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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. विसट्ट कंदोटट दलाणुयारं, सुलोयणं चंद समाण तुंण्डं । घोणाजियं चम्पय पुप्फसोहं तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।1।। अच्छाय सच्छं जलकंत गंण्डं आबाहु दोलंत सुकण्ण पासं । गइंद सुण्डुज्जल बाहुदण्डं तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।2।। सुकण्ठ सोहा जियदिव्व संखं हिमालयुद्दाम विसाल कंधं । सुपेक्ख णिज्जायल सुठ्ठुमज्झं तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।3।। विज्झाय लग्गे पविभासमाणं सिहांमणिं सव्व सुचेदियाणं । तिलोय संतोसय पुण्णचंदं तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।4।। लयासमक्कंत महासरीरं भव्वावलीलध्द सुक्कपरूक्खं देविंदविंदच्चिय पायपोम्मं । तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।5।। दियंबरो जो ण च भीई जुत्तो ण चांबरे सत्तमणो विसुद्धो । सप्पादि जंतुप्फुसदो ण कंपो तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।6।। आसां ण जो पेक्खदि सच्छदिटिठ् सोक्खे ण वंछा हयदोसमूलं । विराय भावं भरहे विसल्लं तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।7।। उपाहि मुत्तं धण धाम वज्जियं सुसम्मजुत्तं मय मोहहारयं । वस्सेय पज्जंतमुववास जुत्तं तं गोम्मटेसं पणमामि णिच्चं ।।8।। ।। इति गोम्मटेस स्तुति ।।
  2. नेमि जिनेश्‍वर नेमि जिनेश्‍वर... नेमि जिनेश्‍वर तेरी जय जयकार करे हम सारे ॥ भव भय हारी, मम हित कारी, तुम हो ज्ञाता, तुम हो दृष्टा । प्राणी मात्र के प्रभु आपने सारे कष्ट निवारे ॥ नेमि जिनेश्‍वर.. विघ्न विनाशक, स्व-पर प्रकाशक, तुम्हीं महन्ता, तुम भगवन्ता। तीन जगत के ज्ञेयाकार निहारे ॥ नेमि जिनेश्‍वर.. ज्ञेय प्रकाशक, हेय विनाशा, उपादेय निज, तुम दर्शाया। इंद्र सुरेन्द्र नरेन्द्र तुम्हारी आरती उतारें ॥ नेमि जिनेश्‍वर...
  3. पारस प्यारा लागो पारस प्यारा लागो, चँवलेश्वर प्यारा लागो । थांकी बांकडली झाड्यां में, गैलो भूल्यो जी म्हारा पारसजी, म्हैं रस्तो कियां पावांला॥ पारस प्यारा … ॥ अब डर लागे छै म्हाने, हर बार पुकारां थांने । थांका पर्वत रा जंगल में, सिंह धडूके हो चँवलेश्वर जी, म्हैं रस्तो कियां पावांला॥ पारस प्यारा … ॥ थे राग द्वेष न त्यागा, म्है आया भाग्या भाग्या । थांका पर्वत री भाटा की, ठोकर लागी हो चँवलेश्वर जी, म्हैं रस्तो कियां पावांला॥ पारस प्यारा … ॥ म्हे अजमेर शहर से चाल्या, थांका ऊंचा देख्या माला । म्हाने पेड्या पेड्या चढवो, प्यारो लागे हो चँवलेश्वर जी, म्हैं रस्तो कियां पावांला॥ पारस प्यारा … ॥ थांका विशाल दर्शन पाया, जद तन मन से हरषाया । थांकी छतरी की तो शोभा, न्यारी लागे हो चँवलेश्वर जी, म्हैं रस्तो कियां पावांला॥ पारस प्यारा … ॥ थे झूंठ बोलबो छोडो, और धर्म सूं नातो जोडो । म्हारी बांकडली झाड्यां में, गैलो पावो जी म्हारा सेवक जी, थे सीधो रस्तो पावोला॥ पारस प्यारा … ॥
  4. दिन-आयो दिन-आयो दिन-आयो, आज जन्मकल्याणक दिन आयो ॥ झूमे आज नर-नारी ऐसे हरषाय, म्हारो तन मनवा प्रभु के गुण गाये, रंग-लाग्यो रंग-लाग्यो रंग-लाग्यो, थारी भक्ति में म्हारो प्रभु रंग-लाग्यो ॥ तन भीगे मन भीगे, भीगे मोरो आतम, प्रभु ने बतायो आतम परमातम, रंग-लाग्यो रंग-लाग्यो रंग-लाग्यो, थारी भक्ति में म्हारो प्रभु रंग-लाग्यो ॥ सोलह सपने माँ ने देखे, उनका फ़ल राजा से पूछा, रानी तेरे गर्भ से पुत्र जन्म लेगा, तीन लोक का नाथ बनेगा, हरषायो हरषायो हरषायो, माता शिवा देवी को मन हरषायो ॥ सौरीपुर में जन्म हुआ है, तीन भुवन आनंद हुआ है, इंद्र इंद्राणी मिल खुशियां मनावे, मंगलकारी गीत सुनावें, फ़ल पायो फ़ल पायो फ़ल पायो, माता शिवादेवी ने शुभ फ़ल पायो ॥
  5. चँवलेश्वर पारसनाथ चँवलेश्वर पारसनाथ , म्हारी नैया पार लगाजो म्हें सुन सुन अतिशय सारा , आया दर्शन हित सारा। होजी म्हाने पार करो मंझधार, म्हारी नैया पार लगाजो ।१। ऊंचा पर्वत गहरी झाडी , नीचे बह रही नदियां भारी। होजी थांका दर्शन पर बलिहार,म्हारी नैया पार लगाजो ।२। थे चिंतामणि रतन कहावो , दुखिया रा दुख मिटाओ। म्हाके अंतर ज्योति जगार, म्हारी नैया पार लगाजो ।३। तोडी मान कमठ की माला , त्यारा नाग नागिन काला। बन गया देव कृपा तब धार , म्हारी नैया पार लगाजो ।४। म्हैं भी अजयमेरुं सुं आया , थांका दर्शन कर हरषाया। जावां दर्शन पर बलिहार म्हारी नैया पार लगाजो ।५। थांको नाम मंत्र जो ध्यावे , ब्याकां सगला दुख मिट जावे। प्रगटे शील आत्मबल सार , म्हारी नैया पार लगाजो ।६।
  6. घड़ि-घड़ि पल-पल छिन-छिन घड़ि-घड़ि पल-पल छिन-छिन निशदिन, प्रभुजी का सुमिरन करले रे ॥ प्रभु सुमिरेतैं पाप कटत हैं, जनममरनदुख हरले रे ॥१॥ मनवचकाय लगाय चरन चित, ज्ञान हिये विच धर ले रे ॥२॥ `दौलतराम' धर्मनौका चढ़ि, भवसागर तैं तिर ले रे ॥३॥
  7. नाचे रे इन्दर देव रे....नाचे रे इन्दर देव रे, जन्म कल्याण की बज रही बधैया मुक्ति में अब का देर रे। नाचे रे इन्दर देव रे... शिवादेवी के गर्भ में आये, देखो जी नेमिकुमार रे, समुद्रविजय जी फ़ल बतावें, होवे खुशियां अपार रे॥ नाचे रे इन्दर देव रे... शिवादेवी ने ललना जायो, जायो नेमिकुमार रे, समुद्रविजय जी मुहरें लुटायें, देखो दोई दोई हाथ रे॥ नाचे रे इन्दर देव रे... देव देवियां स्वर्ग से आये, मन में खुशियां अपार रे, छप्पन कुमारी मंगल गावें, गावें मंगलाचार रे॥ नाचे रे इन्दर देव रे...
  8. जिनवर-आनन-भान निहारत तर्ज: देखो जी आदीश्‍वर... जिनवर-आनन-भान निहारत, भ्रमतम घान नसाया है ।। वचन-किरन-प्रसरनतैं भविजन, मनसरोज सरसाया है । भवदुखकारन सुखविसतारन, कुपथ सुपथ दरसाया है ।१। विनसाई कज जलसरसाई, निशिचर समर दुराया है । तस्कर प्रबल कषाय पलाये, जिन धनबोध चुराया है ।२। लखियत उडुग न कुभाव कहूँ अब, मोह उलूक लजाया है । हँस कोक को शोक नश्यो निज, परनतिचकवी पाया है ।३। कर्मबंध-कजकोप बंधे चिर, भवि-अलि मुंचन पाया है । दौल उजास निजातम अनुभव,उर जग अन्तर छाया है ।४।
  9. भेष दिगम्बर धार चले हैं मुनि दूल्हा बनके मुक्तिपुरी के द्वार चले हैं मुनि दूल्हा बनके ॥ पंच महाव्रत जामा सजाया, दशलक्षण का सेहरा बंधाया, चारित्र रथ हो सवार...चले हैं मुनि दूल्हा बनके ॥ बारह भावना संग बाराती, समिति गुप्ति सब हिल मिल गाती, हर्ष से मंगलाचार...चले हैं मुनि दूल्हा बनके ॥ राग द्वेष आतिशबाजी छूटी, क्रोध कषाय की लडियां टूटी, समता पायल झनकार...चले हैं मुनि दूल्हा बनके ॥ शुक्लध्यान की अग्नि जलाकर,होम किया निजकर्म खिपाकर, तप तेरा यशगान...चले हैं मुनि दूल्हा बनके ॥ शुभ बेल शिवरमणी वरेंगे, मुक्ति महल में प्रवेश करेंगे, गूंजेगी ध्वनि जयकार...चले हैं मुनि दूल्हा बनके ॥
  10. दिव्य ध्वनि वीरा खिराई आज शुभ दिन, धन्य धन्य सावन की पहली है एकम ॥ आत्म स्वभावं परभाव भिन्नं,आपूर्ण माद्यन्त विमुक्त मेकम ॥ दिव्य ध्वनि.... वैसाख दसमी को घातिया खिपाये, मेरे प्रभु विपुलाचल पर आये, क्षण में लोकालोक लखाये, किन्तु न प्रभु उपदेश सुनाये, काल लब्धि वाणी की आयी नही उस दिन, धन्य धन्य सावन की पहली है एकम... इन्द्र अवधिज्ञान उपयोग लगाये, समवसरण में गणधर ना पाये, इन्द्रभूति गौतम में योग्यता लखाये, वीर प्रभु के दर्शन को आये, काल लब्धि लेकर के आई आज गौतम, धन्य धन्य सावन की पहली है एकम... मेरे प्रभु ओंकार ध्वनि को खिराये, गौतम द्वादश अंग रचाये, उत्पाद व्यय ध्रौव्य सत समझाये, तन चेतन भिन्न भिन्न बताये, भेद विज्ञान सुहायो आज शुभ दिन, धन्य धन्य सावन की पहली है एकम... य एव मुक्त्वा नय पक्षपातं, स्वरूप गुप्ता निवसन्ति नित्यं, विकल्प जाल च्युत शांत चित्ता, स्तयेव साक्षातामृतं पिबन्ति , स्वानुभूति की कला सिखाई आज शुभ दिन, धन्य धन्य सावन की पहली है एकम...
  11. रोम रोम में नेमि कुंवर के रोम रोम में नेमि कुंवर के, उपशम रस की धारा उपशम रस की धारा । राग द्वेष के बंधन तोडे, भेष दिगम्बर धार॥ ब्याह करन को आये, संग बराती लाये । पशुओं को बंधन में देखा, दया सिन्धु लहराये ॥ धिक धिक जग की स्वार्थ वृत्ति, रहे न सुख की धारा ॥रोम.. राजुल अति अकुलाये, नो भव की याद दिलाये। नेमि कहें जग में न किसी का, कोई कभी हो पाय ॥ राग रूप अंगारों द्वारा, चलता है जग सारा ।२। रोम रोम.. नो भव का सुमिरण करने में, आतम तत्व विचारें। शाश्वत ध्रुव चैतन्य राज की, महिमा चित में धारें। लहराता वैराग्य सिंधु अब, भायें भावना बारा ।३। रोम रोम.. राजुल के प्रति राग तजा है, मुक्ति वधू को ब्याहें । धन्य दिगम्बर दीक्षा धरकर, आतम ध्यान लगावें ॥ भव बंधन का नाश करेंगे, पावें सुख अपारा ।४। रोम रोम..
  12. पं. भूधरदास कृत अहो! जगतगुरु देव, सुनिए अरज हमारी। तुम प्रभु दीनदयाल, मैं दुखिया संसारी॥ १॥ इस भव-वन के माहिं, काल अनादि गमायो। भ्रमत चहुँगति माहिं, सुख नहिं, दुख बहु पायो॥ २॥ कर्म महारिपु जोर, एक न कान करैं जी। मनमाने दुख देहिं, काहूसों नाहिं डरैं जी॥ ३॥ कबहूँ इतर निगोद, कबहूँ, नर्क दिखावै। सुरनरपशुगति माहिं, बहुविधि नाच-नचावै॥ ४॥ प्रभु! इनके परसंग, भव-भव माहिं बुरो जी। जे दुख देखे देव! तुमसों नाहिं दुरो जी॥ ५॥ एक जनम की बात, कहि न सकौं सुनि स्वामी। तुम अनन्त परजाय, जानत अन्तरजामी॥ ६॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिल दुष्ट घनेरे। कियो बहुत बेहाल, सुनियो साहिब मेरे॥ ७॥ ज्ञान महानिधि लूटि, रंक निबल करि डार्यो। तुम ही इन मुझ माहिं, हे जिन! अन्तर पार्यो॥ ८॥ पाप पुण्य मिल दोय, पाँयनि बेरी डारी। तन कारागृह माहिं, मोहि दियो दुख भारी॥ ९॥ इनको नेक बिगार, मैं कछु नाहिं कियो जी। बिन कारन जगवंद्य! बहुविधि बैर लियो जी॥ १०॥ अब आयो तुम पास सुनकर ! सुजस तिहारो। नीति-निपुण महाराज! कीजे न्याय हमारो॥ ११॥ दुष्टन देहु निकार, साधुन को रख लीजे। विनवै भूधरदास हे प्रभु! ढील न कीजे॥ १२॥
  13. घर घर आनंद छायो, जन्म महोत्सव मनायो- मनायो । अंतिम जन्म हुआ प्रभुजी का,मोक्ष महाफ़ल पायोजी पायो| स्वर्ग पुरी से सुरपति आये, एरावत हाथी ले आये, जीवन सफ़ल हुआ सुरपति का,जन्ममरण को शीघ्र नशाये, मंगल महोत्सव मनायो मनायो, घर घर...॥ पुण्य उदय है आज हमारे, नगरी में जिनराज पधा्रे, जिनदर्शन की प्यास जगाये, भक्ति सहित सुरराज पधारे, आतम रस बरसायो बरसायो, घर घर...॥ धन्य धन्य तुम देवी जाओ, सर्वप्रथम दर्शन सुख पाओ, कष्ट न किंचित हो माता को, मायामयी सुत देकर आओ, आतम दर्शन पाओ जी पाओ, घर घर...॥ हरि ने नेत्र हजार बनाये, तो भी तृप्त नहीं हो पाये, ज्ञान चक्षु से जिन दर्शन कर, एक अभेद स्वभाव लखाये, जीवन सफ़ल बनायो बनायो, घर घर...॥
  14. दोहा सकल ज्ञेय ज्ञायक तदपि, निजानन्द-रस-लीन। सो जिनेन्द्र जयवंत नित, अरि-रज-रहस विहीन॥ १॥ पद्धरि जय वीतराग विज्ञान पूर, जय मोह-तिमिर को हरन सूर। जय ज्ञान अनंतानंत धार, दृग-सुख-वीरज मण्डित अपार॥ २॥ जय परम शान्त मुद्रा समेत, भवि-जन को निज अनुभूति हेत। भविभागन वश जोगे वशाय, तुम धुनि ह्वै सुनि विभ्रम नशाय॥ ३॥ तुम गुण चिन्तत निज-पर-विवेक, प्रगटै विघटैं आपद अनेक। तुम जगभूषण दूषण-वियुक्त, सब महिमा युक्त विकल्प-मुक्त॥ ४॥ अविरुद्ध शुद्ध चेतनस्वरूप, परमात्म परम पावन अनूप। शुभ-अशुभ विभाव अभाव कीन, स्वाभाविक परिणतिमय अछीन॥ ५॥ अष्टादश दोष विमुक्त धीर, स्वचतुष्टयमय राजत गंभीर। मुनि गणधरादि सेवत महंत, नव केवल-लब्धि-रमा धरंत॥ ६॥ तुम शासन सेय अमेय जीव, शिव गये जाहिं जैहैं सदीव। भव-सागर में दु:ख छार वारि, तारन को अवर न आप टारि॥ ७॥ यह लखि निज दु:खगद-हरण-काज, तुम ही निमित्त कारण इलाज। जाने तातैं मैं शरण आय, उचरों निज दु:ख जो चिर लहाय॥ ८॥ मैं भ्रम्यो अपनपो बिसरि आप, अपनाये विधि-फल-पुण्य-पाप। निज को पर का कत्र्ता पिछान, पर में अनिष्टता इष्ट ठान॥ ९॥ आकुलित भयो अज्ञान धारि, ज्यों मृग-मृगतृष्णा जानि वारि। तन-परिणति में आपो चितार, कबहूँ न अनुभवो स्व-पद सार॥ १०॥ तुमको बिन जाने जो कलेश, पायो सो तुम जानत जिनेश। पशु-नारक-नर-सुर-गति-मँझार, भव धर-धर मर्यो अनन्त बार॥ ११॥ अब काललब्धि बलतैं दयाल, तुम दर्शन पाय भयो खुशाल। मन शांतभयो मिटि सकल द्वन्द्व, चाख्यो स्वातमरस दु:खनिकंद॥ १२॥ तातैं अब ऐसी करहु नाथ, बिछुरै न कभी तुम चरण साथ। तुम गुण गण को नहिं छेव देव, जग तारन को तुम विरद एव॥ १३॥ आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परिणति न जाय। मैं रहूँ आप में आप लीन, सो करो होऊँ ज्यों निजाधीन॥ १४॥ मेरे न चाह कछु और ईश, रत्नत्रय-निधि दीजै मुनीश। मुझ कारज के कारन सु आप, शिव करहु-हरहु मम मोह ताप॥ १५॥ शशि शांति करन तप हरन हेत, स्वयमेव तथा तुम कुशल देत। पीवत पीयूष ज्यों रोग जाय, त्यों तुम अनुभवतैं भव नशाय॥ १६॥ त्रिभुवन तिहुँकाल मँझार कोय, नहिं तुम बिन निज सुखदाय होय। मो उर यह निश्चय भयो आज, दु:ख जलधि उतारन तुम जिहाज॥ १७॥ तुम गुणगण-मणि गणपति, गणत न पावहिं पार। दौल स्वल्प-मति किमु कहै, नमहुँ त्रियोग सम्हार॥ १८॥
  15. गिरनारी पर तप कल्याणक नेमि बनेंगे मुनिराज रे आए लौकांतिक ब्रह्मचारी, हुए प्रसन्न देख नर नारी, धन्य दिवस है आज रे , धन्य दिवस है आज रे ।१। प्रभुजी बारह भवना भाये , परिणति में वैराग्य बढाये, हम भी बनेंगे मुनिराज रे , हम भी बनेंगे मुनिराज रे ।२। शुद्धातम रस को ही चाहे , विषय भोग विष सम ही लागे , राग लगे अंगार रे , राग लगे अंगार रे ।३। प्रभु जी वेश दिगम्बर धारे , चेतन को निर्ग्रन्थ निहारे , बरसे आनंद धार रे , बरसे आनंद धार रे ।४।
  16. अति पुण्य उदय मम आया, प्रभु तुमरा दर्शन पाया। अब तक तुमको बिन जाने, दुख पाये निज गुण हाने॥ पाये अनंते दु:ख अब तक, जगत को निज जानकर। सर्वज्ञ भाषित जगत हितकर, धर्म नहिं पहिचान कर॥ भव बंधकारक सुखप्रहारक, विषय में सुख मानकर। निजपर विवेचक ज्ञानमय,सुखनिधिसुधा नहिं पानकर॥ तव पद मम उर में आये, लखि कुमति विमोह पलाये। निज ज्ञान कला उर जागी, रुचिपूर्ण स्वहित में लागी॥ रुचि लगी हित में आत्म के, सतसंग में अब मन लगा। मन में हुई अब भावना, तव भक्ति में जाऊँ रंगा॥ प्रिय वचन की हो टेव, गुणीगण गान में ही चित पगै। शुभ शास्त्र का नित हो मनन, मन दोष वादन तैं भगै॥ कब समता उर में लाकर, द्वादश अनुप्रेक्षा भाकर। ममतामय भूत भगाकर, मुनिव्रत धारूँ वन जाकर॥ धरकर दिगम्बर रूप कब, अठ-बीस गुण पालन करूँ। दो-बीस परिषह सह सदा, शुभ धर्म दश धारन करूँ॥ तप तपूं द्वादश विधि सुखद नित, बंध आस्रव परिहरूँ। अरु रोकि नूतन कर्म संचित, कर्म रिपुकों निर्जरूँ॥ कब धन्य सुअवसर पाऊँ, जब निज में ही रम जाऊँ। कर्तादिक भेद मिटाऊँ, रागादिक दूर भगाऊँ॥ कर दूर रागादिक निरंतर, आत्म को निर्मल करूँ। बल ज्ञान दर्शन सुख अतुल,लहि चरित क्षायिक आचरूँ॥ आनन्दकन्द जिनेन्द्र बन, उपदेश को नित उच्चरूं। आवै अमर कब सुखद दिन, जब दु:खद भवसागर तरूँ॥
  17. तुम निरखत मुझको मिली, मेरी सम्पति आज। कहाँ चक्रवर्ति-संपदा कहाँ स्वर्ग-साम्राज॥ १॥ तुम वन्दत जिनदेव जी, नित नव मंगल होय। विघ्न कोटि ततछिन टरैं, लहहिं सुजस सब लोय॥ २॥ तुम जाने बिन नाथ जी, एक स्वाँस के माँहिं। जन्म-मरण अठदस किये, साता पाई नाहिं॥ ३॥ आप बिना पूजत लहे, दु:ख नरक के बीच। भूख प्यास पशुगति सही, कर्यो निरादर नीच॥ ४॥ नाम उचारत सुख लहै, दर्शनसों अघ जाय। पूजत पावै देव पद, ऐसे हैं जिनराय॥ ५॥ वंदत हूँ जिनराज मैं, धर उर समताभाव। तन - धन - जन जगजाल तैं धर विरागता भाव॥ ६॥ सुनो अरज हे नाथ जी, त्रिभुवन के आधार। दुष्ट कर्म का नाश कर, वेगि करो उद्धार ॥ ७॥ जाचत हूँ मैं आपसों, मेरे जियके माँहिं। रागद्वेष की कल्पना, कबहूँ उपजै नाहिं ॥ ८॥ अति अद्भुत प्रभुता लखी, वीतरागता माँहिं। विमुख होहिं ते दु:ख लहैं, सन्मुख सुखी लखाहिं ॥ ९॥ कलमल कोटिक नहिं रहैं, निरखत ही जिनदेव। ज्यों रवि ऊगत जगत् में, हरै तिमिर स्वयमेव ॥ १०॥ परमाणू पुद्गलतणी, परमातम संजोग । भई पूज्य सब लोक में, हरे जन्म का रोग ॥ ११॥ कोटि जन्म में कर्म जो, बाँधे हुते अनन्त । ते तुम छवी विलोकते, छिन में हो हैं अन्त ॥ १२॥ आन नृपति किरपा करै, तब कछु दे धन धान । तुम प्रभु अपने भक्त को, करल्यो आप समान॥ १३ ॥ यंत्र मंत्र मणि औषधी, विषहर राखत प्रान । त्यों जिनछवि सब भ्रम हरै, करै सर्व परधान ॥ १४ ॥ त्रिभुवनपति हो ताहि तैं, छत्र विराजैं तीन । सुरपति नाग नरेशपद, रहैं चरन आधीन ॥ १५ ॥ भवि निरखत भव आपने, तुम भामण्डल बीच । भ्रम मेटैं समता गहै, नाहिं सहै गति नीच ॥ १६ ॥ दोई ओर ढोरत अमर, चौंसठ चमर सफेद । निरखत भविजन का हरैं, भव अनेक का खेद ॥ १७ ॥ तरु अशोक तुम हरत है, भवि-जीवन का शोक । आकुलता कुल मेटि कें, करैं निराकुल लोक॥१८ ॥ अन्तर बाहिर परिगहन, त्यागा सकल समाज । सिंहासन पर रहत हैं, अन्तरीक्ष जिनराज ॥ १९॥ जीत भई रिपु मोहतैं, यश सूचत है तास । देव दुन्दुभिन के सदा, बाजे बजैं आकाश ॥ २०॥ बिन अक्षर इच्छा रहित, रुचिर दिव्यध्वनि होय। सुर नर पशु समझैं सबै, संशय रहै न कोय ॥ २१॥ बरसत सुरतरु के कुसुम, गुंजत अलि चहुँ ओर । फैलत सुजस सुवासना, हरषत भवि सब ठौर ॥ २२॥ समुद्र बाध अरु रोग अहि, अर्गल बंध संग्राम । विघ्न विषम सब ही टरैं, सुमरत ही जिन नाम ॥ २३॥ सिरीपाल, चंडाल पुनि, अञ्जन भीलकुमार । हाथी हरि अरि सब तरे, आज हमारी बार ॥ २४॥ बुधजन यह विनती करै, हाथ जोड़ शिर नाय। जबलौं शिव नहिं होय तुमभक्ति हृदय अधिकाय ॥२५॥
  18. (ज्ञानोदय छन्द) नरक-पतन से भीत हुये हैं जाग्रत-मति हैं मथित हुये। जनम-मरण-मय शत-शत रोगों से पीडि़त हैं व्यथित हुये। बिजली बादल-सम वैभव है जल-बुदबुद-सम जीवन है। यूं चिन्तन कर प्रशम हेतु मुनि वन में काटे जीवन है॥१॥ गुप्ति-समिति-व्रत से संयुत जो मन शिव-सुख की ओर रहा। मोहभाव के प्रबल-पवन से जिनका मन ना डोल रहा। कभी ध्यान में लगे हुए तो श्रुत-मन्थन में लीन कभी। कर्म-मलों को धोना है सो तप करते स्वाधीन सुधी॥ २॥ रवि-किरणों से तपी शिला पर सहज विराजे मुनिजन हैं। विधि-बन्धन को ढीले करते जिनका मटमैला तन है। गिरि पर चढ़ दिनकर के अभिमुख मुख करके हैं तप तपते। ममत्व मत्सर मान रहित हो बने दिगम्बर-पथ नपते॥ ३॥ दिवस रहा हो रात रही हो बोधामृत का पान करें। क्षमा नीर से सिंचित जिनका पुण्यकाय छविमान अरे ! धरें छत्र - संतोष भाव के सहज छाँव का दान करें। यूँ सहते मुनि तीव्र-ताप को ज्ञानोदय गुणगान करे॥ ४॥ मोर कण्ठ या अलि - सम काले इन्द्र धनुष युत बादल हैं। गरजे बरसे बिजली तडक़ी झंझा चलती शीतल है। गगन दशा को देख निशा में और तपोधन तरुतल में। रहते सहते कहते कुछ ना भीति नहीं मानस - तल में॥५॥ वर्षा ऋतु में जल की धारा मानो बाणों की वर्षा। चलित चरित से फिर भी कब हो करते जाते संघर्षा। वीर रहे नर-सिंह रहे मुनि परिषह रिपु को घात रहे। किन्तु सदा भव-भीत रहे हैं इनके पद में माथ रहे॥६॥ अविरल हिमकण जल से जिनकी काय-कान्ति ही चली गई सॉय-सॉय कर चली हवायें, हरियाली सब जली गई। शिशिर तुषारी घनी निशा को व्यतीत करते श्रमण यहाँ। और ओढ़ते धृति-कम्बल हैं गगन तले भूशयन अहा !॥७॥ एक वर्ष में तीन योग ले बने पुण्य के वर्धक हैं। बाह्याभ्यन्तर द्वादश-विध तप तपते हैं मद-मर्दक हैं। परमोत्तम आनन्द मात्र के प्यासे भदन्त ये प्यारे। आधि-व्याधि औ उपाधि-विरहित समाधि हम में बस डारे॥८॥ ग्रीष्मकाल में आग बरसती गिरि-शिखरों पर रहते हैं। वर्षा-ऋतु में कठिन परीषह तरुतल रहकर सहते हैं। तथा शिशिर हेमन्त काल में बाहर भू-पर सोते हैं। वन्द्य साधु ये वन्दन करता दुर्लभ - दर्शन होते हैं॥९॥ (दोहा) योगीश्वर सद्भक्ति का करके कायोत्सर्ग। आलोचन उसका करूँ ! ले प्रभु ! तव संसर्ग॥१०॥ अर्ध सहित दो द्वीप तथा दो सागर का विस्तार जहाँ। कर्म-भूमियाँ पन्द्रह जिनमें संतों का संचार रहा। वृक्षमूल-अभ्रावकाश औ आतापन का योग धरें। मौन धरें वीरासन आदिक का भी जो उपयोग करें॥११॥ बेला तेला चोला छह-ला पक्ष मास छह मास तथा । मौन रहें उपवास करें है करें न तन की दास कथा। भक्ति भाव से चाव शक्ति से निर्मल कर कर निज मन को। वंदूँ पूजूँ अर्चन कर लूँ नमन करूँ इन मुनि जन को॥१२॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥
  19. बीज राख फल भोगवै, ज्यों किसान जग माहिं। त्यों चक्री नृप सुख करै, धर्म बिसारै नाहिं॥ 1॥ इह विधि राज करै नरनायक, भोगैं पुण्य विशालो। सुख सागर में रमत निरन्तर, जात न जान्यो कालो॥ एक दिवस शुभ कर्म-संजोगे, क्षेमंकर मुनि वंदे। देखि शिरीगुरु के पदपंकज, लोचन अलि आनन्दे॥ 2॥ तीन प्रदच्छन दे सिर नायो, करि पूजा थुति कीनी। साधु-समीप विनय कर बैठ्यो, चरनन में दिठि दीनी॥ गुरु उपदेश्यो धरम - शिरोमणि, सुन राजा वैरागे। राजरमा, वनितादिक, जे रस, ते रस बेरस लागे॥ 3॥ मुनि- सूरज कथनी किरणावलि लगत भरम बुधि भागी। भव-तन-भोग-स्वरूप विचार्यो, परम धरम अनुरागी॥ इह संसार महावन भीतर, भरमत ओर न आवै। जामन मरन जरा दव दाझै जीव महादुख पावै॥ 4॥ कबहूँ जाय नरक थिति भुंजै, छेदन भेदन भारी। कबहूँ पशु परजाय धरै तहँ, वध-बन्धन भयकारी॥ सुरगति में परसम्पत्ति देखे राग उदय दुख होई। मानुष योनि अनेक विपत्तिमय, सर्वसुखी नहिं कोई॥ 5॥ कोई इष्ट वियोगी विलखै, कोई अनिष्ट संयोगी। कोई दीन-दरिद्री विलखे, कोई तन के रोगी॥ किसही घर कलिहारी नारी, कै बैरी सम भाई। किसही के दुख बाहिर दीखें, किस ही उर दुचिताई॥ 6॥ कोई पुत्र बिना नित झूरै, होय मरै तब रोवै। खोटी संतति सों दुख उपजै, क्यों प्रानी सुख सोवै॥ पुण्य उदय जिनके तिनके भी नाहिं सदा सुख साता। यो जगवास जथारथ देखें, सब दीखै दुखदाता॥ 7॥ जो संसार विषैं सुख होता, तीर्थङ्कर क्यों त्यागैं। काहे को शिवसाधन करते, संजम सों अनुरागैं॥ देह अपावन अथिर घिनावन, यामें सार न कोई। सागर के जलसों शुचि कीजे, तो भी शुद्ध न होई॥ 8॥ सात कुधातु भरी मल-मूरत, चर्म लपेटी सोहै। अन्तर देखत या सम जग में, अवर अपावन को है॥ नव-मल-द्वार स्रवैं निशिवासर, नाम लिये घिन आवै। व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुखपावै॥ 9॥ पोषत तो दु:ख दोष करै अति, सोषत सुख उपजावै। दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावै॥ राचन-जोग स्वरूप न याको विरचन- जोग सही है। यह तन पाय महातप कीजे यामें सार यही है॥ 10॥ भोग बुरे भव रोग बढ़ावै, बैरी हैं जग जीके। बेरस होंय विपाक समय अति, सेवत लागैं नीके॥ वज्र-अगनि विष से विषधर से, ये अधिके दुखदाई। धर्म-रतन के चोर चपल अति, दुर्गति-पंथ सहाई॥ 11॥ मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जानै। ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने॥ ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मन-वांछित जन पावै। तृष्णा नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर जहर की आवे॥ 12॥ मैं चक्री पद पाय निरन्तर, भोगे भोग घनेरे। तौ भी तनिक भये नहिं पूरन, भोग मनोरथ मेरे॥ राजसमाज महा अघ-कारण, बैर बढ़ावन-हारा। वेश्या सम लछमी अति चंचल, याका कौन पत्यारा॥ 13॥ मोह-महा-रिपु बैर विचार्यो, जग-जिय संकट डारे। घर-कारागृह वनिता बेड़ी, परिजन जन रखवारे॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप, ये जियके हितकारी। ये ही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी॥ 14॥ छोड़े चौदह रतन नवों निधि, अरु छोड़े संग साथी। कोटि अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी लख हाथी॥ इत्यादिक संपत्ति बहुतेरी, जीरण-तृण-सम त्यागी। नीति विचार नियोगी सुतकों, राज दियो बड़भागी॥ 15॥ होय निशल्य अनेक नृपति संग, भूषण वसन उतारे। श्री गुरु चरण धरी जिनमुद्रा, पंच महाव्रत धारे॥ धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरजधारी। ऐसी सम्पत्ति छोड़ बसे वन, तिन पद धोक हमारी॥ 16॥ दोहा परिग्रहपोट उतार सब, लीनों चारित पंथ। निज स्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निरगंरथ॥
  20. स्तोष्ये संज्ञानानि परोक्षप्रत्यक्षभेदभिन्नानि। लोकालोकविलोक -नलोलितसल्लोकलोचनानि सदा॥१॥ अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिबोधिकमनिन्द्रियेन्द्रियजम्। बह्वाद्यवग्रहादिककृत-षट्त्रिंशत्-त्रिशत-भेदम्॥२॥ विविधद्र्धिबुद्धि-कोष्ठस्फुटबीजपदानुसारिबुद्ध्यधिकं। संभिन्न-श्रोतृ-तया, सार्धं श्रुत-भाजनं वन्दे॥ ३॥ श्रुतमपि जिनवर-विहितं गणधररचितं द्व्यनेकभेदस्थम्। अङ्गाङ्ग-बाह्य-भावित-मनन्त-विषयं नमस्यामि॥ ४॥ पर्यायाक्षर-पद-संघात-प्रतिपत्तिकानुयोग -विधीन्। प्राभृतक-प्राभृतकं प्राभृतकं वस्तु-पूर्वं च॥ ५॥ तेषां समासतोऽपि च विंशतिभेदान् समश्नुवानं तत्। वन्दे द्वादशधोक्तं गम्भीर-वर-शास्त्र-पद्धत्या॥ ६॥ आचारं सूत्रकृतं स्थानं समवाय-नामधेयं च। व्याख्या-प्रज्ञप्तिं च ज्ञातृकथोपासकाध्ययने॥ ७॥ वन्देऽन्तकृद्दश-मनुत्तरोपपादिकदशं दशावस्थम्। प्रश्नव्याकरणं हि विपाकसूत्रं च विनमामि॥ ८॥ परिकर्म च सूत्रं च स्तौमि प्रथमानुयोगपूर्वगते। साद्र्धं चूलिकयापि च पञ्चविधं दृष्टिवादं च॥ ९॥ पूर्वगतं तु चतुर्दशधोदित-मुत्पादपूर्व-माद्यमहम्। आग्रायणीय-मीडे पुरु-वीर्यानुप्रवादं च॥ १०॥ संततमहमभिवन्दे तथास्ति-नास्ति प्रवादपूर्वं च। ज्ञानप्रवाद-सत्यप्रवाद-मात्मप्रवादं च॥ ११॥ कर्मप्रवाद-मीडेऽथ प्रत्याख्यान-नामधेयं च। दशमं विद्याधारं पृथुविद्यानुप्रवादं च॥ १२॥ कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशालं च। अथ लोकबिन्दुसारं वन्दे लोकाग्रसारपदम्॥ १३॥ दश च चतुर्दश चाष्टावष्टादश च द्वयोद्र्विषट्कं च। षोडश च विंशतिं च त्रिंशतमपि पञ्चदश च तथा॥१४॥ वस्तूनि दश दशान्येष्वनुपूर्वं भाषितानि पूर्वाणाम्। प्रतिवस्तु प्राभृतकानि विंशतिं विंशतिं नौमि॥१५॥ पूर्वान्तं ह्यपरान्तं ध्रुव-मध्रुव-च्यवन-लब्धि-नामानि। अध्रुव-सम्प्रणिधिं चाप्यर्थं भौमावयाद्यं च॥ १६॥ सर्वार्थकल्पनीयं ज्ञानमतीतं त्वनागतं कालम्। सिद्धि-मुपाध्यं च तथा चतुर्दशवस्तूनि द्वितीयस्य॥ १७॥ पञ्चमवस्तु-चतुर्थ - प्राभृतकस्यानुयोगनामानि। कृतिवेदने तथैव स्पर्शनकर्मप्रकृतिमेव ॥१८॥ बन्धन - निबन्धन - प्रक्रमानुपक्रम - मथाभ्युदय - मोक्षौ। संक्रमलेश्ये च तथा लेश्याया: कर्मपरिणामौ॥ १९॥ सात-मसातं दीर्घं, ह्रस्वं भवधारणीय-सञ्ज्ञं च। पुरुपुद्गलात्मनाम च, निधत्तमनिधत्तमभिनौमि॥ २०॥ सनिकाचितमनिकाचितमथकर्मस्थितिकपश्चिमस्कन्धौ। अल्पबहुत्वं च यजे तद्द्वाराणां चतुर्विंशम्॥ २१॥ कोटीनां द्वादशशतमष्टापञ्चाशतं सहस्राणाम्। लक्षत्र्यशीतिमेव च, पञ्च च वन्दे श्रुतपदानि॥ २२॥ षोडशशतं चतुस्त्रिंशत् कोटीनां त्र्यशीति-लक्षाणि। शतसंख्याष्टासप्तति-, मष्टाशीतिं च पदवर्णान्॥ २३॥ सामायिकं चतुर्विंशति-स्तवं वन्दना प्रतिक्रमणम्। वैनयिकं कृतिकर्म च, पृथुदशवैकालिकं च तथा॥ २४॥ वर-मुत्तराध्ययन-मपि, कल्पव्यवहार-मेव-मभिवन्दे। कल्पाकल्पं स्तौमि, महाकल्पं पुण्डरीकं च॥ २५॥ परिपाट्या प्रणिपतितोऽस्म्यहं महापुण्डरीकनामैव। निपुणान्यशीतिकं च, प्रकीर्णकान्यङ्ग-बाह्यानि॥ २६॥ पुद्गल-मर्यादोक्तं, प्रत्यक्षं सप्रभेद-मवधिं च। देशावधि-परमावधि-सर्वावधि-भेद-मभिवन्दे॥ २७॥ परमनसि स्थितमर्थं, मनसा परिविद्यमन्त्रिमहितगुणम्। ऋजुविपुलमतिविकल्पं स्तौमि मन:पर्ययज्ञानम्॥ २८॥ क्षायिकमनन्तमेकं, त्रिकाल-सर्वार्थ-युगपदवभासम्। सकल-सुख-धाम सततं, वन्देऽहं केवलज्ञानम्॥ २९॥ एवमभिष्टुवतो मे ज्ञानानि समस्त-लोक-चक्षूंषि। लघु भवताञ्ज्ञानद्र्धिज्र्ञानफलं सौख्य-मच्यवनम्॥ ३०॥ अंचलिका इच्छामि भंते ! सुदभत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सा-लोचेउं, अंगोवंग-पइण्णए-पाहुडय-परियम्म-सुत्त-पढमाणुओग-पुव्वगय-चूलिया चेव सुत्तत्थय-थुइ-धम्मकहाइयं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि,दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं।
  21. स्तोष्ये संज्ञानानि परोक्षप्रत्यक्षभेदभिन्नानि। लोकालोकविलोक -नलोलितसल्लोकलोचनानि सदा॥१॥ अभिमुखनियमितबोधनमाभिनिबोधिकमनिन्द्रियेन्द्रियजम्। बह्वाद्यवग्रहादिककृत-षट्त्रिंशत्-त्रिशत-भेदम्॥२॥ विविधद्र्धिबुद्धि-कोष्ठस्फुटबीजपदानुसारिबुद्ध्यधिकं। संभिन्न-श्रोतृ-तया, सार्धं श्रुत-भाजनं वन्दे॥ ३॥ श्रुतमपि जिनवर-विहितं गणधररचितं द्व्यनेकभेदस्थम्। अङ्गाङ्ग-बाह्य-भावित-मनन्त-विषयं नमस्यामि॥ ४॥ पर्यायाक्षर-पद-संघात-प्रतिपत्तिकानुयोग -विधीन्। प्राभृतक-प्राभृतकं प्राभृतकं वस्तु-पूर्वं च॥ ५॥ तेषां समासतोऽपि च विंशतिभेदान् समश्नुवानं तत्। वन्दे द्वादशधोक्तं गम्भीर-वर-शास्त्र-पद्धत्या॥ ६॥ आचारं सूत्रकृतं स्थानं समवाय-नामधेयं च। व्याख्या-प्रज्ञप्तिं च ज्ञातृकथोपासकाध्ययने॥ ७॥ वन्देऽन्तकृद्दश-मनुत्तरोपपादिकदशं दशावस्थम्। प्रश्नव्याकरणं हि विपाकसूत्रं च विनमामि॥ ८॥ परिकर्म च सूत्रं च स्तौमि प्रथमानुयोगपूर्वगते। साद्र्धं चूलिकयापि च पञ्चविधं दृष्टिवादं च॥ ९॥ पूर्वगतं तु चतुर्दशधोदित-मुत्पादपूर्व-माद्यमहम्। आग्रायणीय-मीडे पुरु-वीर्यानुप्रवादं च॥ १०॥ संततमहमभिवन्दे तथास्ति-नास्ति प्रवादपूर्वं च। ज्ञानप्रवाद-सत्यप्रवाद-मात्मप्रवादं च॥ ११॥ कर्मप्रवाद-मीडेऽथ प्रत्याख्यान-नामधेयं च। दशमं विद्याधारं पृथुविद्यानुप्रवादं च॥ १२॥ कल्याणनामधेयं प्राणावायं क्रियाविशालं च। अथ लोकबिन्दुसारं वन्दे लोकाग्रसारपदम्॥ १३॥ दश च चतुर्दश चाष्टावष्टादश च द्वयोद्र्विषट्कं च। षोडश च विंशतिं च त्रिंशतमपि पञ्चदश च तथा॥१४॥ वस्तूनि दश दशान्येष्वनुपूर्वं भाषितानि पूर्वाणाम्। प्रतिवस्तु प्राभृतकानि विंशतिं विंशतिं नौमि॥१५॥ पूर्वान्तं ह्यपरान्तं ध्रुव-मध्रुव-च्यवन-लब्धि-नामानि। अध्रुव-सम्प्रणिधिं चाप्यर्थं भौमावयाद्यं च॥ १६॥ सर्वार्थकल्पनीयं ज्ञानमतीतं त्वनागतं कालम्। सिद्धि-मुपाध्यं च तथा चतुर्दशवस्तूनि द्वितीयस्य॥ १७॥ पञ्चमवस्तु-चतुर्थ - प्राभृतकस्यानुयोगनामानि। कृतिवेदने तथैव स्पर्शनकर्मप्रकृतिमेव ॥१८॥ बन्धन - निबन्धन - प्रक्रमानुपक्रम - मथाभ्युदय - मोक्षौ। संक्रमलेश्ये च तथा लेश्याया: कर्मपरिणामौ॥ १९॥ सात-मसातं दीर्घं, ह्रस्वं भवधारणीय-सञ्ज्ञं च। पुरुपुद्गलात्मनाम च, निधत्तमनिधत्तमभिनौमि॥ २०॥ सनिकाचितमनिकाचितमथकर्मस्थितिकपश्चिमस्कन्धौ। अल्पबहुत्वं च यजे तद्द्वाराणां चतुर्विंशम्॥ २१॥ कोटीनां द्वादशशतमष्टापञ्चाशतं सहस्राणाम्। लक्षत्र्यशीतिमेव च, पञ्च च वन्दे श्रुतपदानि॥ २२॥ षोडशशतं चतुस्त्रिंशत् कोटीनां त्र्यशीति-लक्षाणि। शतसंख्याष्टासप्तति-, मष्टाशीतिं च पदवर्णान्॥ २३॥ सामायिकं चतुर्विंशति-स्तवं वन्दना प्रतिक्रमणम्। वैनयिकं कृतिकर्म च, पृथुदशवैकालिकं च तथा॥ २४॥ वर-मुत्तराध्ययन-मपि, कल्पव्यवहार-मेव-मभिवन्दे। कल्पाकल्पं स्तौमि, महाकल्पं पुण्डरीकं च॥ २५॥ परिपाट्या प्रणिपतितोऽस्म्यहं महापुण्डरीकनामैव। निपुणान्यशीतिकं च, प्रकीर्णकान्यङ्ग-बाह्यानि॥ २६॥ पुद्गल-मर्यादोक्तं, प्रत्यक्षं सप्रभेद-मवधिं च। देशावधि-परमावधि-सर्वावधि-भेद-मभिवन्दे॥ २७॥ परमनसि स्थितमर्थं, मनसा परिविद्यमन्त्रिमहितगुणम्। ऋजुविपुलमतिविकल्पं स्तौमि मन:पर्ययज्ञानम्॥ २८॥ क्षायिकमनन्तमेकं, त्रिकाल-सर्वार्थ-युगपदवभासम्। सकल-सुख-धाम सततं, वन्देऽहं केवलज्ञानम्॥ २९॥ एवमभिष्टुवतो मे ज्ञानानि समस्त-लोक-चक्षूंषि। लघु भवताञ्ज्ञानद्र्धिज्र्ञानफलं सौख्य-मच्यवनम्॥ ३०॥ अंचलिका इच्छामि भंते ! सुदभत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सा-लोचेउं, अंगोवंग-पइण्णए-पाहुडय-परियम्म-सुत्त-पढमाणुओग-पुव्वगय-चूलिया चेव सुत्तत्थय-थुइ-धम्मकहाइयं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि,दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं।
  22. जीवे प्रमादजनिता: प्रचुरा: प्रदोषा:, यस्मात्-प्रतिक्रमणत: प्रलयं प्रयान्ति। तस्मात्-तदर्थ-ममलं गृहि-बोधनार्थं, वक्ष्ये विचित्रभवकर्म-विशोधनार्थम्॥ १॥ पापिष्ठेन दुरात्मना जडधिया मायाविना लोभिना, रागद्वेष-मलीमसेन मनसा दुष्कर्म यन्निर्मितम्। त्रैलोक्याधिपते! जिनेन्द्र! भवत:, श्रीपाद-मूलेऽधुना, निन्दा-पूर्व-महं जहामि सततं, वर्वर्तिषु: सत्पथे॥ २॥ खम्मामि सव्वजीवाणं सव्वे जीवा खमंतु मे। मेत्ती मे सव्वभूदेसु, वेरं मज्झं ण केणवि॥ ३॥ राग-बंध-पदोसं च, हरिसं दीण-भावयं। उस्सुगत्तं भयं सोगं रदिमरदिं च वोस्सरे॥ ४॥ हा दुट्ठ-कयं हा दुट्ठ-चिंतियं भासियं च हा दुट्ठं। अंतो अंतो डज्झमि पच्छत्तावेण वेयंतो॥ ५॥ दव्वे खेत्ते काले, भावे य कदाऽवराह-सोहणयं। णिंदणगरहण- जुत्तो, मणवयकाएण पडिकमणं॥ ६॥ एइंदिया बेइंदिया तेइंदिया चउरिंदिया पंचिंदिया पुढविकाइया-आउकाइया-तेउकाइया-वाउकाइया-वणप्फदि-काइया तसकाइया एदेसिं उद्दावणं परिदावणं विराहणं उवघादो कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। दंसण-वयसामाइय-,पोसहसचित्तराइभत्ते य। बंभारंभ-परिग्गह- अणुमणमुद्दिट्ठ-देसविरदे य॥ एयासु जहाकहिद-पडिमासु पमादाइकयाइचार-सोहणट्ठं छेदोवट्ठावणं होदु मज्झं। अरहंतसिद्धआयरियउवज्झायसव्वसाहुसक्खियं, सम्मत्तपुव्वगं, सुव्वदं दिढव्वदं समारोहियं मे भवदु, मे भवदु, मे भवदु। अथ देवसिओ (राइओ) पडिक्कमणाए सव्वाइचार-विसोहि-णिमित्तं पुव्वाइरिय-कमेण आलोयण-सिद्ध-भत्ति-काउस्सग्गं करेमि। सामायिक दण्डक णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥ चत्तारि मंगलं, अरहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलिपण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा - अरहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि - अरहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि। अड्ढाइज्ज-दीव-दो समुद्देसु पण्णारस-कम्म-भूमिसु, जाव-अरहंताणं, भयवंताणं आदियराणं, तित्थयराणं, जिणाणं, जिणोत्तमाणं, केवलियाणं, सिद्धाणं, बुद्धाणं, परिणिव्वुदाणं, अंतयडाणं पार-गयाणं, धम्माइरियाणं, धम्मदेसयाणं, धम्मणायगाणं, धम्म-वर-चाउरंग-चक्क-वट्टीणं, देवाहि-देवाणं, णाणाणं दंसणाणं, चरित्ताणं सदा करेमि किरियम्मं। करेमि भंते! सामाइयं सव्वं सावज्ज-जोगं पच्चक्खामि जावज्जीवं तिविहेण मणसा वचसा काएण, ण करेमि ण कारेमि, ण अण्णं करंतं पि समणुमणामि तस्स भंते! अइचारं पडिक्कमामि, णिंदामि, गरहामि अप्पाणं,जाव अरहंंताणं भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि तावकालं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें।) चतुर्विंशतिस्तव: थोस्सामि हं जिणवरे, तित्थयरे केवली अणंतजिणे। णरपवरलोयमहिए, विहुय-रयमले महप्पण्णे॥ १॥ लोयस्सुज्जोय-यरे, धम्मं तित्थंकरे जिणे वंदे। अरहंते कित्तिस्से, चउवीसं चेव केवलिणो॥ २॥ उसहमजियं च वंदे, संभव-मभिणंदणं च सुमइं च। पउमप्पहं सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे॥ ३॥ सुविहिं च पुप्फयंतं, सीयल सेयं च वासुपुज्जं च। विमल-मणंतं भयवं, धम्मं संतिं च वंदामि॥ ४॥ कुंथुं च जिणवरिंदं, अरं च मल्लिं च सुव्वयं च णमिं। वंदामि रिट्ठ-णेमिं, तह पासं वड्ढमाणं च॥ ५॥ एवं मए अभित्थुआ, विहुयरयमलापहीण-जरमरणा। चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु॥ ६॥ कित्तिय वंदिय महिया, एदे लोगोत्तमा जिणा सिद्धा। आरोग्ग-णाण-लाहं, दिंतु समाहिं च मे बोहिं॥ ७॥ चंदेहिं णिम्मल-यरा, आइच्चेहिं अहिय-पयासंता। सायरमिव गंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु॥ ८॥ श्रीमते वर्धमानाय, नमो नमित-विद्विषे। यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते॥ १॥ सिद्धभक्ति: तव-सिद्धे णय-सिद्धे, संजम-सिद्धे चरित्त-सिद्धे य। णाणम्मि दंसणम्मि य, सिद्धे सिरसा णमंसामि॥ २॥ इच्छामि भंते! सिद्धभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्तजुत्ताणं, अट्ठविहकम्म -विप्पमुक्काणं, अट्ठगुण-संपण्णाणं, उड्ढ-लोए-मत्थयम्मि पइट्ठियाणं, तवसिद्धाणं, णयसिद्धाणं, संजमसिद्धाणं, चरित्तसिद्धाणं, अदीदाणागद-वट्टमाण-कालत्तय-सिद्धाणं, सव्वसिद्धाणं णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। आलोचना इच्छामि भंते! देवसिओ (राइयो) आलोचेउं तत्थ - पंचुंबर सहियाइं, सत्तवि वसणाइं जो विवज्जेइ। सम्मत्तविसुद्धमई, सो दंसणसावओ भणिओ॥ १॥ पंच य अणुव्वयाइं, गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि। सिक्खावयाइं चत्तारि, जाण विदियम्मि ठाणम्मि॥ २॥ जिणवयण-धम्मचेइय,-परमेट्ठि-जिणालयाण णिच्चंपि। जं वंदणं तिआलं, कीरइ सामाइयं तं खु॥३॥ उत्तम-मज्झ-जहण्णं, तिविहं पोसहविहाणमुद्दिं। सगसत्तीए मासम्मि, चउसु पव्वेसु कायव्वं॥ ४॥ जं वज्जिजदि हरिदं, तय-पत्त-पवाल-कंदफल-वीयं। अप्पासुगं च सलिलं, सचित्तणिव्वत्तिमं ठाणं॥ ५॥ मण-वयण-काय-कद-, कारिदाणुमोदेहिं मेहुणं णवधा। दिवसम्मि जो विवज्जदि, गुणम्मि जो सावओ छट्ठो॥ ६॥ पुव्वुत्तणव-विहाणं पि, मेहुणं सव्वदा विवज्जंतो। इत्थिकहादि-णिवित्ती, सत्तमगुणबंभचारी सो॥ ७॥ जं किं पि गिहारंभं, बहुथोवं वा सया विवज्जेदि। आरंभणिवित्तमदी, सो अट्ठम सावओ भणिओ॥ ८॥ मोत्तूण वत्थमित्तं, परिग्गहं जो विवज्जदे सेसं। तत्थवि मुच्छं ण करेदि, वियाण सो सावओ णवमो॥ ९॥ पुट्ठो वापुट्ठो वा, णियगेहिं परेहिं सग्गिह-कज्जे। अणुमणणं जो ण कुणदि,वियाण सो सावओ-दसमो॥ १०॥ णवकोडीसु विसुद्धं, भिक्खायरणेण भुंजदे भुंजं। जायणरहियं जोग्गं, एयारस-सावओ सो दु॥ ११॥ एयारसम्मि ठाणे, उक्किो सावओ हवई दुविहो। वत्थेय-धरो पढमो, कोवीण-परिग्गहो विदिओ॥ १२॥ तव-वय-णियमावासय-, लोचं कारेदि पिच्छ गिण्हेदि। अणुवेहा-धम्मझाणं, करपत्ते एय-ठाणम्मि॥ १३॥ इत्थ मे जो कोई देवसिओ (राइयो) अइचारो अणाचारो तस्स भंते ! पडिक्कमामि पडिक्कमं तस्स मे सम्मत्तमरणं, समाहिमरणं, पंडियमरणं, वीरियमरणं, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं, जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं। दंसण-वय-सामाइय-,पोसह-सचित्त-रायभत्तेय। बंभारंभ-परिग्गह-, अणुमणमुद्दिट्ठदेसविरदेदे॥ १॥ एयासु जधा-कहिद-पडिमासु पमादाइ-कयाइचार-सोहणं छेदोवट्ठावणं होउ मज्झं। प्रतिक्रमणभक्ति: श्रीपडिक्कमणभत्ति-काउस्सग्गं करेमि- णमो अरहंताणमित्यादि-थोस्सामीत्यादि। णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं। णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं॥ ३॥ णमो जिणाणं 3, णमो णिस्सिहीए 3, णमोत्थु दे 3, अरहंत! सिद्ध ! बुद्ध ! णीरय ! णिम्मल! सममण ! सुभमण ! सुसमत्थ ! समजोग ! समभाव! सल्लघट्टाणं! सल्लघत्ताणं! णिब्भय! णीराय ! णिद्दोस! णिम्मोह! णिम्मम! णिस्संग! णिस्सल्ल! माणमायमोसमूरण, तवप्पहावण, गुणरयण, सीलसायर, अणंत, अप्पमेय, महदि-महावीर-वड्ढमाण, बुद्धिरिसिणो चेदि णमोत्थु दे णमोत्थु दे णमोत्थु दे। मम मंगलं अरहंता य, सिद्धा य, बुद्धा य, जिणा य, केवलिणो, ओहिणाणिणो, मणपज्जय-णाणिणो, चउदस-पुव्वंगामिणो, सुदसमिदि-समिद्धा य, तवो य, वारसविहो तवसी, गुणाय, गुणवंतो य, महरिसी तित्थं तित्थकरा य, पवयणं पवयणी य, णाणं णाणी य, दंसणं दंसणी य, संजमो संजदा य, विणओ विणीदा य, बंभचेरवासो, बंभचारी य, गुत्तीओ, चेव गुत्तिमंतो य, मुत्तिओ चेव मुत्तिमंतो य, समिदीओ, चेव समिदि मंतो य, सुसमय-परसमय-विदु, खंति खंतिवंतो य, खवगा य, खीणमोहा य खीणवंतोय, बोहिय बुद्धाय, बुद्धिमंतो य, चेइयरुक्खाय चेइयाणि। उड्ढ-मह-तिरियलोए, सिद्धायदणाणि णमंसामि, सिद्धि-णिसीहियाओ, अट्ठावय-पव्वये, सम्मेदे, उज्जंते, चंपाए, पावाए, मज्झिमाए, हत्थिवालियसहाए, जाओ अण्णाओ काओवि णिसीहियाओ जीवलोयम्मि ईसिपब्भार-तलगयाणं सिद्धाणं बुद्धाणं कम्मचक्क-मुक्काणं णीरयाणं णिम्मलाणं गुरु-आइरिय-उवज्झायाणं पव्वतित्थेर-कुलयराणं चउवण्णो य समण-संघो य, दससु भरहेरावएसु पंचसु महाविदेहेसु जो लोए संति साहवो संजदा तवसी एदे मम मंगलं पवित्तं एदेहं मंगलं करेमि भावदो विसुद्धो सिरसा अहिवंदिऊण सिद्धे-काऊण अंजलिं मत्थयम्मि तिविहं तिरयणसुद्धो। पडिक्कमामि भंते! दंसणपडिमाए, संकाए, कंखाए, विदिगिंच्छाए, परपासंडाण, पसंसणाए, पसंथुए, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो, मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ १॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए पढमे थूलयडे हिंसा-विरदिवदे-वहेण वा, बंधेण वा, छेएण वा, अइभारारोहणेण वा, अण्णपाणणिरोहणेण वा, जो मए देवसिओ (राइयो) अइचारो, मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-१॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए विदिए थूलयडे असच्चविरदिवदे- मिच्छोवदेसेण वा, रहोअब्भक्खाणेण वा,कूडलेहणकरणेण वा, णासापहारेण वा सायारमंतभेएण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो, मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-२॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए तिदिये थूलयडे थेणविरदिवदे थेणपओगेण वा थेण-हरियादाणेण वा, विरुद्धरज्जा-इक्कमणेण वा, हीणाहियमाणुम्माणेण वा, पडिरूवय ववहारेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो, मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा, समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-३॥ पडिक्कमामि भंते! वद पडिमाए चउत्थे थूलयडे अबंभविरदि-वदे - परविवाहकरणेण वा, इत्तरियागमणेण वा, परिग्गहिदा-परिग्गहिदा-गमणेण वा, अणंगकीडणेण वा, कामतिव्वाभि-णिवेसेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-४॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए पंचमे थूलयडे परिग्गहपरि-माणवदे-खेत्तवत्थूणं परिमाणाइक्कमणेण वा, हरिण्ण-सुवण्णाणं परिमाणाइक्कमणेण वा धणधण्णाणं परिमाणा-इक्कमणेण वा, दासीदासाणं परिमाणाइक्कमणेण वा, कुप्पभांडपरिमाणाइक्कमणेण वा, जो मए देवसिओ (राइयो) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-५॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए पढमे गुणव्वदे- उड्ढवइ-क्कमणेण वा, अहोवइक्कमणेण वा, तिरियवइक्कमणेण वा, खेत्तवद्धिएण वा, अंतरा-धाणेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-६-१॥ पडिक्कमामि भंते! वद पडिमाए विदिए गुणव्वदे:-आणयणेण वा, विणिजोगेण वा, सद्दाणुवाएण वा, रूवाणु-वाएण वा, पुग्गलखेवेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥ २-७-२॥ पडिक्कमामि भंते ! वदपडिमाए तिदिए गुणव्वदे:-कंदप्पेण वा, कुकुवेएण वा, मोक्खरिएण वा, असमक्खियाहिकरणेण वा, भोगोपभोगाणत्थकेण वा जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-८-३॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए पढमे सिक्खावदे - फासिंदिय-भोगपरिमाणाइक्कमणेण वा, रसणिंदिय भोगपरि-माणा इक्कमणेण वा, घाणिंदिय भोगपरिमाणा इक्कमणेण वा, चक्ंिखदिय-भोगपरिमाणाइक्कमणेण वा, सवणिंदिय भोग परिमाणाइक्कमणेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-९-१॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए विदियसिक्खावदे फासिंदिय-परिभोगपरिमाणाइक्कमणेण वा, रसणिंदिय परि-भोगपरिमाणा इक्कमणेण वा, घाणिंदियपरिभोग परिमाणा इक्कमणेण वा, चक्खिंदिय परिभोग परिमाणा इक्कमणेण वा, सवणिंदिय परिभोग परिमाण इक्कमणेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणु मण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥ २-१०-२॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए तिदिए सिक्खावदे -सचित्त-णिक्खेवेण वा, सचित्त-पिहाणेण वा, पर-उवएसेण वा, काला-इक्कमणेण वा, मच्छरिएण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-११-३॥ पडिक्कमामि भंते! वदपडिमाए चउत्थे सिक्खावदे जीविदा संसणेण वा, मरणा-संसणेण वा, मित्ताणु-राएण वा, सुहाणुबंधेण वा, णिदाणेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ २-१२-४॥ पडिक्कमामि भंते! सामाइयपडिमाए मणदुप्पणि धाणेण वा, वायदुप्पणिधाणेण वा, कायदुप्पणिधाणेण वा, अणादरेण वा, सदि-अणुवावणेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ३॥ पडिक्कमामि भंते! पोसहपडिमाए अप्पडि-वेक्खिया-पमज्जियोसग्गेण वा, अप्पडिवेक्खियाप मज्जियादाणेण वा, अप्पडिवेक्खियापमज्जिया संथारोवक्कमणेण वा, आवस्सया-णादरेण वा, सदिअणुवावणेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ४॥ पडिक्कमामि भंते! सचित्तविरदिपडिमाए पुढविकाइआ जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, आउकाइआ जीवा असंखेज्जा संखेज्जा, तेउकाइआ जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वाउकाइआ जीवा असंखेज्जासंखेज्जा, वणप्फदिकाइआ जीवा अणंता-णंता, हरिया, बीया, अंकुरा, छिण्णा भिण्णा, एदेसिं उद्दावणं, परिदावणं, विराहणं, उवघादो, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥ ५॥ पडिक्कमामि भंते ! राइभत्तपडिमाए - णवविहबंभ-चरियस्स दिवा जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो, मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ६॥ पडिक्कमामि भंते! बंभपडिमाए - इत्थिकहायत्तणेण वा, इत्थिमणोहरांगणिरक्खणेण वा, पुव्वरयाणुस्सरणेण वा, कामकोवण-रसासेवणेण वा, सरीरमंडणेण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ७॥ पडिक्कमामि भंते! आरंभविरदि-पडिमाए - कसाय-वसंगएण वा, जो मए देवसिओ (राइओ) आरम्भो, मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ८॥ पडिक्कमामि भंते! परिग्गहविरदि-पडिमाए - वत्थमेत्त-परिग्गहादो अवरम्मि परिग्गहे मुच्छापरिणामे जो मए देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥ ९॥ पडिक्कमामि भंते ! अणुमणविरदिपडिमाए जं किं पि अणुमणणं पुट्ठापुेण कदं वा, कारिदं वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ १०॥ पडिक्कमामि भंते! उद्दि-विरदिपडिमाए उद्दिदोस-बहुलं अहोरदियं आहारयं वा आहारावियं वा आहारिज्जंतं वा समणुमण्णिदो, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं ॥ ११॥ निग्र्रन्थ पद की वांछा इच्छामि भंते! इमं णिग्गंथं पवयणं अणुत्तरं केवलियं, पडिपुण्णं, णेगाइयं, सामाइयं, संसुद्धं, सल्लघट्टाणं, सल्लघत्ताणं, सिद्धिमग्गं, सेढिमग्गं, खंतिमग्गं, मुत्तिमग्गं, पमुत्तिमग्गं, मोक्खमग्गं, पमोक्खमग्गं, णिज्जाणमग्गं, णिव्वाणमग्गं, सव्वदु:खपरिहाणिमग्गं, सुचरियपरि-णिव्वाणमग्गं, अवितहं, अविसंति-पवयणं, उत्तमं तं सद्दहामि, तं पत्तियामि, तं रोचेमि, तं फासेमि, इदोत्तरं अण्णं णत्थि, ण भूदं, ण भविस्सदि, णाणेण वा, दंसणेण वा, चरित्तेण वा, सुत्तेण वा, इदो जीवा सिज्झंति, बुज्झंति, मुच्चंति, परिणिव्वाण-यंति, सव्व-दुक्खाण-मंतं करेंति, पडि-वियाणंति, समणोमि संजदोमि, उवरदोमि, उवसंतोमि, उवधि-णियडि-माण-माया-मोसमूरण-मिच्छाणाण-मिच्छादंसण-मिच्छाचरित्तं च पडिविरदोमि, सम्मणाण-सम्मदंसण-सम्मचरित्तं च रोचेमि, जं जिणवरेहिं पण्णत्तो, इत्थ मे जो कोई देवसिओ (राइओ) अइचारो अणाचारो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं। इच्छामि भंते ! वीर-भत्ति-काउस्सग्गं करेमि जो मए देवसिओ (राइयो) अइचारो, अणाचारो, आभोगो, अणाभोगो, काइओ, वाइओ, माणसिओ, दुच्चरिओ, दुच्चारिओ, दुब्भासिओ, दुप्परिणामिओ, णाणे, दंसणे, चरित्ते, सुत्ते, सामाइए, एयारसण्हं-पडिमाणं विराहणाए, अविहस्स कम्मस्स- णिग्घादणाए, अण्णहा उस्सासिदेण वा, णिस्सासिदेण वा, उम्मिस्सिदेण वा, णिम्मिस्सिदेण वा, खासिदेण वा, छिंकिदेण वा, जंभाइदेण वा, सुहुमेहिंअंग-चलाचलेहिं, दिि-चलाचलेहिं, एदेहिं सव्वेहिं, असमाहिं-पत्तेहिं, आयारेहिं, जाव अरहंताणं, भयवंताणं, पज्जुवासं करेमि, तावकायं पावकम्मं दुच्चरियं वोस्सरामि। दंसण-वय-सामाइय-, पोसहसचित्तराइभत्ते य। बंभारंभपरिग्गह-, अणुमण-मुद्दिट्ठदेसविरदे दे॥ १॥ एयासु जधा कहिद पडिमासु पमादाइ कयाइचार सोहणं छेदोवावणं होदु मज्झं। अरहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-सव्वसाहु-सक्खियं, सम्मत्त-पुव्वगं, सुव्वदं दिढव्वदं समारोहियं मे भवदु, मे भवदु, मे भवदु। अथ देवसिओ (राइओ) पडिक्कमणाए सव्वाइचार विसोहिणिमित्तं, पुव्वाइरियकमेण निष्ठितकरणवीरभक्तिं कायोत्सर्गं करोम्यहम्। (दिन सम्बन्धी प्रतिक्रमण हो तो छत्तीस बार णमोकार मंत्र का तथा रात्रि सम्बन्धी हो तो अठारह बार जाप करें।) य: सर्वाणि चराचराणि विधिवद्, द्रव्याणि तेषां गुणान्, पर्यायानपि भूत-भावि-भवत:, सर्वान् सदा सर्वदा। जानीते युगपत् प्रतिक्षण-मत:, सर्वज्ञ इत्युच्यते, सर्वज्ञाय जिनेश्वराय महते, वीराय तस्मै नम:॥ १॥ वीर: सर्व-सुराऽसुरेन्द्र-महितो, वीरं बुधा: संश्रिता, वीरेणाभिहत: स्व-कर्म-निचयो, वीराय भक्त्या नम:। वीरात् तीर्थ-मिदं-प्रवृत्त मतुलं, वीरस्य घोरं तपो, वीरे श्रीद्युतिकान्तिकीर्तिधृतयो, हे वीर! भद्रं त्वयि ॥ २॥ ये वीरपादौ प्रणमन्ति नित्यं, ध्यानस्थिता: संयम-योग-युक्ता:। ते वीतशोका हि भवन्ति लोके, संसारदुर्गं विषमं तरन्ति॥ ३॥ व्रत-समुदय-मूल: संयम-स्कन्ध-बन्धो, यम नियमपयोभिर्वर्धित: शील-शाख:। समिति-कलिक-भारो गुप्ति-गुप्त-प्रवालो, गुण-कुसुमसुगन्धि: सत्-तपश्चित्र-पत्र:॥ ४॥ शिव-सुख-फलदायी यो दया-छाययौघ:, शुभजन-पथिकानां खेदनोदे समर्थ:। दुरित-रविज- तापं प्रापयन्नन्त-भावं, स भव-विभव-हान्यै नोऽस्तु चारित्र-वृक्ष:॥ ५॥ चारित्रं सर्व-जिनैश्, चरितं प्रोक्तं च सर्व-शिष्येभ्य:। प्रणमामि पञ्च-भेदं, पञ्चम-चारित्र-लाभाय ॥ ६॥ धर्म: सर्व-सुखाकरो हितकरो, धर्मं बुधाश्चिन्वते, धर्मेणैव समाप्यते शिव-सुखं, धर्माय तस्मै नम:। धर्मान्नास्त्यपर: सुहृद्भव-भृतां, धर्मस्य मूलं दया, धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं, हे धर्म, मां पालय॥ ७॥ धम्मो मंगल-मुक्किं अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तस्स पणमंति जस्स धम्मे सया मणो॥ ८॥ इच्छामि भंते! पडिक्कमणाइचारमालोचेउं तत्थ देसासिआ, असणासिआ ठाणासिआ कालासिआ मुद्दासिआ, काउ-सग्गासिआ पणमासिआ आवत्तासिआ पडिक्कमणाए तत्थसु आवासएसु परिहीणदा जो मए अच्चासणा मणसा, वचसा, काएण, कदो वा, कारिदो वा, कीरंतो वा समणुमण्णिदो तस्स मिच्छा मे दुक्कडं॥ ९॥ दंसण-वयसामाइय-,पोसह-सचित्त- राइभत्ते य । बंभारंभपरिग्गह-, अणुमणमुद्दि- देसविरदे य ॥ १॥ एयासु जधा कहिद-पडिमासु पमादाइ-कयाइचार-सोहणं छेदोवावणं होउ मज्झं। अरहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-सव्वसाहुसक्खियं, सम्मत्तपुव्वगं, सुव्वदं दिढव्वदं समारोहियं मे भवदु, मे भवदु, मे भवदु। अथ देवसिओ (राइओ) पडिक्कमणाए सव्वाइचार- विसोहिणिमित्तं, पुव्वाइरिय-कमेण चउवीसतित्थयरभत्ति- कायोत्सर्गं करोमि। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें।) चउवीसं तित्थयरे उसहाइ-वीर-पच्छिमे वंदे। सव्वेसिं गुण-गण-हरे सिद्धे सिरसा णमंसामि॥ १॥ ये लोकेऽष्ट- सहस्र-, लक्षणधरा, ज्ञेयार्णवान्तर्गता, ये सम्यग्भवजाल-हेतुमथनाश्चन्द्रार्कतेजोऽधिका:॥ २॥ ये साध्विन्द्रसुराप्सरो-गण-शतै, र्गीत-प्रणुत्यार्चितास्, तान्देवान्वृषभादिवीर-चरमान्भक्त्या नमस्याम्यहम्॥ ३॥ नाभेयं देवपूज्यं, जिनवरमजितं, सर्वलोक- प्रदीपं, सर्वज्ञं सम्भवाख्यं, मुनि-गण- वृषभं, नन्दनं देव-देवं । कर्मारिघ्नं सुबुद्धिं, वरकमल-निभं, पद्मपुष्पाभिगन्धं, क्षान्तं दान्तं सुपाश्र्वं, सकलशशिनिभं, चंद्रनामानमीडे॥ ४॥ विख्यातं पुष्पदन्तं, भवभय-मथनं शीतलं, लोक-नाथं, श्रेयांसं शील-कोशं, प्रवर-नर-गुरुं, वासुपूज्यं सुपूज्यं। मुक्तं दान्तेन्द्रियाश्वं, विमलमृषिपतिं सिंहसैन्यं, मुनीन्द्रं, धर्मं सद्धर्मकेतुं, शमदमनिलयं, स्तौमि शान्तिं, शरण्यम् ॥ कुन्थुं सिद्धालयस्थं, श्रमणपतिमरं, त्यक्तभोगेषु चक्रं, मल्लिं विख्यातगोत्रं, खचरगणनुतं, सुव्रतं सौख्यराशिं। देवेन्द्राच्र्यं नमीशं, हरिकुल-तिलकं, नेमिचन्द्रं भवान्तं, पाश्र्वं नागेन्द्रवन्द्यं, शरणमहमितो, वर्धमानं च भक्त्या॥ ६॥ इच्छामि भंते! चउवीस- तित्थयर-भत्ति- काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं, पंच-महाकल्लाण-संपण्णाणं, अट्ठ-महा-पाडिहेर-सहियाणं, चउतीसाऽतिसयविसेस-संजुत्ताणं, बत्तीस-देवेंद-मणिमय-मउड- मत्थय-महिदाणं, बलदेव-वासुदेव-चक्कहर-रिसि-मुणि-जइ-अणगारोवगूढाणं, थुइसयसहस्स-णिलयाणं, उसहाइ- वीर-पच्छिम- मंगल- महा-पुरिसाणं, णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाहो सुगइगमणं, समाहि-मरणं, जिण-गुणसंपत्ति होउ मज्झं। दंसण-वय-सामाइय-, पोसह-सचित्तराइभत्ते य। बंभारंभ-परिग्गह-, अणुमणमुद्दि देस- विरदे दे॥ एयासु जधा कहिद-पडिमासु पमादाइकदादिचार-सोहणं छेदोवावणं होदु मज्झं। अरहंत-सिद्ध-आयरिय-उवज्झाय-सव्वसाहु-सक्खियं सम्मत्तपुव्वगं सुव्वदं दिढव्वदं समारोहियं मे भवदु, मे भवदु, मे भवदु। अथ देवसिओ (राइओ) पडिक्कमणाए सव्वाइचार-विसोहि-णिमित्तं पुव्वाइरियकमेण आलोयण श्रीसिद्ध भक्ति-पडि-क्कमणभक्ति-णििदकरण वीरभक्ति-चउवीस-तित्थयर-भक्ति कृत्वा तद्धीनाधिक-त्वादिदोष-परिहारार्थं सकल-दोष-निराकरणार्थं सर्वमलातिचार-विशुद्ध्यर्थं आत्मपवित्री-करणार्थं समाधिभत्तिं काउस्सग्गं करेमि। (नौ बार णमोकार मंत्र का जाप करें।) अथेष्ट-प्रार्थना प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:। शास्त्राभ्यासो जिन-पति-नुति:, सङ्गति: सर्वदार्यै:, सद्वृत्तानां गुण- गण-कथा, दोष-वादे च मौनम्। सर्वस्यापि प्रिय-हित-वचो, भावना चात्म-तत्त्वे, सम्पद्यन्तां मम भव-भवे, यावदेतेऽपवर्ग:॥ १॥ तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव पदद्वये लीनम्। तिष्ठतु जिनेन्द्र! तावद् यावन् निर्वाण-सम्प्राप्ति:॥ २॥ अक्खर-पयत्थ-हीणं, मत्ताहीणं च जं मए भणियं। तं खमउ णाणदेव! य, मज्झवि दुक्खक्खयं दिंतु॥ ३॥ इच्छामि भंते! समाहिभत्ति-काउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, रयणत्तय-सरूव-परमप्पज्झाण-लक्खण-समाहिभत्तीए णिच्चकालं अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं।
  23. न स्नेहाच्छरणं प्रयान्ति भगवन्! पादद्वयं ते प्रजा, हेतुस्तत्र विचित्र-दु:ख-निचय:, संसार घोरार्णव:। अत्यन्त-स्फुरदुग्र - रश्मि -निकर,-व्याकीर्ण-भूमण्डलो, ग्रैष्म: कारयतीन्दु-पाद-सलिलच्-,छायानुरागं रवि:॥ १॥ क्रुद्धाशीर्विष-दष्ट-दुर्जय-विष,-ज्वालावली विक्रमो, विद्या-भेषज-मन्त्र-तोय-हवनै-, र्याति प्रशान्तिं यथा। तद्वत्ते चरणारुणाम्बुज-युगस्, - तोत्रोन्मुखानां नॄणां, विघ्ना: काय विनायकाश्च सहसा, शाम्यन्त्यहो विस्मय:॥ २॥ सन्तप्तोत्तम - काञ्चन - क्षितिधर, श्रीस्पद्र्धि-गौरद्युते, पुंसां त्वच्चरणप्रणाम करणात् पीडा: प्रयान्ति क्षयम्। उद्यद्भास्करविस्फुरत्कर-शत-, व्याघात-निष्कासिता, नाना देहि विलोचन-द्युतिहरा, शीघ्रं यथा शर्वरी॥ ३॥ त्रैलोक्येश्वर-भङ्ग-लब्ध-विजया, दत्यन्त रौद्रात्मकान्, नाना जन्म-शतान्तरेषु पुरतो, जीवस्य संसारिण:। को वा प्रस्खलतीह केन विधिना, कालोग्र-दावानलान्, न स्याच्चेत्तव पाद-पद्म-युगल-स्तुत्यापगा-वारणम्॥ ४॥ लोकालोक-निरन्तर-प्रवितत-, ज्ञानैक-मूत्र्ते विभो! नाना - रत्न - पिनद्ध - दण्ड-रुचिर-श्वेतात-पत्रत्रय। त्वत्पाद-द्वय-पूत-गीत-रवत:, शीघ्रं द्रवन्त्यामया, दर्पाध्मात्-मृगेन्द्रभीम निनदाद्, वन्या यथा कुञ्जरा:॥ ५॥ दिव्य-स्त्री नयनाभिराम-विपुल, श्रीमेरु-चूडामणे, भास्वद् बाल दिवाकर-द्युति-हर-, प्राणीष्ट-भाण्डल। अव्याबाध-मचिन्त्य-सार-मतुलं, त्यक्तोपमं शाश्वतं। सौख्यं त्वच्चरणारविन्द-युगल-, स्तुत्यैव सम्प्राप्यते॥ ६॥ यावन्नोदयते प्रभा परिकर: श्रीभास्करो भासयंस्, तावद् धारयतीह पङ्कज-वनं, निद्रातिभार-श्रमम्। यावत्त्वच्चरणद्वयस्य भगवन्!, न स्यात् प्रसादोदयस् - तावज्जीव-निकाय एष वहति प्रायेण पापं महत्॥ ७॥ शान्तिं शान्तिजिनेन्द्र-शान्तमनसस् त्वत्पाद-पद्माश्रयात्, संप्राप्ता: पृथिवी-तलेषु बहव: शान्त्यर्थिन: प्राणिन:। कारुण्यान् मम भाक्तिकस्य च विभो! दृष्टिं प्रसन्नां कुरु , त्वत्पादद्वय-दैवतस्य गदत: शान्त्यष्टकं भक्तित:॥ ८॥ शान्तिजिनं शशि-निर्मल-वक्त्रं,शीलगुण-व्रतसंयमपात्रम्। अष्टशतार्चित लक्षणगात्रं, नौमि जिनोत्तममम्बुज नेत्रम्॥ ९॥ पञ्चममीप्सित-चक्रधराणां, पूजितमिन्द्र-नरेन्द्रगणैश्च। शान्तिकरं गणशान्तिमभीप्सु: षोडशतीर्थकरं प्रणमामि॥ १०॥ दिव्यतरु : सुर-पुष्प-सुवृष्टि, - र्दुन्दुभिरासन-योजन-घोषौ। आतपवारणचामरयुग्मे,यस्य विभाति च मण्डलतेज:॥ ११॥ तं जगदर्चित-शान्ति-जिनेन्द्रं, शान्तिकरं शिरसा प्रणमामि। सर्वगणाय तु यच्छतु शान्तिं, मह्यमरं पठते परमां च॥ १२॥ येऽभ्यर्चिता मुकुट-कुण्डल-हार-रत्नै:, शक्रादिभि: सुरगणै: स्तुत-पादपद्मा:। ते मे जिना: प्रवर-वंश-जगत्प्रदीपास्, तीर्थङ्करा: सतत शान्तिकरा भवन्तु॥१३॥ सम्पूजकानां प्रतिपालकानां यतीन्द्र-सामान्य-तपोधनानाम्। देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ: करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र:॥१४॥ क्षेमं सर्वप्रजानां, प्रभवतु बलवान्, धार्मिको भूमिपाल:, काले काले च सम्यग्, वितरतु मघवा, व्याध्यो यान्तु नाशम्। दुर्भिक्षं चोरिमारि:, क्षणमपि जगतां, मास्मभूज्जीव-लोके, जैनेन्दंर धर्मचक्रं, प्रभवतु सततं, सर्व-सौख्य-प्रदायि॥ १५॥ तद् द्रव्य मव्ययमुदेतु शुभ:स देश:, संतन्यतां प्रतपतां सततं सकाल:। भाव: स नन्दतु सदा यद्नुग्रहेण, रत्नत्रयं प्रतपतीह मुमुक्षुवर्गे॥ १६॥ प्रध्वस्त घाति कर्माण:, केवल-ज्ञानभास्करा: । कुर्वन्तु जगतां शान्तिं वृषभाद्या जिनेश्वरा:॥ १७॥ अंचलिका इच्छामि भंते! संतिभत्ति-काउस्सग्गो कओ, तस्सालोचेउं, पञ्च-महा-कल्लाण-संपण्णाणं अट्ठ-महापाडिहेर-सहियाणंचउतीसातिसय-विसेस-संजुत्ताणं, बत्तीस-देवेंद-मणिमय-मउड-मत्थय-महियाणं बलदेव-वासुदेव चक्कहर-रिसि-मुणि-जदि-अणगारोवगूढाणं, थुइ-सय-सहस्स-णिलयाणं,उसहाइ-वीर-पच्छिम-मंगल-महापुरिसाणं णिच्चकालं,अंचेमि, पूजेमि, वंदामि, णमंसामि, दुक्खक्खओ, कम्मक्खओ, बोहिलाओ, सुगइगमणं, समाहिमरणं, जिणगुण-संपत्ति होउ मज्झं।
  24. नहीं स्नेह वश तव पद शरणा गहते भविजन पामर हैं। यहाँ हेतु है बहु दु:खों से भरा हुआ भवसागर है। धरा उठी जल ज्येष्ठ काल है भानु उगलता आग कहीं। करा रहा क्या छाँव शशी के जल के प्रति अनुराग नहीं?॥ १॥ कुपित कृष्ण अहि जिसको डंसता फैला हो वह विष तन में। विद्या औषध हवन मन्त्र जल से मिट सकता है क्षण में। उसी भांति जिन तुम पद-कमलों की थुति में जो उद्यत है। पाप शमन हो रोग नष्ट हो चेतन तन के संगत है॥ २॥ कनक मेरु आभा वाले या तप्त कनक की छवि वाले। हे जिन ! तुम पद नमते मिटते दुस्सह दुख हैं शनि वाले। उचित रहा रवि उषाकाल में उदार उर ले उगता है। बहुत जनों के नेत्रज्योति-हर सघन तिमिर भी भगता है॥ ३॥ सब पर विजयी बना तना है नाक-मरोड़ा दम तोड़ा। देवों देवेन्द्रों को मारा नरपति को भी ना छोड़ा। दावा बन कर काल घिरा है उग्र रूप को धार घना। कौन बचावे? हमें कहो जिन ! तव पद थुति नद-धार बिना॥ ४॥ लोकालोकालोकित करते ज्ञानमूर्ति हो जिनवर हे ! बहुविध मणियाँ जड़ी दण्ड में तीन छत्र शित तुम सर पे। हे जिन ! तव पद-गीत धुनी सुन रोग मिटे सब तन मन के। दाढ़ उघाड़े सिंह दहाड़े गजमद गलते वन-वन के॥ ५॥ तुम्हें देवियाँ अथक देखती विभव मेरु पर तव गाथा। बाल भानु की आभा हरता मण्डल तव जन जन भाता। हे जिन ! तव पद थुति से ही सुख मिलता निश्चय अटल रहा निराबाध नित विपुल सार है अचिंत्य अनुपम अटल रहा॥ ६॥ प्रकाश करता प्रभा पुंज वह भास्कर जब तक ना उगता। सरोवरों में सरोज दल भी तब तक खिलता ना जगता। जिसके मानस सर में जब तक जिनपद पंकज ना खिलता। पाप-भार का वहन करे वह भ्रमण भवों में ना टलता॥ ७॥ प्यास शान्ति की लगी जिन्हें है तव पद का गुणगान किया। शान्तिनाथ जिन शान्त भाव से परम शान्ति का पान किया। करुणाकर ! करुणा कर मुझको प्रसन्नता में निहित करो। भक्तिमग्न है भक्त आपका दृष्टि-दोष से रहित करो॥ ८॥ शरद शशी सम शीतल जिनका नयन मनोहर आनन है। पूर्ण शील के व्रत संयम के अमित गुणों के भाजन हैं। शत वसु लक्षण से मण्डित है जिनका औदारिक तन है। नयन कमल हैं जिनवर जिनके शान्तिनाथ को वन्दन है॥९॥ चक्रधरों में आप चक्रधर पंचम हैं गुण मंडित हैं। तीर्थकरों में सोलहवें जिन सुर - नरपति से वंदित हैं। शान्तिनाथ हो विश्वशान्ति हो भांति-भांति की भ्रांति हरो। प्रणाम ये स्वीकार करो लो किसी भांति मुझ कांति भरो॥१०॥ (चौपाई छन्द) दुंदभि बजते पुष्प बरसते, आतप हरते चामर ढुरते। भामंडल की आभा भारी, सिंहासन की छटा निराली॥११॥ अशोक तरु सो शोक मिटाता,भविक जनों से ढोक दिलाता। योजन तक जिन घोष फैलता, समवसरण में तोष तैरता ॥१२॥ झुका-झुका कर मस्तक से मैं शान्तिनाथ को नमन करूँ। देव जगत भूदेव जगत से वन्दित पद में रमण करूँ। चराचरों को शान्तिनाथ वे परम शान्ति का दान करें। थुति करने वाले मुझमें भी परम तत्त्व का ज्ञान भरें॥१३॥ पहने कुण्डल मुकुट हार हैं सुर हैं सुरगण पालक हैं। जिनसे निशि दिन पूजित अर्चित जिनपद भवदधि तारक हैं। विश्व विभासक-दीपक हैं जिन विमलवंश के दर्पण हैं। तीर्थंकर हो शान्ति विधायक यही भावना अर्पण है॥१४॥ भक्तों को भक्तों के पालन - हारों को औ यक्षों को। यतियों मुनियों मुनीश्वरों को तपोधनों को दक्षों को। विदेश - देशों उपदेशों को पुरों गोपुरों नगरों को। प्रदान कर दें शान्ति जिनेश्वर विनाश कर दें विघनों को॥१५॥ क्षेम प्रजा का सदा बली हो धार्मिक हो भूपाल फले। समय-समय पर इन्द्र बरस ले व्याधि मिटे भूचाल टले। अकाल दुर्दिन चोरी आदिक कभी रोग ना हो जग में। धर्मचक्र जिनका हम सबको सुखद रहे सुर शिव मग में॥१६॥ ध्यान शुक्ल के शुद्ध अनल से घातिकर्म को ध्वस्त किया। पूर्णबोध-रवि उदित हुआ सो भविजन को आश्वस्त किया। वृषभदेव से वर्धमान तक चार - बीस तीर्थंकर हैं। परम शान्ति की वर्षा जग में यहाँ करें क्षेमंकर हैं॥१७॥ (दोहा) पूर्ण शान्ति वर भक्ति का करके कायोत्सर्ग । आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु तव संसर्ग॥१८॥ पंचमहाकल्याणक जिनके जीवन में हैं घटित हुये समवसरण में महा दिव्य वसु प्रातिहार्य से सहित हुये। नारायण से रामचन्द्र से छहखण्डों के अधिपति से। यति अनगारों ऋषि मुनियों से पूजित जो हैं गणपति से॥१९॥ वृषभदेव से महावीर तक महापुरुष मंगलकारी। लाखों स्तुतियों के भाजन हैं तीस-चार अतिशयधारी। भक्ति भाव से चाव शक्ति से निर्मल कर कर निज मन को। वन्दूँ पूजूँ अर्चन करलूँ नमन करूँ मैं जिनगण को॥२०॥ कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो। वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ !॥२१॥
  25. प्रेम भाव हो सब जीवों से, गुणीजनों में हर्ष प्रभो। करुणा स्रोत बहे दुखियों पर,दुर्जन में मध्यस्थ विभो॥ 1॥ यह अनन्त बल शील आत्मा, हो शरीर से भिन्न प्रभो। ज्यों होती तलवार म्यान से, वह अनन्त बल दो मुझको॥ 2॥ सुख दुख बैरी बन्धु वर्ग में, काँच कनक में समता हो। वन उपवन प्रासाद कुटी में नहीं खेद, नहिं ममता हो॥ 3॥ जिस सुन्दर तम पथ पर चलकर, जीते मोह मान मन्मथ। वह सुन्दर पथ ही प्रभु मेरा, बना रहे अनुशीलन पथ॥ 4॥ एकेन्द्रिय आदिक जीवों की यदि मैंने हिंसा की हो। शुद्ध हृदय से कहता हूँ वह,निष्फल हो दुष्कृत्य विभो॥ 5॥ मोक्षमार्ग प्रतिकूल प्रवर्तन जो कुछ किया कषायों से। विपथ गमन सब कालुष मेरे, मिट जावें सद्भावों से॥ 6॥ चतुर वैद्य विष विक्षत करता, त्यों प्रभु मैं भी आदि उपान्त। अपनी निन्दा आलोचन से करता हूँ पापों को शान्त॥ 7॥ सत्य अहिंसादिक व्रत में भी मैंने हृदय मलीन किया। व्रत विपरीत प्रवर्तन करके शीलाचरण विलीन किया॥ 8॥ कभी वासना की सरिता का, गहन सलिल मुझ पर छाया। पी पीकर विषयों की मदिरा मुझ में पागलपन आया॥ 9॥ मैंने छली और मायावी, हो असत्य आचरण किया। परनिन्दा गाली चुगली जो मुँह पर आया वमन किया॥ 10॥ निरभिमान उज्ज्वल मानस हो, सदा सत्य का ध्यान रहे। निर्मल जल की सरिता सदृश, हिय में निर्मल ज्ञान बहे॥ 11॥ मुनि चक्री शक्री के हिय में, जिस अनन्त का ध्यान रहे। गाते वेद पुराण जिसे वह, परम देव मम हृदय रहे॥12॥ दर्शन ज्ञान स्वभावी जिसने, सब विकार हों वमन किये। परम ध्यान गोचर परमातम, परम देव मम हृदय रहे॥13॥ जो भव दुख का विध्वंसक है, विश्व विलोकी जिसका ज्ञान। योगी जन के ध्यान गम्य वह, बसे हृदय में देव महान्॥ 14॥ मुक्ति मार्ग का दिग्दर्शक है, जनम मरण से परम अतीत। निष्कलंक त्रैलोक्य दर्शी वह देव रहे मम हृदय समीप॥ 15॥ निखिल विश्व के वशीकरण वे, राग रहे न द्वेष रहे। शुद्ध अतीन्द्रिय ज्ञान स्वभावी, परम देव मम हृदय रहे॥ 16॥ देख रहा जो निखिल विश्व को कर्म कलंक विहीन विचित्र। स्वच्छ विनिर्मल निर्विकार वह देव करें मम हृदय पवित्र॥ 17॥ कर्म कलंक अछूत न जिसको कभी छू सके दिव्य प्रकाश। मोह तिमिर को भेद चला जो परम शरण मुझको वह आप्त॥ 18॥ जिसकी दिव्य ज्योति के आगे, फीका पड़ता सूर्य प्रकाश। स्वयं ज्ञानमय स्व पर प्रकाशी, परम शरण मुझको वह आप्त॥ 19॥ जिसके ज्ञान रूप दर्पण में, स्पष्ट झलकते सभी पदार्थ। आदि अन्तसे रहित शान्तशिव, परम शरण मुझको वह आप्त॥ जैसे अग्नि जलाती तरु को, तैसे नष्ट हुए स्वयमेव। भय विषाद चिन्ता नहीं जिनको, परम शरण मुझको वह देव॥ तृण, चौकी, शिल, शैलशिखर नहीं, आत्म समाधि के आसन। संस्तर, पूजा, संघ-सम्मिलन, नहीं समाधि के साधन॥ 22॥ इष्ट वियोग अनिष्ट योग में, विश्व मनाता है मातम। हेय सभी हैं विषय वासना, उपादेय निर्मल आतम॥ 23॥ बाह्य जगत कुछ भी नहीं मेरा, और न बाह्य जगत का मैं। यह निश्चय कर छोड़ बाह्य को, मुक्ति हेतु नित स्वस्थ रमें॥ अपनी निधि तो अपने में है, बाह्य वस्तु में व्यर्थ प्रयास। जग का सुख तो मृग तृष्णा है, झूठे हैं उसके पुरुषार्थ॥ 25॥ अक्षय है शाश्वत है आत्मा, निर्मल ज्ञान स्वभावी है। जो कुछ बाहर है, सब पर है, कर्माधीन विनाशी है॥ 26॥ तन से जिसका ऐक्य नहीं हो, सुत, तिय, मित्रों से कैसे। चर्म दूर होने पर तन से, रोम समूह रहे कैसे॥ 27॥ महा कष्ट पाता जो करता, पर पदार्थ, जड़-देह संयोग। मोक्षमहल का पथ है सीधा, जड़-चेतन का पूर्ण वियोग॥ 28॥ जो संसार पतन के कारण, उन विकल्प जालों को छोड़। निर्विकल्प निद्र्वन्द्व आत्मा, फिर-फिर लीन उसी में हो॥ 29॥ स्वयं किये जो कर्म शुभाशुभ, फल निश्चय ही वे देते। करे आप, फल देय अन्य तो स्वयं किये निष्फल होते॥ 30॥ अपने कर्म सिवाय जीव को, कोई न फल देता कुछ भी। पर देता है यह विचार तज स्थिर हो, छोड़ प्रमादी बुद्धि॥ 31॥ निर्मल, सत्य, शिवं सुन्दर है, अमितगति वह देव महान। शाश्वत निज में अनुभव करते, पाते निर्मल पद निर्वाण॥ 32॥ दोहा इन बत्तीस पदों से जो कोई, परमातम को ध्याते हैं। साँची सामायिक को पाकर, भवोदधि तर जाते हैं॥
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