वपने को लिए हुए हो अर्थात् ऐसा हो कि जिससे किसी जीव का अहित, बुरा न हो, जिसमें किसी तरह का विरोध या दोष न हो, क्योंकि कुछ लोग उसे भी ज्ञान बतलाते हैं, जिसमें जीवों की हिंसा को धर्म कहा गया है, धर्म के बहाने जीवों को अकल्याण का मार्ग बतलाया जाता है और जिसमें कहीं कुछ कहा गया है और कहीं कुछ कहा गया है जो परस्पर विरोधी है। ऐसा ज्ञान सच्चा ज्ञान नहीं किन्तु मिथ्याज्ञान है। इसलिए सच्चे - सम्यग्ज्ञान दान देने की आवश्यकता है। जीव अनादि से कर्मों के वश हुआ अज्ञानी बनकर अपने निज ज्ञानमय शुद्ध स्वरूप को भूल गया है और माया-ममता के पेंचीले जाल में फँस गया है, इसलिए प्रयत्न ऐसा होना चाहिए कि जिससे यह अपना वास्तविक स्वरूप प्राप्त कर सके। ऐसी दशा में इसे असुख का रास्ता बतलाना उचित नहीं है। सुख प्राप्त करने का सच्चा प्रयत्न सम्यग्ज्ञान है। इसलिए दान, मान पूजा - प्रभावना, पठन-पाठन आदि से इस सम्यग्ज्ञान की आराधना करना चाहिए । ज्ञान प्राप्त करने की पाँच भावनाएँ ये हैं-उन्हें सदा उपयोग में लाते रहना चाहिए। वे भावनाएँ हैं- वाचना—पवित्र ग्रन्थ का स्वयं अध्ययन करना या दूसरे पुरुषों को कराना । पृच्छना- किसी प्रकार के सन्देह को दूर करने के लिए परस्पर में पूछ-ताछ करना। अनुप्रेक्षा–शास्त्रों में जो विषय पढ़ा हो या सुना हो उसका बार-बार मनन- चिन्तन करना। आम्नाय–पाठ का शुद्ध पढ़ना या शुद्ध ही पढ़ाना और धर्मोपदेश - पवित्र धर्म का भव्यजन को उपदेश करना। ये पाँचों भावनाएँ ज्ञान बढ़ाने की कारण हैं । इसलिए इनके द्वारा सदा अपने ज्ञान की वृद्धि करते रहना चाहिए। ऐसा करते रहने से एक दिन वह आयेगा जब कि केवलज्ञान भी प्राप्त हो जाएगा। इसीलिए कहा गया है कि ज्ञान सर्वोत्तम दान है और यही संसार के जीवमात्र का हित करने वाला है। पुरा काल से जिन-जिन भव्य जनों ने ज्ञानदान किया आज तो उनके नाम मात्र का उल्लेख करना भी असंभव है, तब उनका चरित लिखना तो दूर रहा। अस्तु, कौण्डेश का चरित ज्ञानदान करने वालों में अधिक प्रसिद्ध है । इसलिए उसी का चरित संक्षेप में लिखा जाता है ॥४-१२॥ जिनधर्म के प्रचार या उपदेशादि से पवित्र हुए भारतवर्ष में कुरुमरी गाँव में गोविन्द नाम का एक ग्वाला रहता था। उसने एक बार जंगल में एक वृक्ष की कोटर में जैनधर्म का एक पवित्र ग्रन्थ देखा। उसे वह अपने घर पर ले आया और रोज-रोज उसकी पूजा करने लगा। एक दिन पद्मनंदि नाम के महात्मा को गोविन्द ने जाते देखा। इसने वह ग्रन्थ इन मुनि को भेंट कर दिया ॥१३-१५॥ यह जान पड़ता है कि इस ग्रन्थ द्वारा पहले भी मुनियों ने यहाँ भव्यजनों को उपदेश किया है, इसके पूजा महोत्सव द्वारा जिनधर्म की प्रभावना की है और अनेक भव्यजनों को कल्याण मार्ग में लगाकर सच्चे मार्ग का प्रकाश किया है । अन्त में वे इस ग्रन्थ को इसी वृक्ष की कोटर में रखकर विहार कर गए हैं। उनके बाद जबसे गोविन्द ने इस ग्रन्थ को देखा तभी से वह इसकी भक्ति और श्रद्धा से निरन्तर पूजा किया करता था । इसी समय अचानक गोविन्द की मृत्यु हो गई वह निदान करके इसी कुरुमरी गाँव में गाँव के चौधरी के यहाँ लड़का हुआ। इसकी सुन्दरता देखकर लोगों की आँखें इस पर से हटती ही न थी, सब इससे बड़े प्रसन्न होते थे। लोगों के मन को प्रसन्न करना, उनकी अपने पर प्रीति होना यह सब पुण्य की महिमा है । इसके पल्ले में पूर्व जन्म का पुण्य था। इसलिए इसे ये सब बातें सुलभ थीं ॥१६-२२॥ एक दिन उसने उन्हीं पद्मनन्दि मुनि को देखा, जिन्हें कि इस गोविन्द ने ग्वाले के भव में ग्रन्थ भेंट किया था। उन्हें देखकर इसे जातिस्मरण हो गया। मुनि को नमस्कार कर सब धर्मप्रेम से उसने उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली। इसकी प्रसन्नता का कुछ पार न रहा। यह बड़े उत्साह से तपस्या करने लगा। दिनों-दिन उसके हृदय की पवित्रता बढ़ती ही गई। आयु के अन्त में शान्ति से मृत्यु लाभ कर वह पुण्य के उदय से कौण्डेश नाम का राजा हुआ | कौण्डेश बड़ा ही वीर था। तेज में वह सूर्य से टक्कर लेता था। सुन्दरता उसकी इतनी बढ़ी चढ़ी थी कि उसे देखकर कामदेव को भी नीचा मुँह कर लेना पड़ता था। उसकी स्वभाव - सिद्ध कान्ति को देखकर तो लज्जा के मारे बेचारे चन्द्रमा का हृदय ही काला पड़ जाता। शत्रु उसका नाम सुनकर काँपते थे । वह बड़ा ऐश्वर्यवान् था, भाग्यशाली था, यशस्वी था और सच्चा धर्मज्ञ था। वह अपनी प्रजा का शासन प्रेम और नीति के साथ करता था। अपनी सन्तान के माफिक ही उसका प्रजा पर प्रेम था। इस प्रकार बड़े ही सुख - शान्ति से उसका समय बीतता था ॥२३-२८॥ इस तरह कौण्डेश का बहुत समय बीत गया। एक दिन उसे कोई ऐसा कारण मिल गया कि जिससे उसे संसार से बड़ा वैराग्य हो गया । वह संसार को अस्थिर, विषयभोगों को रोग के समान, सम्पत्ति को बिजली की तरह चंचल - तत्काल देखते-देखते नष्ट होने वाली, शरीर को मांस, मल, रुधिर आदि महा अपवित्र वस्तुओं से भरा हुआ, दुःखों का देने वाला, घिनौना और नाश होने वाला जानकर सबसे उदासीन हो गया। इस जैनधर्म के रहस्य को जानने वाले कौण्डेश के हृदय में वैराग्य भावना की लहरें लहराने लगी। उसे अब घर में रहना कैद खाने के समान जान पड़ने लगा। वह राज्याधिकार पुत्र को सौंपकर जिनमन्दिर गया। वहाँ उसने जिन भगवान् की पूजा की, जो सब सुखों की कारण है। इसके बाद निर्ग्रन्थ गुरु को नमस्कार कर उनके पास वह दीक्षित हो गया। पूर्व जन्म में कौण्डेश ने जो दान किया था, उसके फल से वह थोड़े ही समय में श्रुतकेवली हो गया। वह श्रुतकेवली होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योंकि ज्ञानदान तो केवलज्ञान का भी कारण है। जिस प्रकार ज्ञान-दान से एक ग्वाला श्रुतज्ञानी हुआ उसी तरह अन्य भव्य पुरुषों को भी ज्ञान - दान देकर, अपना आत्महित करना चाहिए । जो भव्यजन संसार के हित करने वाले इस ज्ञान-दान की भक्तिपूर्वक पूजा-प्रभावना, पठन-पाठन लिखने - लिखाने, दान-मान, स्तवन - जपन आदि सम्यक्त्व के कारणों से आराधना किया करते हैं वे धन, जन, यश, ऐश्वर्य, उत्तम कुल, गोत्र, दीर्घायु आदि का मनचाहा सुख प्राप्त करते हैं। अधिक क्या कहा जाए किन्तु इसी ज्ञानदान द्वारा वे स्वर्ग या मोक्ष का सुख भी प्राप्त कर सकेंगे । अठारह दोष रहित जिन भगवान् के ज्ञान का मनन, चिन्तन करना उच्च सुख का कारण है ॥२९-४१॥ मैंने जो यह दान की कथा लिखी है वह आप लोगों को तथा मुझे केवलज्ञान के प्राप्त करने में सहायक हो ॥४२॥ मूलसंघ सरस्वती गच्छ में भट्टारक मल्लिभूषण हुए। वे रत्नत्रय से युक्त थे। उनके प्रिय शिष्य ब्रह्मनेमिदत्त ने यह ज्ञानदान की कथा लिखी है । यह निरन्तर आप लोगों के संसार की शान्ति करें अर्थात् जन्म, जरा, मरण मिटाकर अनन्त सुखमय मोक्ष प्राप्त कराये ॥४३॥
  12. जिन भगवान् जिनवाणी और जैन साधुओं के चरणों को नमस्कार कर औषधिदान के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती हैं ॥१॥ निरोगी होना, चेहरे पर सदा प्रसन्नता रहना, धनादि विभूति का मिलना, ऐश्वर्य का प्राप्त होना, सुन्दर होना, तेजस्वी और बलवान् होना और अन्त में स्वर्ग या मोक्ष का सुख प्राप्त करना ये सब औषधिदान के फल हैं। इसीलिए जो सुखी होना चाहते हैं उन्हें निर्दोष औषधिदान करना उचित है । इस औषधिदान के द्वारा अनेक सज्जनों ने फल प्राप्त किया है, उन सबके सम्बन्ध में लिखना औरों के लिए नहीं तो मुझ अल्पबुद्धि के लिए तो अवश्य असम्भव है। उनमें से एक वृषभसेना का पवित्र चरित यहाँ संक्षिप्त में लिखा जाता है। आचार्यों ने जहाँ औषधिदान देने वाले का उल्लेख किया है वहाँ वृषभसेना का प्रायः कथन आता है। उन्हीं का अनुकरण मैं भी करता हूँ ॥२-६॥ भगवान् के जन्म से पवित्र इस भारतवर्ष का जनपद नाम के देश में नाना प्रकार उत्तमोत्तम सम्पत्ति से भरा अतएव अपनी सुन्दरता से स्वर्ग की शोभा को नीची करने वाला कावेरी नाम का नगर है। जिस समय की वह कथा है, उस समय कावेरी नगर के राजा उग्रसेन थे । उग्रसेन प्रजा के सच्चे हितैषी और राजनीति के अच्छे पण्डित ॥७-८॥ यहाँ धनपति नाम का एक अच्छा सद्गृहस्थ सेठ रहता था । जिन भगवान् की पूजा- प्रभावनादि से उसे अत्यन्त प्रेम था । उसकी स्त्री धनश्री उसके घर की मानों दूसरी लक्ष्मी थी । धनश्री सती और बड़े सरल मन की थी। पूर्व पुण्य से इसके वृषभसेना नाम की एक देवकुमारी से सुन्दरी और सौभाग्यवती लड़की हुई । सच है - -पुण्य के उदय से क्या प्राप्त नहीं होता । वृषभसेना की धाय रूपवती उसे सदा नहाया - धुलाया करती थी । उसके नहाने का पानी बह - बह कर एक गड्ढे में जमा हो गया था। एक दिन की बात है कि रूपमती वृषभसेना को नहला रही थी । उसी समय एक महारोगी कुत्ता उस गड्ढे में, जिसमें कि वृषभसेना के नहाने का पानी इकट्ठा हो रहा था, गिर पड़ा। क्या आश्चर्य की बात है कि जब वह उस पानी में से निकला तो बिल्कुल नीरोग दीख पड़ा। रूपवती उसे देखकर चकित हो रही है ॥९-१२॥ उसने सोचा-केवल साधारण जल से इस प्रकार रोग नहीं जा सकता । पर वह वृषभसेना के नहाने का पानी है। उसमें उसके पुण्य का कुछ भाग जरूर होना चाहिए। जान पड़ता है वृषभसेना कोई बड़ी भाग्यशालिनी लड़की है। ताज्जुब नहीं कि यह मनुष्य रूपिणी कोई देवी हो ! नहीं तो इसके नहाने के जल में ऐसी चकित करने वाली करामात हो ही नहीं सकती । इस पानी की और परीक्षा कर देख लू, जिससे और भी दृढ़ विश्वास हो जाएगा कि यह पानी सचमुच ही क्या रोगनाशक है? ॥१३-१५॥ तब रूपवती थोड़े से उस पानी को लेकर अपनी माँ के पास आई। उसकी माँ की आँखें कोई बारह वर्षों से खराब हो रही थी। इससे वह बड़ी दुःख में थी । आँखों को रूपवती ने उस जल से धोकर साफ किया और देखा तो उनका रोग बिल्कुल जाता रहा। वे पहले से बड़ी सुन्दर हो गई रूपवती को वृषभसेना के पुण्यवती होने में अब कोई सन्देह न रह गया । इस रोग नाश करने वाले जल के प्रभाव से रूपवती की चारों और बड़ी प्रसिद्धि हो गई। बड़ी-बड़ी दूर के रोगी अपने रोग का इलाज कराने को आने लगे। क्या आँख के रोग को, क्या पेट के रोग को, क्या सिर सम्बन्धी पीड़ाओं की और क्या कोढ़ वगैरह रोगों को, यही नहीं किन्तु जहर सम्बन्धी असाध्य से असाध्य रोगों को भी रूपवती केवल एक इसी पानी से आराम करने लगी । रूपवती इससे बड़ी प्रसिद्ध हो गई ॥१६-१८॥ उग्रसेन और मेघपिंगल राजा की पुरानी शत्रुता चली आ रही थी। उस समय उग्रसेन ने अपने मन्त्री रणपिंगल को मेघपिंगल पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी । रणपिंगल सेना लेकर मेघपिंगल पर जा चढ़ा और उसके सारे देश को उसने घेर लिया। मेघपिंगल ने शत्रु को युद्ध में पराजित करना कठिन समझ दूसरी युक्ति से उसे देश से निकाल बाहर करना विचारा और उसके लिए उसने ये योजना की कि शत्रु की सेना में जिन-जिन कुँए, बावड़ी से पीने को जल आता था उन सबमें अपने चतुर जासूसों द्वारा विष घुलवा दिया। फल यह हुआ कि रणपिंगल की बहुत सी सेना तो मर गई और बची हुई सेना को साथ लिए वह स्वयं भी भाग कर अपने देश लौट आया। उसकी सेना पर तथा उस पर जो विष का असर हुआ था, उसे रूपवती ने उसी जल से आराम किया। गुरुओं के वचनामृत से जैसे जीवों को शान्ति मिलती है रणपिंगल को उसी प्रकार शान्ति रूपवती के जल से मिली और वह रोगमुक्त हुआ ॥१९-२१॥ रणपिंगल का हाल सुनकर उग्रसेन को मेघपिंगल पर बड़ा क्रोध आया तब स्वयं उन्होंने उस पर चढ़ाई की। उग्रसेन ने अब की बार अपने जानते सावधानी रखने में कोई कसर न की । पर भाग्य का लेख किसी तरह नहीं मिटता । मेघपिंगल का चक्र उग्रसेन पर भी चल गया। जहर मिले जल को पीकर उनकी भी तबियत बहुत बिगड़ गई तब जितनी जल्दी उनसे बन सका अपनी राजधानी में उन्हें लौट आना पड़ा। उनका भी बड़ा ही अपमान हुआ। रणपिंगल से उन्होंने, वह कैसे आराम हुआ था, इस बाबत पूछा । रणपिंगल ने रूपवती का जल के बारे में बतलाया । उग्रसेन ने तब उसी समय अपने आदमियों को जल ले आने के लिए सेठ के यहाँ भेजा। अपनी लड़की का स्नान-जल लेने को राजा के आदमियों को आया देख सेठानी धनश्री ने अपने स्वामी से कहा- क्यों जी, अपनी वृषभसेना का स्नान-जल राजा के सिर पर छिड़का जाए यह तो उचित नहीं जान पड़ता। सेठ ने कहा—तुम्हारा यह कहना ठीक है, परन्तु जिसके लिए दूसरा कोई उपाय नहीं तब क्या किया जाये । हम तो जान-बूझकर ऐसा नहीं करते हैं और न सच्चा हाल किसी से छिपाते हैं, तब इससे अपना तो कोई अपराध नहीं हो सकता। यदि राजा साहब ने पूछा तो हम सब हाल उनसे यथार्थ कह देंगे। सच है-अच्छे पुरुष प्राण जाने पर भी झूठ नहीं बोलते। दोनों ने विचार कर रूपवती को जल देकर उग्रसेन के महल पर भेजा। रूपवती ने उस जल को राजा के सिर पर छिड़क कर उन्हें आराम कर दिया। उग्रसेन रोगमुक्त हो गए। उन्हें बहुत खुशी हुई रूपवती से उन्होंने उस जल का हाल पूछा। रूपवती कोई बात न छुपाकर जो बात सच्ची थी वह राजा से कह दी । सुनकर राजा ने धनपति सेठ को बुलाया और उसका बड़ा आदर-सम्मान किया। वृषभसेना का हाल सुनकर ही उग्रसेन की इच्छा उसके साथ ब्याह करने की हो गई थी और इसीलिए उन्होंने मौका पाकर धनपति से अपनी इच्छा कह सुनाई। धनपति ने उसके उत्तर में कहा- राजराजेश्वर, मुझे आपकी आज्ञा मान लेने में कोई रुकावट नहीं है। पर इसके साथ आपको स्वर्ग-मोक्ष की देने वाली और जिसे इन्द्र, स्वर्गवासी देव, चक्रवर्ती, विद्याधर, राजा-महाराजा आदि महापुरुष बड़ी भक्ति के साथ करते है । ऐसी अष्टाह्निका पूजा करनी होगी और भगवान् का खूब उत्सव के साथ अभिषेक करना होगा और आपके यहाँ जो पशु-पक्षी पिंजरों में बन्द हैं, उन्हें तथा कैदियों को छोड़ना होगा। ये सब बातें आप स्वीकार करें तो मैं वृषभसेना का ब्याह आपके साथ कर सकता हूँ । उग्रसेन ने धनपति की सब बातें स्वीकार कीं और उसी समय उन्हें कार्य में भी परिणत कर दिया ॥२२ - ३६॥ वृषभसेना का ब्याह हो गया । सब रानियों में पट्टरानी का सौभाग्य उसे ही मिला। राजा ने अब अपना राजकीय कामों से बहुत कुछ सम्बन्ध कम कर दिया। उनका प्रायः समय वृषभसेना के साथ सुखोभोग में जाने लगा। वृषभसेना पुण्योदय से राजा की खास प्रेम - पात्र हुई स्वर्ग सरीखे सुखों को वह भोग ने लगी। यह सब कुछ होने पर भी वह अपने धर्म-कर्म को थोड़ा भी न भूली थी। वह जिन भगवान् की सदा जलादि आठ द्रव्यों से पूजा करती, साधुओं को चारों प्रकार का दान देती, अपनी शक्ति के अनुसार व्रत, तप, शील, संयमादि का पालन करती और धर्मात्मा सत्पुरुषों का अत्यन्त प्रेम के साथ आदर-सत्कार करती और सच है - पुण्योदय से जो उन्नति हुई, उसका फल तो यही है कि साधर्मियों से प्रेम हो, हृदय में उनके प्रति उच्च भाव हों। वृषभसेना का अपना जो कर्तव्य था, उसे पूरा करती, भक्ति से जिनधर्म की जितनी बनती उतनी सेवा करती और सुख से रहा करती थी ॥ ३७-४२॥ राजा उग्रसेन के यहाँ बनारस का राजा पृथ्वीचन्द्र कैद था और वह अधिक दुष्ट था। पर उग्रसेन का तो तब भी यही कर्तव्य था कि वे अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार ब्याह के समय उसे भी छोड़ देते। पर ऐसा उन्होंने नहीं किया । यह अनुचित हुआ अथवा यों कहिए कि जो अधिक दुष्ट होते हैं उनका भाग्य ही ऐसा होता है जो वे मौके पर भी बन्धन मुक्त नहीं हो पाते ॥४३-४४॥ पृथ्वीचन्द्र की रानी का नाम नारायणदत्ता था । उसे आशा थी कि उग्रसेन अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वृषभसेना के साथ ब्याह के समय मेरे स्वामी को अवश्य छोड़ देंगे। पर उसकी यह आशा व्यर्थ हुई पृथ्वीचन्द्र तब भी न छोड़े गए। यह देख नारायणदत्ता ने अपने मंत्रियों से सलाह ले पृथ्वीचन्द्र को छुड़ाने के लिए एक दूसरी युक्ति की और उसमें उसे मनचाही सफलता भी प्राप्त हुई उसने अपने यहाँ वृषभसेना के नाम से कई दानशालाएँ बनवाई कोई विदेशी या स्वदेशी हो सबको उनमें भोजन करने को मिलता था । उन दानशालाओं में बढ़िया से बढ़िया छहों रसमय भोजन कराया जाता था। थोड़े ही दिनों में इन दानशालाओं की प्रसिद्धि चारों ओर हो गई। जो इनमें एक बार भी भोजन कर जाता वह फिर उनकी तारीफ करने में कोई कमी न करता था । बड़ी-बड़ी दूर से इनमें भोजन करने को लोग आने लगे । कावेरी के भी बहुत से ब्राह्मण यहाँ भोजन कर जाते थे। उन्होंने इन शालाओं की बहुत तारीफ की ॥४५ - ४८॥ रूपवती को इन वृषभसेना के नाम से स्थापित की गई दानशालाओं का हाल सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और साथ ही उसे वृषभसेना पर इस बात से बड़ा गुस्सा आया कि मुझे बिना पूछे उसने बनारस में ये शालाएँ बनवाई ही क्यों ? और उसका उसने वृषभसेना को उलाहना भी दिया। वृषभसेना ने तब कहा-माँ, मुझ पर तुम व्यर्थ ही नाराज होती हो । न तो मैंने कोई दानशाला बनारस में बनवाई और न मुझे उनका कुछ हाल ही मालूम है । यह सम्भव हो सकता है कि किसी ने मेरे नाम से उन्हें बनायी हो। पर इसका शोध लगाना चाहिए कि किसने ये शालाएँ बनवाई और क्यों बनवाई? आशा है पता लगाने से सब रहस्य ज्ञात हो जाएगा। रूपवती ने तब कुछ जासूसों को उन शालाओं की सच्ची हकीकत जानने को भेजा । उनके द्वारा रूपवती को मालूम हुआ कि वृषभेसना के ब्याह के समय उग्रसेन ने सब कैदियों को छोड़ने की प्रतिज्ञा की थी । उस प्रतिज्ञा के अनुसार पृथ्वीचन्द्र को उन्होंने न छोड़ा। यह बात वृषभसेना को जान पड़े, उसका ध्यान इस ओर आकर्षित करने के लिए ये दान- शालाएँ उनके नाम से पृथ्वीचन्द्र की रानी नारायणदत्ता ने बनवाई हैं। रूपवती ने यह सब हाल वृषभसेना से कहा। वृषभसेना ने तब उग्रसेन से प्रार्थना कर उसी समय पृथ्वीचन्द्र को छुड़वा दिया। पृथ्वीचन्द्र वृषभसेना के इस उपकार से बड़ा कृतज्ञ हुआ। उसने इस कृतज्ञता के वश हो उग्रसेन और वृषभसेना का एक बहुत बढ़िया चित्र तैयार करवाया। उस चित्र में दोनों राजा-रानी के पाँवों में सिर झुकाया हुआ अपना चित्र भी पृथ्वीचन्द्र ने खिचवाया । वह चित्र फिर उनको भेंट कर उसने वृषभसेना से कहा-‍ हा - माँ, तुम्हारी कृपा से मेरा जन्म सफल हुआ। आपकी इस दया का मैं जन्म-जन्म में ऋणी रहूँगा। आपने इस समय मेरा जो उपकार किया उसका बदला तो मैं क्या चुका सकूँगा पर उसकी तारीफ में कुछ कहने तक के लिए मेरे पास उपयुक्त शब्द नहीं है । पृथ्वीचन्द्र की यह नम्रता यह विनयशीलता देखकर उग्रसेन उस पर बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने उसका तब बड़ा आदर-सत्कार किया ॥४९-५६॥ मेघपिंगल उग्रसेन का शत्रु था, जिसका जिकर ऊपर आया है । उग्रसेन से वह भले ही बिल्कुल न डरता हो, पृथ्वीचन्द्र से बहुत डरता था । उसका नाम सुनते ही वह काँप उठता था। उग्रसेन को यह बात मालूम थी । इसलिए अब की बार उन्होंने पृथ्वीचन्द्र को उस पर चढ़ाई करने की आज्ञा की। उनकी आज्ञा सिर पर चढ़ा पृथ्वीचन्द्र अपनी राजधानी में गया और तुरंत उसने अपनी सेना को मेघपिंगल पर चढ़ाई करने की आज्ञा की । सेना के प्रयाण का बाजा बजने वाला ही था कि कावेरी नगर से खबर आ गई " अब चढ़ाई की कोई जरूरत नहीं । मेघपिंगल स्वयं महाराज उग्रसेन के दरबार में उपस्थित हो गया है।" बात यह थी कि मेघपिंगल पृथ्वीचन्द्र के साथ लड़ाई में पहले कई बार हार चुका था। इसलिए वह उससे बहुत डरता था । यही कारण था कि उसने पृथ्वीचन्द्र से लड़ना उचित न समझा। तब अगत्या उसे उग्रसेन की शरण में आ जाना पड़ा। अब वह उग्रसेन का सामन्त राजा बन गया। सच है, पुण्य के उदय से शत्रु भी मित्र हो जाते हैं ॥५७-६०॥ एक दिन दरबार लगा हुआ था । उग्रसेन सिंहासन पर अधिष्ठित थे। उस समय उन्होंने एक प्रतिज्ञा की-आज सामन्त - राजाओं द्वारा जो भेंट आयेगी, वह आधी मेघपिंगल की और आधी श्रीमती वृषभसेना की भेंट होगी । इसलिए कि उग्रसेन महाराज की अपने मेघपिंगल पर पूरी कृपा हो गई थी। आज और बहुत-सी धन-दौलत के सिवा दो बहुमूल्य सुन्दर कम्बल उग्रसेन की भेंट में आए। उग्रसेन ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार भेंट का आधा हिस्सा मेघपिंगल के यहाँ और आधा हिस्सा वृषभसेना के यहाँ पहुँचा दिया। धन-दौलत, वस्त्राभूषण, आयु आदि ये सब नाश होने वाली वस्तुएँ हैं, तब इनका प्राप्त करना सफल तभी हो सकता है कि ये परोपकार में लगाई जायें, इनके द्वारा दूसरों का भला हो ॥६१-६४॥ एक दिन मेघपिंगल की रानी इस कम्बल को ओढ़ किसी आवश्यक कार्य के लिए वृषभसेना के महल आयी । पाठकों को याद होगा कि ऐसा ही एक कम्बल वृषभसेना के पास भी था। आज वस्त्रों के उतारने और पहरने में भाग्य से मेघपिंगल की रानी का कम्बल वृषभसेना के कम्बल से बदल गया। उसे इसका कुछ ख्याल न रहा और वह वृषभसेना का कम्बल ओढ़े ही अपने महल आ गई। कुछ दिनों बाद मेघपिंगल को राज- दरबार में जाने का काम पड़ा। वह वृषभसेना के इसी कम्बल को ओढ़े चला गया। कम्बल को ओढ़े मेघपिंगल को देखते ही उग्रसेन के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने वृषभसेना के कम्बल को पहचान लिया । उनकी आँखों से आग की - सी चिनगारियाँ निकलने लगीं। उन्हें काटो तो खून नहीं । महारानी वृषभसेना का कम्बल इसके पास क्यों और कैसे गया? इसका कोई गुप्त कारण जरूर होना चाहिए। बस, यह विचार उनके मन में आते ही उनकी अजब हालत हो गई। उग्रसेन का अपने पर अकारण क्रोध देखकर मेघपिंगल को इसका कुछ भी कारण न आया। पर ऐसी दशा में उसने अपना वहाँ रहना उचित न समझा । वह उसी समय वहाँ से भागा और एक अच्छे तेज घोड़े पर सवार हो बहुत दूर निकल गया । जैसे दुर्जनों से डरकर सत्पुरुष दूर जा निकलते हैं। उसे भागता देख उग्रसेन को सन्देह और बढ़ा । उन्होंने तब एक ओर तो मेघपिंगल को पकड़ लाने के लिए अपने सवारों को दौड़ाया और दूसरी ओर क्रोधाग्नि से जलते हुए आप वृषभसेना के महल पहुँचे। वृषभसेना से कुछ न कह सुनकर तूने अमुक अपराध किया है, ऐसा कहकर दोनों को एक साथ समुद्र में फिकवाने का उन्होंने हुक्म दे दिया। बेचारी निर्दोष वृषभसेना राजाज्ञा के अनुसार समुद्र में डाल दी गयी । उस क्रोध को धिक्कार ! उस मूर्खता को धिक्कार ! जिसके वश हो लोग योग्य और अयोग्य कार्य का भी विचार नहीं कर पाते । अजान मनुष्य किसी को कोई कितना ही कष्ट क्यों न दे, दुःखों की कसौटी पर उसे कितना ही क्यों न चढ़ावें, उसकी निरपराधता को अपनी क्रोधाग्नि में क्यों न झोंक दें, पर यदि वह कष्ट सहने वाला मनुष्य निरपराध है, निर्दोष है, उसका हृदय पवित्रता से सना है, रोम-रोम में उसके पवित्रता का वास है तो निःसन्देह उसका कोई बाल बाँका नहीं कर सकता। ऐसे मनुष्यों को कितना ही कष्ट हो, उससे उनका हृदय रत्ती भर भी विचलित न होगा। बल्कि जितना-जितना वह इस परीक्षा की कसौटी पर चढ़ता जायेगा उतना-उतना ही अधिक उसका हृदय बलवान् और निर्भीक बनता जाएगा। उग्रसेन महाराज भले ही इस बात को न समझें कि वृषभसेना निर्दोष है, उसका कोई अपराध नहीं, पर पाठकों को अपने हृदय में इस बात का अवश्य विश्वास है, न केवल विश्वास ही है किन्तु बात भी वास्तव में यही सत्य है कि वृषभसेना निरपराध है। वह सती है, निष्कलंक है । जिस कारण उग्रसेन महाराज उस पर नाराज हुए थे, वह कारण निर्भ्रान्त नहीं था । वे यदि जरा गम खाकर कुछ शान्ति से विचार करते तो उनकी समझ में भी वृषभसेना की निर्दोषता बहुत जल्दी आ जाती। पर क्रोध ने उन्हें आपे में न रहने दिया और इसलिए उन्होंने एकदम क्रोध से अन्धे हो एक निर्दोष व्यक्ति को काल के मुँह में फेंक दिया। जो हो, वृषभसेना के पवित्र जीवन की उग्रसेन ने कुछ कीमत न समझी, उसके साथ महान् अन्याय किया, पर वृषभसेना को अपने सत्य पर पूर्ण विश्वास था । वह जानती थी कि मैं सर्वथा निर्दोष हूँ। फिर मुझे कोई ऐसी बात नहीं देख पड़ती कि जिसके लिए मैं दुःख कर अपने आत्मा को निर्बल बनाऊँ। बल्कि मुझे इस बात की प्रसन्नता होनी चाहिए कि सत्य के लिए मेरा जीवन गया। उसने ऐसे ही और बहुत से विचारों से अपने आत्मा को खूब बलवान् और सहनशील बना लिया । ऊपर यह लिखा जा चुका है कि सत्यता और पवित्रता के सामने किसी की नहीं चलती बल्कि सबको उनके लिए अपना मस्तक झुकाना पड़ता है। वृषभसेना अपनी पवित्रता पर विश्वास रखकर भगवान् के चरणों का ध्यान करने लगी। अपने मन को उसने परमात्मा - प्रेम में लीन कर लिया। साथ ही प्रतिज्ञा की कि यदि इस परीक्षा में मैं पास होकर नया जीवन लाभ कर सकूँतो अब मैं संसार की विषयवासना में न फँसकर अपने जीवन को तप के पवित्र प्रवाह में बहा दूँगी, जो तप जन्म और मरण का ही नाश करने वाला है। उस समय वृषभसेना की वह पवित्रता, वह दृढ़ता, वह शील का प्रभाव, वह स्वभावसिद्ध प्रसन्नता आदि बातों ने उसे एक प्रकाशमान उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत कर दिया था । उसके इस अलौकिक तेज के प्रकाश ने स्वर्ग के देवों की आँखों तक में चकाचौंध पैदा कर दी। उन्हें भी इस तेजस्विता देवी को सिर झुकाना पड़ा। वे वहाँ से उसी समय आये और वृषभसेना को एक मूल्यवान् सिंहासन पर अधिष्ठित कर उन्होंने उस मनुष्य रूपधारिणी पवित्रता की मूर्तिमान देवी की बड़े भक्ति भावों से पूजा की, उसकी जय-जयकार मनाई, बहुत सत्य है, पवित्रशील के प्रभाव से सब कुछ हो सकता है । यही शील आग को जल, समुद्र को स्थल, शत्रु को मित्र, दुर्जन को सज्जन और विष को अमृत के रूप में परिणत कर देता है। शील का प्रभाव अचिन्त्य है। इसी शील के प्रभाव से धन-सम्पत्ति, कीर्ति, पुण्य, ऐश्वर्य, स्वर्ग-सुख आदि जितनी संसार में उत्तम वस्तुएँ हैं वे सब अनायास बिना परिश्रम किए प्राप्त हो जाती हैं। न यही किन्तु शीलवान् मनुष्य मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है । इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे अपने चंचल मनरूपी बन्दर को वश कर उसे कहीं न जाने देकर पवित्र शीलव्रत की, जिसे कि भगवान् ने सब पापों का नाश करने वाला बतलाया है, रक्षा में लगावें ॥६५ - ७९॥ वृषभसेना के शील का माहात्म्य जब उग्रसेन को जान पड़ा तो उन्हें बहुत दुःख हुआ। अपनी बे-समझी पर वे बहुत पछताए। वृषभसेना के पास जाकर उससे उन्होंने अपने इस अज्ञान की क्षमा माँगी और महल चलने के लिए उससे प्रार्थना की। यद्यपि वृषभसेना ने पहले यह प्रतिज्ञा की थी कि इस कष्ट से छुटकारा पाते ही मैं योगिनी बनकर आत्महित करूँगी और इस पर वह दृढ़ भी थी परन्तु इस समय जब खुद महाराज उसे लिवाने को आए तब उनका अपमान न हो; इसलिए उसने एक बार महल जाकर एक-दो दिन बाद फिर दीक्षा लेना निश्चय किया । वह बड़ी वैरागिन होकर महाराज के साथ महल आ रही थी । पर जिसके मन जैसी भावना होती है और वह यदि सच्चे हृदय से उत्पन्न हुई होती है वह नियम से पूरी होती ही है। वृषभसेना के मन में जो पवित्र भावना थी वह सच्चे संकल्प से की गई थी । इसलिए उसे पूरी होना ही चाहिए था और वह हुई भी। रास्ते में वृषभसेना को एक महा तपस्वी और अवधिज्ञानी गुणधर नाम के मुनिराज के पवित्र दर्शन हुए। वृषभसेना ने बड़ी भक्ति से उन्हें हाथ जोड़ सिर नवाया। इसके बाद उसने उनसे पूछा-हे दया के समुद्र योगिराज! क्या आप कृपाकर मुझे यह बतलावेंगे कि मैंने पूर्व जन्मों में क्या-क्या कर्म किए हैं, जिनका मुझे यह फल भोगना पड़ा ? मुनि बोले- पुत्री, सुन तुझे तेरे पूर्व जन्म का हाल सुनाता हूँ। तू पहले जन्म में ब्राह्मण की लड़की थी । तेरा नाम नाग श्री था । इस राजघराने में तू बुहारी दिया करती थी। एक दिन मुनिदत्त नाम के योगिराज महल के कोट के भीतर एक वायु रहित पवित्र गड्ढे में बैठे ध्यान कर रहे थे। समय सन्ध्या का था। इसी समय तू बुहारी देती हुई इधर आई तूने मूर्खता से क्रोध कर मुनि से कहा-ओ नंगे ढोंगी, उठ यहाँ से, मुझे झाड़ने दे। आज महाराज इसी महल में आयेंगे। इसलिए इस स्थान को मुझे साफ करना है। मुनि ध्यान में थे, इसलिए वे उठे नहीं और न ध्यान पूरा होने तक उठ ही सकते थे वे वैसे के वैसे ही अडिग बैठे रहे, इससे तुझे और अधिक गुस्सा आया। तूने तब सब जगह का कूड़ा-कचरा इकट्ठा कर मुनि को उससे ढँक दिया। उसके बाद तू चली गई। बेटा तू तब मूर्ख थी, कुछ समझती न थी । पर तूने वह काम बहुत बुरा किया था। तू नहीं जानती थी कि साधु-संत तो पूजा करने योग्य होते हैं, उन्हें कष्ट देना उचित नहीं । जो कष्ट देते हैं वे बड़े मूर्ख और पापी हैं। अस्तु, सबेरे राजा आए । उनकी नजर उस कचड़े के ढेर पर पड़ गई। मुनि के साँस लेने से उन पर का वह कूड़ा-कचरा ऊँचा- नीचा हो रहा था । उन्हें कुछ सन्देह सा हुआ । तब उन्होंने उसी समय उस कचरे को हटाया। देखा तो उन्हें मुनि दिख पड़े। राजा ने उन्हें निकाल लिया। तुझे जब यह हाल मालूम हुआ और आकर तूने उन शान्ति के मन्दिर मुनिराज को पहले सा ही शान्त पाया। तब तुझे उनके गुणों की कीमत जान पड़ी । तू तब बहुत पछताई अपने कर्मों को तूने बहुत धिक्कारा। मुनिराज से अपने अपराध की क्षमा कराई तब तेरी श्रद्धा उन पर बहुत हो गई मुनि के उस कष्ट दूर करने को तूने बहुत यत्न किया, उनकी औषधि की और भरपूर सेवा की। उस सेवा के फल से तेरे पापकर्मों की स्थिति बहुत कम रह गई। बहिन, उसी मुनि सेवा के फल से तू इस जन्म में धनपति सेठ की लड़की हुई, तूने जो मुनि को औषधिदान दिया था उससे तो तुझे वह सर्वौषधि प्राप्त हुई जो तेरे स्नान जल से कठिन से कठिन रोग क्षण-भर में नाश हो जाते हैं और मुनि को कचरे से ढक कर जो उन पर घोर उपसर्ग किया था, उससे तुझे इस जन्म में झूठा कलंक लगा। इसलिए बहिन, साधुओं को कभी कष्ट देना उचित नहीं किन्तु ये स्वर्ग या मोक्ष सुख की प्राप्ति के कारण हैं, इसलिए इनकी तो बड़ी भक्ति और श्रद्धा से सेवा-पूजा करनी चाहिए। मुनिराज द्वारा अपना पूर्वमत सुनकर वृषभसेना का वैराग्य और बढ़ गया। उसने फिर महल पर न जाकर अपने स्वामी से क्षमा कराई और संसार की सब माया-ममता का पेचीदा जाल तोड़कर परलोक-सिद्धि के लिए इन्हीं गुणधर मुनि द्वारा योग-दीक्षा ग्रहण कर ली । जिस प्रकार वृषभसेना ने औषधिदान देकर उसके फल से सर्वौषधि प्राप्त की उसी तरह और बुद्धिमानों को भी उचित है कि वे जिसे जिस दान की जरूरत समझें उसी के अनुसार सदा हर एक की व्यवस्था करते रहें । दान महान् पवित्र कार्य हैं और पुण्य का कारण है ॥८०-१०४॥ गुणधर मुनि के द्वारा वृषभसेना का पवित्र और प्रसिद्ध चरित्र सुनकर बहुत से भव्यजनों ने जैनधर्म को धारण किया, जिन को जैनधर्म के नाम तक से चिढ़ थी। वे भी उससे प्रेम करने लगे । इन भव्यजनों को तथा मुझे सती वृषभसेना पवित्र करें, हृदय में चिरकाल से स्थान से किए रोग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्ष्या, मत्सरता आदि दुर्गुणों को, जो आत्मप्राप्ति से दूर रखने वाले हैं, नाश करें उनकी जगह पवित्रता की प्रकाशमान ज्योति को जगावें ॥ १०५ ॥
  13. जगद्गुरु तीर्थंकर भगवान् को नमस्कार कर पात्र दान के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥ जिन भगवान् के मुखरूपी चन्द्रमा से जन्मी पवित्र जिनवाणी ज्ञानरूपी महा समुद्र से पार करने के लिए मुझे सहायता दें, मुझे ज्ञान - दान दें ॥२॥ उन साधु रत्नों को मैं भक्ति से नमस्कार करता हूँ, जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारक हैं, परिग्रह कनक - कामिनी आदि से रहित वीतरागी हैं और सांसारिक सुख तथा मोक्ष सुख की प्राप्ति के कारण हैं ॥३॥ पूर्वाचार्यों ने दान को चार हिस्सों बाँटा है, जैसे आहार - दान, औषधिदान, शास्त्रदान और अभयदान। ये ही दान पवित्र हैं। योग्य पात्रों को यदि ये दान दिये जायें तो इनका फल अच्छी जमीन में बोये हुए बड़ के बीज की तरह अनन्त गुणा होकर फलता है। जैसे एक ही बावड़ी का पानी अनेक वृक्षों में जाकर नाना रूप में परिणत होता है उसी तरह पात्रों के भेद से दान के फल में भी भेद हो जाता है। इसलिए जहाँ तक बने अच्छे सुपात्रों को दान देना चाहिए। सब पात्रों में जैनधर्म का आश्रय लेने वाले को अच्छा पात्र समझना चाहिए, औरों को नहीं, क्योंकि जब एक कल्पवृक्ष हाथ लग गया फिर औरों से क्या लाभ? जैनधर्म में पात्र तीन बतलाये गए है । उत्तम पात्र - मुनि, मध्यम पात्र- व्रती श्रावक और जघन्य पात्र - अव्रतसम्यग्दृष्टि । इन तीन प्रकार के पात्रों को दान देकर भव्य पुरुष जो सुख लाभ करते हैं उसका वर्णन मुझसे नहीं किया जा सकता परन्तु संक्षेप में यह समझ लीजिए कि धन-दौलत, स्त्री- पुत्र, खान-पान, भोग-उपभोग आदि जितनी उत्तम - उत्तम सुख सामग्री है वह तथा इन्द्र, नागेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की पदवियाँ, अच्छे सत्पुरुषों की संगति, दिनों-दिन ऐश्वर्यादि की बढ़वारी वे सब पात्रदान के फल से प्राप्त होते हैं। पात्रदान के फल से मोक्ष प्राप्ति भी सुलभ है। राजा श्रेयांस ने दान के ही फल से मुक्ति लाभ किया था। इस प्रकार पात्रदान का अनन्त फल जानकर बुद्धिमानों को इस ओर अवश्य अपने ध्यान को खींचना चाहिए। जिन-जिन सत्पुरुषों ने पात्रदान का आज तक फल पाया है, उन सबके नाम मात्र का उल्लेख भी जिन भगवान् के बिना और कोई नहीं कर सकता, तब उनके सम्बन्ध में कुछ कहना या लिखना मुझसे मतिहीन मनुष्यों के लिए तो असंभव ही है । आचार्यों ने ऐसे दानियों में सिर्फ चार जनों का उल्लेख शास्त्रों में किया है। इस कथा में उन्हीं का संक्षिप्त चरित मैं पुराने शास्त्रों के अनुसार लिखूँगा। उन दानियों के नाम हैं- श्रीषेण, वृषभसेना, कौण्डेश और एक पशु बराह-सूअर। इनमें श्रीषेण ने आहारदान, वृषभसेना ने औषधिदान, कौण्डेश ने शास्त्रदान और सूअर ने अभयदान किया था। उनकी क्रम से कथा लिखी जाती है ॥४-२० ॥ प्राचीन काल में श्रीषेण राजा ने आहारदान दिया । उनके फल से वे शान्तिनाथ तीर्थंकर हुए। श्रीशान्तिनाथ भगवान् जय लाभ करें, जो सब प्रकार का सुख देकर अन्त में मोक्ष सुख के देने वाले हैं और जिनका पवित्र चरित का सुनना परम शान्ति का कारण है । ऐसे परोपकार भगवान् को परम पवित्र और जीव मात्र का हित करने वाला चरित आप लोग भी सुनें, जिसे सुनकर आप सुख लाभ करेंगे ॥२१-२३॥ प्राचीन काल में इस भारतवर्ष में मलय नाम का एक अति प्रसिद्ध देश था। रत्नसंचयपुर उसकी राजधानी थी। जैनधर्म का इस देश में खूब प्रचार था । उस समय उसके राजा श्रीषेण थे। श्रीषेण धर्मज्ञ, उदारमना, न्यायप्रिय, प्रजाहितैषी, दानी और बड़े विचारशील थे। पुण्य से प्रायः अच्छे-अच्छे सभी गुण उन्हें प्राप्त थे। उनका प्रतिद्वंद्वी या शत्रु कोई न था । वे राज्य निर्विघ्न किया करते थे। सदाचार में उस समय उनका नाम सबसे ऊँचा था। उनकी दो रानियाँ थीं । उनके नाम थे सिंहनन्दिता और अनन्दिता । दोनों ही अपनी-अपनी सुन्दरता में अद्वितीय थीं, विदुषी और सती थीं। इन दोनों के पुत्र हुए । उनके नाम इन्द्रसेन और उपेन्द्रसेन थे। दोनों ही भाई सुन्दर थे, गुणी थे, शूरवीर थे और हृदय के बड़े शुद्ध थे । इस प्रकार श्रीषेण धन-सम्पत्ति, राज्य-वैभव, कुटुम्ब-परिवार आदि से पूरे सुखी थे। प्रजा का नीति के साथ पालन करते हुए वे अपने समय को बड़े आनन्द के साथ बिताते थे ॥२४-२९॥ यहाँ एक सात्यकि ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम जंघा था। इसके सत्यभामा नाम की एक लड़की थी। रत्नसंचयपुर के पास बल नाम का एक गाँव बसा हुआ था। उसमें धरणीजट नाम का ब्राह्मण वेदों का अच्छा विद्वान् था। अग्नीला उसकी स्त्री थी अग्लीना से दो लड़के हुए। उनके नाम इन्द्रभूति और अग्निभूति थे । उसके यहाँ एक दासी - पुत्र (शूद्र) का लड़का रहता था। उसका नाम कपिल था। धरणीजट जब अपने लड़कों को वेदादिक पढ़ाया करता, उस समय कपिल भी बड़े ध्यान से उस पाठ को चुपचाप छुपे हुए सुन लिया करता था । भाग्य से कपिल की बुद्धि बड़ी तेज थी। सो वह अच्छा विद्वान् बन गया, एक दासी पुत्र भी पढ़-लिखकर महा विद्वान् बन गया इस धरणीजट को बड़ा आश्चर्य हुआ। पर सच तो यह है कि बेचारा मनुष्य करे भी क्या, बुद्धि तो कर्मों के अनुसार होती है न? जब सर्व साधारण में कपिल के विद्वान् हो जाने की चर्चा उठी तो धरणीजट पर ब्राह्मण लोग बड़े बिगड़े और उसे डराने लगे कि तूने यह बड़ा भारी अन्याय किया जो दासी-पुत्र को पढ़ाया। उसका फल तुझे बहुत बुरा भोगना पड़ेगा। अपने पर अपने जातीय भाइयों को इस प्रकार क्रोध उगलते देख धरणीजट बड़ा घबराया। तब डर से उसने कपिल को अपने घर से निकाल दिया। कपिल उस गाँव से निकल रास्ते में ब्राह्मण बन गया और इसी रूप में वह रत्नसंचयपुर आ गया। कपिल विद्वान् और सुन्दर था । इसे उस सात्यकि ब्राह्मण ने देखा, जिसका कि ऊपर जिकर आ चुका है। उसके गुण रूप को देखकर सात्यकि बहुत प्रसन्न हुआ। उनके मन पर वह बहुत चढ़ गया। तब सात्यकि ने उसे ब्राह्मण ही समझ अपनी लड़की सत्यभामा का उसके साथ ब्याह कर दिया । कपिल अनायास इस स्त्री-रत्न को प्राप्त कर सुख से रहने लगा। राजा ने उसके पाण्डित्य की तारीफ सुन उसे अपने यहाँ पुराण कहने को रख लिया । इस तरह कुछ वर्ष बीते । एक बार सत्यभामा ऋतुमती हुई सो उस समय भी कपिल ने उससे संसर्ग करना चाहा। उसके इस दुराचार को देखकर सत्यभामा को इसके विषय में सन्देह हो गया। उसने इस पापी को ब्राह्मण न समझ इससे प्रेम करना छोड़ दिया। वह इससे अलग रह दुःख के साथ जिन्दगी बिताने लगी ॥३०-४२॥ इधर धरणीजट के कोई ऐसा पाप का उदय आया कि उसकी सब धन-दौलत बरबाद हो गई वह भिखारी-सा हो गया । उसे मालूम हुआ की कपिल रत्नसंचयपुर में अच्छी हालत में है। राजा द्वारा उसे धन-मान खूब प्राप्त है। वह तब उसी समय सीधा कपिल के पास आया। उसे दूर से देखकर कपिल मन ही मन धरणीजट पर बड़ा गुस्सा हुआ । अपनी बढ़ी हुई मान-मर्यादा के समय उसका अचानक आ जाना कपिल को बहुत खटका । पर वह कर क्या सकता था। उसे साथ ही उस बात का बड़ा भय हुआ कि कहीं वह मेरे सम्बन्ध में लोगों को भड़का न दें। यही सब विचार कर वह उठा और बड़ी प्रसन्नता से सामने जाकर धरणीजट को उसने नमस्कार किया और बड़े मान से लाकर उसे ऊँचे आसन पर बैठाया ॥४३-४५॥ उसके बाद उसने पूछा- पिताजी, मेरी माँ, भाई आदि सब सुख से तो हैं न? इस प्रकार कुशल समाचार पूछ कर धरणीजट को स्नान, भोजनादि कराया और उसका वस्त्रादि से खूब सत्कार किया। फिर सबसे आगे एक खास मेहमान की जगह बैठाकर कपिल ने सब लोगों को धरणीजट का परिचय कराया कि ये ही मेरे पिताजी हैं। बड़े विद्वान् और आचार-विचारवान् हैं। कपिल ने यह सब समाचार इसीलिए किया था कि कहीं उसकी माता का सब भेद खुल न जाए। धरणीजट दरिद्री हो रहा था। धन की उसे चाह थी ही, सो उसने उसे अपना पुत्र मान लेने में कुछ भी आनाकानी न की । धन के लोभ से उसे यह पाप स्वीकार कर लेना पड़ा । ऐसे लोभ को धिक्कार है, जिसके वश हो मनुष्य हर एक पापकर्म कर डालता है । तब धरणीजट वहीं रहने लग गया । यहाँ रहते इसे कई दिन हो चुके। सबके साथ इसका थोड़ा बहुत परिचय भी हो गया। एक दिन मौका पाकर सत्यभामा ने उसे कुछ थोड़ा बहुत द्रव्य देकर एकान्त में पूछा - महाराज, आप ब्राह्मण हैं और मेरा विश्वास है कि ब्राह्मण देव कभी झूठ नहीं बोलते इसलिए कृपाकर मेरे संदेह को दूर कीजिए। मुझे आपके इन कपिल जी का दुराचार देख यह विश्वास नहीं होता कि ये आप सरीखे पवित्र ब्राह्मण के कुल उत्पन्न हुए हों, तब क्या वास्तव में ये ब्राह्मण ही हैं या कुछ गोलमाल है । धरणीजट को कपिल से इसलिए द्वेष हो ही रहा था कि भरी सभा में कपिल ने उसे अपना पिता बता उसका अपमान किया था और दूसरे उसे धन की चाह थी, सो उसके मन के माफिक धन सत्यभामा ने उसे पहले ही दे दिया था। तब वह कपिल की सच्ची हालत क्यों छिपायेगा ? जो हो, धरणीजट सत्यभामा को सब हाल कहकर और प्राप्त धन लेकर रत्नसंचयपुर से चल दिया । सुनकर कपिल पर सत्यभामा की घृणा पहले से कोई सौ गुणी बढ़ गई तब उसने उससे बोलना - चालना तक छोड़कर एकान्तवास स्वीकार कर लिया, पर अपने कुलाचार की मान-मर्यादा को न छोड़ा । सत्यभामा को इस प्रकार अपने से घृणा करते देख कपिल उससे बलात्कार करने पर उतारू हो गया। तब सत्यभामा घर से भागकर श्रीषेण महाराज की शरण में आ गई और उसने सब हाल उनसे कह दिया। श्रीषेण ने तब उस पर दयाकर उसे अपनी लड़की की तरह अपने यहीं रख लिया । कपिल सत्यभामा के अन्याय की पुकार लेकर श्रीषेण के पास पहुँचा। उसके व्यभिचार की हालत उन्हें पहले ही मालूम हो चुकी थी, इसलिए उसकी कुछ न सुनकर श्रीषेण ने उस लम्पटी और कपटी ब्राह्मण को अपने देश से निकाल दिया। सो ठीक ही है राजा को सज्जनों की रक्षा और दुष्टों को सजा देनी ही चाहिए। ऐसा न करने पर वे अपने कर्तव्य से च्युत होते है और प्रजा के धनहारी हैं ॥४६-५७॥ एक दिन श्रीषेण के यहाँ आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारणऋद्धि के धारी मुनिराज पृथ्वी को अपने पाँवों से पवित्र करते हुए आहार के लिए आए। श्रीषेण ने बड़ी भक्ति से उनका आह्वान कर उन्हें पवित्र आहार कराया । इस पात्रदान से उनके यहाँ स्वर्ग के देवों ने रत्नों की वर्षा की, कल्पवृक्षों ने सुन्दर और सुगन्धित फूल बरसाये, दुन्दुभी बाजे बजे, मन्द-सुगन्ध वायु बहा और जय-जयकार हुआ, खूब बधाइयाँ मिलीं और सच है, सुपात्रों को दिये दान के फल से क्या नहीं हो पाता। इसके बाद श्रीषेण ने और बहुत वर्षों तक राज्य - सुख भोगा । अन्त में मरकर वे धातकीखण्ड द्वीप के पूर्वभाग की उत्तर - कुरु भोगभूमि में उत्पन्न हुए। सच है, साधुओं की संगति से जब मुक्ति भी प्राप्त हो सकती है तब कौन ऐसी उससे बढ़कर वस्तु होगी जो प्राप्त न हो । श्रीषेण की दोनों रानियाँ तथा सत्यभामा भी इसी उत्तरकुरु भोगभूमि में जाकर उत्पन्न हुई। सब इस भोगभूमि में दस प्रकार के कल्पवृक्ष से मिलने वाले सुखों को भोगते और आनन्द से रहते हैं । यहाँ इन्हें कोई खाने-कमाने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती है। पुण्योदय से प्राप्त हुए भोगों को निराकुलता से ये आयु पूर्ण होने तक भोगेंगे । यहाँ की स्थिति बड़ी अच्छी है । यहाँ के निवासियों को कोई प्रकार की बीमारी, शोक, चिन्ता, दरिद्रता आदि से होने वाले कष्ट नहीं सता पाते। इनकी कोई प्रकार के अपघात से मौत नहीं होती । यहाँ किसी के साथ शत्रुता नहीं होती। यहाँ न अधिक जाड़ा पड़ता और न अधिक गर्मी होती है किन्तु सदा एक सी सुन्दर ऋतु रहती है। यहाँ न किसी की सेवा करनी पड़ती है और न किसी के द्वारा अपमान सहना पड़ता है, न यहाँ युद्ध है और न कोई किसी का वैरी है। यहाँ के लोगों के भाव सदा पवित्र रहते हैं। आयु पूरी होने तक ये इसी तरह सुख से रहते हैं । अन्त में स्वाभाविक सरल भावों से मृत्यु लाभ कर ये दानी महात्मा कुछ बाकी बचे पुण्य फल से स्वर्ग में जाते हैं। श्रीषेण ने भी भोग भूमि का खूब सुख भोगा। अन्त में वे स्वर्ग गए। स्वर्ग में भी मनचाहा दिव्य सुख भोगकर अन्त में वे मनुष्य हुए। इस जन्म में ये कई बार अच्छे-अच्छे राजघराने में उत्पन्न हुए। पुण्य से फिर स्वर्ग गए। वहाँ की आयु पूरी कर अबकी बार भारतवर्ष के सुप्रसिद्ध शहर हस्तिनापुर के राजा विश्वसेन की रानी ऐरा के यहाँ उन्होंने अवतार लिया । यही सोलहवें श्रीशान्तिनाथ तीर्थंकर के नाम से संसार में प्रख्यात हुए। उनके जन्म समय में स्वर्ग के देवों ने आकर बड़ा उत्सव किया था, उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसमुद्र स्फटिक से पवित्र और निर्मल जल से उनका अभिषेक किया था। भगवान् शान्तिनाथ ने अपना जीवन बड़ी ही पवित्रता के साथ बिताया। उनका जीवन संसार का आदर्श जीवन है। अन्त में योगी होकर उन्होंने धर्म का पवित्र उपदेश देकर अनेक जनों को संसार से पार किया, दुःखों से उनकी रक्षा कर उन्हें सुखी किया । अपना संसार के प्रति जो कर्तव्य था उसे पूरा कर इन्होंने निर्वाण लाभ किया। यह सब पात्रदान का फल है। इसलिए जो लोग पात्रों को भक्ति से दान देंगे वे भी नियम से ऐसा ही उच्च सुख लाभ करेंगे। यह बात ध्यान में रखकर सत्पुरुषों का कर्तव्य है, कि वे प्रतिदिन कुछ न कुछ दान अवश्य करें । यही दान स्वर्ग और मोक्ष के सुख का देने वाला है ॥५८-७४॥ मूलसंघ में कुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए। रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के धारी थे । इन्हीं गुरु महाराज की कृपा से मुझ अल्पबुद्धि नेमिदत्त ब्रह्मचारी ने पात्रदान के सम्बन्ध में श्रीशान्तिनाथ भगवान् की पवित्र कथा लिखी है। यह कथा मेरी परम शान्ति की कारण हो ॥७५॥
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