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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. आये तेरे द्वार सुन ले आये तेरे द्वार सुन ले भक्तों की पुकार त्रिशला लाल रे॥टेक॥ कुण्डलपुर में जनम लियो तब, बजने लगी थी शहनाई, दीपावली को मुक्ति पाई तब मन में सबके तहनाई, तुम पा गये मुक्ति धाम हम भी पायें निज का धाम...त्रिशला लाल रे॥१॥ सुन्दर स्याद्वादकी सरगम, जब तुमने थी बरसाई, भव्यजनों को आनंदकारी, अमृत धारा बरसाई, भविजन तुमको निजसम जान कर गये आतम का कल्याण...त्रिशला लाल रे॥२॥ नीर क्षीर सम तन चेतन को, भिन्न सदा ही बताया है, जिन चेतन के दर्शन पा, निज चेतन दर्शन पाया है, मैं पाऊं निज का धाम वही सच्चा जिन का धाम...त्रिशला लाल रे॥३॥
  2. तुम जैसा मैं भी बन जाऊं तर्ज : चांद सी मह्बूबा... तुम जैसा मैं भी बन जाऊं, ऐसा मैंने सोचा है, तुम जैसी समता पा जाऊं, ऐसा मैंने सोचा है । भव वन में भटक रहा भगवन, ऐसी चिन्मूरत न पाई है। तेरे दर्शन से निज दर्शन की,सुधि अपने आपही आई है। शांति प्रदाता मंगलदाता, मुश्किल से मैंने खोजा है, तुम जैसी समता पा जाऊं.... ।१। कितनी प्रतिकूल परिस्थिति में,मुझको वैराग्य न आता है संसार असार नहीं लगता, मन राग रंग में जाता है। विषय वासना की जड गहरी, काटो नाथ भरोसा है, तुम जैसी समता पा जाऊं....।२। हे जिनधर्म के प्रेमी सुन लो, कह गये कुंद कुंद स्वामी । भव सागर से तिरने में फ़िर, कल्याणी माँ श्री जिनवाणी | रूप तुम्हारा सबसे न्यारा, करना सिर्फ़ भरॊसा है, तुम जैसी समता पा जाऊं....।३।
  3. वीतरागी देव तुम्हारे जैसा तर्ज: कस्मे वादे प्यार... वीतरागी देव तुम्हारे जैसा जग में देव कहां । मार्ग बताया है जो जग को ,कह न सके कोई और यहां। वीतरागी देव... हैं सब द्रव्य स्वतंत्र जगत में,कोई न किसी का कार्य करे अपने अपने स्वचतुष्टय में ,सभी द्रव्य विश्राम करे । अपनी अपनी सहज गुफ़ा में, रहते पर से मौन यहां॥ भाव शुभाशुभ का भी कर्ता , बनता जो दीवाना है । ज्ञायक भाव शुभाशुभ से भी, भिन्न न उसने जाना है । अपने से अनजान तुझे, भगवान कहें जिनदेव यहां॥ पुण्य भाव भी पर आश्रित है, उसमें धर्म नही होता । ज्ञान भाव में निज परिणति से बंधन कर्म नहीं होता । निज आश्रय से ही मुक्ति है, कहते हैं जिनदेव यहां ॥
  4. आया कहां से, कहां है आया कहां से, कहां है जाना, ढूंढ ले ठिकाना चेतन ढूंढ ले ठिकाना । इक दिन चेतन गोरा तन यह, मिट्टी में मिल जाएगा । कुटुम्ब कबीला पडा रहेगा, कोई बचा ना पायेगा । नहीं चलेगा कोई बहाना...॥ ढूंढ ले ठिकाना...।१। बाहर सुख को खोज रहा है, बनता क्यों दीवाना रे । आतम ही सुख खान है प्यारे, इसको भूल ना जाना रे। सारे सुखों का ये है खजाना...॥ ढूंढ ले ठिकाना… ।२। जब तक तन में सांस रहेगी, सब तुझको अपनायेंगे । जब न रहेंगे प्राण जो तन में, सब तुझसे घबरायेंगे । तुझको पडेगा प्यारे है जाना...॥ ढूंढ ले ठिकाना...।३। दौलत के दीवानों सुन लो, इक दिन ऐसा आयेगा । धन दौलत और रूप खजाना, पडा यहीं रह जायेगा । कन्धा लगायेगा सारा जमाना...॥ ढूंढ ले ठिकाना...।४। गुरुचरणों के ध्यान से चेतन, भवसागर तिर जायेगा । सम्यग्दर्शन ज्ञान से प्यारे, दुख तेरा मिट जायेगा । सारे सुखों का है ये खजाना...॥ ढूंढ ले ठिकाना...।५।
  5. शुद्धात्मा का श्रद्धान होगा तर्ज: झिलमिल सितारों का... शुद्धात्मा का श्रद्धान होगा,निज आत्मा तब भगवान होगा। निज में निज, पर में पर भासक,सम्यकज्ञान होगा|| नव तत्वों में छुपी हुई जो, ज्योति उसे प्रगटाऐंगे । पर्यायों से पार त्रिकाली, ध्रुव को लक्ष्य बनाऐंगे । शुद्ध चिदानंद रसपान होगा, निज आत्मा तब भगवान होगा ।१। निज में निज.... निज चैतन्य महा हिमगिरि से, परिणति घन टकराऐंगे । शुद्ध अतीन्द्रिय आनंद रसमय, अमृत जल बरसायेंगे । मोह महामल प्रक्षाल होगा, निज आत्मा तब भगवान होगा ।२। निज में निज.. आत्मा के उपवन में, रत्नत्रय पुष्प खिलायेंगे । स्वानुभूति की सौरभ से, निज नंदन वन महकायेंगे । संयम से सुरभित उद्यान होगा, निज आत्मा तब भगवान होगा ।३। निज में निज ….
  6. मन भाये चित हुलसाये तर्ज : मन डोले... मन भाये चित हुलसाये मेरे छाया हर्ष अपार रे - लख वीर तुम्हारी मूरतियां ॥ देख लिया मैंने जग सारा तुमसा नजर ना आये, वीतराग मुद्रा तुम धारे बैठे ध्यान लगाय- प्रभू तुम बैठे ध्यान लगाय, सुरपति आवे, मंगल गावे, नाचे दे दे ताल रे, लख वीर तुम्हारी मूरतियां ॥ अष्ट कर्म को जीत प्रभू तुम पाया केवलज्ञान, दे उपदेश बहुत जन तारे कहां तक करूं बखान- प्रभू मैं कहां तक करूं बखान, भय जाये,मेरे रोग ना आये,मेरे सुधरे काम हजार रे, लख वीर तुम्हारी मूरतियां ॥ राग द्वेष में लिप्त हुआ मैं सत को नहीं पिछाना, पर वस्तु को अपना समझा, झूंठे मत को माना- प्रभू जी उलटे मत को माना, अब तुम पाये, भरम नशाये, ’पंकज’ होगा पार रे, लख वीर तुम्हारी मूरतियां ॥
  7. प्रभु जी अब ना भटकेंगे प्रभु जी अब ना भटकेंगे संसार में, अब अपनी खबर हमें हो गयी ॥ भूल रहे थे निज वैभव को, पर को अपना माना । विष सम पंचेंद्रिय विषयों में, ही सुख हमने जाना । पर से भिन्न लखूं निज चेतन... मुक्ति निश्चित होगी ।१। महा पुण्य से हे जिनवर अब, तेरा दर्शन पाया । शुद्ध अतीन्द्रिय आनंद रस पीने को,चित्त ललचाया । निर्विकल्प निज अनुभूति से... मुक्ति निश्चित होगी ।२। निज को ही जाने पहिचाने, निज में ही रम जाये । द्रव्य भाव नोकर्म रहित हो, शाश्वत शिवपद पाये । रत्नत्रय निधियां प्रगटाएं... मुक्ति निश्चित होगी ।३।
  8. श्रीलीलायतनं महीकुलगृहं, कीर्तिप्रमोदास्पदम् वाग्देवीरतिकेतनं जयरमा, क्रीडानिधानं महत्। स स्यात्सर्वमहोत्सवैकभवनं, य: प्रार्थितार्थप्रदं प्रात: पश्यति कल्पपादपदलच्छायं जिनाङ्घ्रिद्वयम्॥ १॥ वसन्ततिलका छन्द: शान्तं वपु: श्रवणहारि वचश्चरित्रं सर्वोपकारि तव देव तत: श्रुतज्ञा:। संसारमारवमहास्थलरुन्द्रसान्द्र च्- छायामहीरुह भवन्तमुपाश्रयन्ते॥ २॥ शार्दूलविक्रीडितछन्द: स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननी, गर्भान्धकूपोदरा- दद्योद्घाटितदृष्टिरस्मि फलवज्जन्मास्मि चाद्य स्फुटम्। त्वामद्राक्षमहं यदक्षयपदा, नन्दाय लोकत्रयी- नेत्रेन्दीवरकाननेन्दुममृतस्यन्दिप्रभाचन्द्रिकम्॥ ३॥ नि:शेषत्रिदशेन्द्रशेखरशिखा, रत्नप्रदीपावली- सान्द्रीभूतमृगेन्द्रविष्टरतटी, माणिक्यदीपावलि:। क्वेयं श्री: क्व च नि:स्पृहत्वमिदमि-त्यूहातिगस्त्वादृश: सर्वज्ञानदृशश्चरित्रमहिमा, लोकेश! लोकोत्तर:॥ ४॥ राज्यं शासनकारिनाकपति, यत्त्यक्तं तृणावज्ञया हेलानिर्दलितत्रिलोकमहिमा, यन्मोहमल्लो जित:। लोकालोकमपि स्वबोधमुकुरस्यान्त:कृतं यत्त्वया सैषाश्चर्यपरम्परा जिनवर! क्वान्यत्र सम्भाव्यते॥ ५॥ दानं ज्ञानधनाय दत्तमसकृत्,पात्राय सद्वृत्तये चीर्णान्युग्रतपांसि तेन सुचिरं, पूजाश्च बह्व्य: कृता:। शीलानां निचय: सहामलगुणै:, सर्व: समासादितो दृष्टस्त्वं जिन! येन दृष्टिसुभग:, श्रद्धापरेण क्षणम्॥ ६॥ प्रज्ञापारमित: स एव भगवान्, पारं स एव श्रुत-, स्कन्धाब्धेर्गुणरत्नभूषण इति, श्लाघ्य: स एव धु्रवम्। नीयन्ते जिन ! येन कर्णहृदया-लङ्कारतां त्वद्गुणा:, संसाराहिविषापहारमणयस्ा्, त्रैलोक्यचूडामणे:!॥ ७॥ मालिनी छन्द: जयति दिविजवृन्दान्दोलितैरिन्दुरोचिर्- निचयरुचिभिरुच्चैश्चामरैर्वीज्यमान:। जिनपतिरनुरज्यन्मुक्तिसाम्राज्यलक्ष्मी - युवतिनवकटाक्षक्षेपलीलां दधानै:॥ ८॥ स्रग्धरा छन्द: देव: श्वेतातपत्र, त्रयचमरिरुहा, शोकभाश्चक्रभाषा- पुष्पौघासारसिंहासनसुरपटहै-रष्टभि: प्रातिहार्यै:। साश्चर्यैभ्र्राजमान:, सुरमनुजसभाम्-भोजिनी भानुमाली पायान्न:पादपीठी,कृतसकलजगत्पालमौलिर्जिनेन्द्र:॥ ९॥ नृत्यत्स्वर्दन्तिदन्ताम्बु-रुहवननटन्-नाकनारीनिकाय: सद्यस्त्रैलोक्ययात्रोत्सवकरनिनदा, तोद्यमाद्यन्निलिम्प:। हस्ताम्भोजातलीलाविनिहितसुमनोद्दामरम्यामरस्त्री- काम्य:कल्याणपूजा, विधिषु विजयते, देव! देवागमस्ते॥ १०॥ शार्दूलविक्रीडित छन्द: चक्षुष्मानहमेव देव! भुवने, नेत्रामृतस्यन्दिनं त्वद्वक्त्रेन्दुमतिप्रसादसुभगैस्, तेजोभिरुद्भासितम्। येनालोकयता मयानतिचिराच्चक्षु: कृतार्थीकृत द्रष्टव्यावधिवीक्षण-व्यतिकरव्याजृम्भमाणोत्सवम्॥ ११॥ वसन्ततिलका छन्द: कन्तो: सकान्तमपि मल्लमवैति कश्चिन्- मुग्धो मुकुन्दमरविन्दजमिन्दुमौलिम्। मोघीकृतत्रिदशयोषिदपाङ्गपातस् - तस्य त्वमेव विजयी जिनराज! मल्ल:॥ १२॥ मालिनी छन्द: किसलयतिमनल्पं, त्वद्विलोकाभिलाषात्- कुसुमितमतिसान्द्रं, त्वत्समीपप्रयाणात्। मम फलितममन्दं, त्वन्मुखेन्दोरिदानीं नयनपथमवाप्ताद्, देव! पुण्यद्रुमेण॥ १३॥ त्रिभुवनवनपुष्यत्, पुष्पकोदण्डदर्प- प्रसरदवनवाम्भो, मुक्तिसूक्तिप्रसूति:। स जयति जिनराज-, व्रातजीमूतसङ्घ: शतमखशिखिनृत्या-,रम्भनिर्बन्धबन्धु:॥ १४॥ स्रग्धरा छन्द: भूपालस्वर्गपाल-, प्रमुखनरसुरश्रेणिनेत्रालिमाला- लीलाचैत्यस्य चैत्या-लयमखिलजगत्कौमुदीन्दोर्जिनस्य। उत्तंसीभूतसेवाञ्जलिपुटनलिनीकुड्मलस्त्रि:परीत्य, श्रीपादच्छाययापस्थितभवदवथु: संश्रितोस्मीव मुक्तिम्॥ वसन्ततिलका छन्द: देव! त्वदङ्-िघ्रनखमण्डलदर्पणेऽस्मिन् - नघ्र्ये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्त्र:। श्रीकीर्तिकान्तधृति - सङ्गमकारणानि भव्यो न कानि लभते शुभमङ्गलानि॥ १६॥ मालिनी छन्द: जयति सुरनरेन्द्र-, श्रीसुधानिर्झरिण्या: कुलधरणिधरोऽयं, जैनचैत्याभिराम:। प्रविपुलफलधर्मा-, नोकहाग्रप्रवाल- प्रसरशिखरशुम्भत्-, केतन: श्रीनिकेत:॥ १७॥ विनमदमरकान्ता, कुन्तलाक्रान्तकान्ति- स्फुरितनखमयूखद्योतिताशान्तराल:। दिविजमनुजराज-, व्रातपूज्यक्रमाब्जो जयति विजितकर्मा-,रातिजालो जिनेन्द्र:॥ १८॥ वसन्ततिलका छन्द: सुप्तोत्थितेन सुमुखेन सुमङ्गलाय, दृष्टव्यमस्ति यदि मङ्गलमेव वस्तु। अन्येन किं तदिह नाथ! तवैव वक्त्रं, त्रैलोक्यमङ्गलनिकेतनमीक्षणीयम्॥ १९॥ शार्दूल विक्रीडित छन्द: त्वं धर्मोदयतापसाश्रमशुकस्, त्वं काव्यबन्धक्रम- क्रीडानन्दनकोकिलस्त्वमुचित:, श्रीमल्लिकाषट्पद:। त्वं पुन्नागकथारविन्दसरसी, हंसस्त्वमुत्तंसकै: कैर्भूपाल न धार्यसे गुणमणिस्रङ्मालिभिर्मौलिभि:॥ २०॥ मालिनी छन्द: शिवसुखमजरश्री, सङ्गमं चाभिलष्य स्वमभिनियमयन्ति, क्लेशपाशेन केचित्। वयमिह तु वचस्ते, भूपतेर्भावयन्तस्- तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशाम:॥ २१॥ शार्दूल विक्रीडित छन्द: देवेन्द्रास्तव मज्जनानि विदधु, र्देवाङ्गना मङ्गला- न्यापेठु: शरदिन्दुनिर्मलयशो, गन्धर्वदेवा जगु:। शेषाश्चापि यथानियोगमखिला:, सेवां सुराश्चक्रिरे तत्िकं देव! वयं विदध्म इति नश्िचत्तं तु दोलायते॥ २२॥ देव! त्वज्जननाभिषेकसमये, रोमाञ्चसत्कञ्चुकै- र्देवेन्द्रैर्यदनर्ति नत्र्तनविधौ, लब्धप्रभावै: स्फुटम्। किञ्चान्यत्सुरसुन्दरीकुचतट, प्रान्तावनद्धोत्तम- प्रेङ्खद्वल्लकिनादझङ् -कृतमहो, तत्केन संवण्र्यते ॥ २३॥ देव! त्वत्प्रतिबिम्बमम्बुजदल, स्मेरेक्षणं पश्यतां यत्रास्माकमहो महोत्सवरसो, दृष्टेरियान्वर्तते। साक्षात्तत्र भवन्तमीक्षितवतां, कल्याणकाले तदा देवानामनिमेषलोचनतया, वृत्त: स किं वण्र्यते॥२४॥ दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं दृष्टं सिद्धरसस्य सद्मसदनं दृष्टं च चिन्तामणे:। किं ट्टष्टेरथवानुषङ्गिकफलैरे-,भिर्मयाद्य ध्रुवं दृष्टं मुक्ितविवाहमङ्गलगृहं, दृष्टे जिनश्रीगृहे ॥ २५॥ दृष्टस्त्वं जिनराजचन्द्र! विकसद्भूपेन्द्रनेत्रोत्पले स्नातं त्वन्नुतिचन्द्रिकाम्भसि भवद्विद्वच्चकोरोत्सवे। नीतश्चाद्य निदाघज: क्लमभर:, शान्तिं मया गम्यते देव! त्वद्गतचेतसैव भवतो, भूयात्पुनर्दर्शनम् ॥ २६॥
  9. यस्य स्वयं स्वाभावाप्ति, रभावे कृत्स्नकर्मण:। तस्मै संज्ञान-रूपाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥ 1॥ योग्योपादानयोगेन, दृषद: स्वर्णता मता। द्रव्यादिस्वादिसंपत्तावात्मनोऽप्यात्मता मता॥ 2॥ वरं व्रतै: पदं दैवं, नाव्रतैर्वत नारकम्। छायातपस्थयो र्भेद: प्रतिपालयतोर्महान् ॥ 3॥ यत्र भाव: शिवं दत्ते, द्यौ: कियद्दूरवर्तिनी। यो नयत्याशु गव्यूतिं क्रोशार्धे किं स सीदति ?॥4 हृषीकज -मनातङ्कं दीर्घ - कालोपलालितम् नाके नाकौकसां सौख्यं, नाके नाकौकसामिव॥5॥ वासनामात्र-मेवैतत् सुखं दु:खं च देहिनाम्। तथा ह्युद्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि॥6॥ मोहेन संवृतं ज्ञानं, स्वभावं लभते न हि। मत्त: पुमान् पदार्थानां यथा मदन-कोद्रवै:॥7॥ वपुर्गृहं धनं दारा:, पुत्रा मित्राणि शत्रव:। सर्वथान्यस्वभावानि, मूढ: स्वानि प्रपद्यते॥ 8॥ दिग्देशेभ्य: खगा एत्य, संवसन्ति नगे नगे। स्वस्वकार्यवशाद्यान्ति, देशे दिक्षु प्रगे प्रगे॥ 9॥ विराधक: कथं हन्त्रे जनाय परिकुप्यति। त्र्यड्.गुलं पातयन् पद्भ्यां स्वयं दण्डेन पात्यते॥ 10॥ रागद्वेषद्वयीदीर्घ - नेत्राकर्षण- कर्मणा। अज्ञानात्सुचिरं जीव:, संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥11॥ विपद्भवपदावर्ते पदिकेवातिवाह्यते। यावत्तावद्भवन्त्यन्या: प्रचुरा विपद: पुर: ॥ 12॥ दुरज्र्येनासुरक्ष्येण, नश्वरेण धनादिना। स्वस्थंमन्यो जन: कोऽपि, ज्वरवानिव सर्पिषा॥ 13॥ विपत्तिमात्मनो मूढ:, परेषामिव नेक्षते। दह्यमान-मृगाकीर्णवनान्तर - तरुस्थवत्॥ 14॥ आयुर्वृद्धिक्षयोत्कर्ष-, हेतुं कालस्य निर्गमम्। वाञ्छतां धनिनामिष्टं, जीवितात्सुतरां धनम् ॥ 15॥ त्यागाय श्रेयसे वित्तमवित्त: सञ्चिनोति य:। स्वशरीरं स पङ्केन, स्नास्यामीति विलिम्पति॥ 16॥ आरम्भे तापकान् प्राप्तावतृप्तिप्रतिपादकान् । अन्ते सुदुस्त्यजान् कामान् कामं क: सेवते सुधी:॥17॥ भवन्ति प्राप्य यत्सङ्गमशुचीनि शुचीन्यपि। स काय: सन्ततापायस्तदर्थं प्रार्थना वृथा ॥18॥ यज्जीवस्योपकाराय, तद्देहस्यापकारकम्। यद्देहस्योपकाराय, तज्जीवस्यापकारकम् ॥19॥ इतश्चिन्तामणिर्दिव्य इत: पिण्याकखण्डकम् । ध्यानेन चेदुभे लभ्ये क्वाद्रियन्तां विवेकिन:॥ 20॥ स्वसंवेदन सुव्यक्तस्तनुमात्रो निरत्यय:। अत्यन्तसौख्यवानात्मा, लोकालोकविलोकन:॥ 21॥ संयम्य करणग्राममेकाग्रत्वेन चेतस:। आत्मानमात्मवान् ध्यायेदात्मनैवात्मनि स्थितम्॥22 अज्ञानोपास्तिरज्ञानं, ज्ञानं ज्ञानिसमाश्रय:। ददाति यत्तु यस्यास्ति, सुप्रसिद्धमिदं वच:॥ 23॥ परीषहाद्यविज्ञानादास्रवस्य निरोधिनी। जायतेऽध्यात्मयोगेन, कर्मणामाशु निर्जरा॥ 24॥ कटस्य कत्र्ताहमिति, सम्बन्ध: स्याद् द्वयोद्र्वयो:। ध्यानं ध्येयं यदात्मैव, सम्बन्ध: कीदृशस्तदा॥ 25॥ बध्यते मुच्यते जीव:, सममो निर्मम: क्रमात् । तस्मात्सर्वप्रयत्नेन, निर्ममत्वं विचिन्तयेत्॥ 26॥ एकोऽहं निर्मम: शुद्धो, ज्ञानी योगीन्द्रगोचर:। बाह्या: संयोगजा भावा, मत्त: सर्वेऽपि सर्वथा॥ 27॥ दु:खसंदोहभागित्वं, संयोगादिह देहिनाम्। त्यजाम्येनं तत: सर्वं, मनोवाक्कायकर्मभि:॥ 28॥ न मे मृत्यु: कुतो भीतिर्न मे व्याधि: कुतो व्यथा। नाहं बालो न वृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गले॥ 29॥ भुक्तोज्झिता मुहुर्मोहान्मया सर्वेऽपि पुद्गला:। उच्छिष्टेष्विव तेष्वद्य, मम विज्ञस्य का स्पृहा॥ 30॥ कर्म कर्म हिताबन्धि, जीवो जीवहितस्पृह:। स्वस्वप्रभावभूयस्त्वे, स्वार्थं को वा न वाञ्छति॥ 31॥ परोपकृतिमुत्सृज्य, स्वोपकारपरो भव। उपकुर्वन्परस्याज्ञो, दृश्यमानस्य लोकवत् ॥ 32॥ गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्ते: स्वपरान्तरम्। जानाति य: स जानाति, मोक्षसौख्यं निरन्तरम्॥33 स्वस्मिन् सदभिलाषित्वादभीष्टज्ञापकत्वत:। स्वयं हितप्रयोक्तृत्वादात्मैव गुरुरात्मन:॥ 34॥ नाज्ञो विज्ञत्वमायाति, विज्ञो नाज्ञत्वमृच्छति। निमित्तमात्र-मन्यस्तु, गतेर्धर्मास्तिकायवत्॥ 35॥ अभवच्चित्तविक्षेप, एकान्ते तत्त्वसंस्थित:। अभ्यस्येदभियोगेन, योगी तत्त्वं निजात्मन:॥ 36॥ यथा यथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्। तथा तथा न रोचन्ते, विषया: सुलभा अपि॥ 37॥ यथा यथा न रोचन्ते, विषया: सुलभा अपि। तथा तथा समायाति, संवित्तौ तत्त्वमुत्तमम्॥ 38॥ निशामयति निश्शेषमिन्द्रजालोपमं जगत्। स्पृहयत्यात्मलाभाय, गत्वान्यत्रानुतप्यते॥ 39॥ इच्छत्येकान्तसंवासं निर्जनं जनितादर:। निज कार्यवशात्किञ्चिदुक्त्वा विस्मरति द्रुतम्॥ 40॥ ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति। स्थिरीकृतात्मतत्त्वस्तु, पश्यन्नपि न पश्यति॥41॥ किमिदं कीदृशं कस्य, कस्मात्क्वेत्यविशेषयन्। स्वदेहमपि नावैति योगी योगपरायण:॥ 42॥ यो यत्र निवसन्नास्ते, स तत्र कुरुते रतिम्। यो यत्र रमते तस्मादन्यत्र स न गच्छति॥ 43॥ अगच्छंस्तद्विशेषाणामनभिज्ञश्च जायते। अज्ञाततद्विशेषस्तु, बध्यते न विमुच्यते॥ 44॥ पर: परस्ततो दु:खमात्मैवात्मा तत: सुखम्। अत एव महात्मानस्तन्निमित्तं कृतोद्यमा:॥ 45॥ अविद्वान् पुद्गलद्रव्यं योऽभिनन्दति तस्य तत्। न जातु जन्तो: सामीप्यं,चतुर्गतिषु मुञ्चति॥46॥ आत्मानुष्ठाननिष्ठस्य, व्यवहारबहि: स्थिते:। जायते परमानन्द: कश्चिद्योगेन योगिन:॥47॥ आनन्दो निर्दहत्युद्धं कर्मेन्धनमनारतम्। न चासौ खिद्यते योगी, बहिर्दु:खेष्वचेतन:॥48॥ अविद्याभिदुरं ज्योति:, परं ज्ञानमयं महत्। तत्प्रष्टव्यं तदेष्टव्यं, तद्द्रष्टव्यं मुमुक्षुभि:॥49॥ जीवोऽन्य: पुद्गलश्चान्य इत्यसौ तत्त्वसंग्रह:। यदन्यदुच्यते किञ्चित्सोऽस्तु तस्यैव विस्तर:॥ 50॥ इष्टोपदेशमिति सम्यगधीत्य धीमान्, मानापमानसमतां स्वमताद्वितन्य। मुक्ताग्रहो विनिवसन् सजने वने वा, मुक्तिश्रियं निरुपमामुपयाति भव्य:॥ 51॥
  10. नि:सङ्गोऽहं जिनानां सदनमनुपमं त्रि:परीत्येत्य भक्त्या, स्थित्वा गत्वा निषद्योच्चरण-परिणतोऽन्त: शनैर्हस्तयुग्मम्। भाले संस्थाप्य बुद्ध्या मम दुरित-हरं कीर्तये शक्रवन्द्यं, निन्दादूरं सदाप्तं क्षयरहितममुं ज्ञानभानुं जिनेन्द्रम्॥ १॥ श्रीमत्पवित्रमकलङ्कमनन्तकल्पं , स्वायंभुवं सकलमङ्गलमादितीर्थम्। नित्योत्सवं मणिमयं निलयं जिनानां, त्रैलोक्यभूषणमहं शरणं प्रपद्ये॥ २॥ श्रीमत्परमगम्भीर, स्याद्वादामोघलांछनम्। जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम्॥ ३॥ श्री-मुखालोकनादेव, श्रीमुखालोकनं भवेत्। आलोकनविहीनस्य, तत् सुखावाप्तय: कुत:?॥ ४॥ अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य, देव! त्वदीयचरणाम्बुजवीक्षणेन। अद्य त्रिलोकतिलक! प्रतिभासते मे, संसारवारिधिरयं चुलुकप्रमाण:॥ ५॥ अद्य मे क्षालितं गात्रं नेत्रे च विमलीकृते । स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु जिनेन्द्र! तव दर्शनात्॥ ६॥ नमो नम: सत्त्वहितंकराय, वीराय भव्याम्बुजभास्कराय। अनन्तलोकाय सुरार्चिताय, देवाधिदेवाय नमो जिनाय॥ ७ ॥ नमो जिनाय त्रिदशार्चिताय, विनष्टदोषाय गुणार्णवाय। विमुक्तिमार्गप्रतिबोधनाय,देवाधिदेवाय नमो जिनाय॥ ८ ॥ देवाधिदेव ! परमेश्वर ! वीतराग ! सर्वज्ञ! तीर्थकर! सिद्ध महानुभाव। त्रैलोक्यनाथ जिनपुंगव ! वर्धमान! स्वामिन्! गतोऽस्मि शरणं चरणद्वयं ते॥ ९॥ जितमदहर्षद्वेषा, जितमोहापरिषहा जितकषाया: । जितजन्ममरणरोगा, जितमात्सर्या जयन्तु जिना:॥ १० ॥ जयतु जिन वर्धमानस् त्रिभुवन-हित धर्मचक्रनीरजबन्धु:। त्रिदशपतिमुकुटभासुर, चूडामणिरश्मिरञ्जितारुणचरण:॥ ११॥ जय जय जय त्रैलोक्यकाण्डशोभिशिखामणे, नुद नुद नुद स्वान्तध्वान्तं जगत्कमलार्क न:। नय नय नय स्वामिन्! शान्तिं नितान्तमनन्तिमां, न हि न हि न हि त्राता लोकैकमित्रभवत्पर:॥ १२ ॥ चित्ते सुखे शिरसि पाणिपयोजयुग्मे, भक्तिं स्तुतिं विनतिमञ्जलिमञ्जसैव । चेक्रीयते चरिकरीति चरीकरीति, यश्चर्करीति तव देव ! स एव धन्य:॥ १३॥ जन्मोन्माज्र्यं भजतु भवत: पादपद्मं न लभ्यम्, तच्चेत् स्वैरं चरतु न च दुर्देवतां सेवतां स:। अश्नात्यन्नं यदिह सुलभं दुर्लभं चेन्मुधास्ते, क्षुद्व्यावृत्यै कवलयति क:कालकूटं बुभुक्षु:॥ १४॥ रूपं ते निरुपाधि-सुन्दर-मिदं पश्यन् सहस्रेक्षण:, प्रेक्षाकौतुककारिकोऽत्र भगवन् नोपैत्यवस्थान्तरम्। वाणीं गद्गद्यन् वपु: पुलकयन् नेत्रद्वयं स्रावयन्, मूद्र्धानं नमयन् करौ मुकुलयंश्चेतोऽपि निर्वापयन्॥ १५॥ त्रस्तारातिरिति त्रिकालविदिति त्राता त्रिलोक्या इति, ोय: सूतिरिति श्रियां निधिरिति, ोष्ठ: सुराणामिति। प्राप्तोऽहं शरणं शरण्यमगतिस्त्वां तत्-त्यजोपेक्षणम्, रक्ष क्षेमपदं प्रसीद जिन! किं विज्ञार्पितै-र्गोपितै: ॥ १६ ॥ त्रिलोक-राजेन्द्रकिरीटकोटि-प्रभाभिरालीढपदारविन्दम्। निर्मूलमुन्मूलितकर्मवृक्षं,जिनेन्द्रचन्द्रं प्रणमामि भक्त्या॥ १७ ॥ करचरणतनुविघाता, दटतो निहित: प्रमादत: प्राणी। ईर्यापथमिति भीत्या मुञ्चे तद्दोषहान्यर्थम्॥ १८॥ ईर्यापथे प्रचलताऽद्य मया प्रमादा- देकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा । निर्वर्तिता यदि भवेदयुगान्तरेक्षा, मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे॥ १९॥ पडिक्कमामि भंते ! इरियावहियाए, विराहणाए, अणागुत्ते, अइग्गमणे, णिग्गमणे, ठाणे, गमणे, चंकमणे, पाणुग्गमणे, बीजुग्गमणे, हरिदुग्गमणे, उच्चारपस्सवण-खेल-सिंहाण-वियडि-पइावणियाए, जे जीवा एइंदिया वा, वेइंदिया वा, तेइंदिया वा, चउरिंदिया वा, पंचिंदिया वा, णोल्लिदा वा, पेल्लिदा वा, संघट्टिदा वा, संघादिदा वा, उद्दाविदा वा, परि-दाविदा वा, किरिच्छिदा वा, लेस्सिदा वा, छिंदिदा वा, भिंदिदा वा, ठाणदो वा, ठाण-चंकमणदो वा, तस्स उत्तरगुणं, तस्स पायच्छित्त-करणं तस्स विसोहिकरणं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं, णमोक्कारं पज्जुवासं करेमि, ताव कालं, पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि। णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥ ३॥ जाप्यानि। (९ बार ) नमो परमात्मने नमोऽनेकान्ताय शान्तये। इच्छामि भंते ! आलोचेउं इरियावहियस्स पुव्वुत्तरदक्खिण-पच्छिमचउदिसु विदिसासु विहरमाणेण जुगंतर दििणा, भव्वेण दव्वा। पमाददोसेण डवडवचरियाए पाण-भूद-जीवसताणं उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। पापिष्ठेन दुरात्मना जड्धिया, मायाविना लोभिना, रागद्वेष-मलीमसेन मनसा, दुष्कर्म यन्निर्मितम्। त्रैलोक्याधिपते! जिनेन्द्र ! भवता श्रीपादमूलेऽधुना, निन्दापूर्वमहं जहामि सततं निर्वर्तये कर्मणाम्॥ १ ॥ जिनेन्द्रमुन्मूलितकर्मबन्धं, प्रणम्य सन्मार्गकृतस्वरूपम्। अनन्तबोधादि भवं गुणौघं क्रियाकलापं प्रकटं प्रवक्ष्ये॥ २ ॥ अथार्हत्पूजारम्भक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्म-क्षयार्थं भावपूजास्तववन्दनासमेतंश्रीमत्सिद्धभत्ति कायोत्सर्गं करोम्यहम्। णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥ चत्तारि मंगलं - अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा - अरहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि - अरहंते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि। अड्ढाइज्ज-दीव-दो समुद्देसु पण्णारस-कम्म-भूमिसु, जाव-अरहंताणं, भयवंताणं आदियराणं, तित्थयराणं, जिणाणं, जिणोत्तमाणं, केवलियाणं, सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अंतयडाणं पारयडाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मणायगाणं, धम्म-वर-चाउरंग-चक्क-वट्टीणं, देवाहि-देवाणं, णाणाणं दंसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं। करेमि भंते! सामायियं सव्वसावज्ज-जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा काएण, ण करेमि ण कारेमि, ण अण्णं करंतं पि समणुमणामि तस्स भंते ! अइचारं पडिक्कमामि, णिंदामि, गरहामि अप्पाणं, जाव अरहंंताणं भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि। ॥ नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें॥ चौबीस तीर्थङ्करों की स्तुति थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे। णरपवरलोयमहिए, विहुय-रयमले महप्पण्णे॥ १॥ लोयस्सुज्जोय-यरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे। अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो॥ २॥ उसह-मजियं च वंदे, संभव-मभिणंदणं च सुमइं च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे॥ ३॥ सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च। विमल-मणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि॥ ४॥ कुंथुं च जिणवरिंदं, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं। वंदामि रिट्ठ-णेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च॥ ५॥ एवं मए अभित्थुआ, विहुयरयमलापहीण-जरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु॥ ६॥ कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा। आरोग्ग-णाण-लाहं, दिंतु समाहिं च मे बोहिं॥ ७॥ चंदेहिं णिम्मल-यरा, आइच्चेहिं अहिय-पयासंता। सायर-मिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ ८॥
  11. गुरु स्तुति (ते गुरु मेरे उर बसो) पं. भूधरदास कृत ते गुरु मेरे उर बसो, जे भव जलधि जहाज। आप तिरैं पर तारहीं, ऐसे श्री ऋषिराज॥ १॥ ते मोह महारिपु जानिकै, छांड्यो सब घर बार। होय दिगम्बर वन बसे, आतम शुद्ध विचार॥ २॥ ते रोग उरग बिल वपु गिण्यो, भोग भुजङ्ग समान। कदली तरु संसार है, त्यागो सब यह जान ॥ ३॥ ते रतनत्रय निधि उर धरै, अरु निग्र्रन्थ त्रिकाल। मार्यो काम खबीस को, स्वामी परम दयाल॥ ४॥ ते पंच महाव्रत आचरै, पाँचों समिति समेत। तीन गुप्ति पालै सदा, अजर अमर पद हेत॥ ५॥ ते धर्म धरै दशलक्षणी, भावै भावना सार। सहैं परीषह बीस द्वै, चारित रतन भण्डार॥ ६॥ ते जेठ तपै रवि आकरो, सूखे सरवर नीर। शैल शिखर मुनि तप तपै, दाझै नगन शरीर॥ ७॥ ते पावस रैन डरावनी, बरसै जलधर धार। तरुतल निवसै साहसी, चालै झंझा बयार॥ ८॥ ते शीत पड़े कपि मद गले, दाहै सब वनराय। ताल तरंगनि के तटै, ठाड़े ध्यान लगाय॥ ९॥ ते इह विधि दुद्धर तप तपैं, तीनों काल मंझार। लागे सहज सरुप में, तन सो ममत निवार॥ १०॥ ते पूरव भोग न चिन्तवें, आगम वांछा नाहिं। चहुँगति के दुख से डरैं, सुरति लगी शिवमाहिं॥ ११॥ ते रंग महल में पोढ़ते, कोमल सेज बिछाय। ते पश्चिम निशि भूमि में, सोवैं संवरि काय॥ १२॥ ते गज चढि़ चलते गरब सो, सेना सजि चतुरङ्ग। निरखि निरखि पग ते धरैं, पालैं करुणा अंग॥ १३॥ ते वे गुरु चरण जहाँ धरैं, जग में तीरथ जेह। सो रज मम मस्तक चढ़े, भूधर माँगै एह॥ १४॥ ते
  12. श्रीपति जिनवर करुणायतनं, दुखहरन तुम्हारा बाना है। मत मेरी बार अबार करो, मोहि देहु विमल कल्याना है॥ टेक॥ त्रैकालिक वस्तु प्रत्यक्ष लखो,तुम सों कछु बात न छाना है। मेरे उर आरत जो वरतैं, निहचै सब सो तुम जाना है॥ अवलोक विथा मत मौन गहो, नहिं मेरा कहीं ठिकाना है। हो राजिवलोचन सोचविमोचन, मैं तुमसों हित ठाना है॥ सब ग्रंथनि में निरग्रंथनि ने, निरधार यही गणधार कही। जिननायक ही सब लायक हैं, सुखदायक छायक ज्ञानमही॥ यह बात हमारे कान परी, तब आन तुमारी सरन गही। क्यों मेरी बारी बिलंब करो, जिननाथ कहो वह बात सही॥ काहू को भोग मनोग करो, काहू को स्वर्ग विमाना है| काहू को नाग नरेशपती, काहू को ऋद्धि निधाना है॥ अब मो पर क्यों न कृ पा करते, यह क्या अंधेर जमाना है। इंसाफ करो मत देर करो, सुखवृन्द भरो भगवाना है॥ खल कर्म मुझे हैरान किया, तब तुमसों आन पुकारा है। तुम ही समरत्थ न न्याय करो, तब बंदे का क्या चारा है॥ खल घालक पालक बालक का नृपनीति यही जगसारा है। तुम नीतिनिपुण त्रैलोकपती, तुमही लगि दौर हमारा है॥ जबसे तुमसे पहिचान भई, तबसे तुमही को माना है। तुमरे ही शासन का स्वामी, हमको शरना सरधाना है॥ जिनको तुमरी शरनागत है, तिनसौं जमराज डराना है। यह सुजस तुम्हारे सांचे का, सब गावत वेद पुराना है॥ जिसने तुमसे दिलदर्द कहा, तिसका तुमने दुख हाना है। अघ छोटा मोटा नाशि तुरत, सुख दिया तिन्हें मनमाना है॥ पावकसों शीतल नीर किया, औ चीर बढ़ा असमाना है। भोजन था जिसके पास नहीं, सो किया कुबेर समाना है॥ चिंतामणि पारस कल्पतरु, सुखदायक ये सरधाना है। तव दासन के सब दास यही, हमरे मन में ठहराना है॥ तुम भक्तन को सुर इंदपदी, फिर चक्रपती पद पाना है। क्या बात कहों विस्तार बड़ी, वे पावैं मुक्ति ठिकाना है॥ गति चार चुरासी लाख विषैं, चिन्मूरत मेरा भटका है। हो दीनबंधु करुणानिधान, अबलों न मिटा वह खटका है॥ जब जोग मिला शिवसाधन का, तब विघन कर्म ने हटका है। तुम विघन हमारे दूर करो सुख देहु निराकुल घट का है॥ गज-ग्राह-ग्रसित उद्धार किया, ज्यों अंजन तस्कर तारा है। ज्यों सागर गोपदरूप किया, मैना का संकट टारा है॥ ज्यों सूलीतें सिंहासन औ, बेड़ी को काट बिडारा है। त्यौं मेरा संकट दूर करो, प्रभु मोकूं आस तुम्हारा है॥ ज्यों फाटक टेकत पायं खुला, औ सांप सुमन कर डारा है। ज्यों खड्ग कुसुम का माल किया, बालक का जहर उतारा है॥ ज्यों सेठ विपत चकचूरि पूर, घर लक्ष्मी सुख विस्तारा है। त्यों मेरा संकट दूर करो प्रभु, मोकूं आस तुम्हारा है॥ यद्यपि तुमको रागादि नहीं, यह सत्य सर्वथा जाना है। चिन्मूरति आप अनंतगुनी, नित शुद्धदशा शिवथाना है॥ तद्यपि भक्तन की भीरि हरो, सुख देत तिन्हें जु सुहाना है। यह शक्ति अचिंत तुम्हारी का, क्या पावै पार सयाना है॥ दुखखंडन श्रीसुखमंडन का, तुमरा प्रण परम प्रमाना है। वरदान दया जस कीरत का, तिहुंलोक धुजा फहराना है॥ कमलाधरजी! कमलाकरजी! करिये कमला अमलाना है। अब मेरि विथा अवलोकि रमापति, रंच न बार लगाना है॥ हो दीनानाथ अनाथ हितू, जन दीन अनाथ पुकारी है। उदयागत कर्मविपाक हलाहल, मोह विथा विस्तारी है॥ ज्यों आप और भवि जीवन की, तत्काल विथा निरवारी है। त्यों वृंदावन यह अर्ज करै, प्रभु आज हमारी बारी है॥
  13. जीवमजीवं दव्वं, जिणवरवसहेण जेण णिद्दिं। देविंदविंदवंदं, वंदे तं सव्वदा सिरसा॥ 1॥ जीवो उवओगमओ, अमुत्ति कत्ता सदेहपरिमाणो। भोत्ता संसारत्थो, सिद्धो सो विस्ससोड्ढगई॥ 2॥ तिक्काले चदुपाणा इंदियबलमाउ आणपाणो य। ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स॥ 3॥ उवओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं चदुधा। चक्खु अचक्खुओही दंसणमध केवलं णेयं॥4॥ णाणं अवियप्पं, मदिसुद ओही अणाणणाणाणि। मणपज्जय केवलमवि, पच्चक्ख-परोक्ख-भेयं च॥5॥ अचदुणाण-दंसण-, सामण्णं जीवलक्खणं भणियं। ववहारा सुद्धणया, सुद्धं पुण दंसणं णाणं॥6॥ वण्ण रस पंच गंधा, दो फासा अ णिच्छया जीवे। णो संति अमुत्ति तदो, ववहारा मुत्ति बंधादो॥7॥ पुग्गलकम्मादीणं, कत्ता ववहारदो दु णिच्छयदो। चेदणकम्माणादा, सुद्धणया सुद्धभावाणं॥8॥ ववहारा सुहदुक्खं पुग्गलकम्मप्फलं पभुंजेदि। आदा णिच्छयणयदो चेदणभावं खु आदस्स॥9॥ अणुगुरुदेहपमाणो, उवसंहारप्पसप्पदो चेदा। असमुहदो ववहारा णिच्छयणयदो असंखदेसो वा॥10॥ पुढविजलतेउवाऊ, वणप्फदी विविह-थावरेइंदी। विगतिगचदुपंचक्खा, तसजीवा होंति संखादी॥11॥ समणा अमणा णेया पंचिंदिय-णिम्मणा परे सव्वे। बादर सुहुमे - इंदिय सव्वे पज्जत्त इदरा य॥12॥ मग्गणगुणठाणेहि य चउदसहिं हवंति तह असुद्धणया। विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया॥13॥ णिक्कम्मा अगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवएहिं संजुत्ता॥14॥ अज्जीवो पुण णेओ, पुग्गलधम्मो अधम्म आयासं। कालो पुग्गलमुत्तो, रूवादिगुणो अमुत्तिसेसा दु॥ 15॥ सद्दो बंधो सुहुमो, थूलो संठाणभेदतमछाया। उज्जोदादवसहिया, पुग्गलदव्वस्स पज्जाया॥ 16॥ गइ-परिणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं, अच्छंता णेव सो णेई॥ 17॥ ठाणजुदाण अधम्मो पुग्गलजीवाण ठाण-सहयारी। छाया जहपहियाणं गच्छंता णेव सो धरई॥ 18॥ अवगासदाणजोग्गं, जीवादीणं वियाण आयासं। जेण्हं लोगागासं, अल्लोगागासमिदि दुविहं॥ 19॥ धम्माधम्मा कालो, पुग्गलजीवा य संति जावदिये। आयासे सो लोगो, तत्तो परदो अलोगुत्तो॥ 20॥ दव्वपरिवट्टरूवो, जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादीलक्खो, वट्टणलक्खो य परमो॥ 21॥ लोयायासपदेसे, इक्केक्के जे ठिया हु इक्केक्का। रयणाणं रासीमिव, ते कालाणू असंखदव्वाणि॥ 22॥ एवं छब्भेयमिदं, जीवाजीवप्पभेददो दव्वं। उत्तं कालविजुत्तं णायव्वा पंच अत्थिकाया दु॥ 23॥ संति जदो तेणेदे, अत्थित्ति भणंति जिणवरा जम्हा। काया इव बहुदेसा, तम्हा काया य अत्थिकाया य॥ 24॥ होंति असंखा जीवे, धम्माधम्मे अणंत आयासे। मुत्ते तिविह-पदेसा, कालस्सेगो ण तेण सो काओ॥ 25॥ एयपदेसो वि अणू, णाणाखंधप्पदेसदो होदि। बहुदेसो उवयारा, तेण य काओ भणंति सव्वण्हु॥ 26॥ जावदियं आयासं, अविभागी पुग्गलाणुवद्धं। तं खु पदेसं जाणे, सव्वाणुाणदाणरिहं॥ 27॥ आसव-बंधण-संवर -, णिज्जरमोक्खा सपुण्णपावा जे। जीवाजीवविसेसा, ते वि समासेण पभणामो॥ 28॥ आसवदि जेण कम्मं, परिणामेणप्पणो स विण्णेओ। भावासवो जिणुत्तो, कम्मासवणं परो होदि॥ 29॥ मिच्छत्ताविरदिपमादजोग-कोधादओऽथ विण्णेया। पणपणपणदहतिय चदु, कमसो भेदा दु पुव्वस्स॥ 30॥ णाणावरणादीणं, जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ, अणेयभेओ जिणक्खादो॥ 31॥ बज्झदि कम्मं जेण दु, चेदणभावेण भावबंधो सो। कम्मादपदेसाणं, अण्णोण्णपवेसणं इदरो॥ 32॥ पयडििदिअणुभागप्पदेस-भेदा दु चदुविधो बंधो। जोगा पयडिपदेसा, ठिदिअणुभागा कसायदो होंति॥ 33॥ चेदणपरिणामो, जो कम्मस्सासव णिरोहणे हेदु। सो भावसंवरो खलु, दव्वासवरोहणे अण्णो॥ 34॥ वद-समिदीगुत्तीओ, धम्माणुपेहा परीसहजओ य। चारित्तं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा॥ 35॥ जहकालेण तवेण य, भुत्तरसं कम्मपुग्गलं जेण। भावेण सडदि णेया, तस्सडणं चेदि णिज्जरा दुविहा॥ 36॥ सव्वस्स कम्मणो जो, खयहेदू अप्पणो हु परिणामो। णेओ स भावमोक्खो, दव्वविमोक्खो य कम्मपुहभावो॥37॥ सुहअसुहभावजुत्ता, पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा। सादं सुहाउ णामं, गोदं पुण्णं पराणि पावं च॥ 38॥ सम्मद्दंसणणाणं, चरणं मोक्खस्स कारणं जाणे। ववहारा णिच्छयदो, तत्तियमइओ णिओ अप्पा॥ 39॥ रयणत्तयं ण वट्टइ, अप्पाणं मुइत्तु अण्णदवियम्हि। तम्हा तत्तिय मइओ, होदि हु मोक्खस्स कारणं आदा॥40॥ जीवादी-सद्दहणं, सम्मत्तं रूवमप्पणो तं तु। दुरभिणिवेसविमुक्कं, णाणं सम्मं खु होदि सदि जम्हि॥41॥ संसय-विमोह-विब्भम-विवज्जियं अप्पपरसरूवस्स। गहणं सम्मं णाणं, सायारमणेयभेयं च॥ 42॥ जं सामण्णं गहणं, भावाणं णेव कट्टुमायारं। अविसेसिदूण अे दंसणमिदि भण्णए समए॥ 43॥ दंसणपुव्वं णाणं, छदुमत्थाणं ण दुण्णि उवओगा। जुगवं जम्हा केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि॥ 44॥ असुहादो विणिवित्ती, सुहे पवित्ती य जाण चारित्तं। वदसमिदिगुत्तिरूवं ववहारणया दु जिणभणियं॥ 45॥ बहिरब्भंतरकिरियारोहो, भवकारणप्पणासं। णाणिस्स जं जिणुत्तं, तं परमं सम्मचारित्तं॥ 46॥ दुविहं पि मोक्खहेउं, झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा। तम्हा पयत्तचित्ता, जूयं झाणं समब्भसह॥ 47॥ मा मुज्झह मा रज्जह, मा दुस्सह इणिअत्थेसु। थिरमिच्छह जइ चित्तं, विचित्त झाणप्पसिद्धीए॥ 48॥ पणतीस-सोल-छप्पण-, चदु-दुग-मेगं च जवह झाएह। परमेिवाचयाणं, अण्णं च गुरूवएसेण॥ 49॥ ण-चदुघाइकम्मो, दंसण-सुह-णाण-वीरिय-मईओ। सुहदेहत्थो अप्पा, सुद्धो अरिहो विचिंतिज्जो॥ 50॥ ण- कम्मदेहो, लोयालोयस्स जाणओ दा। पुरिसायारो अप्पा, सिद्धो झाएह लोयसिहरत्थो॥ 51॥ दंसणणाणपहाणे, वीरिय-चारित्त-वर-तवायारे। अप्पं परं च जुंजइ, सो आइरिओ मुणी झेओ॥ 52॥ जो रयणत्तयजुत्तो, णिच्चं धम्मोवएसणे णिरदो। सो उवझाओ अप्पा, जदिवरवसहो णमो तस्स॥ 53॥ दंसणणाणसमग्गं, मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं। साधयदि णिच्चसुद्धं, साहू सो मुणी णमो तस्स॥ 54॥ जं किंचिवि चिंतंतो, णिरीहवित्ती हवे जदा साहू। लद्धूणय एयत्तं, तदा हु तं तस्स णिच्छयं झाणं॥ 55॥ मा चिह मा जंपह, मा चिंतह किंवि जेण होइ थिरो। अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं॥ 56॥ तवसुदवदवं चेदा, झाण-रहधुरंधरो हवे जम्हा। तम्हा तत्तियणिरदा, तल्लद्धीए सदा होइ॥ 57॥ दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा, दोससंचयचुदा सुदपुण्णा। सोधयंतु तणुसुत्तधरेण, णेमिचंद मुणिणा भणियं जं॥ 58॥
  14. आदिम तीर्थंकर प्रभो, आदिनाथ मुनिनाथ। आधि व्याधि अघ मद मिटे, तुम पद में मम माथ॥ शरण चरण हैं आपके, तारण तरण जहाज। भवदधि तट तक ले चलो, करुणाकर जिनराज॥1॥ जित-इन्द्रिय जित-मद बने, जित-भवविजित-कषाय। अजित-नाथ को नित नमूँ, अर्जित दुरित पलाय॥ कोंपल पल-पल को पले, वन में ऋतु-पति आय। पुलकित मम जीवन-लता, मन में जिन पद पाय॥ 2॥ तुम-पद-पंकज से प्रभो, झर-झर-झरी पराग। जब तक शिव-सुख ना मिले, पीऊँ षट्पद जाग॥ भव-भव, भव-वन भ्रमित हो, भ्रमता-भ्रमता आज। संभव-जिन भव शिव मिले, पूर्ण हुआ मम काज॥ 3॥ विषयों को विष लख तजूँ, बनकर विषयातीत। विषय बना ऋषि ईश को, गाऊँ उनका गीत॥ गुण धारे पर मद नहीं, मृदुतम हो नवनीत। अभिनन्दन जिन! नित नमूँ, मुनि बन मैं भवभीत॥4॥ सुमतिनाथ प्रभु सुमति हो, मम मति है अति मंद। बोध कली खुल-खिल उठे, महक उठे मकरन्द॥ तुम जिन मेघ मयूर मैं, गरजो बरसो नाथ। चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा, ऊपर करके माथ॥ 5॥ शुभ्र-सरल तुम, बाल तव, कुटिल कृष्ण-तम नाग। तव चिति चित्रित ज्ञेय से, किन्तु न उसमें दाग॥ विराग पद्मप्रभ आपके, दोनों पाद-सराग। रागी मम मन जा वहीं, पीता तभी पराग॥ 6॥ अबंध भाते काटके, वसु विध विधि का बंध। सुपाश्र्व प्रभु निज प्रभु-पना, पा पाये आनन्द॥ बांध-बांध विधि-बंध मैं, अन्ध बना मति-मन्द। ऐसा बल दो अंध को, बंधन तोडूँ द्वन्द्व॥ 7॥ चन्द्र कलंकित, किन्तु हो, चन्द्र प्रभ अकलंक। वह तो शंकित केतु से, शंकर तुम नि:शंक॥ रंक बना हूँ मम अत:, मेटो मन का पंक। जाप जपूँ जिन-नाम का, बैठ सदा पर्यंक॥ 8॥ सुविधि! सुविधि के पूर हो, विधि से हो अति दूर। मम मन से मत दूर हो, विनती हो मंजूर॥ बाल मात्र भी ज्ञान ना, मुझमें मैं मुनि-बाल। वबाल भव का मम मिटे, प्रभु-पद में मम भाल॥ 9॥ शीतल चन्दन है नहीं, शीतल हिम ना नीर। शीतल जिन ! तव मत रहा, शीतल हरता पीर॥ सुचिर काल से मैं रहा, मोह-नींद से सुप्त। मुझे जगा कर, कर कृपा, प्रभो करो परितृप्त॥ 10॥ अनेकान्त की कान्ति से, हटा तिमिर एकान्त। नितान्त हर्षित कर दिया, क्लान्त विश्व को शान्त॥ नि:श्रेयस सुख-धाम हो, हे जिनवर श्रेयांस। तव थुति अविरल मैं करूँ, जब लौं घट में श्वास॥ 11॥ वसुविध मंगल द्रव्य ले, जिन पूजो सागार। पाप-घटे फलत: फले, पावन पुण्य अपार॥ बिना द्रव्य शुचि भाव से, जिन पूजें मुनि लोग। बिन निज शुभ उपयोग के, शुद्ध न हो उपयोग॥ 12॥ कराल काला व्याल सम, कुटिल चाल का काल। मार दिया तुमने उसे, फाड़ा उसका गाल॥ मोह अमल वश समल बन, निर्बल मैं भयवान्। विमलनाथ तुम अमल हो, संबल दो भगवान्॥ 13॥ अनन्त गुण पा कर दिया, अनन्त भव का अन्त। अनन्त सार्थक नाम तव, अनन्त जिन जयवन्त॥ अनन्त सुख पाने सदा, भव से हो भयवन्त। अन्तिम क्षण तक मैं तुम्हें, स्मरूँ स्मरें सब सन्त॥ 14॥ दया धर्म वर धर्म है, अदया-भाव अधर्म। अधर्म तज प्रभु धर्म ने, समझाया पुनि धर्म॥ धर्मनाथ को नित नमूँ, सधे शीघ्र शिव शर्म। धर्म-मर्म को लख सकूँ, मिटे मलिन मम कर्म॥ 15॥ शान्तिनाथ हो शान्त कर, सातासाता सान्त। केवल, केवल-ज्योतिमय, क्लान्ति मिटी सब ध्वान्त॥ सकल ज्ञान से सकल को, जान रहे जगदीश। विकल रहे जड़ देह से, विमल नमूँ नत शीश॥ 16॥ ध्यान-अग्नि से नष्ट कर, प्रथम पाप परिताप। कुन्थुनाथ पुरुषार्थ से, बने न अपने- आप॥ ऐसी मुझ पै हो कृपा, मम मन मुझ में आय। जिसविध पल में लवण है जल में घुल मिल जाय॥ 17॥ नाम-मात्र भी नहिं रखों, नाम-काम से काम। ललाम आतम में करो, विराम आठों याम॥ नाम धरो अर नाम तव, अत: स्मरूँ अविराम। अनाम बन शिवधाम में, काम बनूँ कृत-काम॥ 18॥ मोहमल्ल को मार कर, मल्लि नाथ जिनदेव। अक्षय बनकर पा लिया, अक्षय सुख स्वयमेव॥ बाल ब्रह्मचारी विभो, बाल समान विराग। किसी वस्तु से राग ना, मम तव पद से राग॥ 19॥ मुनि बन मुनिपन में निरत, हो मुनि यति बिन स्वार्थ। मुनिव्रत का उपदेश दे, हमको किया कृतार्थ॥ यही भावना मम रही, मुनिव्रत पाल यथार्थ। मैं भी मुनिसुव्रत बनूँ, पावन पाय पदार्थ॥ 20॥ अनेकान्त का दास हो, अनेकान्त की सेव। करूँ गहूँ मैं शीघ्र से, अनेक गुण स्वयमेव॥ अनाथ मैं जगनाथ हो, नमीनाथ दो साथ। तव पद में दिन-रात हूँ, हाथ जोड़ नत-माथ॥ 21॥ नील गगन में अधर हो, शोभित निज में लीन। नील कमल आसीन हो, नीलम से अति नील॥ शील - झील में तैरते, नेमि जिनेश सलील। शील डोर मुझ बांध दो, डोर करो मत ढील॥ 22॥ खास दास की आस बस, श्वाँस-श्वाँस पर वास। पाश्र्व करो मत दास को, उदासता का दास॥ ना तो सुर-सुख चाहता, शिव-सुख की ना चाह। तव थुति-सरवर में सदा, होवे मम अवगाह।। 23॥ नीर-निधी- से धीर हो, वीर बने गंभीर। पूर्ण तैर कर पा लिया, भव सागर का तीर॥ अधीर हूँ मुझे धीर दो, सहन करूँ सब पीर। चीर-चीर कर चिर लखूँ, अन्तर की तस्वीर॥ 24॥
  15. येनेन्द्रान् भुवन-त्रयस्य विलसत्,-केयूर-हाराङ्गदान्, भास्वन्-मौलि-मणिप्रभा-प्रविसरोत्-तुङ्गोत्तमाङ्गान्नतान्। स्वेषां पाद-पयोरुहेषु मुनयश्, चक्रु: प्रकामं सदा, वन्दे पञ्चतयं तमद्य निगदन्,-नाचार-मभ्यर्चितम्॥ १॥ अर्थ-व्यञ्जन-तद्द्वया-विकलता,- कालोपधा-प्रश्रया:, स्वाचार्याद्यनपह्नवो बहु-मतिश्, चेत्यष्टधा व्याहृतम्। श्रीमज्ज्ञाति-कुलेन्दुना भगवता, तीर्थस्य कत्र्राऽञ्जसा, ज्ञानाचार-महं त्रिधा प्रणिपता,-म्युद्धूतये कर्मणाम्॥ २॥ शङ्का-दृष्टि-विमोह-काङ्क्षणविधि,व्यावृत्ति-सन्नद्धतां, वात्सल्यं विचिकित्सना-दुपरतिं, धर्मोपबृंह-क्रियाम्। शक्त्या शासन-दीपनं हित-पथाद्, भ्रष्टस्य संस्थापनं, वन्दे दर्शन-गोचरं सुचरितं, मूध्र्ना नमन्नादरात्॥ ३॥ एकान्ते शयनोपवेशन-कृति:, संतापनं तानवं, संख्या-वृत्ति-निबन्धना-मनशनं, विष्वाण-मद्र्धोदरम्। त्यागं चेन्द्रिय-दन्तिनो मदयत:, स्वादो रसस्यानिशं, षोढ़ा बाह्यमहं स्तुवे शिवगति,- प्राप्त्यभ्युपायं तप:॥ ४॥ स्वाध्याय: शुभकर्मणश्च्युतवत: संप्रत्यवस्थापनं, ध्यानं व्यापृति-रामया-विनि गुरौ, वृद्धे च बाले यतौ। कायोत्सर्जन सत्क्रिया, विनय-इत्येवं तप: षड्विधं, वन्देऽभ्यन्तर-मन्तरङ्ग बलवद्, - विद्वेषि विध्वंसनम्॥ ५॥ सम्यग्ज्ञान विलोचनस्य दधत: श्रद्धान-मर्हन्मते, वीर्यस्या-विनि-गूहनेन तपसि, स्वस्य प्रयत्नाद्यते:। या वृत्तिस्तरणीव नौ-रविवरा, लध्वी भवोदन्वतो, वीर्याचारमहं तमूर्जितगुणं, वन्दे सता-मर्चितम्॥ ६॥ तिस्र: सत्तम-गुप्तयस्तनुमनो, भाषानिमित्तोदया:, पञ्चेर्यादि-समाश्रया: समितय:, पञ्चव्रतानीत्यपि। चारित्रोपहितं त्रयोदशतयं पूर्वं न दृष्टं परै- राचारं परमेष्ठिनो जिनपतेर्, वीरं नमामो वयम् ॥ ७॥ आचारं सह-पञ्चभेद-मुदितं, तीर्थं परं मङ्गलं, निग्र्रन्थानपि सच्चरित्र-महतो, वन्दे समग्रान्यतीन्। आत्माधीन सुखोदया मनुपमां लक्ष्मी-मविध्वंसिनीं, इच्छन्केवलदर्शना-वगमन,प्राज्य-प्रकाशोज्ज्वलाम्॥ ८॥ अज्ञा-नाद्य-दवीवृतं नियमिनोऽ, वर्तिष्यहं चान्यथा, तस्मिन् नर्जित-मस्यति प्रतिनवं, चैनो निराकुर्वति। वृत्ते सप्ततयीं निधिं सुतपसा-मृद्धिं नयत्यद्भुतं, तन्मिथ्या गुरुदुष्कृतं भवतु मे, स्वं निन्दतो निन्दितम्॥ ९॥ संसार-व्यसना-हति-प्रचलिता, नित्योदय-प्रार्थिन:, प्रत्यासन्न-विमुक्तय: सुमतय:, शान्तैनस: प्राणिन:। मोक्षस्यैव कृतं विशालमतुलं सोपान-मुच्चैस्तरा, मारोहन्तु चरित्र-मुत्तम-मिदं, जैनेन्द्र-मोजस्विन:॥ १०॥ इच्छामि भंते! चारित्तभत्ति काउस्सग्गो कओ, तस्स आलोचेउं सम्म-णाणजोयस्स सम्मत्ताहि-ट्ठियस्स, सव्वपहाणस्स, णिव्वाण-मग्गस्स, कम्मणिज्जरफलस्स, खमाहारस्स, पञ्चमहव्वयसंपण्णस्स, तिगुत्ति-गुत्तस्स, पञ्चसमिदिजुत्तस्स, णाणज्झाण साहणस्स, समया इव पवेसयस्स सम्मचारित्तस्स णिच्चकालं, अंचेमि, पूजेमि, वंदामि,णमंसामि, दुक्खक्खओ कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं।
  16. (ज्ञानोदय छन्द) त्रिभुवन के जो इन्द्र बने हैं सजे - धजे आभरणों से। हीरक-हारों कनक कुण्डलों किरीट-मणिमय किरणों से। जिससे मुनियों ने निज पद में झुका लिए इन इन्द्रों को। पूज्य पंच आचार उसे मैं वन्दूँ, कह दूँ भविकों को॥ १॥ शब्द अर्थ औ उभय विकल ना यथाकाल उपधान तथा। गुरु निह्नव ना बहुमति होना यथायोग्य सम्मान कथा। महाजाति कुल रजनीपति से तीर्थकरों ने समझाया। वसुविध ज्ञानाचार नमूँ मैं कर्म नष्ट हो मन भाया॥ २॥ जिनमत - शंका परमत-शंसा विषयों की भी चाह नहीं। सहधर्मी में वत्सलता हो साधु संत से डाह नहीं। जिनशासन को करो उजागर, पथ च्युत को पथ पर लाना। नमूँ दर्शनाचार नम्र हो उपगूहन में रस आना॥ ३॥ नियमों से चर्या को बांधे अनशन ऊनोदर करना। इन्द्रिय गज-मदमत्त बने ना रसवर्जन बहुतर करना। शयनासन एकान्त जहाँ हो और तपाना निज तन को। बाह्य हेतु शिव के छह तप इन, की थुति में रखता मन को॥ ४॥ करे ध्यान स्वाध्याय विनय भी तनूत्सर्ग भी सदा करें। वृद्ध रुग्ण लघु गुरु यतियों के नित तन मन की व्यथा हरें। दोष लगे तो तुरत दंड ले बने शुद्ध तप हैं प्यारे। कषायरिपु के हनक, भीतरी इन्हें नमूँ बुध उर धारे॥ ५॥ जिसके लोचन सत्य बोध हैं आस्था जिसकी जिनमत में। बिना छुपाये निज बल यति का तपना चलना शिव पथ में। अछिद्र नौका-सम भव-दधि से शीघ्र कराता पार यहाँ। नमूँ वीर्य-आचार इसे मैं बुध अर्चित गुण सार महा॥ ६॥ तीन गुप्तियाँ मन वच तन की, तथा महाव्रत पाँच सही। ईर्या भाषा क्षेपण एषण आदि समितियाँ पाँच रहीं। अपूर्व तेरह विध चारित है मात्र वीर के शासन में। भाव भक्ति से पूर्ण शक्ति से इसे नमन हो क्षण-क्षण में॥ ७॥ शाश्वत स्वाश्रित सुषमा लक्ष्मी अनुपम सुख की आली है। केवल दर्शन-बोध ज्योति है मनोरमा उजयाली है। उसको पाने दिगम्बरों को सब यतियों को नमन करूँ। परम तीर्थ आचार यही है मंगल से अघशमन करूँ ॥ ८॥ पाप पुराना मिटता नूतन रुकता आना हो जिससे। ऋद्धि सिद्धि परसिद्धि ऋषि में बढ़े चरित से औ किससे? प्रमाद वश यदि इस यतिपन में यतिपन से प्रतिकूल किया। करता निज की निंदा निंदित मिथ्या हो अघ मूल किया॥ ९॥ निकट भव्य हो एकलव्य हो दूर पाप से आप रहे। केवल शिव सुख के यदि इच्छुक भव-दु:खों से काँप रहे। जैन-चरित सोपान मोक्ष का विशालतम है अतुल रहा। आरोहण तुम इस पर कर लो आत्म तेज जब विपुल रहा ॥१०॥ (दोहा) महाचरित वर भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु! तव संसर्ग॥ ११॥ सब में जिसको प्रधान माना कोई जिसके समा नहीं। कर्म निर्जरा जिसका फल है जिसका भोजन क्षमा रही। समकित पर जो टिका हुआ है सत्य बोध को साथ लिया। ज्ञान-ध्यान का साधनतम है रहा मोक्ष का पाथ जिया!॥१२॥ गुप्ति तीन से रहा सुरक्षित महाव्रतों का धारक है। पाँच समितियों का पालक है पातक का संहारक है। जिससे संयत साधु सहज ही समता में है रम जाता। सुनो! महा चारित्र यही है ज्ञानोदय निशि दिन गाता॥ १३॥ अहो भाग्य है महाचरित को तन से मन से वचनों से। पूजूँ वन्दूँ अर्चन कर लूँ नमन करूँ दो नयनों से। कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥ १४॥
  17. अजेय अघहर अद्भुत अद्भुत पुण्य बन्ध के कारक हैं। करें उजाला पूर्ण जगत में सत्य तथ्य भव तारक हैं। गौतम-पद को सन्मति पद को प्रणाम करके कहता हूँ। चैत्यवन्दना जग का हित हो जग के हित में रहता हूँ॥१॥ अमर मुकुटगत मणि आभा जिन को सहलाती सन्त कहे कनक कमल पर चरण कमल को रखते जो जयवन्त रहे। जिनकी छाया में आकर के उदार उर वाले बनते अदय क्रूर उर धारे आरे मान दम्भ से जो तनते॥ २॥ जैनधर्म जयशील रहे नित सुर-सुख शिव-सुख का दाता दुर्गति दुष्पथ दु:खों से जो हमें बचाता है त्राता। प्रमाणपन औ विविध नयों से दोषों के जो वारक हों अंगबाह्य औ अंग-पूर्वमय जिनवच जग उद्धारक हों॥ ३॥ अनेकान्तमय वस्तु तत्त्व का सप्तभंग से कथन करे तथा दिखाता सदा द्रव्य को धौव्य-आय-व्यय वतन अरे ! पूर्णबोध की इस विध द्युति से निरुपम सुख का द्वार खुले दोष रहित औ नित्य निरापद संपद का भंडार मिले॥ ४॥ जन्म दु:ख से मुक्त हुये हैं अरहन्तों को वन्दन हो सिद्धों को भी नमन करुँ मैं जहाँ कर्म की गन्ध न हो। सदा वन्द्य है सर्ववन्द्य हैं साधुजनों को नमन करूँ । गणी पाठकों को वन्दूँ मैं मोक्ष-धाम को गमन करूँ ॥ ५॥ मोह-शत्रु को नष्ट किये हैं दोष - कोष से रहित हुये। तदावरण से दूर हुये हैं प्रबोध दर्शन सहित हुये। अनन्त बल के धनी हुये हैं अन्तराय का नाम नहीं। पूज्य योग्य अरहन्त बने हैं तुम्हें नमूँ वसु याम सही॥ ६॥ वीतरागमय धर्म कहा है जिनवर ने शिवपथ नेता। साधक को जो सदा संभाले मोक्षधाम में धर देता। नमूँ उसे मैं तीन लोक के हित संपादक और नहीं। आर्जव आदिक गुणगण जिससे बढ़ते उन्नति ओर सही॥ ७॥ सजे चतुर्दश पूर्वों से हैं औ द्वादश विध अंगों से तथा वस्तुओं और उपांगों से गुंथित बहु भंगों से। अजेय जिनके वचन रहे ये अनन्त अवगम वाले हैं। इन्हें नमन अज्ञान-तिमिर को हरते परम उजाले हैं॥ ८॥ भवनवासियों के भवनों में स्वर्गिक कल्प विमानों में। व्यन्तर देवावासों में औ ज्योतिष देव विमानों में। विश्ववन्द्य औ मत्र्यलोक में जितने जिनवर चैत्य रहें। मन वच तन से उन्हें नमूँ वे मम मन के नैवेद्य रहे॥ ९॥ सुरपति नरपति धरणेन्द्रों से तीन लोक में अर्चित हैं। अनन्य दुर्लभ सभी सम्पदा जिनचरणों में अर्पित है। तीर्थकरों के जिनालयों को तन वच मन परिणामों से। नमूँ बनूँ बस शान्त बचूँ मैं भव-भवगत दुख-अनलों से॥ १०॥ इस विध जिनको नमन किया है पावनपण को हैं धारे। पंचपदों से पूजे जाते परम पुरुष हैं जग सारे। जिनवर जिनके वचन धर्म औ बिम्ब जिनालय ये सारे। बुधजन तरसे विमल-बोधि को हमें दिलावे शिव-द्वारे॥ ११॥ नहीं किसी से गये बनाये स्वयं बने हैं शाश्वत हैं। चम चम चमके दम दम दमके बाल-भानुसम भास्वत हैं। और बनाये जिनालयों में नरों सुरों से पूजित हैं। जिनबिम्बों को नमन करूँ मैं परम पुण्य से पूरित हैं॥ १२॥ आभामय भामण्डल वाली सुडोल हैं बेजोड़ रहीं। जिनोत्तमों में उत्तम जिन की प्रतिमायें युग मोड़ रहीं। विपदा हरती वैभव लाती सुभिक्ष करती त्रिभुवन में। कर युग जोडूं विनम्र तन से नमूँ उन्हें हरखूं मन में॥ १३॥ आभरणों से आवरणों से आभूषण से रहित रही। हस्त निरायुध, उपांग जिनके विराग छवि से सहित सही। प्रतिमायें अ-प्रमित रही हैं, कान्ति अनूठी है जिनकी। क्लान्ति मिटे चिर शान्ति मिले बस भक्ति करूँ निशिदिन उनकी॥१४॥ बाहर का यह रूप जिनों का स्वरूप क्या है ? बता रहा। कषाय कालिख निकल गई है परम शान्ति को जता रहा। स्वभाव-दर्शक भव-भवनाशक जिनबिम्बों को नमन करूँ। साधन से सो साध्य सिद्ध हो कषाय मल का शमन करूँ॥ १५॥ लगा भक्ति में जिन बिम्बों की हुआ पुण्य का अर्जन है। सहज रूप से अनायास ही हुआ पाप का तर्जन है। किये पुण्य के फल ना चाहूँ विषय नहीं सुरगात्र नहीं जन्म-जन्म में जैनधर्म में लगा रहे मन मात्र यही॥ १६॥ सब कुछ देखे सब कुछ जाने दर्शनधारी ज्ञानधनी। गुणियों में अरहन्त कहाते चेतन के द्युतिमान मणी। मिली बुद्धि से उन चैत्यों का भाग्य मान गुणगान करूँ। अशुद्धियों को शीघ्र मिटाकर विशुद्धियों का पान करूँ ॥१७॥ भवनवासियों के भवनों में फैली वैभव की महिमा। नहीं बनाई, बनी आप हैं आभा वाली हैं प्रतिमा। प्रणाम उनको भी मैं करता सादर सविनय सारों से। पहुंचा देवें पंचमगति को तारे मुझको क्षारों से॥ १८॥ यहाँ लोक में विद्यमान हैं जितने अपने आप बने। और बनाये चैत्य अनेकों भविक जनों के पाप हने। उन सब चैत्यों को वन्दूँ मैं बार बार संयत मन से। बार-बार ना एक-बार बस आप भरूँ अक्षय धन से॥१९॥ व्यन्तरदेवों के यानों में प्रतिमा गृह है भास्वर हैं। संख्या की सीमा से बाहर चिर से हैं अविनश्वर हैं। सदा हमारे दोषों के तो वारण के वे कारण हों। ताकि दिनों दिन उच्च-उच्चतर चारित का अवधारण हो॥२०॥ ज्योतिषदेव विमानों में भी रहे जिनालय हैं प्यारे। कितनी संख्या कही न जाती अनगिन माने हैं सारे। विस्मयकारी वैभव से जो भरे हुये हैं अघहारी। उनको भी हो वन्दन अपना, वन्दन हो शिव सुखकारी॥ २१॥ वैमानिक देवों के यानों में भी जिन की प्रतिमा हैं। जिन की महिमा कही न जाती चम-चम-चमकी द्युतिमा हैं। सुरमुकटों की मणि छवियाँ वे जिनके पद में बिम्बित हैं। उन्हें नमूँ मैं सिद्धि लाभ हो गुणगण से जो गुम्फित हैं॥ २२॥ उभय सम्पदा वाले जिनका वर्णों से ना वर्णन हो। अरि-विरहित अरहंत कहाते जिनबिम्बों का अर्चन हो। यश: कीर्ति की नहीं कामना कीर्तन जिन का किया करूँ। कर्मास्रव का रोकनहारा कीर्तन करता जिया करूँ॥ २३॥ महानदी अरहन्त देव हैं अनेकान्त भागीरथ है। भविकजनों का अघ धुलता है यहाँ यही वर तीरथ है। और तीर्थ में लौकिक जो है तन की गरमी है मिटती। वही तीर्थ परमार्थ जहाँ पर मन की भी गरमी मिटती॥२४॥ लोकालोका-लोकित करता दिव्यबोध आलोक रहा। प्रवाह बहता अहोरात यह कहीं रोक, ना टोक रहा। जिसके दोनों ओर बड़े दो विशाल निर्मल कूल रहे। एक शील का दूजा व्रत का आपस में अनुकूल रहे॥ २५॥ धर्म शुक्ल के ध्यान धरे हैं राजहंस ऋषि चेत रहे। पंच समितियाँ तीन गुप्तियाँ नाना गुणमय रेत रहे। श्रुताभ्यास की अनन्य दुर्लभ मधुर-मधुर धुनि गहर रही। महातीर्थ की मुझ बालक पर रहा रहे नित महर सही॥ २६॥ क्षमा भंवर है जहाँ हजारों यति ऋषि मुनि मन सहलाते। दया कमल हैं खुले खिले हैं सब जीवों को महकाते। तरह-तरह के दुस्सह परिषह लहर-लहर कर लहराते। ज्ञानोदय के छन्द हमें यों ठहर-ठहर कर कह पाते॥ २७॥ भविक व्रती जन नहीं फिसलते राग रोष शैवाल नहीं। सार रहित हैं कषाय तन्मय फेनों का फैलाव नहीं। तथा यहाँ पर मोह मयी उस कर्दम का तो नाम नहीं। महाभयावह दुस्सह दुख का मरण-मगर का काम नहीं॥ २८॥ ऋषि पति मृदुधुनि से थुति करते श्रुत की भी दे सबक रहे जहाँ लग रहा श्रवण मनोहर विविध विहंगम चहक रहे। घोर - घोरतर तप तपते हैं बने तपस्वी घाट रहे। आस्रव रोधक संवर बनता बंधा झर रहा पाट रहे॥ २९॥ गणधर, गणधर के चरणों में ऋषि यति मुनि अनगार रहे। सुरपति नरपति और और जो निकट भव्यपन धार रहे। ये सब आकर परम-भक्ति से परम तीर्थ में स्नान किये। पंचम युग के कलुषित मन को धो धोकर छविमान किये॥ ३०॥ नहीं किसी से जीता जाता अजेय है गम्भीर रहा। पतितों को जो पूत बनाता परमपूत है क्षीर रहा। अवगाहन करने आया हूँ महातीर्थ में स्नान करूँ। मेरा भी सब पाप धुले बस यही प्रार्थना दान करूँ॥ ३१॥ नयन युगल क्यों लाल नहीं हैं? कोप अनल को जीत लिया। हाव - भाव से नहीं देखते! राग आपमें रीत गया। विषाद-मद से दूर हुये हैं प्रसन्नता का उदय रहा। यूँ तव मुख कहता-सा लगता दर्पण-सम है हृदय रहा॥ ३२॥ निराभरण होकर भासुर हैं राग - रहित हैं अघहर हैं। कामजयी बन यथाजात बन बने दिगम्बर मनहर हैं। निर्भय हैं सो बने निरायुध मार - काट से मुक्त हुये। क्षुधा रोग का नाश हुआ है निराहार में तृप्त हुये॥ ३३॥ अभी खिले हैं नीरज चन्दन-सम घम-घम-घम-वासित है। दिनकर शशिकर हीरक आदिक शतवसु लक्षण भासित हैं। दश-शत रवि-सम भासुर फिर भी आँखें लखती ना थकती। दिव्यबोध जब जिन में उगता देह दिव्यता यूँ जगती। बाल बढ़े नाखून बढ़े ना मलिन धूलि आ ना लगती॥ ३४॥ शिवपथ में हैं बाधक होते मोह - भाव हैं राग घने। जिनसे कलुषित जन भी तुम को लखते वे बेदाग बने। किसी दिशा से जो भी देखे उसके सम्मुख तुम दिखते। शरदचंद्र-से शान्त धवलतम संत सुधी जन यूँ लिखते॥ ३५॥ सुरपति मुकुटों की मणिकिरणें झर झुर झर झुर करती हैं पूज्यपाद के पदपद्मों को चूंम रही मन हरती हैं। वीतराग जिन! दिव्य रूप तव सकल लोक को शुद्ध करे। अन्ध बना है कुमततीर्थ में शीघ्र इसे प्रतिबुद्ध करे॥ ३६॥ मानथंभ सर पुष्पवाटिका भरी खातिका शुचि जल से। स्तूप महल बहु कोट नाट्यगृह सजी वेदियां ध्वज-दल से। सुर तरु घेरे वन उपवन है और स्फटिक का कोट लसे। नर सुर मुनि की सभा पीठिका-पर जिनवर हैं और बसे। समवसरण की ओर देखते पापताप का घोर नसे॥ ३७॥ क्षेत्र-पर्वतों के अन्तर में क्षेत्रों मन्दरगिरियों में। द्वीप आठवां नन्दीश्वर में और अन्य शुभ पुरियों में। सकल-लोक में जितने जिन के चैत्यालय हैं यहाँ लसे। उन सबको मैं प्रणाम करता मम मन में वे सदा बसे॥ ३८॥ बने बनाये बिना बनाये यहाँ धरा पर गिरियों में। देवों राजाओं से अर्चित मानव निर्मित पुरियों में। वन में उपवन में भवनों में दिव्य विमानों यानों में। जिनवर बिम्बों को मैं सुमरुँ अशुभ दिनों में सुदिनों में॥ ३९॥ जम्बू-धातकि-पुष्क रार्ध में लाल कमल-सम तन वाले। कृष्ण मेघ-सम शशी कनक-सम नील कण्ठ आभा वाले। साम्य-बोध चारितधारक हो घातिकर्म को नष्ट किया। विगत-अनागत-आगत जिनको नमूँ नष्ट हो कष्ट जिया॥ ४०॥ रतिकर रुचके चैत्य वृक्ष पर औ दधिमुख अंजन भूधर- रजत कुलाचल कनकाचल पर वृक्ष शाल्मली-जम्बू पर। इष्वाकारों वक्षारों पर व्यन्तर - ज्योतिष सुर जग में। कुण्डल मानुषगिरि वर-प्रतिमा नमूँ उन्हें अन्तर जग में॥ ४१॥ सुरासुरों से नर नागों से पूजित वंदित अर्चित हैं। घंटा तोरण ध्वजादिकों से शोभित बुधजन चर्चित हैं। भविक जनों को मोहित करते पाप-ताप के नाशक हैं। वन्दूँ जग के जिनालयों को दयाधर्म के शासक हैं॥ ४२॥ पूज्य चैत्य सद्भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ! ले प्रभु! तव संसर्ग॥ ४३॥ अधोलोक में ऊध्र्वलोक में मध्यलोक में उजियारे। बने बनाये हैं बनवाये चैत्य रहे अनगिन प्यारे। देव चतुर्विध अपने-अपने उत्साहित परिवार लिए। पर्वों विशेष तिथियों में औ प्रतिदिन शुभ शृंगार किए॥ ४४॥ दिव्यगन्ध ले दिव्य दीप ले दिव्य दिव्य ले सुमनलता। दिव्य चूर्ण ले दिव्य न्हवन ले दिव्य दिव्य ले वसन तथा। अर्चन पूजन वन्दन करते सविनय करते नमन सभी। भाग्य मानते पुण्य लूटते बने पाप का शमन तभी॥ ४५॥ मैं भी उन सब जिन चैत्यों को भरतखण्ड में रहकर भी। पूजूँ वंदूं अर्चन करलूँ नमन करूँ सर झुककर ही। कष्ट दूर हो कर्मचूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥ ४६॥
  18. उपजाति छन्द: सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा-परत्वम्। माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव॥ १॥ शरीरत: कत्र्तुमनन्त-शक्तिं, विभिन्नमात्मानमपास्त-दोषम्। जिनेन्द्र! कोषादिव खड्ग-यष्टिं, तव प्रसादेन ममाऽस्तु शक्ति:॥ २॥ दु:खे सुखे वैरिणि बन्धुवर्गे, योगे वियोगे भवने वने वा। निराकृताशेष-ममत्वबुद्धे: समं मनो मेऽस्तु सदाऽपि नाथ!॥ ३॥ मुनीश! लीनाविव कीलिताविव, स्थिरौ निखाताविव बिम्बिताविव। पादौ त्वदीयौ मम तिष्ठतां सदा, तमोधुनानौ हृदि दीपकाविव॥ ४॥ एकेन्द्रियाद्या यदि देव! देहिन:, प्रमादत: सञ्चरता इतस्तत:। क्षता विभिन्ना मिलिता निपीडितास्, तदस्तु मिथ्या दुरनुष्ठितं तदा॥ ५॥ विमुक्तिमार्ग-प्रतिकूलवर्तिना, मया कषायाक्षवशेन दुर्धिया। चारित्रशुद्धेर्यदकारि लोपनं, तदस्तु मिथ्या मम दुष्कृतं प्रभो!॥ ६॥ विनिन्दनाऽऽलोचन-गर्हणैरहं, मनोवच:कायकषाय-निर्मितम्। निहन्मि पापं भवदु:खकारणं, भिषग्विषं मन्त्रगुणैरिवाखिलम्॥ ७॥ अतिक्रमं यद्विमतेव्र्यतिक्रमं, जिनातिचारं सुचरित्रकर्मण:। व्यधामनाचारमपि प्रमादत:, प्रतिक्रमं तस्य करोमि शुद्धये॥८॥ क्षतिं मन: शुद्धि-विधेरतिक्रमं, व्यतिक्रमं शील-व्रतेर्विलङ्घनम्। प्रभोऽतिचारं विषयेषु वर्तनं वदन्त्यनाचारमिहातिसक्तताम्॥ ९॥ यदर्थमात्रा-पदवाक्यहीनं, मया प्रमादाद्यदि किञ्चनोक्तम्। तन्मे क्षमित्वा विदधातु देवी, सरस्वती केवलबोधलब्धिम्॥ १०॥ बोधि: समाधि: परिणामशुद्धि:, स्वात्मोपलब्धि: शिवसौख्यसिद्धि:। चिन्तामणिं चिन्तितवस्तुदाने, त्वां वन्दमानस्य ममास्तु देवि!॥ ११॥ य: स्मर्यते सर्वमुनीन्द्रवृन्दै, र्य: स्तूयते सर्वनराऽमरेन्द्रै:। यो गीयते वेदपुराणशास्त्रै:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥ १२॥ यो दर्शनज्ञानसुखस्वभाव:, समस्त-संसार-विकारबाह्य:। समाधिगम्य: परमात्मसञ्ज्ञ:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥ १३॥ निषूदते यो भवदु:खजालं, निरीक्षते यो जगदन्तरालम्। योऽन्तर्गतो योगिनिरीक्षणीय:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥ १४॥ विमुक्तिमार्गप्रतिपादको यो, यो जन्ममृत्युव्यसनाद्यतीत:। त्रिलोकलोकी विकलोऽकलङ्क: स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥ १५॥ क्रोडीकृताऽशेष-शरीरिवर्गा, रागादयो यस्य न सन्ति दोषा:। निरिन्द्रियो ज्ञानमयोऽनपाय:, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥ १६॥ यो व्यापको विश्वजनीनवृत्ते:, सिद्धो विबुद्धो धुतकर्मबन्ध:। ध्यातो धुनीते सकलं विकारं, स देवदेवो हृदये ममास्ताम्॥ १७॥ न स्पृश्यते कर्मकलङ्कदोषै: यो ध्वान्तसङ्घैरिव तिग्मरश्मि:। निरञ्जनं नित्यमनेकमेकं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये॥ १८॥ विभासते यत्र मरीचिमाली, न विद्यमाने भुवनावभासी। स्वात्मस्थितं बोधमयप्रकाशं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये॥ १९॥ विलोक्यमाने सति यत्र विश्वं, विलोक्यते स्पष्टमिदं विविक्तम्। शुद्धं शिवं शान्तमनाद्यनन्तं, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये॥ 20॥ येन क्षता मन्मथमानमूच्र्छा, विषादनिद्राभय-शोक-चिन्ता:। क्षतोऽनलेनेव तरुप्रपञ्चस्, तं देवमाप्तं शरणं प्रपद्ये॥ २१॥ न संस्तरोऽश्मा न तृणं न मेदिनी, विधानतो नो फलको विनिर्मित:। यतो निरस्ताक्षकषाय-विद्विष:, सुधीभिरात्मैव सुनिर्मलो मत:॥ २२॥ न संस्तरो भद्र! समाधिसाधनं, न लोकपूजा न च सङ्घमेलनम्। यतस्ततोऽध्यात्मरतो भवानिशं, विमुच्य सर्वामपि बाह्यवासनाम्॥ २३॥ न सन्ति बाह्या मम केचनार्था भवामि तेषां न कदाचनाहम्। इत्थं विनिश्चित्य विमुच्य बाह्यं, स्वस्थ: सदा त्वं भव भद्र! मुक्त्यै॥ २४॥ आत्मानमात्मन्यवलोक्यमानस् त्वं दर्शनज्ञानमयो विशुद्ध:। एकाग्रचित्त: खलु यत्र तत्र, स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम्॥ २५॥ एक: सदा शाश्वतिको ममात्मा, विनिर्मल: साधिगमस्वभाव:। बहिर्भवा: सन्त्यपरे समस्ता, न शाश्वता: कर्मभवा: स्वकीया:॥ २६॥ यस्यास्ति नैक्यं वपुषापि साद्र्धं, तस्यास्ति किं पुत्र-कलत्र-मित्रै:। पृथक्कृते चर्मणि रोमकूपा:, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये॥ २७॥ संयोगतो दु:खमनेकभेदं, यतोऽश्नुते जन्मवने शरीरी। ततस्त्रिधासौ परिवर्जनीयो, यियासुना निर्वृतिमात्मनीनाम्॥ २८॥ सर्वं निराकृत्य विकल्प-जालं, संसार-कान्तार- निपातहेतुम्। विविक्तमात्मानमवेक्ष्य-माणो, निलीयसे त्वं परमात्मतत्त्वे॥ २९॥ स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा, फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं, स्वयं कृतं कर्म निरर्थकं तदा॥ ३०॥ निजार्जितं कर्म विहाय देहिनो, न कोऽपि कस्यापि ददाति किञ्चन। विचारयन्नेव-मनन्यमानस:, परो ददातीति विमुञ्च शेमुषीम्॥ ३१॥ यै: परमात्माऽमितगतिवन्द्य:, सर्वविविक्तो भृशमनवद्य:। शश्वदधीतो मनसि लभन्ते, मुक्तिनिकेतं विभववरं ते॥ ३२॥ इति द्वात्रिंशतावृत्तै:, परमात्मानमीक्षते। योऽनन्यगत-चेतस्को, यात्यसौ पदमव्ययम्॥
  19. आचार्य भक्ति श्रीसिद्धभक्ति अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना-क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं भाव-पूजा-वन्दना-स्तव-समेतं श्रीसिद्धभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्। (9 बार णमोकार) सम्मत्त-णाण-दंसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलहु-मव्वावाहं, अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं॥ 1॥ तवसिद्धे, णय-सिद्धे, संजम-सिद्धे, चरित्त-सिद्धे य। णाणम्मि दंसणम्मि य, सिद्धे सिरसा णमंसामि॥ 2॥ इच्छामि भंते। सिद्ध-भत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्म -णाण-सम्म-दंसण-सम्मचरित्त-जुत्ताणं, अट्ठविह-कम्म-विप्पमुक्काणं-अट्ठगुण-संपण्णाणं उड्ढलोय- मत्थयम्मि पइट्ठियाणं तव-सिद्धाणं, णय-सिद्धाणं, संजम-सिद्धाणं,चरित्त-सिद्धाणं अतीदा-णागद-वट्ठमाण-कालत्तय-सिद्धाणं सव्वसिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि पुज्जेमि वंदामि, णमंसामि-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइ-गमणं समाहिमरणं जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं। श्रुत भक्ति अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना-क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं,भाव-पूजा-वन्दनास्तव-समेतं श्रीश्रुतभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्। (9 बार णमोकार) कोटिशतं द्वादश चैव कोट्यो, लक्षाण्यशीतिस्त्र्यऽधिकानि चैव। पञ्चाश-दष्टौ च सहस्रसंख्यमेतच्छुतं पञ्चपदं नमामि॥ 1॥ अरहंत-भासियत्थं-गणहर-देवेहिं गंथियं सम्मं पणमामि भत्ति-जुत्तो, सुद-णाणमहोवहिं सिरसा॥ 2॥ इच्छामि भंते ! सुदभत्ति-काउसग्गो कओ तस्सालोचेउं अंगोवंग-पइण्णय-पाहुडय-परियम्म-सुत्त पढमाणु-ओग-पुव्वगय-चूलिया चेव-सुत्तत्थय-थुइ-धम्म-कहाइयं णिच्च-कालं अंचेमि पुज्जेमि वंदामि णमंसामि-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइ-गमणं समाहि-मरणं जिणगुण-संपत्ति होउ-मज्झं। आचार्य भक्ति अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना- क्रियायां, पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं,भाव-पूजा-वन्दना स्तव-समेतं श्रीआचार्यभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्। (9 बार णमोकार) श्रुतजलधिपारगेभ्य:,स्व-पर-मतविभावना पटुमतिभ्य:। सुचरित-तपोनिधिभ्यो, नमो गुरुभ्यो-गुण-गुरुभ्य:॥ 1॥ छत्तीस-गुण-समग्गे, पञ्च-विहाचार-करण-संदरिसे। सिस्सा-णुग्गह-कुसले, धम्मा-इरिये सदा वंदे॥ 2॥ गुरु-भत्ति-संजमेण य, तरंति संसार-सायरं घोरम्। छिण्णंति अट्ठकम्मं, जम्मण-मरणं ण पावेंति॥ 3॥ ये नित्यं-व्रत-मन्त्र-होम-निरता, ध्यानाग्नि-होत्राकुला:। षट्कर्माभिरतास्-तपोधनधना:,साधु-क्रिया: साधव:॥4॥ शील-प्रावरणा-गुण-प्रहरणाश्-चन्द्रार्क-तेजोऽधिका:। मोक्ष-द्वार-कपाट-पाटन-भटा:, प्रीणन्तु मां साधव:॥ 5॥ गुरव: पान्तु नो नित्यं ज्ञान-दर्शन-नायका:। चारित्रार्णव गम्भीरा मोक्ष मार्गोपदेशका:॥ 6॥ इच्छामि भंते! आइरियभत्तिकाउसग्गो कओ, तस्सालोचेउं, सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्त-जुत्ताणं, पंचविहाचाराणं, आइरियाणं आयारादि-सुद-णाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं, ति-रयण-गुण-पालण-रयाणं सव्वसाहूणं, णिच्च-कालं, अंचेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्ख-क्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं-समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मञ्झं। (नोट- सुबह 18 बार एवं संध्या आचार्य वंदना में 36 बार णमोकार मंत्र पढ़ें) विद्यासागर-विश्ववंद्य-श्रमणं, भक्त्या सदा संस्तुवे, सर्वोच्चं यमिनं विनम्य परमं, सर्वार्थसिद्धिप्रदम्। ज्ञानध्यानतपोभिरक्त -मुनिपं, विश्वस्य विश्वाश्रयं, साकारं श्रमणं विशालहृदयं, सत्यं शिवं सुन्दरम्॥
  20. श्रीसिद्धभक्ति अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना-क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं भाव-पूजा-वन्दना-स्तव-समेतं श्रीसिद्धभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्। (९ बार णमोकार ) सम्मत्त-णाण-दंसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलहु-मव्वावाहं, अ_गुणा होंति सिद्धाणं॥ १॥ तवसिद्धे, णय-सिद्धे, संजम-सिद्धे, चरित्त-सिद्धे य। णाणम्मि दंसणम्मि य, सिद्धे सिरसा णमंसामि॥ २॥ इच्छामि भंते। सिद्ध-भत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं सम्म -णाण-सम्म-दंसण-सम्मचरित्त-जुत्ताणं, अ_विह-कम्म-विप्पमुक्काणं-अ_गुण-संपण्णाणं उड्ढलोय- मत्थयम्मि पइ_ियाणं तव-सिद्धाणं, णय-सिद्धाणं, संजम-सिद्धाणं,चरित्त-सिद्धाणं अतीदा-णागद-व_माण-कालत्तय-सिद्धाणं सव्वसिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि पुज्जेमि वंदामि, णमंसामि-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइ-गमणं समाहिमरणं जिणगुण संपत्ति होउ मज्झं। श्रुत भक्ति अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना-क्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं,भाव-पूजा-वन्दनास्तव-समेतं श्रीश्रुतभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्। (९ बार णमोकार) कोटिशतं द्वादश चैव कोट्यो, लक्षाण्यशीतिस्त्र््यऽधिकानि चैव। पञ्चाश-दष्टौ च सहस्रसंख्यमेतच्छुतं पञ्चपदं नमामि॥ १॥ अरहंत-भासियत्थं-गणहर-देवेहिं गंथियं सम्मं पणमामि भत्ति-जुत्तो, सुद-णाणमहोवहिं सिरसा॥ २॥ इच्छामि भंते ! सुदभत्ति-काउसग्गो कओ तस्सालोचेउं अंगोवंग-पइण्णय-पाहुडय-परियम्म-सुत्त पढमाणु-ओग-पुव्वगय-चूलिया चेव-सुत्तत्थय-थुइ-धम्म-कहाइयं णिच्च-कालं अंचेमि पुज्जेमि वंदामि णमंसामि-दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइ-गमणं समाहि-मरणं जिणगुण-संपत्ति होउ-मज्झं। आचार्य भक्ति अथ पौर्वाह्निक (अपराह्निक) आचार्य-वन्दना- क्रियायां, पूर्वाचार्यानुक्रमेण, सकलकर्मक्षयार्थं,भाव-पूजा-वन्दना स्तव-समेतं श्रीआचार्यभक्तिकायोत्सर्गं कुर्वेऽहम्। (९ बार णमोकार ) श्रुतजलधिपारगेभ्य:,स्व-पर-मतविभावना पटुमतिभ्य:। सुचरित-तपोनिधिभ्यो, नमो गुरुभ्यो-गुण-गुरुभ्य:॥ १॥ छत्तीस-गुण-समग्गे, पञ्च-विहाचार-करण-संदरिसे। सिस्सा-णुग्गह-कुसले, धम्मा-इरिये सदा वंदे॥ २॥ गुरु-भत्ति-संजमेण य, तरंति संसार-सायरं घोरम्। छिण्णंति अ_कम्मं, जम्मण-मरणं ण पावेंति॥ ३॥ ये नित्यं-व्रत-मन्त्र-होम-निरता, ध्यानाग्नि-होत्राकुला:। षट्कर्माभिरतास्-तपोधनधना:,साधु-क्रिया: साधव:॥४॥ शील-प्रावरणा-गुण-प्रहरणाश्-चन्द्रार्क-तेजोऽधिका:। मोक्ष-द्वार-कपाट-पाटन-भटा:, प्रीणन्तु मां साधव:॥ ५॥ गुरव: पान्तु नो नित्यं ज्ञान-दर्शन-नायका:। चारित्रार्णव गम्भीरा मोक्ष मार्गोपदेशका:॥ ६॥ इच्छामि भंते! आइरियभत्तिकाउसग्गो कओ, तस्सालोचेउं, सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्त-जुत्ताणं, पंंचविहाचाराणं, आइरियाणं आयारादि-सुद-णाणोवदेसयाणं उवज्झायाणं, ति-रयण-गुण-पालण-रयाणं सव्वसाहूणं, णिच्च-कालं, अंचेमि, पुज्जेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्ख-क्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइ-गमणं-समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मञ्झं। (नोट- सुबह १८ बार एवं संध्या आचार्य वंदना में ३६ बार णमोकार मंत्र पढ़ें) विद्यासागर-विश्ववंद्य-श्रमणं, भक्त्या सदा संस्तुवे, सर्वोच्चं यमिनं विनम्य परमं, सर्वार्थसिद्धिप्रदम्। ज्ञानध्यानतपोभिरक्त -मुनिपं, विश्वस्य विश्वाश्रयं, साकारं श्रमणं विशालहृदयं, सत्यं शिवं सुन्दरम्॥
  21. भावना की चुनरी भावना की चुनरी ओढ के जिनमन्दिर में आवजो रे, आवजो आवजो आवजो रे, सारी नगरी बुलावजो रे ॥ भावना की चुनरी... श्रद्धा के रंग से रंग लो चुनरियां, ज्ञान गुणों से जडी, मंगल उत्सव आज दिवस का ,होगी प्रभावना बडी, हो ... लेके श्रद्धा अपार आप आवजो रे, आप आवजो आवजो आवजो रे, सारी नगरी बुलावजो रे |१| भावना की चुनरी... वीतरागता उर में धारी ,वेश दिगम्बर लिया, जग को मुक्ति मार्ग बताया, जग का कल्याण किया, हो ... लेके भक्ति अपार आप आवजो रे, आप आवजो आवजो आवजो रे, सारी नगरी बुलावजो रे |२| भावना की चुनरी...
  22. मैं तेरे ढिंग आया रे तर्ज: मैं उनकी बन जाऊं रे. मैं तेरे ढिंग आया रे, पद्म तेरे ढिंग आया, मुख मुख से जब सुनी प्रशंसा, चित मेरा ललचाया, चित मेरा ललचाया रे, पद्म तेरे ढिंग आया ॥ चला मैं घर से तेरे दरश को, वरणूं क्या वरणूं क्या,वरणूं क्या मैं मेरे हरष को, मैं क्षण क्षण में नाम तिहारा, रटता रट्ता आया रटता रट्ता आया रे ...पद्म तेरे ढिंग आया ॥ पथ में मैंने पूछा जिसको, पाया तेरा, पाया तेरा, पाया तेरा दर्शक उसको, यह सुन सुन मन हुआ विभोरित, मग नहीं मुझे अघाया मग नही मुझे अघाया रे ... पद्म तेरे ढिंग आया ॥ सन्मुख तेरे भीड लगी है, भक्ति की, भक्ति की, भक्ति की इक उमंग जगी है, सब जय जय का नाद उचारे, शुभ अवसर यह पाया, शुभ अवसर यह पाया रे ...पद्म तेरे ढिंग आया ॥ सफ़ल कामना कर प्रभू मेरी, पाऊं मैं, पाऊं मैं, पाऊं मैं चरण रज तेरी, होगी पुण्य वृद्धि आशा है, दरश तिहारा पाया, दरश तिहारा पाया रे...पद्म तेरे ढिंग आया ॥
  23. (ज्ञानोदय छन्द) सिद्ध बने शिव-शुद्ध बने जो जिन की थुति में निरत रहे। दावा-सम अति-कोप अनल को शान्त किये अति-विरत रहे। मनो-गुप्ति के वचन-गुप्ति के काय-गुप्ति के धारक हैं। जब जब बोलें सत्य बोलते भाव शुद्ध-शिव साधक हैं॥१॥ दिन दुगुणी औ रात चउगुणी मुनि पद महिमा बढ़ा रहे। जिन शासन के दीप्त दीप हो और उजाला दिला रहे। बद्ध-कर्म के गूढ़ मूल पर घात लगाते कुशल रहे। ऋद्धि सिद्धि परसिद्धि छोडक़र शिवसुख पाने मचल रहे॥ २॥ मूलगुणों की मणियों से है जिनकी शोभित देह रही। षड् द्रव्यों का निश्चय जिनको जिनमें कुछ संदेह नहीं। समयोचित आचरण करे हैं प्रमाद के जो शोषक हैं। समदर्शन से शुद्ध बने हैं निज गुण तोषक, पोषक हैं॥३॥ पर-दुख-कातर सदय हृदय जो मोह-विनाशक तप धारे। पंच-पाप से पूर्ण परे हैं पले पुण्य में जग प्यारे। जीव जन्तु से रहित थान में वास करें निज कथा करें। जिनके मन में आशा ना है दूर कुपथ से तथा चरे॥४॥ बड़े बड़े उपवासादिक से दण्डित ना बहुदण्डों से। सुडोल सुन्दर तन मन से हैं मुख मण्डल-कर-डण्डों से। जीत रहे दो - बीस परीषह किरिया-करने योग करे। सावधान संधान ध्यान से प्रमाद हरने योग्य हरे॥५॥ नियमों में हैं अचल मेरुगिरि कन्दर में असहाय रहे। विजितमना हैं जित-इन्द्रिय हैं जितनिद्रक जितकाय रहे। दुस्सह दुखदा दुर्गति - कारण लेश्याओं से दूर रहे। यथाजात हैं जिनके तन है जल्ल-मल्ल से पूर रहे॥ ६॥ उत्तम उत्तम भावों से जो भावित करते आतम को। राग लोभ मात्सर्य शाठ्य मद को तजते हैं अघतम को। नहीं किसी से तुलना जिनकी जिनका जीवन अतुल रहा। सिद्धासन मन जिनके, चलता आगम मन्थन विपुल रहा॥७॥ आर्तध्यान से रौद्रध्यान से पूर्णयत्न से विमुख रहे। धर्मध्यान में शुक्लध्यान में यथायोग्य जो प्रमुख रहे। कुगति मार्ग से दूर हुये हैं सुगति ओर गतिमान हुये। सात ऋद्धि रस गारव छोड़े पुण्यवान् गणमान्य हुये॥८॥ ग्रीष्म काल में गिरि पर तपते वर्षा में तरुतल रहते। शीतकाल आकाश तले रह व्यतीत करते अघ दहते। बहुजन हितकर चरित धारते पुण्य पुंज है अभय रहे। प्रभावना के हेतुभूत उन महाभाव के निलय रहे॥९॥ इस विध अगणित गुणगण से जो सहित रहे हितसाधक हैं। हे जिनवर! तव भक्तिभाव में लीन रहे गण धारक हैं। अपने दोनों कर-कमलों को अपने मस्तक पर धरके। उनके पद कमलों में नमता बार-बार झुक-झुक करके॥१०॥ कषायवश कटु-कर्म किये थे जन्म मरण से युक्त हुये। वीतरागमय आत्म-ध्यान से कर्म नष्ट कर मुक्त हुये। प्रणाम उनको भी करता हूँ अखण्ड अक्षय-धाम मिले। मात्र प्रायोजन यही रहा है सुचिर काल विश्राम मिले॥११॥ दोहा मुनिगण-नायक भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु तव संसर्ग॥ १२॥ पंचाचारों रत्नत्रय से शोभित हो आचार्य महा, शिवपथ चलते और चलाते औरों को भी आर्य महा। उपाध्याय उपदेश सदा दे चरित बोध का शिवपथ का। रत्नत्रय पालन में रत हो साधु सहारा जिनमत का॥ १३॥ भावभक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर कर निज मन को। वंदूँ पूजूँ अर्चन करलूँ नमन करूँ मैं गुरु गण को। कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥१४॥
  24. म्हारा आदीश्वर जी की म्हारा आदीश्वर जी की सुन्दर मूरत ….म्हारे मन भाई जी म्हारे मन भाई म्हारे चित चाही, ….म्हारे मन भाई जी । तीन छत्र वांके सिर सोहे, चौंसठ चंवर ढुराई जी, । म्हारे मन भाई म्हारे चित चाही, ….म्हारे मन भाई जी ।१। रत्न सिंहासन आप विराजो, नासा दृष्टि लगाई जी, । म्हारे मन भाई म्हारे चित चाही, ….म्हारे मन भाई जी ।२। सेवक अर्ज करे कर जोडे, आवागमन मिटाओ जी, । म्हारे मन भाई म्हारे चित चाही, ….म्हारे मन भाई जी ।३।
  25. आज मैं महावीर जी आया आज मैं महावीर जी आया तेरे दरबार में, कब सुनाई होगी मेरी आपकी सरकार में। तेरी किरपा से है माना लाखों प्राणी तिर गये । क्यों नहीं मेरी खबर लेते मैं हुं मंझधार में ।१। काट दो कर्मों को मेरे है ये इतनी आरजू । हो रहा हूं ख्वार मैं दुनिया के मायाचार में ।२। आप का सुमिरन किया जब मानतुंगाचार्य ने । खुल गयी थी बेडियां झट उनकी कारागार में ।३। बन गया सूली से सिंहासन सुदर्शन के लिये । हो रहा गुणगान है उस सेठ का संसार में ।४। मुश्किलें आसान कर दो अपने भक्तों की प्रभो । यह विनय ’पंकज’ की है बस आपके दरबार में ।५।
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