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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. तेरी शांति छवि पे मैं तेरी शांति छवि पे मैं बलि बलि जाऊँ खुले नयन मारग आ दिल मैं बिठाऊँ ॥ लेखा ना देखा, धर्म पाप जोड़ा, बना भोग लिप्सा कि चाहों में दौड़ा, सहे दुख जो जो कहा लो सुनाऊँ ॥ तेरी शांति... ।१। तेरा ज्ञान गौरव जो गणधर ने गाया वही गीत पावन मुझे आज भाया उसी के सुरों में सुनो मैं सुनाऊँ ॥ तेरी शांति छवि.. ।२। जगी आत्म ज्योति सम्यक्त्व तत्त्व की घटी है घटा शाम मिथ्या विकल की निजानन्द सौभाग्य सेहरा सजाऊँ-२ ॥ तेरी शांति छवि. ।३।
  2. स्वामी तेरा मुखड़ा है मन तर्ज: भैया मेरे राखी... स्वामी तेरा मुखड़ा है मन को लुभाना स्वामी तेरा गौरव है मन को डुलाना देखा ना ऐसा सुहाना-२ ॥ स्वामी .. ॥ ये छवि ये तप त्याग जगत का,भाव जगाता आतम बल का हरता है नरकों का जाना-२ ॥ स्वामी.. ।१। जो पथ तूने है अपनाया, वो मन मेरे भी अति भाया पाऊँ मैं तुम पद लुभाना-२ ॥ स्वामी.. ।२। पंचम गति का मैं वर चाहूँ, जीवन का सौभाग्य दिपाऊँ गूँजे हैं अंतर तराना-२ ॥ स्वामी.. ।३।
  3. और अबै न कुदेव सुहावै, जिन थाके चरनन रति जोरी ॥ कामकोहवश गहैं अशन असि, अंक निशंक धरै तिय गोरी औरनके किम भाव सुधारैं, आप कुभाव-भारधर-धोरी ॥ तुम विनमोह अकोहछोहविन, छके शांत रस पीय कटोरी तुम तज सेय अमेय भरी जो, जानत हो विपदा सब मोरी ॥ तुम तज तिनै भजै शठ जो सो दाख न चाखत खात निमोरी हे जगतार उधार दौलको, निकट विकट भवजलधि हिलोरी ॥
  4. तेरे दर्शन से मेरा दिल तर्ज: इक परदेसी मेरा दिल... तेरे दर्शन से मेरा दिल खिल गया मुक्ति के महल का सुराज्य मिल गया आतम के सुज्ञान का सुभान हो गया भव का विनाशी तत्त्वज्ञान हो गया ॥टेर॥ तेरी सच्ची प्रीत की यही है निशानी भोगों से छूट बने आतम सुध्यानी कर्मों की जीत का सुसाज मिल गया ॥ मुक्ति के.. ।१। तेरी परतीत हरे व्याधियाँ पुरानी जामन मरण हर दे शिवरानी प्रभो सुख शान्ति सुमन आज खिल गया ॥ मुक्ति के.. ।२। ज्ञानानन्द अतुल धन राशी सिद्ध समान वरूँ अविनाशी यही सौभाग्य" शिवराज मिल गया ॥ मुक्ति के .. ।३।
  5. श्री सिद्ध चक्र का पाठ, करो दिन आठ । ठाठ से प्रानी, फल पायो मैना रानी ।। मैना सुंदरी एक नारी थी, कौड़ी पति लाख दुखियारी थी । नहीं पड़े चैन दिन रैन व्यथित अकुलानी।। फल पायो०० जो पति का कुष्ठ मिटाउंगी, तो उभयलोक सुख पाउंगी । नहीं अजा गल स्तन वत्त, निष्फल जिंदगानी । फल पायो ०० एक दिन गयी जिं मंदिर में, दर्शन कर अति हरषी उर में । फिर लाखे साधू निर्ग्रन्थ दिगंबर ज्ञानी ।। फल०० बैठी कर मुनि को नमस्कार, निज निंदा करती बार बार , भर अश्रु नयन कही मुनि सों, दुखद कहानी ।। फल ०० बोले मुनि पुत्री! धैर्य धरो, श्री सिद्धचक्र का पाठ करो । नहीं रहे कुष्ठ की तन में नाम निशानी ।। फल०० सुन साधू वचन हरषी मैना, नहीं होय झूठ मुनि की बैना । करके श्रद्धा श्री सिद्धचक्र की ठानी।। फल०० जब पर्व अढाई आया था, उत्सव युक्त पाठ कराया था । सब के तन छिड़का यन्त्र न्वहन का पानी ।। फल०० गंधोदक छिड़क वसु दिन में, नहीं रहा कुष्ठ किंचित तन में । भई सात शतक की काय स्वर्ण समानी ।। फल०० भाव भोग भोगी योगीश भये, श्रीपाल कर्म हनी मोक्ष गए । दूजे भव मैना पावें शिव रजधानी ।। फल०० जो पाठ करे मन वच तन से, वे छुट जाए भव बंधन से। मक्खन मत करो विकल्प कहे जिनवाणी । फल पायो०० श्री सिद्ध चक्र का पाठ, करो दिन आठ । ठाठ से प्रानी, फल पायो मैना रानी ।।
  6. तोरी पल पल निरखें मूरतियाँ तोरी पल पल निरखें मूरतियाँ, आतम रस भीनी यह सूरतियाँ ॥टेर॥ घोर मिथ्यात्व रत हो तुम्हें छोड़कर भोग भोगे हैं जड़ से लगन जोड़कर चारों गति में भ्रमण, कर कर जामन मरण लखि अपनी न सच्ची सूरतियाँ ।१। तेरे दर्शन से ज्योति जगी ज्ञान की पथ पकड़ी है हमने स्वकल्याण की पद तुझसा महान, लगा आतम का ध्यान पावे `सौभाग्य' पावन शिव गतियाँ ।२।
  7. मेरे कब ह्वै वा दिन की सुघरी ।।टेक ।। तन विन वसन असनविन वनमें, निवसों नासादृष्टिधरी ॥ पुण्यपाप परसौं कब विरचों, परचों निजनिधि चिरविसरी तज उपाधि सजि सहजसमाधी, सहों घाम हिम मेघझरी ।१। कब थिरजोग धरों ऐसो मोहि, उपल जान मृग खाज हरी ध्यान-कमान तान अनुभव-शर,छेदों किहि दिन मोह अरी ।२। कब तृनकंचन एक गनों अरु, मनिजडितालय शैलदरी दौलत सत गुरुचरन सेव जो, पुरवो आश यहै हमरी ।३।
  8. निरखी निरखी मनहर मूरत तर्ज: नगरी नगरी द्वारे द्वारे... निरखी निरखी मनहर मूरत तोरी हो जिनन्दा, खोई खोई आतम निधि निज पाई हो जिनन्दा ॥ ना समझी से अबलो मैंने पर को अपना मान के पर को अपना मान के माया की ममता में डोला, तुमको नहीं पिछान के तुमको नहीं पिछान के अब भूलों पर रोता यह मन, मोरा हो जिनन्दा ।१। भोग रोग का घर है मैंने, आज चराचर देखा है आज चराचर देखा है । आतम धन के आगे जग का झूँठा सारा लेखा है झूँठा सारा लेखा है अपने में घुल मिल जाऊँ, वर पावूँ जिनन्दा ।२। तू भवनाशी मैं भववासी, भव से पार उतरना है भव से पार उतरना है शुद्ध स्वरूपी होकर तुमसा, शिवरमणी को वरना है शिवरमणी को वरना है ज्ञानज्योति `सौभाग्य' जगे घट, मोरे हो जिनन्दा ।३।
  9. आज हम जिनराज आज हम जिनराज! तुम्हारे द्वारे आये हाँ जी हाँ हम, आये-आये ॥टेक॥ देखे देव जगत के सारे, एक नहीं मन भाये पुण्य-उदय से आज तिहारे, दर्शन कर सुख पाये ।१। जन्म-मरण नित करते-करते, काल अनन्त गमाये अब तो स्वामी जन्म-मरण का,दु:खड़ा सहा न जाये ।२। भवसागर में नाव हमारी, कब से गोता खाये तुमही स्वामी हाथ बढ़ाकर, तारो तो तिर जाये ।३। अनुकम्पा हो जाय आपकी, आकुलता मिट जाये पंकज की प्रभु यही वीनती, चरण-शरण मिल जाये ।४।
  10. वीर प्रभु के ये बोल वीर प्रभु के ये बोल, तेरा प्रभु! तुझ ही में डोले तुझ ही में डोले, हाँ तुझ ही में डोले मन की तू घुंडी को खोल, खोल-खोल-खोल तेरा प्रभु तुझ ही में डोले ॥टेक॥ क्यों जाता गिरनार, क्यों जाता काशी घट ही में है तेरे, घट-घट का वासी अन्तर का कोना टटोल, टोल-टोल-टोल ।१। चारों कषायों को तूने है पाला आतम प्रभु को जो करती है काला इनकी तो संगति को छोड़, छोड़-छोड़-छोड़ ।२। पर में जो ढूँढा न भगवान पाया संसार को ही है तूने बढ़ाया देखो निजातम की ओर, ओर-ओर-ओर ।३। मस्तों की दुनिया में तू मस्त हो जा आतम के रंग में ऐसा तू रँग जा आतम को आतम में घोल-घोल-घोल ।४। भगवान बनने की ताकत है तुझमें तू मान बैठा पुजारी हूँ बस मैं ऐसी तू मान्यता को छोड़, छोड़-छोड़-छोड़ ।५।
  11. समाधि-भक्ति तेरी छत्रच्छाया भगवन्! मेरे शिर पर हो। मेरा अन्तिम मरणसमाधि, तेरे दर पर हो॥ जिनवाणी रसपान करूँ मैं, जिनवर को ध्याऊँ। आर्यजनों की संगति पाऊँ, व्रत-संयम चाहू ॥ गुणीजनों के सद्गुण गाऊँ, जिनवर यह वर दो। मेरा अन्तिम मरणसमाधि, तेरे दर पर हो॥ १॥ तेरी.. ॥ परनिन्दा न मुँह से निकले, मधुर वचन बोलूँ। हृदय तराजू पर हितकारी, सम्भाषण तौलूँ॥ आत्म-तत्त्व की रहे भावना, भाव विमल भर दो। मेरा अन्तिम मरणसमाधि, तेरे दर पर हो ॥ 2॥ तेरी..॥ जिनशासन में प्रीति बढ़ाऊँ, मिथ्यापथ छोडूँ । निष्कलंक चैतन्य भावना, जिनमत से जोडूँ ॥ जन्म-जन्म में जैनधर्म, यह मिले कृपा कर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ 3॥ तेरी..॥ मरण समय गुरु, पाद-मूल हो सन्त समूह रहे। जिनालयों में जिनवाणी की, गंगा नित्य बहे॥ भव-भव में संन्यास मरण हो, नाथ हाथ धर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ 4॥ तेरी..॥ बाल्यकाल से अब तक मैंने, जो सेवा की हो। देना चाहो प्रभो! आप तो, बस इतना फल दो॥ श्वांस-श्वांस, अन्तिम श्वांसों में, णमोकार भर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ 5॥ तेरी..॥ विषय कषायों को मैं त्यागूँ, तजूँ परिग्रह को। मोक्षमार्ग पर बढ़ता जाऊँ, नाथ अनुग्रह हो॥ तन पिंजर से मुझे निकालो, सिद्धालय घर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ 6॥ तेरी..॥ भद्रबाहु सम गुरु हमारे, हमें भद्रता दो। रत्नत्रय संयम की शुचिता, हृदय सरलता दो॥ चन्द्रगुप्त सी गुरु सेवा का, पाठ हृदय भर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ 7॥ तेरी..॥ अशुभ न सो चूं, अशुभ न चाहूँ, अशुभ नहीं देखूँ। अशुभ सुनूँ ना, अशुभ कहूँ ना, अशुभ नहीं लेखूँ॥ शुभ चर्या हो, शुभ क्रिया हो, शुद्ध भाव भर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ 8॥ तेरी..॥ तेरे चरण कमल द्वय, जिनवर! रहे हृदय मेरे। मेरा हृदय रहे सदा ही, चरणों में तेरे॥ पण्डित-पण्डित मरण हो मेरा, ऐसा अवसर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ ९॥ तेरी..॥ मैंने जो जो पाप किए हों, वह सब माफ करो। खड़ा अदालत में हूँ स्वामी, अब इंसाफ करो॥ मेरे अपराधों को गुरुवर, आज क्षमा कर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ १०॥ तेरी..॥ दु:ख नाश हो, कर्म नाश हो, बोधि-लाभ वर दो। जिन गुण से प्रभु आप भरे हो, वह मुझमें भर दो॥ यही प्रार्थना, यही भावना, पूर्ण आप कर दो। मेरा अन्तिम मरण समाधि, तेरे दर पर हो॥ ११॥ तेरी..॥ तेरी छत्रच्छाया भगवन्! मेरे शिर पर हो। मेरा अन्तिम मरणसमाधि, तेरे दर पर हो॥
  12. भजन बिन योंही जनम गमायो ॥टेर॥ पानी पहली पाल न बाँधी, फिर पीछै पछतायो ।१। रामा-मोह भये दिन खोवत, आशा पाश बँधायो । जप तप संजमदान नहीं दीनों मानुष जनम हरायो ।२। देह शीस जब काँपन लागी, दसन चलाचल थायो । लागी आगि बुझावन कारन चाहत कूप खुदायो ।३। काल अनादि गुमायो भ्रमतां, कबहुँ न थिर चित लायो । हरी विषय सुख भरम भुलानो,मृग तृष्णा वशि धायो ।४।
  13. धन्य-धन्य आज घड़ी धन्य-धन्य आज घड़ी कैसी सुखकार है सिद्धों का दरबार है ये सिद्धों का दरबार है ॥ खुशियाँ अपार आज हर दिल में छाई हैं दर्शन के हेतु देखो जनता अकुलाई है चारों ओर देख लो भीड़ बेशुमार है ॥१॥ भक्ति से नृत्य-गान कोई है कर रहे आतम सुबोध कर पापों से डर रहे पल-पल पुण्य का भरे भण्डार है ॥२॥ जय-जय के नाद से गूँजा आकाश है छूटेंगे पाप सब निश्चय यह आज है देख लो `सौभाग्य' खुला आज मुक्ति द्वार है ॥३॥
  14. धोली हो गई रे काली कामली माथा की थारी धोली हो गई रे काली कामली, सुरज्ञानी चेतो, धोली हो गई रे काली कामली ॥टेर॥ वदन गठीलो कंचन काया, लाल बूँद रंग थारो, हुयो अपूरव फेर फार सब, ढांचो बदल्यो सारो ।१। नाक कान आँख्या की किरिया सुस्त पड़ गई सारी, काजू और अखरोट चबे नहिं दाँता बिना सुपारी जी ।२। हालण लागी नाड़ कमर भी झुक कर बणी कवानी, मुंडो देख आरसी सोचो ढल गई कयां जवानी जी ।३। न्याय नीति ने तजकर छोड़ी भोग संपदा भाई, बात-बात में झूठ कपट छल, कीनी मायाचारी ।४। बैठ हताई तास चोपड़ा खेल्यो बुला खिलाय, लड़या पराया भोला भाई फूल्या नहीं समाय ।५। प्रभू भक्ति में रूचि न लीनी नहीं करूणा चितधारी, वीतराग दर्शन नहीं रूचियो उमर खोदई सारी जी ।६। पुन्य योग `सौभाग्य' मिल्यो है नरकुल उत्तम प्यारो, निजानंद समता रस पील्यो होसी भव निस्तारो ।७।
  15. प्रभु हम सब का एक प्रभु हम सब का एक, तू ही है, तारणहारा रे तुम को भूला, फिरा वही नर, मारा मारा रे ॥टेक॥ बड़ा पुण्य अवसर यह आया, आज तुम्हारा दर्शन पाया फूला मन यह हुआ सफल, मेरा जीवन सारा रे ।१। भक्ति में अब चित्त लगाया, चेतन में तब चित ललचाया वीतरागी देव! करो अब, भव से पारा रे ।२। जीवन में मैं नाथ को पाऊँ, वीतरागी भाव बढ़ाऊँ भक्तिभाव से प्रभु चरणन में, जाऊँ-जाऊँ रे ।४। अब तो मेरी ओर निहारो, भवसमुद्र से नाव उबारो `पंकज' का लो हाथ पकड़, मैं पाऊँ किनारा रे ।३।
  16. दिन रात मेरे स्वामी, मैं भावना ये भाऊँ, देहांत के समय में, तुमको न भूल जाऊँ । टेक। शत्रु अगर कोई हो, संतुष्ट उनको कर दूँ, समता का भाव धर कर, सबसे क्षमा कराऊँ ।१। त्यागूँ आहार पानी, औषध विचार अवसर, टूटे नियम न कोई, दृढ़ता हृदय में लाऊँ ।२। जागें नहीं कषाएँ, नहीं वेदना सतावे, तुमसे ही लौ लगी हो, दुर्ध्यान को भगाऊँ ।३। आत्म स्वरूप अथवा, आराधना विचारूँ, अरहंत सिद्ध साधूँ, रटना यही लगाऊँ ।४। धरमात्मा निकट हों, चर्चा धरम सुनावें, वे सावधान रक्खें, गाफिल न होने पाऊँ ।५। जीने की हो न वाँछा, मरने की हो न ख्वाहिश, परिवार मित्र जन से, मैं मोह को हटाऊँ ।६। भोगे जो भोग पहिले, उनका न होवे सुमिरन, मैं राज्य संपदा या, पद इंद्र का न चाहूँ ।७। रत्नत्रय का पालन, हो अंत में समाधि, शिवराम प्रार्थना यह, जीवन सफल बनाऊँ ।८।
  17. आओ जिन मंदिर में आओ आओ जिन मंदिर में आओ, श्री जिनवर के दर्शन पाओ जिन शासन की महिमा गाओ, आया-आया रे अवसर आनन्द का ॥टेक॥ हे जिनवर तव शरण में, सेवक आया आज शिवपुर पथ दरशाय के,दीजे निज पद राज ॥ प्रभु अब शुद्धातम बतलाओ चहुँगति दु:ख से शीघ्र छुड़ाओ दिव्य-ध्वनि अमृत बरसाओ आया-प्यासा मैं सेवक आनन्द का ।१। जिनवर दर्शन कीजिए, आतम दर्शन होय मोहमहातम नाशि के, भ्रमण चतुर्गति खोय शुद्धातम को लक्ष्य बनाओ निर्मल भेद-ज्ञान प्रकटाओ अब विषयों से चित्त हटाओ पाओ-पाओ रे मारग निर्वाण का ।२। चिदानन्द चैतन्यमय, शुद्धातम को जान निज स्वरूप में लीन हो, पाओ केवलज्ञान नव केवल लब्धि प्रकटाओ फिर योगों को नष्ट कराओ अविनाशी सिद्ध पद को पाओ आया-आया रे अवसर आनन्द का ।३।
  18. जीव! तू भ्रमत सदीव अकेला । संग साथी कोई नहिं तेरा ॥टेक॥ अपना सुखदुख आप हि भुगतै, होत कुटुंब न भेला, स्वार्थ भयैं सब बिछुरि जात हैं, विघट जात ज्यों मेला ।१। रक्षक कोइ न पूरन ह्वै जब, आयु अंत की बेला, फूटत पारि बँधत नहीं जैसें, दुद्धर जलको ठेला ।२। तन धन जीवन विनशि जात ज्यों, इन्द्रजाल का खेला, भागचन्द इमि लख करि भाई, हो सतगुरु का चेला ।३।
  19. निरखो अंग-अंग जिनवर के निरखो अंग-अंग जिनवर के, जिनसे झलके शान्ति अपार ॥ चरण-कमल जिनवर कहें, घूमा सब संसार पर क्षणभंगुर जगत में, निज आत्मतत्त्व ही सार यातैं पद्मासन विराजे जिनवर, झलके शान्ति अपार ।१। हस्त-युगल जिनवर कहें, पर का कर्ता होय ऐसी मिथ्याबुद्धि से ही, भ्रमण चतुरगति होय यातैं पद्मासन विराजे जिनवर, झलके शान्ति अपार ।२। लोचन द्वय जिनवर कहें, देखा सब संसार पर दु:खमय गति चतुर में, ध्रुव आत्मतत्त्व ही सार यातैं नाशादृष्टि विराजे जिनवर, झलके शान्ति अपार ।३। अन्तर्मुख मुद्रा अहो, आत्मतत्त्व दरशाय जिनदर्शन कर निजदर्शन पा, सत्गुरु वचन सुहाय यातैं अन्तर्दृष्टि विराजे जिनवर, झलके शान्ति अपार ।४।
  20. प्रभु पतित पावन मैं अपावन, चरण आयो शरण जी। यों विरद आप निहार स्वामी, मेट जामन मरण जी॥ तुम ना पिछान्यो आन मान्यो, देव विविध प्रकार जी। या बुद्धि सेती निज न जान्यो, भ्रम गिन्यो हितकार जी॥ भव-विकट-वन में कर्म बैरी, ज्ञान धन मेरो हर्यो। सब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होय, अनिष्ट गति धरतो फिर्यो॥ धन घड़ी यों धन दिवस यों ही, धन जनम मेरो भयो। अब भाग्य मेरो उदय आयो, दरश प्रभु को लख लयो॥ छवि वीतरागी नग्नमुद्रा, दृष्टि-नासा पै धरैं। वसु प्रातिहार्य अनन्त गुण-युत कोटि रवि छवि को हरैं॥ मिट गयो तिमिर मिथ्यात्व मेरो, उदय रवि आतम भयो। मो उर हरष ऐसो भयो, मनु रंक चिंतामणि लयो॥ दोऊ हाथ जोड़ नवाऊँ मस्तक, वीनऊँ तुम चरण जी। सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन, सुनहुँ तारन तरण जी॥ जाचूँ नहीं सुरवास पुनि नर, राज परिजन साथ जी। बुध जाँचहूँ तुम भक्ति भव-भव दीजिए शिवनाथ जी॥
  21. मेरे मन-मन्दिर में आन मेरे मन-मन्दिर में आन, पधारो महावीर भगवान ॥टेक॥ भगवन तुम आनन्द सरोवर, रूप तुम्हारा महा मनोहर निशि-दिन रहे तुम्हारा ध्यान,पधारो महावीर भगवान ।१। सुर किन्नर गणधर गुण गाते, योगी तेरा ध्यान लगाते गाते सब तेरा यशगान, पधारो महावीर भगवान ।२। जो तेरी शरणागत आया, तूने उसको पार लगाया तुम हो दयानिधि भगवान, पधारो महावीर भगवान ।३। भगत जनों के कष्ट निवारें, आप तरें हमको भी तारें कीजे हमको आप समान, पधारो महावीर भगवान ।४। आये हैं हम शरण तिहारी, भक्ति हो स्वीकार हमारी तुमहो करुणा दयानिधान, पधारो महावीर भगवान ।५। रोम-रोम पर तेज तुम्हारा, भू-मण्डल तुमसे उजियारा रवि-शशि तुमसे ज्योतिर्मान, पधारो महावीर भगवान ।६।
  22. ध्यान धर ले प्रभू को ध्यान धर ले, आ माथे ऊबी मौत भाया ज्ञान करले ॥टेक॥ फूल गुलाबी कोमल काया, या पल में मुरझासी, जोबन जोर जवानी थारी, सन्ध्या सी ढल जासी ।१। हाड़ मांस का पींजरा पर, या रूपाली चाम, देख रिझायो बावला, क्यूं जड़ को बण्यो गुलाम ।२। लाम्बो चौड़ो मांड पसारो, कीयां रह्यो है फूल, हाट हवेली काम न आसी, या सोना की झूल ।३। भाई बन्धु कुटुम्ब कबीलो, है मतलब को सारो, आपा पर को भेद समझले जद होसी निस्तारो ।४। मोक्ष महल को सांचो मारग, यो छ: जरा समझले, उत्तम कुल सौभाग्य मिल्यो है, आतमराम सुमरलौ ।५।
  23. मिथ्यातम नाश वे को, ज्ञान के प्रकाश वे को, आपा पर भास वे को, भानु सीबखानी है॥ छहों द्रव्य जान वे को, बन्ध विधि मान वे को, स्व पर पिछान वे को, परम प्रमानी है॥ अनुभव बताए वे को, जीव के जताए वे को, काहूं न सताय वे को, भव्य उर आनी है॥ जहां तहां तार वे को, पार के उतार वे को, सुख विस्तार वे को यही जिनवाणी है॥ जिनवाणी के ज्ञान से सूझेलोकालोक, सो वाणी मस्तक धरों, सदा देत हूं धोक॥ है जिनवाणी भारती, तोहि जपूं दिन चैन, जो तेरी शरण गहैं, सो पावे सुखचैन॥
  24. तिहारे ध्यान की मूरत तिहारे ध्यान की मूरत, अजब छवि को दिखाती है विषय की वासना तज कर,निजातम लौ लगाती है ॥टेक॥ तेरे दर्शन से हे स्वामी! लखा है रूप मैं तेरा तजूँ कब राग तन-धन का, ये सब मेरे विजाती हैं ।१। जगत के देव सब देखे, कोई रागी कोई द्वेषी किसी के हाथ आयुध है, किसी को नार भाती है ।२। जगत के देव हठग्राही, कुनय के पक्षपाती हैं तू ही सुनय का है वेत्ता, वचन तेरे अघाती हैं ।३। मुझे कुछ चाह नहीं जग की, यही है चाह स्वामी जी जपूँ तुम नाम की माला, जो मेरे काम आती है ।४। तुम्हारी छवि निरख स्वामी, निजातम लौ लगी मेरे यही लौ पार कर देगी, जो भक्तों को सुहाती है ।५।
  25. भाया थारी बावली जवानी चाली रे, भगवान भजन तूं कद करसी थारी गरदन हाली रे ॥ लाख चोरासी जीवाजून में मुश्किल नरतन पायो, तूं जीवन ने खेल समझकर बिरधा कीयां गमायो, आयो मूठी बाँध मुसाफिर जासी हाथा खाली रे ।१। झूँठ कपट कर जोड़ जोड़ धन कोठा भरी तिजोरी रे, धर्म कमाई करी न दमड़ी कोरी मूँछ मरोड़ी रे, है मिथ्या अभिमान आँख की थोथी थारी लाली रे ।२। कंचन काया काम न आसी थारा गोती नाती रे, आतमराम अकेलो जासी पड़ी रहेगी माटी रे, जन्तर मन्तर धन सम्पत से मोत टले नहीं टाली रे ।३। आपा पर को भेद समझले खोल हिया की आँख रे, वीतराग जिन दर्शन तजकर अठी उठी मत झाँक रे, पद पूजा सौभाग्य करेली शिव रमणी ले थाली रे ।४।
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