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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. सुख के देने वाले और सत्पुरुषों से पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर श्री पणिक नाम के मुनि की कथा लिखी जाती है, जो सबका हित करने वाली है ॥१॥ पणीश्वर नामक शहर के राजा प्रजापाल के समय वहाँ सागरदत्त नाम का एक सेठ हो चुका है। उसकी स्त्री का नाम पणिका था । उसका एक लड़का था । उसका नाम पणिक था । पणिक सरल, शान्त और पवित्र हृदय का था। पाप कभी उसे छू भी न गया था। सदा अच्छे रास्ते पर चलना उसका कर्तव्य था। एक दिन वह भगवान् के समवसरण में गया, जो कि रत्नों के तोरणों से बड़ी ही सुन्दरता धारण किए हुए था और अपनी मानस्तंभादि शोभा से सबके चित्त को आनन्दित करने वाला था। वहाँ उसने वर्धमान भगवान् को गंधकुटी पर विराजे हुए देखा । भगवान् की इस समय की शोभा अपूर्व और दर्शनीय थी। वे रत्न- -जड़े सोने के सिंहासन पर विराजे हुए थे, पूनम के चन्द्रमा को शर्मिन्दा करने वाले तीन छत्र उन पर शोभा दे रहे थे, मोतियों के हार के समान उज्ज्वल और दिव्य चँवर उन पर दुर रहे थे, एक साथ उदय हुए अनेक सूर्यों के तेज को जिनके शरीर की कान्ति दबाती थी, नाना प्रकार की शंकाओं को मिटाने वाली दिव्यध्वनि द्वारा जो उपदेश कर रहे थे, देवों के बजाये दुन्दुभि नाम के बाजों से आकाश और पृथ्वी मण्डल शब्दमय बन गया था । इन्द्र, , नागेन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर और बड़े-बड़े राजा-महाराजा आदि आ-आकर जिनकी पूजा करते थे, अनेक निर्ग्रन्थ मुनिराज उनकी स्तुति कर अपने को कृतार्थ कर रहे थे, चौंतीस प्रकार के अतिशयों से जो शोभित थे, अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ऐसे चार अनन्त चतुष्टय आत्म- सम्पत्ति को धारण किये थे, जिन्हें संसार के सर्वोच्च महापुरुष का सम्मान प्राप्त था, तीनों लोकों को स्पष्ट देख- - जानकर उसका स्वरूप भव्य - जनों को जो उपदेश कर रहे थे और जिनके लिए मुक्ति-रमणी वरमाला हाथ में लिए उत्सुक हो रही थी । पणिक ने भगवान् का ऐसा दिव्य स्वरूप देखकर उन्हें अपना सिर नवाया, उनकी स्तुति - पूजा की, प्रदक्षिणा दी और बैठकर धर्मोपदेश सुना । अन्त में उसने अपनी आयु के सम्बन्ध में भगवान् से प्रश्न किया। भगवान् के उत्तर से उसे अपनी आयु बहुत थोड़ी जान पड़ी। ऐसी दशा में आत्महित करना बहुत आवश्यक समझ पणिक वहीं दीक्षा ले साधु हो गया । यहाँ से विहार कर अनेक देशों और नगरों में धर्मोपदेश करते हुए पणिक मुनि एक दिन गंगा किनारे आए । नदी पार होने के लिए वे एक नाव में बैठे। मल्लाह नाव खेये जा रहा था कि अचानक एक प्रलय की-सी आँधी ने आकर नाव को खूब डगमग कर दिया, उसमें पानी भर आया, नाव डूबने लगी। जब तक नाव डूबती है पणिक मुनि ने अपने भावों को खूब उन्नत किया। यहाँ तक कि उन्हें उसी समय केवलज्ञान हो गया और तुरन्त ही वे अघातिया कर्मों का नाश कर मोक्ष चले गए। वे सेठ पुत्र पणिक मुनि मुझे भी अविनाशी मोक्ष - लक्ष्मी दें, जिन्होंने मेरु समान स्थिर रहकर कर्म शत्रुओं का नाश किया ॥२-१५॥ सागरदत्त सेठ की स्त्री पणिका सेठानी के पुत्र पवित्रात्मा पणिक मुनि, वर्धमान भगवान् के दर्शन कर, जो कि मोक्ष के देने वाले हैं और उनसे अपनी आयु बहुत थोड़े जानकर संसार की सब माया-ममता छोड़ मुनि हो गए और अन्त में कर्मों का नाश कर मोक्ष गए, वे मुझे भी सुखी करें ॥१६॥
  2. जिन्होंने अपने गुणों से संसार में प्रसिद्ध हुए और सब कामों को करके सिद्धि, कृत्यकृत्यता लाभ की है, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर गजकुमार मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥ नेमिनाथ भगवान् के जन्म से पवित्र हुई प्रसिद्ध द्वारका के अर्धचक्री वासुदेव की रानी गन्धर्वसेना से गजकुमार का जन्म हुआ था । गजकुमार बड़ा वीर था । उसके प्रताप को सुनकर ही शत्रुओं की विस्तृत मानरूपी बेल भस्म हो जाती थी ॥२-३॥ पोदनपुर के राजा अपराजित ने तब बड़ा सिर उठा रखा था। वासुदेव ने उसे अपने काबू में लाने के लिए अनेक यत्न किए, पर वह किसी तरह इनके हाथ न पड़ा। तब इन्होंने शहर में यह डौंडी पिटवाई कि जो मेरे शत्रु अपराजित को पकड़ लाकर मेरे सामने उपस्थित करेगा, उसे उसका, चाहा वर मिलेगा। गजकुमार डौंडी सुनकर पिता के पास गया और हाथ जोड़कर उसने स्वयं अपराजित पर चढ़ाई करने की प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना मंजूर हुई वह सेना लेकर अपराजित पर जा चढ़ा। दोनों ओर से घमासान युद्ध हुआ । अन्त में विजयलक्ष्मी ने गजकुमार का साथ दिया। अपराजित को पकड़ लाकर उसने पिता के सामने उपस्थित कर दिया । गजकुमार की इस वीरता को देखकर वासुदेव बहुत खुश हुए उन्होंने उसकी इच्छानुसार वर देकर उसे संतुष्ट किया ॥४-९॥ ऐसे बहुत कम अच्छे पुरुष निकलते हैं जो मनचाहा वर लाभकर सदाचारी और सन्तोषी बने रहें। परन्तु गजकुमार की उल्टी दशा हुई उसने मनचाहा वर पिताजी से लाभ कर अन्याय की ओर कदम बढ़ाया। वह पापी जबरदस्ती अच्छे-अच्छे घरों की सती स्त्रियों की इज्जत लेने लगा । वह ठहरा राजकुमार, उसे कौन रोक सकता था और जो रोकने की कुछ हिम्मत करता तो वह उसकी आँखों को काँटा खटकने लगता और फिर गजकुमार उसे जड़मूल से उखाड़कर फेंकने का यत्न करता । उस काम को, उस दुराचार को धिक्कार है, जिसके वश हो मूर्ख - जनों को लज्जा और भय भी नहीं रहता है॥१०-११॥ इसी तरह गजकुमार ने अनेक अच्छी-अच्छी कुलीन स्त्रियों की इज्जत ले डाली। पर इसके दबदबे से किसी ने चूँ तक न किया। एक दिन पांसुल सेठ की सुरति नाम की स्त्री पर इसकी नजर पड़ी और उसने उसे खराब भी कर दिया। यह देख पांसुल का हृदय क्रोधाग्नि से जलने लगा। पर वह बेचारा उसका कुछ कर नहीं सकता था। इसलिए उसे भी चुपचाप घर में बैठा रह जाना पड़ा ॥१२–१३॥ एक दिन भगवान् नेमिनाथ भव्य-जनों के पुण्योदय से द्वारका में आए बलभद्र, वासुदेव तथा और बहुत से राजा-महाराजा बड़े आनन्द के साथ भगवान् की पूजा करने को गए। खूब भक्तिभावों से उन्होंने स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले भगवान् की पूजा-स्तुति की, उनका ध्यान - स्मरण किया। बाद में मुनि और गृहस्थ धर्म का भगवान् के द्वारा उन्होंने उपदेश सुना, जो कि अनेक सुखों का देने वाला है। उपदेश सुनकर सभी बहुत प्रसन्न हुए । उन्होंने बार-बार भगवान् की स्तुति की। सच है, साक्षात् सर्वज्ञ भगवान् का दिया सर्वोपदेश सुनकर किसे आनन्द या खुशी न होगी । भगवान् के उपदेश का गजकुमार के हृदय पर अत्यन्त प्रभाव पड़ा। वह अपने किए पापकर्मों पर बहुत पछताया। संसार से उसे बड़ी घृणा हुई। उसने उसी समय भगवान् के पास ही दीक्षा ले ली, जो संसार के भटकने को मिटाने वाली है। दीक्षा लेकर गजकुमार मुनि विहार कर गए। अनेक देशों और नगरों में विहार करते और भव्य - जनों को धर्मोपदेश द्वारा शान्तिलाभ कराते । अन्त में वे गिरनार पर्वत के जंगल में आए। उन्हें अपनी आयु बहुत थोड़ी जान पड़ी । इसलिए वे प्रायोपगमन संन्यास लेकर आत्म-चिंतन करने लगे। तब उनकी ध्यान - मुद्रा बड़ी निश्चल और देखने योग्य थी ॥१४-२२॥ उनके संन्यास का हाल पांसुल सेठ को जान पड़ा, जिसकी स्त्री को गजकुमार ने अपने दुराचारीपने की दशा में खराब किया था । सेठ को अपना बदला चुकाने को बड़ा अच्छा मौका हाथ लग गया। वह क्रोध से भर्राता हुआ गजकुमार मुनि के पास पहुँचा और उनके सब सन्धिस्थानों में लोहे के बड़े-बड़े कीले ठोककर चलता बना। गजकुमार मुनि पर उपद्रव तो बड़ा ही दुःसह हुआ, पर वे जैनतत्त्व के अच्छे अभ्यासी थे, अनुभवी थे, इसलिए उन्होंने इस घोर कष्ट को एक तिनके के चुभने की बराबर भी न गिन बड़ी शान्ति और धीरता के साथ शरीर छोड़ा । यहाँ से ये स्वर्ग में गए। वहाँ अब चिरकाल तक वे सुख भोगेंगे । अहा ! महापुरुषों का चरित बड़ा ही अचंभा पैदा करने वाला होता है। देखिये, कहाँ तो गजकुमार मुनि का ऐसा दुःसह कष्ट और कहाँ सुख देने वाली पुण्य-समाधि! इसका कारण सच्चा तत्त्वज्ञान है। इसलिए इस महत्ता को प्राप्त करने के लिए तत्त्वज्ञान का अभ्यास करना सबके लिए आवश्यक है ॥२३-२७॥ सारे संसार के प्रभु कहलाने वाले जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा सुख के कारण धर्म का उपदेश सुनकर जो गजकुमार अपनी दुर्बुद्धि को छोड़कर पवित्र बुद्धि के धारक और बड़े भारी सहनशील योगी हो गए, वे हमें भी सुबुद्धि और शान्ति प्रदान करें, जिससे हम भी कर्तव्य के लिए कष्ट सहने में समर्थ हो सकें ॥२८॥
  3. जगत्पवित्र जिनेन्द्र भगवान् जिनवाणी और गुरुओं को नमस्कार कर सुकौशल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥ अयोध्या में प्रजापाल राजा के समय में एक सिद्धार्थ नाम के सेठ हुए हैं। उनके बत्तीस अच्छी- अच्छी सुन्दर स्त्रियाँ थीं। पर खोटे भाग्य से उनकी कोई सन्तान न थी । स्त्री कितनी भी सुन्दर हो, गुणवती हो, पर बिना सन्तान के उसकी शोभा नहीं होती। जैसे बिना फल-फूल के लताओं की शोभा नहीं होती। इन स्त्रियों में जो सेठ की खास प्राणप्रिया थी, जिस पर कि सेठ महाशय का अत्यन्त प्रेम था, वह पुत्र प्राप्ति के लिए सदा कुदेवों की पूजा - मानता किया करती थी। एक दिन उसे कुदेवों की पूजा करते एक मुनिराज ने देख लिया। उन्होंने तब उससे कहा-बहिन, जिस आशा से तू इन कुदेवों की पूजा करती है वह आशा ऐसा करने से सफल न होगी। कारण सुख-सम्पत्ति, सन्तान प्राप्ति, नीरोगता, मान-मर्यादा, सद्बुद्धि आदि जितनी अच्छी बातें हैं, उन सबका कारण पुण्य है। इसलिए यदि तू पुण्य - प्राप्ति के लिए कोई उपाय करे तो अच्छा हो । मैं तुझे तेरे हित की बात कहता हूँ कि इन यक्षादिक कुदेवों की पूजा - मानता छोड़कर, जो कि पुण्य-बन्ध का कारण नहीं है, जिनधर्म का विश्वास कर। इससे तू सत्पथ पर आ जायेगी और फिर तेरी आशा भी पूरी होने लगेगी। जयावती को मुनि का उपदेश रुचा और वह अब से जिनधर्म पर श्रद्धा करने लगी। चलते समय उसे ज्ञानी मुनि ने यह भी कह दिया था कि जिसकी तुझे चाह है वह चीज तुझे सात वर्ष के भीतर-भीतर अवश्य प्राप्त होगी । तू चिन्ता छोड़कर धर्म का पालन कर । मुनि का यह अंतिम वाक्य सुनकर जयावती को बड़ी भारी खुशी हुई और क्यों न हो? जिसकी कि वर्षों से उसके हृदय में भावना थी वही भावना तो अब सफल होने को है न! अस्तु ! मुनि का कथन सत्य हुआ। जयावती ने धर्म के प्रसाद से पुत्र - रत्न का मुँह देख पाया। उसका नाम रखा गया सुकौशल। सुकौशल खूबसूरत और तेजस्वी था ॥२-९॥ सिद्धार्थ सेठ विषय-भोगों को भोगते - भोगते कंटाल गए थे। उनके हृदय की ज्ञानमयी आँखों ने उन्हें अब संसार का सच्चा स्वरूप बतला कर बहुत डरा दिया था । वे चाहते तो नहीं थे कि एक मिनट भी संसार में रहे, पर अपनी सम्पत्ति को सम्हाल लेने वाला कोई न होने से पुत्र - दर्शन तक, उन्हें लाचारी से घर में रहना पड़ा अब सुकौशल हो गया, इसका उन्हें बड़ा आनन्द हुआ। वे पुत्र का मुखचन्द्र देखकर और अपने सेठ पद का उसके ललाट पर तिलक कर आप श्री नयंधर मुनिराज के पास दीक्षा ले गए। अभी बालक को जन्मते ही तो देर न हुई कि सिद्धार्थ सेठ घर-बार छोड़कर योगी हो गए। उनकी इस कठोरता पर जयावती को बड़ा गुस्सा आया । न केवल सिद्धार्थ पर ही उसे गुस्सा आया किन्तु नयंधर मुनि पर भी । इसलिए कि उन्हें इस समय सिद्धार्थ को दीक्षा देना उचित न था और इसी कारण मुनि मात्र पर उसकी अश्रद्धा हो गई। उसने अपने घर में मुनियों का आना-जाना तक बन्द कर दिया। बड़े दुःख की बात है कि यह जीव मोह के वश हो धर्म को भी छोड़ बैठता है । जैसे जन्म का अन्धा हाथ में आए चिन्तामणि को खो बैठता है ॥१० - १३॥ वयः प्राप्त होने पर सुकौशल का अच्छे-अच्छे घराने की कोई बत्तीस कन्या-रत्नों से ब्याह हुआ। सुकौशल के दिन अब बड़े ऐशो आराम के साथ बीतने लगे। माता का उस पर अत्यन्त प्यार होने से नित नई वस्तुएँ उसे प्राप्त होती थीं। सैकड़ों दास-दासियाँ उसकी सेवा में सदा उपस्थित रहा करती थी। वह जो कुछ चाहता वह कार्य उसकी आँखों के इशारे मात्र से होता था। सुकौशल को कभी कोई बात के लिए चिन्ता न करनी पड़ती थी। सच है, जिनके पुण्य का उदय होता है उन्हें सब सुख- सम्पत्ति सहज में प्राप्त हो जाती हैं ॥ १४-१५॥ एक दिन सुकौशल, अपनी माँ, अपनी स्त्री और अपनी धाय के साथ महल पर बैठा अयोध्या की शोभा तथा मन को लुभाने वाले प्रकृति की नई-नई सुन्दर छटाओं को देख-देखकर बड़ा खुश हो रहा था। उसकी दृष्टि कुछ दूर तक गई उसने एक मुनिराज को देखा। ये मुनि इसके पिता सिद्धार्थ ही थे। इस समय कई अन्य नगरों और गाँवों में विहार करते हुए ये आ रहे थे। इनके वंदन पर नाममात्र के लिए भी वस्त्र न देखकर सुकौशल बड़ा चकित हुआ । इसलिए कि पहले कभी उसने मुनि को देखा नहीं था। उनका अजीब वेष देखकर सुकौशल ने माँ से पूछा- माँ, यह कौन है? सिद्धार्थ को देखते ही जयावती की आँखों में खून बरस गया। वह कुछ घृणा और कुछ उपेक्षा कर बोली-बेटा, होगा कोई भिखारी, तुझे इससे क्या मतलब परन्तु अपनी माँ के इस उत्तर से सुकौशल को सन्तोष नहीं हुआ। उसने फिर पूछा- माँ, यह तो बड़ा खूबसूरत और तेजस्वी देख पड़ता है। तुम इसे भिखारी कैसे बताती हो? जयावती को अपने स्वामी पर ऐसी घृणा करते देख सुकौशल की धाय सुनन्दा से न रहा गया। वह बोल उठी-अरी ओ, तू इन्हें जानती है कि ये हमारे मालिक है । फिर भी तू इनके सम्बन्ध में ऐसा उल्टा सुझा रही है? तुझे यह योग्य नहीं। क्या हो गया यदि ये मुनि हो गए तो? इसके लिए क्या तुझे इनकी निन्दा करनी चाहिए? इसकी बात पूरी भी न हो पाई थी कि सुकौशल की माँ ने उसे आँख के इशारे से रोककर कह दिया कि चुप क्यों नहीं रह जाती । तुझसे कौन पूछता है, जो बीच में ही बोल उठी! सच है, दुष्ट स्त्रियों के मन में धर्म- प्रेम कभी नहीं होता। जैसे जलती हुई आग का बीच का भाग ठंडा नहीं होता ॥ १६-२२॥ सुकौशल ठीक तो न समझ पाया, पर उसे इतना ज्ञान हो गया कि माँ ने मुझे सच्ची बात नहीं बतलाई। इतने में रसोइया सुकौशल को भोजन कर आने के लिए बुलाने आया। उसने कहा-प्रभो, चलिए। बहुत समय हो गया । सब भोजन ठंडा हुआ जाता है । सुकौशल ने तब भोजन के लिए इंकार कर दिया। माता और स्त्रियों ने भी बहुत आग्रह किया, पर वह भोजन करने को नहीं गया । उसने साफ-साफ कह दिया कि जब तक मैं उस महापुरुष का सच्चा - सच्चा हाल न सुन लूँगा तब तक भोजन नहीं करूँगा। जयावती को सुकौशल के इस आग्रह से कुछ गुस्सा आ गया, सो वह तो वहाँ से चल दी। पीछे सुनन्दा ने सिद्धार्थ मुनि की सब बातें सुकौशल से कह दीं। सुनकर सुकौशल को कुछ दुःख भी हुआ, पर साथ ही वैराग्य ने उसे सावधान कर दिया । वह उसी समय सिद्धार्थ मुनिराज के पास गया और उन्हें नमस्कार कर धर्म का स्वरूप सुनने की उसने इच्छा प्रकट की। सिद्धार्थ ने उसे मुनिधर्म और गृहस्थ-धर्म का खुलासा स्वरूप समझा दिया । सुकौशल को मुनिधर्म बहुत पसन्द पड़ा। वह मुनिधर्म की भावना भाता हुआ घर आया और सुभद्रा की गर्भस्थ सन्तान को अपने सेठ पद का तिलक कर तथा सब माया-ममता, धन-दौलत और स्वजन - परिजन को छोड़कर श्री सिद्धार्थ मुनि के पास ही दीक्षा लेकर योगी बन गया । सच है - जिसे पुण्योदय से धर्म पर प्रेम है और जो अपना हित करने के लिए सदा तैयार रहता है, उस महापुरुष को कौन झूठी - सच्ची सुझाकर अपने कैद में रख सकता है, उसे धोखा दे ठग सकता है? ॥२३-३०॥ एक मात्र पुत्र और वह भी योगी बन गया । इस दुःख की जयावती के हृदय पर बड़ी गहरी चोट लगी। वह पुत्र दुःख से पगली - सी बन गई । खाना-पीना उसके लिए जहर हो गया। उसकी सारी जिन्दगी ही धूलधानी हो गई वह दुःख और चिन्ता के मारे दिनोंदिन सूखने लगी। जब देखो तब ही उसकी आँखें आँसुओं से भरी रहती । मरते दम तक वह पुत्रशोक को न भूल सकी। इसी चिन्ता, दुःख, आर्त्तध्यान से उसके प्राण निकले । इस प्रकार बुरे भावों से मरकर मगध देश के मौद्गल नाम के पर्वत पर उसने व्याघ्री का जन्म लिया। इसके तीन बच्चे हुए। यह अपने बच्चों के साथ पर्वत पर ही रहती थी | सच हैं, जो जिनेन्द्र भगवान् के पवित्र धर्म को छोड़ बैठते हैं, उनकी ऐसी ही दुर्गति होती है। विहार करते हुए सिद्धार्थ और सुकौशल मुनि ने भाग्य से इसी पर्वत पर आकर योग धारण कर लिया। योग पूरा हुए बाद जब ये भिक्षा के लिए शहर में जाने के लिए पर्वत पर से नीचे उतर रहे थे उसी समय वह व्याघ्री, जो कि पूर्वजन्म में सिद्धार्थ की स्त्री और सुकौशल की माता थी, इन्हें खाने को दौड़ी और जब तक कि ये संन्यास लेकर बैठते हैं, उसने इन्हें खा लिया। ये पिता-पुत्र समाधि से शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में जाकर देव हुए। वहाँ से आकर अब वे निर्वाण लाभ करेंगे। ये दोनों मुनिराज आप भव्यजनों को और मुझे शान्ति प्रदान करें ॥३१-३६॥ जिस समय व्याघ्री ने सुकौशल को खाते-खाते उनका हाथ खाना शुरू किया, उस समय उसकी दृष्टि सुकौशल के हाथों के लाञ्छनों (चिह्नों) पर जा पड़ी। उन्हें देखते ही इसे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान हो गया। जिसे वह खा रही है, वह उसी का पुत्र है, जिस पर उसका बेहद प्यार था, उसे ही वह खा रही है यह ज्ञान होते ही उसे जो दुःख, जो आत्म-ग्लानि हुई वह लिखी नहीं जा सकती। वह सोचती है, हाय! मुझसी पापिनी कौन होगी जो अपने ही प्यारे पुत्र को मैं खा रही हूँ ! धिक्कार है मुझसी मूर्खिनी को जो पवित्र धर्म को छोड़कर अनन्त संसार को अपना वास बनाती है। उस मोह को, उस संसार को धिक्कार है जिसके वश हो यह जीव अपने हित-अहित को भूल जाता है और फिर कुमार्ग में फँसकर दुर्गतियों में दुःख उठाता है । इस प्रकार अपने किए कर्मों की बहुत कुछ आलोचना कर उस व्याघ्री ने संन्यास ग्रहण कर लिया और अन्त में शुद्ध भावों से मरकर व सौधर्मस्वर्ग में देव हुई। सच है - जीवों की शक्ति अद्भुत ही हुआ करती है और जैनधर्म का प्रभाव भी संसार में बड़ा ही उत्तम है। नहीं तो कहाँ तो पापिनी व्याघ्री और कहाँ उसे स्वर्ग की प्राप्ति इसलिए जो आत्मसिद्धि ने चाहने वाले हैं, उन भव्य जनों को स्वर्ग-मोक्ष को देने वाले पवित्र जैनधर्म का पालन करना चाहिए ॥ ३७-४२॥ श्री मूलसंघरूपी अत्यन्त ऊँचे उदयाचल से उदय होने वाले मेरे गुरु श्रीमल्लिभूषणरूपी सूर्य संसार में सदा प्रकाश करते रहें ॥४३॥ वे प्रभाचन्द्राचार्य विजयलाभ करें जो ज्ञान के समुद्र हैं। देखिए, समुद्र में रत्न होते हैं, आचार्य महाराज सम्यग्दर्शन रूपी श्रेष्ठ रत्न को धारण किए हैं। समुद्र में तरंगें होती हैं, ये भी सप्तभंगी रूपी तरंगों से युक्त हैं, स्याद्वाद विद्या के बड़े ही विद्वान् हैं । समुद्र की तरंगें जैसे कूड़ा-करकट निकाल बाहर फेंक देती हैं, इसी तरह ये अपनी सप्तभंगवाणी द्वारा एकान्त मिथ्यात्वरूपी कूड़े-करकट को हटा दूर करते थे, अन्य मतों के बड़े-बड़े विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित कर विजयलाभ करते थे। समुद्र में मगरमच्छ घड़ियाल आदि अनेक भयानक जीव होते हैं, पर प्रभाचन्द्ररूपी समुद्र में उससे यह विशेषता थी, अपूर्वता थी कि उसमें क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि भयानक मगरमच्छ न थे। समुद्र में अमृत रहता है और इनमें जिनेन्द्र भगवान् का वचनमयी निर्मल अमृत समाया हुआ था और समुद्र में अनेक तरह की बिकने योग्य वस्तुएँ रहती हैं ये भी व्रतों द्वारा उत्पन्न होने वाली पुण्यरूपी विक्रेय-वस्तु को धारण किए थे ॥४४॥
  4. जिनके नाम मात्र का ध्यान करने से हर प्रकार की धन-सम्पत्ति प्राप्त हो सकती है, उन परम पवित्र जिन भगवान् को नमस्कार कर सुकुमाल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥ अतिबल कौशाम्बी के जब राजा थे, तब का यह आख्यान है । यहाँ एक सोमशर्मा पुरोहित रहता था, इसकी स्त्री का नाम काश्यपी था । इसके अग्निभूत और वायुभूति नामक दो लड़के हुए। माँ-बाप के अधिक लाड़ले होने से वे कुछ भी पढ़-लिख न सके और सच है पुण्य के बिना किसी को विद्या आती भी तो नहीं । काल की विचित्र गति से सोमशर्मा की असमय में ही मौत हो गई ये दोनों भाई तब निरे मूर्ख थे । इन्हें मूर्ख देखकर अतिबल ने उनके पिता का पुरोहित पद, जो उन्हें मिलता, किसी और को दे दिया। यह ठीक है कि मूर्खों का कहीं आदर-सत्कार नहीं होता। अपना अपमान हुआ देखकर उन दोनों भाइयों को बड़ा दुःख हुआ । तब उनकी कुछ अकल ठिकाने आई तब उन्हें कुछ लिखने-पढ़ने की सूझी। वे राजगृह में अपने काका सूर्यमित्र के पास गए और अपना सब हाल उन्होंने उनसे कहा । उनकी पढ़ने की इच्छा देखकर सूर्यमित्र ने स्वयं उन्हें पढ़ाना शुरू किया और कुछ ही वर्षों में उन्हें अच्छा विद्वान् बना दिया। दोनों भाई जब अच्छे विद्वान् हो गए तब ये अपने शहर लौट आए। आकर उन्होंने अतिबल को अपनी विद्या का परिचय कराया। अतिबल उन्हें विद्वान् देखकर बहुत खुश हुआ और उनके पिता का पुरोहित - पद उसने उन्हें दे दिया। सच है सरस्वती की कृपा से संसार में क्या नहीं होता ॥२-१०॥ एक दिन सन्ध्या के समय सूर्यमित्र सूर्य को अर्घ चढ़ा रहा था। उसकी अंगुली में राजकीय एक रत्नजड़ी बहुमूल्य अँगूठी थी । अर्घ चढ़ाते समय वह अँगूठी अंगुली में से निकलकर महल के नीचे तालाब में जा गिरी। भाग्य से वह एक खिले हुए कमल में पड़ी। सूर्य अस्त होने पर कमल मुँद गया। अंगूठी कमल के अन्दर बन्द हो गई। सूर्यमित्र पाठ करके उठा और उसकी नजर उँगली पर पड़ी तब उसे मालूम हुआ कि अँगूठी कहीं पर गिर पड़ी। अब तो उसके डर का कुछ ठिकाना न रहा। राजा जब अँगूठी माँगेगा तब उसे क्या जवाब दूँगा, इसकी उसे बड़ी चिन्ता होने लगी । अँगूठी की शोध के लिए इसने बहुत कुछ यत्न किया, पर इसे उसका कुछ पता न चला। तब किसी के कहने से यह अवधिज्ञानी सुधर्म मुनि के पास गया और हाथ जोड़कर इसने उनसे अँगूठी के बाबत पूछा कि प्रभो, कृपा कर मुझे आप यह बतलावेंगे कि मेरी अँगूठी कहाँ चली गई और हे करुणा के समुद्र, वह कैसे प्राप्त होगी? मुनि ने उत्तर में यह कहा कि सूर्य को अर्घ देते समय तालाब में एक खिले हुए कमल में अँगूठी गिर पड़ी है। वह सबेरे मिल जायेगी। वही हुआ। सूर्योदय होते ही जैसे कमल खिला सूर्यमित्र को उसमें अँगूठी मिली। सूर्यमित्र बड़ा खुश हुआ। उसे इस बात का बड़ा अचम्भा होने लगा कि मुनि ने यह बात कैसे बतलाई ? हो न हो, उनसे अपने को भी वह विद्या सीखनी चाहिए। यह विचार कर सूर्यमित्र, मुनिराज के पास गया। उन्हें नमस्कार कर उसने प्रार्थना की कि हे योगिराज, मुझे भी आप अपनी विद्या सिखा दीजिये, जिसमें मैं भी दूसरों के ऐसे प्रश्नों का उत्तर दे सकूँ। आपकी मुझ पर बड़ी कृपा होगी, यदि आप मुझे अपनी यह विद्या पढ़ा देंगे। तब मुनिराज ने कहा- भाई, मुझे इस विद्या के सिखाने में कोई इंकार नहीं है । पर बात यह है कि बिना जिनदीक्षा लिए यह विद्या आ नहीं सकती। सूर्यमित्र तब केवल विद्या के लोभ से दीक्षा लेकर मुनि हो गया। मुनि होकर उसने गुरु से विद्या सिखाने को कहा । सुधर्म मुनिराज ने तब सूर्यमित्र को मुनियों के आचार-विचार के शास्त्र तथा सिद्धान्त - शास्त्र पढ़ायें । अब तो एकदम सूर्यमित्र की आँखें खुल गई यह गुरु के उपदेश रूपी दिये के द्वारा अपने हृदय के अज्ञानान्धकार को नष्ट कर जैनधर्म का अच्छा विद्वान् हो गया । सच है, जिन भव्य पुरुषों ने सच्चे मार्ग को बतलाने वाले और संसार के अकारण बन्धु गुरुओं की भक्ति सहित सेवा-पूजा की है, उनके सब काम नियम से सिद्ध हुए हैं ॥११-२१॥ जब सूर्यमित्र मुनि अपने मुनिधर्म में खूब कुशल हो गए तब वे गुरु की आज्ञा लेकर अकेले ही विहार करने लगे। एक बार वे विहार करते हुए कौशाम्बी में आए । अग्निभूत ने इन्हें भक्तिपूर्वक दान दिया। उसने अपने छोटे भाई वायुभूति से बहुत प्रेरणा और आग्रह इसलिए किया कि वह सूर्यमित्र मुनि की वन्दना करें, उसे जैनधर्म से कुछ प्रेम हो । कारण वह जैनधर्म से सदा विरुद्ध रहता था पर अग्निभूति के इस आग्रह का परिणाम उल्टा हुआ । वायुभूति ने और खिसियाकर मुनि की अधिक निन्दा की और उन्हें बुरा-भला कहा । सच है - जिन्हें दुर्गतियों में जाना होता है प्रेरणा करने पर भी ऐसे पुरुषों का श्रेष्ठ धर्म की ओर झुकाव नहीं होता किन्तु वह उल्टा पाप कीचड़ में अधिक- अधिक फँसता है। अग्निभूति को अपने भाई की ऐसी दुर्बुद्धि पर बड़ा दुःख हुआ । यही कारण था कि जब मुनिराज आहार कर वन में गए तब अग्निभूति भी उनके साथ - साथ चला गया और वहाँ धर्मोपदेश सुनकर वैराग्य हो जाने से दीक्षा लेकर वह भी तपस्वी हो गया । अपना और दूसरों का हित करना अग्निभूति के जीवन का उद्देश्य हुआ ॥२२-२८॥ अग्निभूति के मुनि हो जाने की बात जब उसकी स्त्री सती सोमदत्ता को ज्ञात हुई तो उसे अत्यन्त दुःख हुआ। उसने वायुभूति से जाकर कहा- - देखा, तुमने मुनि वन्दना न कर उनकी बुराई की, सुनती हूँ उससे दुःखी होकर तुम्हारे भाई भी मुनि हो गए। यदि वे अब तक मुनि न हुए हों तो चलो उन्हें तुम हम समझा लावें । वायुभूति ने गुस्सा होकर कहा- हाँ तुम्हें गर्ज हो तो तुम भी उस बदमाश नंगे के पास जाओ! मुझे तो कुछ गर्ज नहीं है। यह कहकर वायुभूति अपनी भौजी को एक लात मारकर चलता बना। सोमदत्ता को उसके मर्मभेदी वचनों को सुनकर बड़ा दुःख हुआ। उसे क्रोध भी अत्यन्त आया । पर अबला होने वह उस समय कर कुछ नहीं कर सकी । तब उसने निदान किया कि पापी, तूने जो इस समय मेरा मर्म भेदा है और मुझे लातों से ठुकराया है, और इसका बदला स्त्री होने से मैं इस समय न ले सकी तो कुछ चिन्ता नहीं, पर याद रख इस जन्म में नहीं तो दूसरे जन्म में सही, पर बदला लूँगी अवश्य । तेरे इसी पाँव को, जिससे कि तूने मुझे लात मारी है और मेरे हृदय भेदने वाले तेरे इसी हृदय को मैं खाऊँगी तभी मुझे सन्तोष होगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसी मूर्खता को धिक्कार है जिसके वश हुए प्राणी अपने पुण्य-कर्म को ऐसे नीच निदानों द्वारा भस्म कर डालते हैं ॥२९-३४॥ ‘इस हाथ दे उस हाथ ले" इस कहावत के अनुसार तीव्र पाप का फल प्रायः तुरन्त मिल जाता है। वायुभूति ने मुनिनिन्दा द्वारा जो तीव्र पापकर्म बाँधा, उसका फल उसे बहुत जल्दी मिल गया। पूरे सात दिन भी न हुए होंगे कि वायुभूति के सारे शरीर में कोढ़ निकल आया। सच है-जिनकी सारा संसार पूजा करता है और जो धर्म के सच्चे मार्ग को दिखाने वाले हैं ऐसे महात्माओं की निन्दा करने वाला पापी पुरुष किन महाकष्टों को नहीं सहता । वायुभूति कोढ़ के दुःख से मरकर कौशाम्बी में ही एक नट के यहाँ गधा हुआ । गधा मरकर वह जंगली सूअर हुआ । इस पर्याय से मरकर इसने चम्पापुर में एक चाण्डाल के यहाँ कुत्ती का जन्म धारण किया, कुत्ती मरकर चम्पापुरी में ही एक दूसरे चाण्डाल के यहाँ लड़की हुई वह जन्म से ही अन्धी थी । उसका सारा शरीर बदबू दे रहा था। इसलिए उसके माता-पिता ने उसे छोड़ दिया। पर भाग्य सभी का बलवान् होता है। इसलिए उसकी भी किसी तरह रक्षा हो गई। वह एक जांबू के झाड़-नीचे पड़ी - पड़ी जांबू खाया करती थी ॥३५-४०॥ सूर्यमित्र मुनि अग्निभूति को साथ लिए हुए भाग्य से इस ओर आ निकले। उस जन्म की दुःखिनी लड़की को देखकर अग्निभूति के हृदय में कुछ मोह, कुछ दुःख हुआ। उन्होंने गुरु से पूछा- प्रभो, इसकी दशा बड़ी कष्ट में है । यह कैसे जी रही हैं? ज्ञानी सूर्यमित्र मुनि ने कहा- तुम्हारा भाई वायुभूति ने धर्म से पराङ्गमुख होकर जो मेरी निन्दा की थी, उसी पाप के फल से उसे कई भव पशुपर्याय में लेना पड़े। अन्त में वह कुत्ती की पर्याय से मरकर यह चाण्डाल कन्या हुई है। पर अब इसकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। इसलिए जाकर तुम इसे व्रत लिवाकर संन्यास दे आओ । अग्निभूति ने वैसा ही किया। उस चाण्डाल कन्या को पाँच अणुव्रत देकर उन्होंने संन्यास लिवा दिया ॥४१-४४॥ चाण्डाल कन्या मरकर व्रत के प्रभाव से चम्पापुरी में नागशर्मा ब्राह्मण के यहाँ नागश्री नाम की कन्या हुई। एक दिन नागश्री वन में नागपूजा करने को गई थी । पुण्य से सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनि भी विहार करते हुए इस ओर आ गए। उन्हें देखकर नाग श्री के मन में उनके प्रति अत्यन्त भक्ति हो गई वह उनके पास गई और हाथ जोड़कर उनके पाँवों के पास बैठ गई। नागश्री को देखकर अग्निभूति मुनि के मन में कुछ प्रेम का उदय हुआ और होना उचित ही था क्योंकि थे तो वह उनके पूर्वजन्म के भाई न? अग्निभूति मुनि ने इसका कारण अपने गुरु से पूछा । उन्होंने प्रेम होने का कारण जो पूर्व जन्म का भातृ-भाव था, वह बता दिया । तब अग्निभूति ने उसे धर्म का उपदेश किया और सम्यक्त्व तथा पाँच अणुव्रत उसे ग्रहण करवाये । नागश्री व्रत ग्रहण कर जब जाने लगी तब उन्होंने उससे कह दिया कि हाँ, देख बच्ची, तुझसे यदि तेरे पिताजी इन व्रतों को लेने के लिए नाराज हों,तो तू हमारे व्रत हमें ही आकर सौंप जाना । सच है, मुनि लोग वास्तव में सच्चे मार्ग के दिखाने वाले होते हैं ॥४५-५१॥ इसके बाद नागश्री उन मुनिराजों के भक्ति से हाथ जोड़कर और प्रसन्न होती हुई अपने घर पर आ गई। नागश्री के साथ की और लड़कियों ने उसके व्रत लेने की बात को नागशर्मा से जाकर कह दिया। नागशर्मा तब कुछ क्रोध का भाव दिखाकर नागश्री से बोला- बच्ची, तू बड़ी भोली है, जो झट से हर एक के बहकाने में आ जाती है। भला, तू नहीं जानती कि अपने पवित्र ब्राह्मण - कुल में नंगे मुनियों के दिये व्रत नहीं लिए जाते। वे अच्छे लोग नहीं होते। इसलिए उनके व्रत तू छोड़ दे। तब नागश्री बोली-तो पिताजी, उन मुनियों ने मुझे आते समय यह कह दिया था कि यदि तुझसे तेरे पिताजी इन व्रतों को छोड़ देने के लिए आग्रह करें तो तू हमारे व्रत हमें ही दे जाना । तब आप चलिए मैं उन्हें उनके व्रत दे आती हूँ । सोमशर्मा नागश्री का हाथ पकड़े क्रोध से गुर्राता हुआ मुनियों के पास चला। रास्ते में नागश्री ने एक जगह कुछ गुलगपाड़ा होता सुना । उस जगह बहुत से लोग इकट्ठे हो रहे थे और एक मनुष्य उनके बीच में बँधा हुआ पड़ा था । उसे कुछ निर्दयी लोग बड़ी क्रूरता से मार रहे थे। नागश्री ने उसकी यह दशा देखकर सोमशर्मा से पूछा - पिताजी, बेचारा यह पुरुष इस प्रकार निर्दयता से क्यों मारा जा रहा है? सोमशर्मा बोला- बच्ची, इस पर एक बनिये के लड़के वरसेन का कुछ रुपया लेना था। उसने इससे अपने रुपयों का तकादा किया। इस पापी ने उसे रुपया न देकर जान से मार डाला। इसलिए उस अपराध के बदले अपने राजा साहब ने उसे प्राणदंड की सजा दी है और वह योग्य है क्योंकि एक को ऐसी सजा मिलने से अब दूसरा कोई ऐसा अपराध न करेगा। तब नागश्री ने जरा जोर देकर कहा- तो पिताजी, यही व्रत तो उन मुनियों ने मुझे दिया है, फिर आप उसे क्यों छुड़ाने को कहते हैं? सोमशर्मा लाजबाब होकर बोला- अस्तु पुत्री, तू इस व्रत को न छोड़, चल बाकी के व्रत तो उनके उन्हें दे आवें । आगे चलकर नाग श्री ने एक और पुरुष को बँधा देखकर पूछा- और पिताजी, यह पुरुष क्यों बाँधा गया है? सोमशर्मा ने कहा- पुत्री, यह झूठ बोलकर लोगों को ठगा करता था। इसके फन्दे में फँसकर बहुतों को दर-दर का भिखारी बनना पड़ा है। इसलिए झूठ बोलने के अपराध में इसकी यह दशा की जा रही है ॥५२-६४॥ तब फिर नागश्री ने कहा - तो पिताजी, यही व्रत तो मैंने भी लिया है। अब तो मैं उसे कभी नहीं छोडूंगी। इस प्रकार चोरी, परस्त्री, लोभ आदि से दुःख पाते हुए मनुष्यों को देखकर नागश्री ने अपने पिता को लाजबाव कर दिया और व्रतों को नहीं छोड़ा । तब सोमशर्मा ने हार खाकर कहा- अच्छा, यदि तेरी इच्छा इन व्रतों को छोड़ने की नहीं है तो न छोड़, पर तू मेरे साथ उन मुनियों के पास तो चल। मैं उन्हें दो बातें कहूँगा कि तुम्हें क्या अधिकार था जो तुमने मेरी लड़की को बिना मेरे पूछे व्रत दे दिये? फिर वे आगे से किसी को इस प्रकार व्रत न दे सकेंगे। सच है, दुर्जनों को कभी सत्पुरुषों से प्रीति नहीं होती । तब ब्राह्मण देवता अपनी होंश निकालने को मुनियों के पास चले । उसने उन्हें दूर से ही देखकर गुस्से से आकर कहा- क्यों रे नंगे ! तुमने मेरी लड़की को व्रत देकर क्यों ठग लिया? बतलाओ, तुम्हें इसका क्या अधिकार था ? कवि कहता है कि ऐसे पापियों के विचारों को सुनकर बड़ा ही खेद होता है। भला, जो व्रत, शील, पुण्य के कारण हैं, उनसे क्या कोई ठगाया जा सकता है? नहीं। सोमशर्मा को इस प्रकार गुस्सा हुआ देखकर सूर्यमित्र मुनि बड़ी धीरता और शान्ति के साथ बोले- भाई, जरा धीरज धर, क्यों इतनी जल्दी कर रहा है? मैंने इसे व्रत दिये हैं, पर अपनी लड़की समझकर और सच पूछो तो यह है भी मेरी ही लड़की । तेरा तो इस पर कुछ भी अधिकार नहीं है। तू भले ही यह कह कि यह मेरी लड़की है, पर वास्तव में यह तेरी लड़की नहीं है ॥६५-७१॥ यह कहकर सूर्यमित्र मुनि ने नागश्री को पुकारा । नाग श्री झट से आकर उनके पास बैठ गई अब तो ब्राह्मण देवता बड़े घबराये । वे 'अन्याय' ' अन्याय' चिल्लाते हुए राजा के पास पहुँचे और हाथ जोड़कर बोले-देव, नंगे साधुओं ने मेरी नागश्री लड़की को जबरदस्ती छुड़ा लिया। वे कहते हैं कि यह तेरी लड़की नहीं किन्तु हमारी लड़की है । राजाधिराज, सारा शहर जानता है कि नागश्री मेरी लड़की है। महाराज, उन पापियों से मेरी लड़की दिलवा दीजिए । सोमशर्मा की बात से सारी राज-सभा बड़े विचार में पड़ गई। राजा की अकल में कुछ न आया। तब वे सबको साथ लिए मुनि के पास आए और उन्हें नमस्कार कर बैठ गए । फिर यही झगड़ा उपस्थित हुआ। सोमशर्मा तो नागश्री को अपनी लड़की बताने लगा और सूर्यमित्र मुनि अपनी। मुनि बोले-अच्छा, यदि यह तेरी लड़की है तो बतला तूने इसे क्या पढ़ाया ? और सुन, मैंने इसे सब शास्त्र पढ़ायें है, इसलिए मैं अभिमान से कहता हूँ कि यह मेरी लड़की है। तब राजा बोले- अच्छा प्रभो, यह आपकी ही लड़की सही, पर आपने इसे जो पढ़ाया है उसकी परीक्षा इसके द्वारा दिलवाइए । जिससे कि हमें विश्वास हो। तब सूर्यमित्र मुनि अपने वचनरूपी किरणों द्वारा लोगों के चित्त में ठसे हुए मूर्खतारूप गाढ़े अन्धकार को नाश करते हुए बोले- हे नागश्री, हे पूर्वजन्म में वायुभूति का भव धारण करने वाली, पुत्री, तुझे मैंने जो पूर्वजन्म में कई शास्त्र पढ़ायें हैं, उनकी इस उपस्थित मंडली के सामने तू परीक्षा दे| सूर्यमित्र मुनिका इतना कहना हुआ कि नागश्री ने जन्मान्तर का पढ़ा- पढ़ाया सब विषय सुना दिया। राजा तथा और सब मंडली को इससे बड़ा अचम्भा हुआ । उन्होंने मुनिराज से हाथ जोड़कर कहा-प्रभो, नागश्री की परीक्षा से उत्पन्न हुआ विनोद हृदयभूमि में अठखेलियाँ कर रहा है। इसलिए कृपाकर आप अपने और नागश्री के सम्बन्ध की सब बातें खुलासा करिए। तब अवधिज्ञानी सूर्यमित्र मुनि ने वायुभूति के भव से लगाकर नाग श्री के जन्म तक की सब घटना उनसे कह सुनाई सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्हें यह सब मोह की लीला जान पड़ी। मोह ही सब दुःख का मूल कारण समझ कर उन्हें बड़ा वैराग्य हुआ । वे उसी समय और भी बहुत से राजाओं के साथ जिनदीक्षा ग्रहण कर गए। सोमशर्मा भी जैनधर्म का उपदेश सुनकर मुनि हो गया और तपस्या कर अच्युत स्वर्ग में देव हुआ । इधर नाग श्री को अपना पूर्व का हाल सुनकर बड़ा वैराग्य हुआ। वह दीक्षा लेकर आर्यिका हो गई और अन्त में शरीर छोड़कर तपस्या के फल से अच्युत स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुई अहा! संसार में गुरु चिन्तामणि के समान हैं, सबसे श्रेष्ठ हैं। यही कारण है कि जिनकी कृपा से जीवों को सब सम्पदाएँ प्राप्त हो सकती है ॥७२-८७॥ यहाँ से विहार कर सूर्यमित्र और अग्निभूति मुनिराज अग्निमन्दिर नाम के पर्वत पर पहुँचे। वहाँ तपस्या द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया और त्रिलोकपूज्य हो अन्त में बाकी के कर्मों का भी नाश कर परम सुखमय, अक्षयानन्त मोक्ष लाभ किया। वे दोनों केवलज्ञानी मुनिराज मुझे और आप लोगों को उत्तम सुख की भीख दें ॥८८-९०॥ अवन्ति देश के प्रसिद्ध उज्जैन शहर में एक इन्द्रदत्त नाम का सेठ था । वह बड़ा धर्मात्मा और जिनभगवान् का सच्चा भक्त था । उसकी स्त्री का नाम गुणवती था । वह नाम के अनुसार सचमुच गुणवती और बड़ी सुन्दरी थी । सोमशर्मा का जीव, जो अच्युत स्वर्ग में देव हुआ था वह, वहाँ अपनी आयु पूरी कर पुण्य के उदय से इस गुणवती सेठानी के सुरेन्द्रदत्त नाम का सुशील और गुणी पुत्र हुआ। सुरेन्द्रदत्त का ब्याह उज्जैन में रहने वाले सुभद्र सेठ की लड़की यशोभद्रा के साथ हुआ। उनके घर में किसी बात की कमी नहीं थी । पुण्य के उदय से उन्हें सब कुछ प्राप्त था । इसलिए बड़े सुख के साथ उनके दिन बीतते थे। वे अपनी इस सुख अवस्था में भी धर्म को न भूलकर सदा उसमें सावधान रहा करते थे॥९१-९५॥ एक दिन यशोभद्रा ने एक अवधिज्ञानी मुनिराज से पूछा- क्यों योगिराज, क्या मेरी आशा इस जन्म में सफल होगी? मुनिराज यशोभद्रा का अभिप्राय जानकर कहा- हाँ होगी और अवश्य होगी। तेरे होने वाला पुत्र भव्य मोक्ष में जाने वाला, बुद्धिमान् और अनेक अच्छे-अच्छे गुणों का धारक होगा । पर साथ ही एक चिन्ता की बात यह होगी कि तेरे स्वामी पुत्र का मुख देखकर ही जिनदीक्षा ग्रहण कर जाएँगे, जो दीक्षा स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाली है। अच्छा, और एक बात यह है कि तेरा पुत्र भी जब कभी किसी जैन मुनि को देख पायेगा तो वह भी उसी समय सब विषयभोगों को छोड़- छोड़कर योगी बन जाएगा ॥९६-९९॥ इसके कुछ महीनों बाद यशोभद्रा सेठानी के पुत्र हुआ । नागश्री के जीव ने, जो स्वर्ग में महर्द्धिक देव हुआ था, अपनी स्वर्ग की आयु पूरी होने के बाद यशोभद्रा के यहाँ जन्म लिया। भाई- बन्धुओं ने उसके जन्म का बहुत कुछ उत्सव मनाया। उसका नाम सुकुमाल रखा गया। उधर सुरेन्द्र पुत्र के पवित्र दर्शन कर और उसे अपने सेठ - पद का तिलक कर आप मुनि हो गया ॥१००-१०२॥ जब सुकुमाल बड़ा हुआ तब उसकी माँ को यह चिन्ता हुई कि कहीं यह भी कभी किसी मुनि को देखकर मुनि न हो जाए, इसके लिए यशोभद्रा ने अच्छे घराने की कोई बत्तीस सुन्दर कन्याओं के साथ उसका ब्याह कर उन सबके रहने को एक जुदा ही बड़ा भारी महल बनवा दिया और उसमें सब प्रकार की विषय-भोगों की एक से एक उत्तम वस्तु इकट्ठी करवा दी, जिससे कि सुकुमाल का मन सदा विषयों में फँसा रहे। इसके सिवा पुत्र के मोह से उसने अपने घर में जैन मुनियों का आना-जाना भी बन्द करवा दिया ॥१०३-१०५॥ एक दिन किसी बाहर के सौदागर ने आकर राजा प्रद्योतन को एक बहुमूल्य रत्न-कम्बल दिखलाया, इसलिए कि वह उसे खरीद ले। पर उसकी कीमत बहुत ही अधिक होने से राजा ने उसे नहीं लिया। रत्न-कम्बल की बात यशोभद्रा सेठानी को मालूम हुई उसने उस सौदागर को बुलवाकर उससे वह कम्बल सुकुमाल के लिए मोल ले लिया । पर वह रत्नों को जड़ाई के कारण अत्यन्त ही कठोर था, इसलिए सुकुमाल ने उसे पसन्द न किया। तब यशोभद्रा ने उसके टुकड़े करवा कर अपनी बहुओं के लिए उसकी जूतियाँ बनवा दीं। एक दिन सुकुमाल की प्रिया जूतियाँ खोलकर पाँव धो रही थी। इतने में एक चील मांस के भ्रम से एक जूती को उठा ले उड़ी। उसकी चोंच से छूटकर वह जूती एक वेश्या के मकान की छत पर गिरी। उस जूती को देखकर वेश्या को बड़ा आश्चर्य हुआ । वह उसे राजघराने की समझकर राजा के पास ले गई। राजा भी उसे देखकर दंग रह गए कि इतनी कीमती जिसके यहाँ जूतियाँ पहनी जाती हैं तब उसके धन का क्या ठिकाना होगा। मेरे शहर में इतना भारी धनी कौन है? इसका अवश्य पता लगाना चाहिए । राजा ने जब इस विषय की खोज की तो उन्हें सुकुमाल सेठ का समाचार मिला कि इनके पास बहुत धन है और वह जूती उनकी स्त्री की है ॥१०६-११०॥ राजा को सुकुमाल के देखने की बड़ी उत्कंठा हुई वे एक दिन सुकुमाल से मिलने को आए। राजा को अपने घर आए देख सुकुमाल की माँ यशोभद्रा को बड़ी खुशी हुई उसने राजा का खूब अच्छा आदर-सत्कार किया । राजा ने प्रेमवश हो सुकुमाल को भी अपने पास सिंहासन पर बैठा लिया। यशोभद्रा ने उन दोनों की एक साथ आरती उतारी। दिये की तथा हार की ज्योति से मिलकर बढ़े हुए तेज को सुकुमाल की आँखें न सह सकीं, उनमें पानी आ गया। इसका कारण पूछने पर यशोभद्रा ने राजा से कहा - महाराज, आज इसकी इतनी उमर हो गई, कभी इसने रत्नमयी दीये को छोड़कर ऐसे दीये को नहीं देखा । इसलिए इसकी आँखों में पानी आ गया है। यशोभद्रा जब दोनों को भोजन कराने बैठी तब सुकुमाल अपनी थाली में परोसे हुए चावलों में से एक-एक चावल को बीन-बीनकर खाने लगा । देखकर राजा को बड़ा अचम्भा हुआ । उसने यशोभद्रा से इसका भी कारण पूछा। यशोभद्रा ने कहा-राजराजेश्वर, इसे जो चावल खाने को दिये जाते हैं वे खिले हुए कमलों में रखे जाकर सुगन्धित किये होते हैं। पर आज वे चावल थोड़े होने से मैंने उन्हें दूसरे चावलों के साथ मिलाकर बना लिया। इससे वह एक-एक चावल चुन-चुनकर खाता है । राजा सुनकर बड़े ही खुश हुए। उन्होंने पुण्यात्मा सुकुमाल की बहुत प्रशंसा कर कहा - सेठानी जी, अब तक तो आपके कुँवर साहब केवल आपके ही घर के सुकुमाल थे, पर अब मैं इनका अवन्ति-सुकुमाल नाम रखकर इन्हें सारे देश का सुकुमाल बनाता हूँ। मेरा विश्वास है कि मेरे देशभर में इस सुन्दरता का इस सुकुमारता का यही आदर्श है । इसके बाद राजा सुकुमाल को संग लिए महल के पीछे जलक्रीड़ा करने बावड़ी पर गए। सुकुमाल के साथ उन्होंने बहुत देर तक जलक्रीड़ा की। खेलते समय राजा की उँगली में से अँगूठी निकलकर क्रीड़ा सरोवर में गिर गई राजा उसे ढूँढ़ने लगे। वे जल के भीतर देखते हैं तो उन्हें उसमें हजारों बड़े - बड़े सुन्दर और कीमती भूषण देख पड़े। उन्हें देखकर राजा की अकल चकरा गई। वे सुकुमाल के अनन्त वैभव को देखकर बड़े चकित हुए। वे यह सोचते हुए, कि यह सब पुण्य की लीला है, कुछ शर्मिन्दा से होकर महल लौट आए ॥१११-११८॥ सज्जनों, सुनो-धन-धान्यादि सम्पदा का मिलना, पुत्र, मित्र और सुन्दर स्त्री का प्राप्त होना, बन्धु-बान्धवों का सुखी होना, अच्छे-अच्छे वस्त्र और आभूषणों का होना, दुमंजले, तिमंजले आदि मनोहर महलों में रहने को मिलना, खाने-पीने को अच्छी से अच्छी वस्तुएँ प्राप्त होना, विद्वान् होना, नीरोग होना आदि जितनी सुख - सामग्री हैं, वह सब जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश दिये मार्ग पर चलने से जीवों को मिल सकती है। इसलिए दुःख देने वाले खोटे मार्ग को छोड़कर बुद्धिमानों को सुख का मार्ग और स्वर्ग-मोक्ष के सुख का बीज पुण्यकर्म करना चाहिए । पुण्य जिन भगवान् की पूजा करने से, पात्रों को दान देने से तथा व्रत, उपवास, ब्रह्मचर्य के धारण करने से होता है ॥११९-१२३॥ एक दिन जैनतत्त्व के परम विद्वान् सुकुमाल के मामा गणधराचार्य सुकुमाल की आयु बहुत थोड़ी रही जानकर उसके महल के पीछे से बगीचे में आकर ठहरे और चातुर्मास लग जाने से उन्होंने वहीं योग धारण कर लिया । यशोभद्रा को उनके आने की खबर हुई वह जाकर उनसे कह आई कि प्रभो, जब तक आपका योग पूरा न हो तब तक आप कभी ऊँचे से स्वाध्याय या पठन-पाठन न कीजिएगा। जब उनका योग पूरा हुआ तब उन्होंने अपने योग- सम्बन्धी सब क्रियाओं के अन्त में लोकप्रज्ञप्ति का पाठ करना शुरू किया। उसमें उन्होंने अच्युतस्वर्ग के देवों की आयु, उनके शरीर की ऊँचाई आदि का खूब अच्छी तरह वर्णन किया । उसे सुनकर सुकुमाल को जातिस्मरण हो गया। पूर्व जन्म में पाए दुःखों को याद कर वह काँप उठा । वह उसी समय चुपके से महल से निकल कर मुनिराज के पास आ गया और उन्हें भक्ति से नमस्कार कर उनके पास बैठ गया। तब मुनि ने उससे - बेटा, अब तुम्हारी आयु सिर्फ तीन दिन की रह गई है, इसलिए अब तुम्हें इन विषय-भोगों को छोड़कर अपना आत्महित करना उचित है। ये विषय-भोग पहले कुछ अच्छे से मालूम होते हैं, पर इनका अन्त बड़ा ही दुःखदायी है । जो विषय-भोगों की धुन में ही मस्त रहकर अपने हित की ओर ध्यान नहीं देते, उन्हें कुगतियों के अनन्त दुःख उठाना पड़ते हैं । तुम समझो सियाले में आग बहुत प्यारी लगती है, पर जो उसे छुएगा वह तो जलेगा ही। यही हाल इन ऊपर के स्वरूप से मन को लुभाने वाले विषयों का है ॥१२४-१३०॥ इसलिए ऋषियों ने इन्हें ‘भोगा भुजंगभोगाभाः' अर्थात् सर्प के समान भयंकर कहकर उल्लेख किया है। विषयों को भोगकर आज तक कोई सुखी नहीं हुआ, तब फिर ऐसी आशा करना कि इनसे सुख मिलेगा, नितान्त भूल है । मुनिराज का उपदेश सुनकर सुकुमाल को बड़ा वैराग्य हुआ। वह उसी समय सुख देने वाली जिनदीक्षा लेकर मुनि हो गया। मुनि होकर सुकुमाल वन की ओर चल दिया। उसका यह अन्तिम जीवन बड़ा ही करुणा से भरा हुआ है । कठोर से कठोर चित्त वाले मनुष्यों तक के हृदयों को हिला देने वाला है । सारी जिन्दगी में कभी जिनकी आँखों आँसू न झरे हों, उन आँखों में भी सुकुमाल का यह जीवन आँसू ला देने वाला है । पाठकों को सुकुमाल की सुकुमारता का हाल मालूम है कि यशोभद्रा ने जब उसकी आरती उतारी थी, तब जो मंगल द्रव्य सरसों उस पर डाली गई थी, उन सरसों के चुभने को भी सुकुमाल न सह सका था । यशोभद्रा ने उसके लिए रत्नों का बहूमूल्य कम्बल खरीदा था, पर उसने उसे कठोर होने से ही ना - पास कर दिया था । उसकी माँ का उस पर इतना प्रेम था, उसने उसे इस प्रकार लाड़-प्यार से पाला था कि सुकुमाल को कभी जमीन पर तक पाँव रखने का मौका नहीं आया था। उसी सुकुमार सुकुमाल ने अपने जीवन भर के एक रूप से बहे प्रवाह को कुछ ही मिनटों के उपदेश से बिल्कुल ही उल्टा बहा दिया। जिसने कभी यह नहीं जाना कि घर बाहर क्या है, वह अब अकेला भयंकर जंगल में जा बसा । जिसने स्वप्न में भी कभी दुःख नहीं देखा, वही अब दुःखों का पहाड़ अपने सिर पर उठा लेने को तैयार हो गया। सुकुमाल दीक्षा लेकर वन की ओर चला । कंकरीली जमीन पर चलने से उसके फूलों से कोमल पाँवों में कंकर-पत्थरों के गड़ने से घाव हो गए। उनसे खून की धारा बह चली। पर धन्य सुकुमाल की सहनशीलता जो उसने उसकी ओर आँख उठाकर भी नहीं झाँका । अपने कर्तव्य में वह इतना एकनिष्ठ हो गया, इतना तन्मय हो गया कि उसे इस बात का भान ही न रहा कि मेरे शरीर की क्या दशा हो रही है सुकुमाल की सहनशीलता की इतने में ही समाप्त नहीं हो गई। अभी आगे बढ़िए और देखिये कि वह अपने को इस परीक्षा में कहाँ तक उत्तीर्ण करता है ॥१३१॥ पाँवों से खून बहता जाता है और सुकुमाल मुनि चले जा रहे हैं । चलकर वे एक पहाड़ की गुफा में पहुँचे। वहाँ वे ध्यान लगाकर बारह भावनाओं का विचार करने लगे । उन्होंने प्रायोपगमन संन्यास एक पाँव से खड़े रहने का ले लिया, जिसमें कि किसी से अपनी सेवा-शुश्रूषा भी कराना मना किया है। सुकुमाल मुनि तो इधर आत्म-ध्यान में लीन हुए। अब जरा इनके वायुभूति के जन्म को याद कीजिए ॥१३२॥ जिस समय वायुभूति के बड़े भाई अग्निभूति मुनि हो गए थे, तब इनकी स्त्री ने वायुभूति से कहा था कि देखो, तुम्हारे कारण से ही तुम्हारे भाई मुनि हो गए सुनती हूँ । तुमने अन्याय कर मुझे दुःख के सागर में ढकेल दिया । चलो, जब तक वे दीक्षा न ले उससे पहले उन्हें हम तुम समझा- बुझाकर घर लौटा लावें । इस पर गुस्सा होकर वायुभूति ने अपनी भौजी को बुरी - भली सुना डाली थी और फिर ऊपर से उस पर लात भी जमा दी थी । तब उसने निदान किया था कि पापी, तूने मुझे निर्बल समझ मेरा जो अपमान किया है, मुझे कष्ट पहुँचाया है, यह ठीक है कि मैं इस समय इसका बदला नहीं चुका सकती । पर याद रख कि इस जन्म में नहीं तो परजन्म में सही, पर बदला लूँगी और घोर बदला लूँगी। इसके बाद वह मरकर अनेक कुयोनियों में भटकी । अन्त में वायुभूति तो यह सुकुमाल हुए और उनकी भौजी सियारनी हुई। जब सुकुमाल मुनि वन की ओर रवाना हुए और उनके पावों में कंकर, पत्थर, काँटे वगैरह लगकर खून बहने लगा, तब यही सियारनी अपने पिल्लों को साथ लिए उस खून को चाटती-चाटती वहीं आ गई जहाँ सुकुमाल मुनि ध्यान में मग्न हो रहे थे । सुकुमाल को देखते ही पूर्वजन्म के संस्कार से सियारनी को अत्यन्त क्रोध आया। वह उनकी ओर घूरती हुई उनके बिल्कुल नजदीक आ गई है। उसका क्रोध भाव उमड़ा। उसने सुकुमाल को खाना शुरू कर दिया। उसे खाते देखकर उसके पिल्ले भी खाने लग गए। जो कभी एक तिनके का चुभ जाना भी नहीं सह सकता था, वह आज ऐसे घोर कष्ट को सहकर भी सुमेरु सा निश्चय बना हुआ था। जिसके शरीर को एक साथ चार हिंसक जीव बड़ी निर्दयता से खा रहे है, तब भी जो रंचमात्र हिलता - डुलता तक नहीं। उस महात्मा की इस अलौकिक सहन-शक्ति का किन शब्दों में उल्लेख किया जाए, यह बुद्धि में नहीं आता। तब भी जो लोग एक ना- कुछ चीज काँटे के लग जाने से तिलमिला उठते हैं, वे अपने हृदय में जरा गंभीरता के साथ विचार कर देखें कि सुकुमाल मुनि की आदर्श सहनशक्ति कहाँ तक बढ़ी चढ़ी थी और उनका हृदय कितना उच्च था! सुकुमाल मुनि की यह सहनशक्ति उन कर्तव्यशील मनुष्यों को अप्रत्यक्ष रूप में शिक्षा कर रही है कि अपने उच्च और पवित्र कामों में आने वाले विघ्नों की परवाह मत करो। विघ्नों को आने दो और खूब आने दो । आत्मा की अनन्त शक्तियों के सामने ये विघ्न कुछ चीज नहीं, किसी गिनती में नहीं । तुम अपने पर विश्वास करो । भरोसा करो। हर एक कामों में आत्मदृढ़ता, आत्मविश्वास, उनके सिद्ध होने का मूलमंत्र है। जहाँ ये बातें नहीं वहाँ मनुष्यता भी नहीं। तब कर्तव्यशीलता तो फिर योजनों की दूरी पर है। सुकुमाल यद्यपि सुखिया जीव थे, पर कर्तव्यशीलता उनके पास थी । इसलिए देखने वालों के भी हृदय को हिला देने वाले कष्ट में भी वे अचल रहे ॥१३३-१३६॥ सुकुमाल मुनि को उस सियारनी ने पूर्व बैर के सम्बन्ध से तीन दिन तक खाया। पर वे मेरु के समान धीर रहे। दुःख की उन्होंने कुछ परवाह न की । यहाँ तक कि अपने को खाने वाली सियारनी पर भी उनके बुरे भाव न हुए। शत्रु और मित्र को समभावों से देखकर उन्होंने अपना कर्तव्यपालन किया। तीसरे दिन सुकुमाल शरीर छोड़कर अच्युतस्वर्ग में महर्द्धिक देव हुए ॥१३७॥ वायुभूति की भौजी ने निदान के वश सियारनी होकर अपने बैर का बदला चुका लिया। सच है, निदान करना अत्यन्त दुःखों का कारण है । इसलिए भव्यजनों को यह पाप का कारण निदान कभी नहीं करना चाहिए। इस पाप के फल से सियारनी मरकर कुगति में गई । कहाँ वे मन को अच्छे लगने वाले भोग और कहाँ यह दारुण तपस्या ! सच तो यह है कि महापुरुषों का चरित कुछ विलक्षण हुआ करता है। सुकुमाल मुनि अच्युतस्वर्ग में देव होकर अनेक प्रकार के दिव्य सुखों को भोगते हैं और जिनभगवान् की भक्ति में सदा लीन रहते हैं । सुकुमाल मुनि की इस वीर मृत्यु के उपलक्ष्य में स्वर्ग के देवों ने आकर उनका बड़ा उत्सव मनाया।‘जय जय' शब्द द्वारा महाकोलाहल हुआ। इसी दिन से उज्जैन में महाकाल नाम के कुतीर्थ की स्थापना हुई, जिसके कि नाम से अगणित जीव रोज वहाँ मारे जाने लगे और देवों ने जो र जल की वर्षा की थी, उससे वहाँ की नदी गन्धवती नाम से प्रसिद्ध हुई ॥१३८-१४१॥ जिसने दिनरात विषय-भोगों में ही फँसे रहकर अपनी सारी जिन्दगी बिताई, जिसने कभी दुःख का नाम भी न सुना था, उस महापुरुष सुकुमाल ने मुनिराज द्वारा अपनी तीन दिन की आयु सुनकर उसी समय माता, स्त्री, पुत्र आदि स्वजनों को, धन-दौलत को और विषय - भोगों को छोड़-छाड़कर जिनदीक्षा ले ली और अन्त में पशुओं द्वारा दुःसह कष्ट सहकर भी जिसने बड़ी धीरता और शान्ति के साथ मृत्यु को अपनाया। वे सुकुमाल मुनि मुझे कर्तव्य के लिए कष्ट सहने की शक्ति प्रदान करें ॥१४२॥
  5. संसार-समुद्र से पार करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर परशुराम का चरित्र लिखा जाता है जिसे सुनकर आश्चर्य होता है ॥१॥ अयोध्या का राजा कार्त्तवीर्य अत्यन्त मूर्ख था। उसकी रानी का नाम पद्मावती था। अयोध्या के जंगल में यमदग्नि नाम के एक तपस्वी का आश्रम था। इस तपस्वी की स्त्री का नाम रेणुका था। इसके दो लड़के थे। इसमें एक का नाम श्वेतराम था और दूसरे का महेन्द्रराम। एक दिन की बात है कि रेणुका के भाई वरदत्त मुनि उस ओर आ निकले। वे एक वृक्ष के नीचे ठहरे। उन्हें देखकर रेणुका बड़े प्रेम से उनसे मिलने को आई और उनके हाथ जोड़कर वहीं बैठ गई । बुद्धिमान् वरदत्त मुनि ने उससे कहा-बहिन, मैं तुझे कुछ धर्म का उपदेश सुनाता हूँ। तू उसे जरा सावधानी से सुन! देख, सब जीव सुख को चाहते हैं, पर सच्चे सुख के प्राप्त करने की कोई बिरला ही खोज करता है और इसीलिए प्रायः लोग दुःखी देखे जाते हैं। सच्चे सुख का कारण पवित्र सम्यग्दर्शन का ग्रहण करना है। जो पुरुष सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं, वे दुर्गतियों में फिर नहीं भटकते । संसार का भ्रमण भी उनका कम हो जाता है । उनमें कितने तो उसी भव से मोक्ष चले जाते हैं । सम्यक्त्व का साधारण स्वरूप यह है कि सच्चे देव, सच्चे गुरु और सच्चे शास्त्र पर विश्वास लाना। सच्चे देव वे हैं, जो भूख और प्यास, राग और द्वेष, क्रोध और लोभ, मान और माया आदि अठारह दोषों से रहित हों, जिनका ज्ञान इतना बढ़ा-चढ़ा हो कि उससे संसार का कोई पदार्थ अंजाना न रह गया हो, जिन्हें स्वर्ग के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती और बड़े-बड़े राजा-महाराजा भी पूजते हों और जिनका उपदेश किया पवित्र धर्म, इस लोक और परलोक में सुख का देने वाला हो तथा जिस पवित्र धर्म की इन्द्रादि देव भी पूजा-भक्ति कर अपना जीवन कृतार्थ समझते हों । धर्म का स्वरूप उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव आदि दशलक्षणों द्वारा प्रायः प्रसिद्ध है और सच्चे गुरु वे कहलाते हैं, जो शील और संयम के पालने वाले हों, ज्ञान और ध्यान का साधन ही जिनके जीवन का खास उद्देश्य हो और जिनके पास परिग्रह रत्तीभर भी न हो । इन बातों पर विश्वास करने को सम्यक्त्व कहते हैं । इसके सिवा गृहस्थों के लिए पात्रदान करना, भगवान् की पूजा करना, अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत धारण करना, पर्वों में उपवास वगैरह करना आदि बातें भी आवश्यक हैं। यह गृहस्थ-धर्म कहलाता है। तू इसे धारण कर। इससे तुझे सुख प्राप्त होगा। भाई के द्वारा धर्म का उपदेश सुन रेणुका बहुत प्रसन्न हुई। उसने बड़ी श्रद्धा-भक्ति के साथ सम्यक्त्व - रत्न द्वारा अपनी आत्मा को विभूषित किया और सच भी है, यही सम्यक्त्व तो भव्यजनों का भूषण है। रेणुका का धर्म-प्रेम देखकर वरदत्त मुनि ने उसे एक ‘परशु’ और दूसरी 'कामधेनु' ऐसी दो महाविद्याएँ दीं, जो कि नाना प्रकार का सुख देने वाली हैं। रेणुका को विद्या देकर जैनतत्त्व के परम विद्वान् वरदत्तमुनि विहार कर गए। इधर सम्यक्त्वशालिनी रेणुका घर आकर सुख से रहने लगी। रेणुका को धर्म पर अब खूब प्रेम हो गया। वह भगवान् की बड़ी भक्त हो गई ॥२-१८॥ एक दिन राजा कार्त्तवीर्य हाथी पकड़ने को इसी वन की ओर आ निकला। घूमता हुआ वह रेणुका के आश्रम में आ गया। यमदग्नि तापस ने उसका अच्छा आदर-सत्कार किया और उसे अपने यहीं जिमाया। भोजन कामधेनु नाम की विद्या की सहायता से बहुत उत्तम तैयार किया गया था। राजा भोजन कर बहुत ही प्रसन्न हुआ और क्यों न होता ? क्योंकि सारी जिन्दगी में उसे कभी ऐसा भोजन खाने को ही न मिला था । उस कामधेनु को देखकर इस पापी राजा के मन में पाप आया। यह कृतघ्न तब उस बेचारे तापसी को जान से मारकर गौ को ले गया । सच है, दुर्जनों का स्वभाव ही ऐसा होता है कि जो उनका उपकार करते हैं, वे दूध पिलाये सर्प की तरह अपने उन उपकारक की ही जान के लेने वाले हो उठते हैं ॥ १९-२२॥ राजा के जाने के थोड़ी देर बाद ही रेणुका के दोनों लड़के जंगल से लकड़ियाँ वगैरह लेकर आ गए। माता को रोती हुई देखकर उन्होंने उसका कारण पूछा। रेणुका ने सब हाल उनसे कह दिया। माता की दुःख भरी बातें सुनकर श्वेतराम के क्रोध का ठिकाना न रहा । वह कार्त्तवीर्य से अपने पिता का बदला लेने के लिए उसी समय माता से 'परशु' नाम की विद्या को लेकर अपने छोटे भाई को साथ लिए चल पड़ा। राजा के नगर में पहुँच कर उसने कार्त्तवीर्य को युद्ध के लिए ललकारा। यद्यपि एक ओर कार्त्तवीर्य की प्रचण्ड सेना थी और दूसरी ओर सिर्फ ये दो ही भाई थे; पर तब भी परशु विद्या के प्रभाव से इन दोनों भाइयों ने कार्त्तवीर्य की सारी सेना को छिन्न-भिन्न कर दिया और अन्त में कार्त्तवीर्य को मारकर अपने पिता का बदला लिया। मरकर पाप के फल से कार्त्तवीर्य नरक गया। सो ठीक ही है, पापियों की ऐसी गति होती ही है । उस तृष्णा को धिक्कार है जिसके वश हो लोग न्याय-अन्याय को कुछ नहीं देखते और फिर अनेक कष्टों को सहते हैं । ऐसे ही अन्यायों द्वारा तो पहले भी अनेक राजाओं - महाराजाओं का नाश हुआ है । और ठीक भी है जिस वायु से बड़े-बड़े हाथी तक मर जाते हैं तब उसके सामने बेचारे कीट-पतंगादि छोटे-छोटे जीव तो ठहर कैसे सकते हैं। श्वेतराम ने कार्त्तवीर्य को परशु विद्या से मारा था, इसलिए फिर अयोध्या में वह 'परशुराम' इस नाम से प्रसिद्ध हुआ ॥२३-२९॥ संसार में जो शूरवीर, विद्वान्, सुखी, धनी हुए देखे जाते हैं वह पुण्य की महिमा है। इसलिए जो सुखी, विद्वान्, धनवान्, वीर आदि बनना चाहते हैं, उन्हें जिन भगवान् का उपदेश किया पुण्य- मार्ग ग्रहण करना चाहिए ॥३०॥
  6. सारे संसार द्वारा भक्ति सहित पूजा किए गए जिन भगवान् को नमस्कार कर प्राचीनाचार्यों के कहे अनुसार मृगध्वज राजकुमार की कथा लिखी जाती है ॥१॥ सीमन्धर अयोध्या के राजा थे। उनकी रानी का नाम जिनसेना था। इनके एक मृगध्वज नाम का पुत्र था। वह मांस का बड़ा लोलुपी था । उसे बिना मांस खाये एक दिन भी चैन न पड़ता था। यहाँ एक राजकीय भैंसा था । वह बुलाने से पास चला आता, लौट जाने को कहने से चला जाता और लोगों के पाँवों में लोटने लगता । एक दिन वह भैंसा एक तालाब में क्रीड़ा कर रहा था । इतने में राजकुमार मृगध्वज, मंत्री और सेठ के लड़कों को साथ लिए वहाँ आया । इस भैंसे के पाँवों को देखकर मृगध्वज के मन में न जाने क्या धुन समाई सो उसने अपने नौकर से कहा- देखो, आज इस भैंसे का पिछला पाँव काट कर इसका मांस खाने के लिए पकाना । इतना कहकर मृगध्वज चल दिया। नौकर उसके कहे अनुसार भैंसे का पाँव काट कर ले गया। उसका मांस पका। उसे खाकर राजकुमार और उसके साथी बड़े प्रसन्न हुए। इधर बेचारा भैंसा बड़े दुःख के साथ लंगड़ाता हुआ राजा के सामने जाकर गिर पड़ा। राजा ने देखा कि उसकी मौत आ गई है। इसलिए उस समय उसने विशेष पूछ-पाछ न कर, कि किसने उसकी ऐसी दशा की है, दयाबुद्धि से उसे संन्यास देकर नमस्कार मन्त्र सुनाया। सच है, संसार में बहुत से ऐसे भी गुणवान् परोपकारी हैं, जो चन्द्रमा, सूर्य, कल्पवृक्ष, पानी आदि उपकारक वस्तुओं से भी कहीं बढ़कर हैं। भैंसा मरकर नमस्कार मन्त्र के प्रभाव से सौधर्म स्वर्ग में जाकर देव हुआ । सच है, जिनेन्द्र भगवान् का उपदेश किया पवित्र धर्म जीवों का वास्तव में हित करने वाला है ॥२-९॥ इसके बाद राजा ने इस बात का पता लगाया कि भैंसा की यह दशा किसने की। उन्हें जब यह नीच काम अपने और मंत्री तथा सेठ के पुत्रों का जान पड़ा तब तो उनके गुस्से का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने उसी समय तीनों को मरवा डालने के लिए मंत्री को आज्ञा की । इस राजाज्ञा की खबर उन तीनों को भी लग गई तब उन्होंने झटपट मुनिदत्त मुनि के पास जाकर उनसे जिन दीक्षा ले ली। इनमें मृगध्वज महामुनि बड़े तपस्वी हुए । उन्होंने कठिन तपस्या कर ध्यानाग्नि द्वारा घातिया कर्मों का नाश किया और केवलज्ञान प्राप्त कर संसार द्वारा वे पूज्य हुए। सच है, जिनधर्म का प्रभाव ही कुछ ऐसा अचिन्त्य है जो महापापी से पापी भी उसे धारण कर त्रिलोक - पूज्य हो जाता है और ठीक भी है, धर्म से और उत्तम है ही क्या? वे मृगध्वज मुनि मुझे और आप भव्य-जनों को महा मंगलमय मोक्ष लक्ष्मी दें, जो भव्य - जनों का उद्धार करने वाले हैं, केवलज्ञानरूपी अपूर्व नेत्र के धारक हैं, देवों, विद्याधरों और बड़े-बड़े राजाओं-महाराजाओं से पूज्य हैं, संसार का हित करने वाले हैं, बड़े धीर हैं और अनेक प्रकार का उत्तम से उत्तम सुख देने वाले हैं ॥१०-१५॥
  7. देवो द्वारा पूजा किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर दूसरे चक्रवर्ती सगर का चरित लिखा जाता है ॥१॥ जम्बूद्वीप के प्रसिद्ध और सुन्दर विदेह क्षेत्र की पूरब दिशा में सीता नदी के पश्चिम की ओर वत्सकावती नाम का एक देश है । वत्सकावती की बहुत पुरानी राजधानी पृथ्वीनगर के राजा का नाम जयसेन था। जयसेन की रानी जयसेना थी । इसके दो लड़के हुए। इनके नाम थे रतिषेण और धृतिषेण। दोनों भाई बड़े सुन्दर और गुणवान् थे । काल की कराल गति से रतिषेण अचानक मर गया। जयसेन को इसके मरने का बड़ा दुःख हुआ और इसी दुःख के मारे वे धृतिषेण को राज्य देकर मारुत और मिथुन नाम के राजाओं के साथ यशोधर मुनि के पास दीक्षा ले साधु हो गए। बहुत दिनों तक इन्होंने तपस्या की। फिर संन्यास सहित शरीर छोड़ स्वर्ग में वह महाबल नाम का देव हुआ इनके साथ दीक्षा लेने वाला मारुत भी इसी स्वर्ग में मणिकेतु नामक देव हुआ, जो कि भगवान् के चरण कमलों का भौंरा था, अत्यन्त भक्त था । वे दोनों देव स्वर्ग की सम्पत्ति प्राप्त कर बहुत प्रसन्न हुए। एक दिन उन दोनों ने विनोद करते-करते धर्म- प्रेम से एक प्रतिज्ञा की कि जो हम दोनों में पहले मनुष्य-जन्म धारण करे, तब स्वर्ग में रहने वाले देव का कर्तव्य होना चाहिए कि वह मनुष्य- लोक में जाकर उसे समझाये और संसार से उदासीनता उत्पन्न करा कर जिनदीक्षा के सम्मुख करे ॥२-११॥ महाबल की आयु बाईस सागर की थी । तब तक उसने खूब मनमाना स्वर्ग का सुख भोगा। अन्त में आयु पूरी कर बचे हुए पुण्य प्रभाव से वह अयोध्या के राजा समुद्रविजय की रानी सुबला के सगर नाम का पुत्र हुआ । इसकी उम्र सत्तर लाख पूर्व वर्षों की । उसके सोने के समान चमकते हुए शरीर की ऊँचाई साढ़े चार सौ धनुष अर्थात् १५७५ हाथों की थी । संसार की सुन्दरता ने इसी में आकर अपना डेरा दिया था, वह बड़ा ही सुन्दर था । जो इसे देखता उसके नेत्र बड़े आनन्दित होते । सगर ने राज्य प्राप्त कर छहों खण्ड पृथ्वी पर विजय प्राप्त की। अपनी भुजाओं के बल उसने दूसरे चक्रवर्ती का मान प्राप्त किया । सगर चक्रवर्ती हुआ, पर इसके साथ वह अपना धर्म-कर्म भूल गया था। उसके आठ हजार पुत्र हुए। इसे कुटुम्ब, धन-दौलत, शरीर, सम्पत्ति आदि सभी सुख प्राप्त थे । उसका समय खूब ही सुख के साथ बीतता था । सच है, पुण्य से जीवों को सभी उत्तम - उत्तम सम्पदायें प्राप्त होती है। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे जिनभगवान् के उपदेश किए गए पुण्यमार्ग का पालन करें ॥१२- १८॥ इसी अवसर में सिद्धवन में चतुर्मुख महामुनि को केवलज्ञान हुआ । स्वर्ग के देव, विद्याधर राजा-महाराजा उनकी पूजा के लिए आए। सगर भी भगवान् के दर्शन करने को आया था। सगर को आया देख मणिकेतु ने उससे कहा- क्यों राजराजेश्वर, क्या अच्युत स्वर्ग की बात याद है? जहाँ कि तुमने और मैंने प्रेम के वश हो प्रतिज्ञा की थी । कि जो हम दोनों में से पहले मनुष्य जन्म ले उसे स्वर्ग का देव जाकर समझावें और संसार से उदासीन कर तपस्या के सम्मुख करें अब तो आपने बहुत समय तक राज्य-सुख भोग लिया । अब तो इसके छोड़ने का यत्न कीजिए। क्या आप नहीं जानते कि ये विषय-भोग दुःख के कारण और संसार में घुमाने वाले हैं? राजन्, आप तो स्वयं बुद्धिमान् हैं। आपको मैं क्या अधिक समझा सकता हूँ। मैंने तो सिर्फ अपनी प्रतिज्ञा-पालन के लिए आपसे इतना निवेदन किया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप इन क्षण-भंगुर विषयों से अपनी लालसा को कम करके जिन भगवान् का परम पवित्र तपोमार्ग ग्रहण करेंगे और बड़ी सावधानी के साथ मुक्ति कामिनी के साथ ब्याह की तैयारी करेंगे । मणिकेतु ने उसे बहुत कुछ समझाया पर पुत्रमोही सगर को संसार से नाममात्र के लिए उदासीनता न हुई । मणिकेतु ने जब देखा कि अभी यह पुत्र, स्त्री, धन- दौलत के मोह में खूब फँस रहा है। अभी इसे संसार से, विषयभोगों से उदासीन बना देना कठिन ही नहीं किन्तु एक प्रकार असंभव को संभव करने का यत्न है । अस्तु, फिर देखा जायेगा। यह विचार कर मणिकेतु अपने स्थान चला गया। सच है, काललब्धि के बिना कल्याण हो भी नहीं सकता ॥१९-२६॥ कुछ समय के बाद मणिकेतु के मन में फिर एक बार तरंग उठी कि अब किसी दूसरे यत्न द्वारा सगर को तपस्या के सम्मुख करना चाहिए । तब वह चारण मुनि का वेष लेकर, जो कि स्वर्ग- मोक्ष के सुख का देने वाला है, सगर के जिन मन्दिर में आया और भगवान् के दर्शन कर वहीं ठहर गया। उसकी नई उमर और सुन्दरता को देखकर सगर को बड़ा अचम्भा हुआ । उसने मुनिरूप धारण करने वाले देव से पूछा, मुनिराज, आपकी इस नई उमर ने, जिसने कि संसार का अभी कुछ सुख नहीं देखा, ऐसे कठिन योग को किसलिए धारण किया? मुझे तो आपको योगी हुए देखकर बड़ा ही आश्चर्य हो रहा है तब देव ने कहा- राजन् ! तुम कहते हो, वह ठीक है । पर मेरा विश्वास है कि संसार में सुख है ही नहीं। जिधर मैं आँखें खोलकर देखता हूँ मुझे दुःख या अशान्ति ही देख पड़ती है। यह जवानी बिजली की तरह चमक कर पलभर में नाश होने वाली है । यह शरीर, जिसे कि तुम भोगों में लगाने को कहते हो, महा अपवित्र है । ये विषय-भोग, जिन्हें तुम सुखरूप समझते हो, सर्प के समान भयंकर हैं और यह संसाररूपी समुद्र अथाह है, नाना तरह के दुःखरूपी भयंकर जलजीवों से भरा हुआ है और मोह जाल में फँसे हुए जीवों के लिए अत्यन्त दुस्तर है । तब जो पुण्य से यह मनुष्य देह मिली है, इसे इस अथाह समुद्र में बहने देना या जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा बतलाये इस अथाह समुद्र के पार होने के साधन तपरूपी जहाज द्वारा उसके पार पहुँचा देना। मैं तो इसके लिए यही उचित समझता हूँ कि, जब संसार असार है और उसमें सुख नहीं है, तब संसार से पार होने का उपाय करना ही कर्तव्य और दुर्लभ मनुष्य देह के प्राप्त करने का फल है। मैं तो तुम्हें भी यही सलाह दूँगा कि तुम इस नाशवान् माया-ममता को छोड़कर कभी नाश न होने वाली लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए यत्न करो । मणिकेतु ने इसके सिवा और भी बहुत कहने सुनने या समझाने में कोई कसर न की। पर सगर सब कुछ जानता हुआ भी पुत्र - प्रेम के वश हो संसार को न छोड़ सका । मणिकेतु को इससे बड़ा दुःख हुआ कि सगर की दृष्टि में अभी संसार की तुच्छता नजर न आई और वह उल्टा उसी में फँसता जाता है । लाचार हो वह स्वर्ग चला गया ॥२७-३४॥ एक दिन सगर राज सभा में सिंहासन पर बैठे हुए थे इतने में उनके पुत्रों ने आकर उनसे सविनय प्रार्थना की-पूज्य पिताजी, उन वीर क्षत्रिय - पुत्रों का जन्म किसी काम का नहीं, व्यर्थ है, जो कुछ काम न कर पड़े-पड़े खाते-पीते और ऐशोआराम उड़ाया करते हैं। इसलिए आप कृपाकर हमें कोई काम बतलाइए। फिर वह कितना ही कठिन या असाध्य ही क्यों न हो, उसे हम करेंगे। सगर ने उन्हें जवाब दिया- पुत्रों, तुमने कहा- वह ठीक है और तुमसे वीरों को यही उचित भी है पर अभी मुझे कोई कठिन या सीधा ऐसा काम नहीं दीख पड़ता जिसके लिए मैं तुम्हें कष्ट दूँ और न छहों खण्ड पृथ्वी में मेरे लिए कुछ असाध्य ही है। इसलिए मेरी तो तुमसे यही आज्ञा है कि पुण्य से जो धन-सम्पत्ति प्राप्त है, इसे तुम भोगो। उस दिन तो वे सब लड़के पिता की बात का कुछ जवाब न देकर चुपचाप इसलिए चले गए कि पिता की आज्ञा तोड़ना ठीक नहीं परन्तु उनका मन इससे अप्रसन्न ही रहा ||३५-४०॥ कुछ दिन बीतने पर एक दिन वे सब फिर सगर के पास गए और उन्हें नमस्कार कर बोले- पिताजी, आपने जो आज्ञा दी थी, उसे हमने इतने दिनों उठाई, पर अब हम अत्यन्त लाचार हैं । हमारा मन यहाँ बिल्कुल नहीं लगता। इसलिए आप अवश्य कुछ काम में हमें लगाइये। नहीं तो हमें भोजन न करने को भी बाध्य होना पड़ेगा। सगर ने जब इनका अत्यन्त ही आग्रह देखा तो उसने उनसे कहा-मेरी इच्छा नहीं कि तुम किसी कष्ट के उठाने को तैयार हो । पर जब तुम किसी तरह मानने के लिए तैयार ही नहीं हो, तो अस्तु, मैं तुम्हें यह काम बताता हूँ कि श्रीमान् भरत सम्राट् ने कैलाश पर्वत पर चौबीस तीर्थंकरों के चौबीस मन्दिर बनवाएँ हैं। वे सब सोने के हैं। उनमें बे-शुमार धन खर्च किया है। उनमें जो अर्हन्त भगवान् की पवित्र प्रतिमाएँ हैं वे रत्नमयी हैं । उनकी रक्षा करना बहुत जरूरी है। इसलिए तुम जाओ कैलाश के चारों ओर एक गहरी खाई खोदकर उसमें गंगा का प्रवाह लाकर भर दो। जिससे कि फिर दुष्ट लोग मन्दिरों को कुछ हानि न पहुँचा सकें । सगर के सब पुत्र पिताजी की इस आज्ञा से बहुत खुश हुए। वे उन्हें नमस्कार कर आनन्द और उत्साह के साथ अपने काम के लिए चल पड़े। कैलाश पर पहुँच कर कई वर्षों के कठिन परिश्रम द्वारा उन्होंने चक्रवर्ती के दण्डरत्न की सहायता से अपने कार्य में सफलता प्राप्त कर ली ॥४१-४६॥ अच्छा, अब उस मणिकेतु की बात सुनिए - उसने सगर को संसार से उदासीन कर योगी बनाने के लिए दोबार यत्न किया, पर दोनों बार उसे निराश हो जाना पड़ा। अबकी बार उसने एक बड़ा भयंकर कांड रचा। जिस समय सगर के ये साठ हजार लड़के खाई खोदकर गंगा का प्रवाह लाने को हिमवान् पर्वत पर गए और इन्होंने दण्ड-रत्न द्वारा पर्वत फोड़ने के लिए उस पर एक चोट मारी उस समय मणिकेतु ने एक बड़े भारी और महाविषधर सर्प का रूप धर, जिसकी फुंकार मात्र से कोसों के जीव-जन्तु भस्म हो सकते थे, अपनी विषैली हवा छोड़ी। उससे देखते-देखते वे सब ही जलकर खाक हो गए। सच है, अच्छे पुरुष दूसरे का हित करने के लिए कभी-कभी तो उसका अहित कर उसे हित की ओर लगाते हैं। मंत्रियों को उनके मरने की बात मालूम हो गई पर उन्होंने राजा से इसलिए नहीं कहा कि वे ऐसे महान् दुःख को न सह सकेंगे। तब मणिकेतु ब्राह्मण का रूप लेकर सगर के पास पहुँचा और बड़े दुःख के साथ रोता-रोता बोला- राजाधिराज, आप सरीखे न्यायी और प्रजाप्रिय राजा के रहते मुझे अनाथ हो जाना पड़े, मेरी आँखों के एक मात्र तारे को पापी लोग जबरदस्ती मुझसे छुड़ा ले जाए, मेरी सब आशाओं पर पानी फेर कर मुझे द्वार-द्वार का भिखारी बना जाए और मुझे रोता छोड़ जाए तो इससे बढ़कर दुःख की और क्या बात होगी? प्रभो, मुझे आज पापियों ने बे-मौत मार डाला है । मेरी आप रक्षा कीजिए-अशरण-शरण, मुझे बचाइए ॥४७-५२॥ सगर ने उसे इस प्रकार दुःखी देखकर धीरज दिया और कहा - ब्राह्मण देव, घबराइए मत वास्तव में बात क्या है उसे कहिए । मैं तुम्हारे दुःख दूर करने का यत्न करूँगा। ब्राह्मण ने कहा– महाराज क्या कहूँ? कहते छाती फटी जाती है, मुँह से शब्द नहीं निकलता। यह कहकर वह फिर रोने लगा। चक्रवर्ती को इससे बड़ा दुःख हुआ । उसके अत्यन्त आग्रह करने पर मणिकेतु बोला- अच्छा तो महाराज, मेरी दुःख कथा सुनिए - मेरे एक मात्र लड़का था । मेरी सब आशा उसी पर थी। वही मुझे खिलाता-पिलाता था । पर मेरे भाग्य आज फूट गए। उसे एक काल नाम का एक लुटेरा मेरे हाथों से जबरदस्ती छीन भागा। मैं बहुत रोया व कलपा, दया की मैंने उससे भीख माँगी, बहुत आरजू-मिन्नत की, पर पापी चाण्डाल ने मेरी ओर आँख उठाकर भी न देखा। राजराजेश्वर, आपसे, मेरी हाथ जोड़कर प्रार्थना है कि आप मेरे पुत्र को उस पापी से छुड़ा ला दीजिए। नहीं तो मेरी जान न बचेगी। सगर को काल- लुटेरे का नाम सुनकर कुछ हँसी आ गई उसने कहा- महाराज, आप बड़े भोले हैं। भला, जिसे काल ले जाता है, जो मर जाता है वह फिर कभी जीता हुआ है क्या ? ब्राह्मण देव, काल किसी से नहीं रुक सकता । वह तो अपना काम किए ही चला जाता है । फिर चाहे कोई बूढ़ा हो, या जवान हो, या बालक, सबके प्रति उसके समान भाव हैं। आप तो अभी अपने लड़के के लिए रोते हैं, पर मैं कहता हूँ कि वह तुम पर भी बहुत जल्दी सवारी करने वाला है। इसलिए यदि आप यह चाहते हों कि मैं उससे रक्षा पा सकूँ, तो इसके लिए ऐसा उपाय कीजिए कि आप दीक्षा लेकर मुनि हो जाएँ और अपना आत्महित करें। इसके सिवा काल पर विजय पाने का और कोई दूसरा उपाय नहीं है। सब कुछ सुन - सुनाकर ब्राह्मण ने कुछ लाचारी बतलाते हुए कहा कि यदि यह बात सच है और वास्तव में काल से कोई मनुष्य विजय नहीं पा सकता तो लाचारी है। अस्तु, हाँ एक बात तो राजाधिराज, मैं आपसे कहना ही भूल गया और वह बड़ी ही जरूरी बात थी । महाराज, इस भूल की मुझ गरीब पर क्षमा कीजिए । बात यह है कि मैं रास्ते में आता - आता सुनता आ रहा हूँ, लोग परस्पर में बातें करते हैं कि हाय ! बड़ा बुरा हुआ जो अपने महाराज के लड़के कैलाश पर्वत की रक्षा के लिए खाई खोदने को गए थे, वे सबके सब एक साथ मर गए ॥५३-५७॥ ब्राह्मण का कहना पूरा भी न हुआ था कि सगर एकदम गश खाकर गिर पड़े। सच है, ऐसे भयंकर दुःख समाचार से किसे गश न आयेगा, कौन मूच्छित न होगा? उसी समय उपचारों द्वारा सगर होश में लाये गए। इसके बाद मौका पाकर मणिकेतु ने उन्हें संसार की दशा बतलाकर खूब उपदेश किया। अब की बार वह सफल प्रयत्न हो गया । सगर को संसार की इस क्षण-भंगुर दशा पर बड़ा ही वैराग्य हुआ। उन्होंने भागीरथ को राज देकर और सब माया-ममता छुड़ाकर दृढ़धर्म केवली द्वारा दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि संसार का भटकना मिटाने वाली है ॥५८-६१॥ सगर की दीक्षा लेने के बाद ही मणिकेतु कैलाश पर्वत पर पहुँचा और उन लड़कों को माया- मौत से सचेत कर बोला- सगर सुतो सुनो, जब आपकी मृत्यु का हाल आपके पिता ने सुना तो उन्हें अत्यन्त दुःख हुआ और इसी दुःख के मारे वे संसार की विनाशीक लक्ष्मी को छोड़कर साधु हो गए। मैं आपके कुल का ब्राह्मण हूँ । महाराज को दीक्षा ले जाने की खबर पाकर आपको ढूँढ़ने को निकला था। अच्छा हुआ जो आप मुझे मिल गए। अब आप राजधानी में जल्दी चलें । ब्राह्मणरूपधारी मणिकेतु द्वारा पिता का अपने लिए दीक्षित हो जाना सुनकर सगरसुतों ने कहा महाराज, आप जायें । हम लोग अब घर नहीं जाएँगे । जिस लिए पिताजी सब राज्यपाठ छोड़कर साधु हो गए तब हम किस मुँह से उस राज को भोग सकते हैं? हमसे इतनी कृतघ्नता न होगी, जो पिताजी के प्रेम का बदला हम ऐशो आराम भोग कर दें । जिस मार्ग को हमारे पूज्य पिताजी ने उत्तम समझकर ग्रहण किया है वही हमारे लिए भी शरण है । इसलिए कृपा कर आप हमारे इस समाचार को भैया भागीरथ से जाकर कह दीजिए कि वह हमारे लिए कोई चिन्ता न करें । ब्राह्मण से इस प्रकार कहकर वे सब भाई भगवान् के समवसरण में आए और पिता की तरह दीक्षा लेकर साधु बन गए ॥६२-६५॥ भागीरथ को भाइयों का हाल सुनकर बड़ा वैराग्य हुआ । उसकी इच्छा भी योग ले लेने की हुई, पर राज्य-प्रबन्ध उसी पर निर्भर रहने से वह दीक्षा न ले सका परन्तु उसने उन मुनियों द्वारा जिनधर्म का उपदेश सुनकर श्रावकों के व्रत ग्रहण किए। मणिकेतु का सब काम जब अच्छी तरह सफल हो गया तब वह प्रकट हुआ और उन सब मुनियों को नमस्कार कर बोला- भगवन् आपका मैंने बड़ा भारी अपराध जरूर किया है। पर आप जैनधर्म में तत्त्व को यथार्थ जानने वाले हैं। इसलिए सेवक को क्षमा करें। इसके बाद मणिकेतु ने आदि से इति पर्यन्त सब घटना कह सुनाई मणिकेतु के द्वारा सब हाल सुनकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई वे उससे बोले - देवराज, इसमें तुम्हारा अपराध क्या हुआ, जिसके लिए क्षमा की जाए? तुमने तो उल्टा हमारा उपकार किया है। इसलिए हमें तुम्हारा कृतज्ञ होना चाहिए। मित्रपने के नाते से तुमने जो कार्य किया है वैसा करने के लिए तुम्हारे बिना और समर्थ ही कौन था? इसलिए देवराज, तुम ही सच्चे धर्म-प्रेमी हो, जिन भगवान् के भक्त हो और मोक्ष - लक्ष्मी की प्राप्ति के कारण हो । सगर - - सुतों को इस प्रकार सन्तोष जनक उत्तर पर मणिकेतु बहुत प्रसन्न हुआ। वह फिर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर स्वर्ग चला गया । यह मुनिसंघ विहार करता हुआ सम्मेदशिखर पर आया और यहीं कठिन तपस्या कर शुक्लध्यान के प्रभाव से इसने निर्वाण लाभ किया ॥६६-७३॥ उधर भागीरथ ने जब अपने भाइयों का मोक्ष प्राप्त करना सुना तो उसे भी संसार से बड़ा वैराग्य हुआ। वह फिर अपने वरदत्त पुत्र को राज्य सौंप आप कैलाश पर शिवगुप्त मुनिराज के पास दीक्षा ग्रहण कर मुनि हो गया । भगीरथ ने मुनि होकर गंगा के सुन्दर किनारों पर कभी प्रतिमायोग से, कभी आतापन योग से और कभी और किसी आसन से खूब तपस्या की । देवता लोग उसकी तपस्या से बहुत खुश हुए और इसीलिए उन्होंने भक्ति के वश हो भगीरथ के चरणों को क्षीर-समुद्र के जल से अभिषेक किया, जो कि अनेक प्रकार के सुखों का देने वाला है। उस अभिषेक के जल का प्रवाह बहता हुआ गंगा में गया। तभी से गंगा तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध हुई और लोग उसके स्नान को पुण्य का कारण समझने लगे। भगीरथ ने फिर कहीं अन्यत्र विहार न किया । वह वहीं तपस्या करता रहा और अन्त में कर्मों का नाशकर उसने जन्म, जरा, मरणादि रहित मोक्ष का सुख भी यहीं से प्राप्त किया ॥७४-८०॥ केवलज्ञानरूपी नेत्र द्वारा संसार के पदार्थों को जानने और देखने वाले, देवों द्वारा पूजा किए गए और मुक्तिरूप रमणीरत्न के स्वामी श्रीसगर मुनि तथा जैनतत्त्व के परम विद्वान् वे सगरसुत मुनिराज मुझे वह लक्ष्मी दें, जो कभी नाश होने वाली नहीं है और सर्वोच्च सुख की देने वाली है ॥८१॥
  8. सब सुखों के देने वाले सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर शराब पीकर नुकसान उठाने वाले एक ब्राह्मण की कथा लिखी जाती है । वह इसलिए कि इसे पढ़कर सर्व साधारण लाभ उठावें ॥१॥ वेद और वेदांगों का अच्छा विद्वान् एकपात नाम का एक संन्यासी एक चक्रपुर से चलकर गंगा नदी की यात्रार्थ जा रहा था। रास्ते में जाता हुआ वह दैवयोग से विन्ध्याटवी में पहुँच गया। यहाँ जवानी से मस्त हुए कुछ चाण्डाल लोग दारु पी-पीकर एक अपनी जाति की स्त्री के साथ हँसी मजाक करते हुए नाचकूद रहे थे, गा रहे थे और अनेक प्रकार की कुचेष्टाएँ में मस्त हो रहे थे। अभागा संन्यासी इस टोली के हाथ पड़ गया। उन लोगों ने उसे आगे न जाने देकर कहा-अहा! आप भले आए! आप ही की हम लोगों में कसर थी। आइए, मांस खाइए, दारू पीजिए और जिन्दगी का सुख देने वाली इस खूबसूरत औरत का मजा लूटिए । महाराज जी, आज हमारे लिए बड़ी खुशी का दिन है और ऐसे समय में जब आप स्वयं यहाँ आ गए तब तो हमारा यह सब करना धरना सफल हो गया। आप सरीखे महात्माओं का आना, सहज में थोड़े ही होता है? और फिर ऐसे खुशी के समय में। लीजिए, अब देर न कर हमारी प्रार्थना को पूरी कीजिए उनकी बातें सुनकर बेचारे संन्यासी के तो होश उड़ गए। वह इन शराबियों को कैसे समझाए, क्या कहे, और वह कुछ कहे सुने भी तो वे मानने वाले कब? वह बड़े संकट में फँस गया। तब भी उसने इन लोगों से कहा- बतलाओ मैं मांस, मदिरा कैसे खा पी सकता हूँ? इसलिए तुम मुझे जाने दो। उन चाण्डालों ने कहा— महाराज कुछ भी हो, हम तो आपको बिना कुछ प्रसाद लिए तो जाने नहीं देंगे। आपसे हम यहाँ तक कह देते हैं कि यदि आप अपनी खुशी से खायेंगे तो बहुत अच्छा होगा, नहीं तो फिर जिस तरह बनेगा हम आपको खिलाकर ही छोड़ेंगे। बिना हमारा कहना किए आप जीते जी गंगाजी नहीं देख सकते। अब तो संन्यासी जी घबराये । वे कुछ विचार करने लगे, तभी उन्हें स्मृतियों के कुछ प्रमाण वाक्य याद आ गए - ॥२-७॥ 'जो मनुष्य तिल या सरसों के बराबर मांस खाता है वह नरकों में तब तक दुःख भोगा करेगा, जब तक पृथ्वी पर सूर्य और चन्द्र रहेंगे अर्थात् अधिक मांस खाने वाला नहीं। ब्राह्मण लोग यदि चाण्डाली के साथ विषय सेवन करें तो उनकी 'काष्ठ भक्षण' नाम के प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धि हो सकती है। जो आँवले, गुड़ आदि से बनी हुई शराब पीते हैं, वह शराब पीना नहीं कहा जा सकता- आदि।” इसलिए जैसा ये कहते हैं, उसके करने में शास्त्रों, स्मृतियों से तो कोई दोष नहीं आता। ऐसा विचार कर उस मूर्ख ने शराब पी ली। थोड़ी ही देर बाद उसे नशा चढ़ने लगा । बेचारे को पहले कभी शराब पीने का काम पड़ा नहीं था इसलिए उसका रंग इस पर और अधिकता से चढ़ा | शराब के नशे में चूर होकर यह सब सुध-बुध भूल गया, अपनेपन का इसे कुछ ज्ञान न रहा। लंगोटी आदि फेंक कर वह भी उन लोगों की तरह नाचते-कूदने लगा जैसे कोई भूत-पिशाच के पंजे में पड़ा हुआ उन्मत्त की भाँति नाचने-कूदने लगता है। सच है, कुसंगति कुल, धर्म, पवित्रता आदि सभी का नाश कर देती है। संन्यासी बड़ी देर तक तो इसी तरह नाचता-कूदता रहा पर जब वह थोड़ा थक गया तो उसे जोर की भूख लगी । वहाँ खाने के लिए मांस के सिवा कुछ भी नहीं था । संन्यासी ने तब मांस ही खा लिया। पेट भरने के बाद उसे काम ने सताया। तब उसने यौवन की मस्ती में मत्त उस स्त्री के साथ अपनी नीच वासना पूरी की। मतलब यह कि एक शराब पीने से उसे ये सब नीचकर्म करने पड़े। दूसरे ग्रन्थों में भी इस एकपात संन्यासी के सम्बन्ध में लिखा है कि- मूर्ख एकपात संन्यासी ने स्मृतियों के वचनों को प्रमाण मानकर शराब पी, मांस खाया और चाण्डालिनी के साथ विषय सेवन किया। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे सहसा किसी प्रमाण पर विश्वास न कर बुद्धि से काम लें, क्योंकि मीठे पानी में मिला हुआ विष भी जान लिए बिना नहीं छोड़ता ॥८- १२ ॥ देखिये, एकपात संन्यासी गंगा - गोदावरी का नहाने वाला था, विष्णु का सच्चा भक्त था, और स्मृतियों का अच्छा विद्वान् था, पर अज्ञान से स्मृतियों के वचनों को हेतु-शुद्ध मानकर अर्थात् ऐसी शराब पीने में पाप नहीं, चाण्डालिनी का सेवन करने पर भी प्रायश्चित्त द्वारा ब्राह्मणों की शुद्धि हो सकती है, थोड़ा मांस खाने में दोष है, न कि ज्यादा खाने में । इस प्रकार मन का समझौता करके उसने मांस खाया, शराब पी और अपने वर्षों के ब्रह्मचर्य को नष्ट कर वह कामी हुआ । इसलिए बुद्धिमानों को उन सच्चे शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए जो पाप से बचाकर कल्याण का रास्ता बतलाने वाले हैं और ऐसे शास्त्र जिनभगवान् ने ही उपदेश किए हैं ॥१३-१४॥
  9. संसार के स्वामी और अनन्त सुखों के देने वाले श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर द्वीपायन मुनि का चरित लिखा जाता है, जैसा पूर्वाचार्यों ने उसे लिखा है ॥१॥ सोरठदेश में द्वारका प्रसिद्ध नगरी है। नेमिनाथ भगवान् का जन्म यहीं हुआ है। इससे यह बड़ी पवित्र समझी जाती है। जिस समय की यह कथा लिखी जाती है । उस समय द्वारका का राज्य नवमें बलभद्र और वासुदेव करते थे । एक दिन ये दोनों राज- राजेश्वर गिरनार पर्वत पर नेमिनाथ भगवान् की पूजा-वन्दना करने को गए । भगवान् की इन्होंने भक्तिपूर्वक पूजा की और उनका उपदेश सुना। उपदेश सुनकर इन्हें बहुत प्रसन्नता हुई इसके बाद बलभद्र ने भगवान् से पूछा- हे संसार के अकारण बन्धो, हे केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक, हे तीन जगत् के स्वामी! हे करुणा के समुद्र ! और हे लोकालोक के प्रकाशक, कृपाकर कहिए कि वासुदेव को पुण्य से जो सम्पत्ति प्राप्त है वह कितने समय तक ठहरेगी? भगवान् बोले- बारह वर्ष पर्यन्त वासुदेव के पास रहकर फिर नष्ट हो जायेगी। इसके सिवा मद्य-पान से यदुवंश का समूल नाश होगा, द्वारका द्वीपायन मुनि के सम्बन्ध से जलकर खाक हो जायेगी, और बलभद्र, तुम्हारी इस छुरी द्वारा जरत्कुमार के हाथों से श्रीकृष्ण की मृत्यु होगी। भगवान् के द्वारा यदुवंश द्वारका और वासुदेव का भविष्य सुनकर बलभद्र द्वारका आए। उस समय द्वारका में जितनी शराब थी, उसे उन्होंने गिरनार पर्वत के जंगल में डलवा दिया। उधर द्वीपायन अपने सम्बन्ध से द्वारका का भस्म होना सुन मुनि हो गए और द्वारका को छोड़कर कहीं अन्यत्र चल दिये। मूर्ख लोग न समझ कुछ यत्न करें, पर भगवान् का कहा कभी झूठा नहीं होता । बलभद्र ने शराब को तो फिकवा दिया था। अब एक छुरी और उनके पास रह गई थी, जिसके द्वारा भगवान् ने श्रीकृष्ण की मौत होना बतलाई थी। बलभद्र ने उसे भी खूब घिस - घिसाकर समुद्र में फिकवा दिया। कर्मयोग से उस छुरी को एक मच्छ निगल गया और वही मच्छ फिर एक मल्लाह के जाल में आ फँसा। उसे मारने पर उसके पेट से वह छुरी निकली और धीरे-धीरे वह जरत्कुमार के हाथ तक भी पहुँच गई जरत्कुमार ने उसका बाण के लिए फला बनाकर उसे अपने बाण पर लगा लिया ॥२-१४॥ बारह वर्ष हुए नहीं, पर द्वीपायन को अधिक महीनों का ख्याल न रहने से बारह वर्ष पूरे हुए समझ वे द्वारका की ओर लौट आकर गिरनार पर्वत के पास ही कहीं ठहरे और तपस्या करने लगे । पर तपस्या द्वारा कर्मों का ऐसा योग कभी नष्ट नहीं किया जा सकता। एक दिन की बात है कि द्वीपायन मुनि आतापन योग द्वारा तपस्या कर रहे थे। इसी समय मानों पापकर्मों द्वारा उभारे हुए यादवों के कुछ लड़के गिरनार पर्वत से खेल - कूद कर लौट रहे थे। रास्ते में इन्हें बहुत जोर की प्यास लगी। यहाँ तक कि वे बेचैन हो गए। उनके लिए घर आना मुश्किल पड़ गया । आते-आते इन्हें पानी से भरा एक गड्ढा दिख पड़ा। पर वह पानी नहीं था किन्तु बलभद्र ने जो शराब दुलवा दी थी वही बहकर इस गड्ढे में इकट्ठी हो गई थी। उस शराब को उन लड़कों ने पानी समझ पी लिया। शराब पीकर थोड़ी देर हुई होगी कि उसने उन पर अपना रंग जमाना शुरू किया। नशे से वे सुध-बुध भूलकर उन्मत्त की तरह कूदते-फाँदते आने लगे। रास्ते में इन्होंने द्वीपायन मुनि को ध्यान करते देखा। मुनि की रक्षा के लिए बलभद्र ने उनके चारों ओर एक पत्थरों का कोट सा बनवा दिया था । एक ओर उसके आने-जाने का दरवाजा था । इन शैतान लड़कों ने मजाक में आ उस जगह को पत्थरों से पूर दिया । सच हैं, शराब पीने से सुध-बुध भूलकर बड़ी बुरी हालत हो जाती है । यहाँ तक कि उन्मत्त पुरुष अपनी माता बहिनों के साथ भी बुरी वासनाओं को प्रकट करने में नहीं लजाता है ॥१५-२१॥ शराब पीने वाले पापी लोगों को हित-अहित का कुछ ज्ञान नहीं रहता। इन लड़कों की शैतानी का हाल जब बलभद्र को मालूम हुआ तो वे वासुदेव को लिए दौड़े-दौड़े मुनि के पास आए और उन पत्थरों को निकाल कर उनसे क्षमा की प्रार्थना की। इस क्षमा कराने का मुनि पर कुछ असर नहीं हुआ। उनके प्राण निकलने की तैयारी कर रहे थे। मुनि ने सिर्फ दो उंगलियाँ उन्हें बतलाई और थोड़ी ही देर बाद वे मर गए। क्रोध से मर कर तपस्या के फल से वे व्यन्तर हुए । उन्होंने कुअवधि द्वारा अपने व्यन्तर होने का कारण जाना तो उन्हें उन लड़कों के उपद्रव की सब बातें ज्ञात हो गई यह देखकर व्यन्तर को बड़ा क्रोध आया। उसने उसी समय द्वारका में आकर आग लगा दी । सारी द्वारका धन-जन सहित देखते-देखते खाक हो गई सिर्फ बलभद्र और वासुदेव ही बच पाए, जिनके लिए कि द्वीपायन ने दो उंगलियाँ बतलाई थी । सच है, क्रोध के वश हो मूर्ख पुरुष सब कुछ कर बैठते है। इसलिए भव्यजनों को शान्ति-लाभ के लिए क्रोध को कभी पास भी न फटकने देना चाहिए। उस भयंकर अग्नि लीला को देखकर बलभद्र और वासुदेव का भी जी ठिकाने न रहा। ये अपना शरीर मात्र लेकर भाग निकले। यहाँ से निकल कर वे एक घोर जंगल में पहुँचे। सच है-पाप का उदय आने पर सब धन-दौलत नष्ट होकर जी बचाना तक मुश्किल पड़ जाता है। जो पलभर पहले सुखी रहा हो वह दूसरे ही पल में पाप के उदय से अत्यन्त दुःखी हो जाता है इसलिए जिन लोगों के पास बुद्धिरूपी धन है, उन्हें चाहिए कि वे पाप के कारणों को छोड़कर पुण्य के कार्यों में अपने हाथों को बँटावें। पात्र- दान, जिन-पूजा, परोपकार, विद्या - प्रचार, शील, व्रत, संयम आदि ये सब पुण्य के कारण हैं। बलभद्र और वासुदेव जैसे ही उस जंगल में आए, वासुदेव को यहाँ अत्यन्त प्यास लगी। प्यास के मारे वे गश खाकर गिर पड़े। बलभद्र उन्हें ऐसे ही छोड़कर जल लाने चले गए। इधर जरत्कुमार न जाने कहाँ से इधर ही आ निकला । उसने श्रीकृष्ण को हरिण के भ्रम से बाण द्वारा बेध दिया। पर जब उसने आकर देखा कि वह हरिण नहीं किन्तु श्रीकृष्ण है तब तो उसके दुःख का कोई पार न रहा। पर अब वह कुछ करने-धरने को लाचार था । वह बलभद्र के भय से फिर उसी समय वहाँ से भाग लिया। इधर बलभद्र जब पानी लेकर लौटे और उन्होंने श्रीकृष्ण की यह दशा देखी तब उन्हें जो दुःख हुआ वह लिखकर नहीं बताया जा सकता । यहाँ तक कि वे भ्रातृप्रेम से सिड़ी से हो गए और श्रीकृष्ण को कन्धों पर उठाये महीनों पर्वतों और जंगलों में घूमते फिरे । बलभद्र की यह हालत देख उनके पूर्व जन्म के मित्र एक देव को बहुत खेद हुआ। उसने आकर इन्हें समझा-बुझा कर शान्त किया और उनसे भाई का दहन - संस्कार करवाया । संस्कार कर जैसे ही वे निर्वृत्त हुए, उन्हें संसार की दशा पर बड़ा वैराग्य हुआ। वे उसी समय सब दुःख, शोक, माया-ममता छोड़कर योगी हो गए। उन्होंने फिर पर्वतों पर खूब दुस्सह तप किया ॥२२-३२॥ अन्त में धर्मध्यान सहित मरण कर ये माहेन्द्र स्वर्ग में देव हुए वहाँ वे प्रतिदिन नित नये और मूल्यवान् सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण पहनते हैं, अनेक देव-देवी उनकी आज्ञा में सदा हाजिर रहते हैं । नाना प्रकार के उत्तम से उत्तम स्वर्गीय भोगों को वे भोगते हैं, विमान द्वारा कैलाश, सम्मेद शिखर, हिमालय, गिरनार आदि पर्वतों की यात्रा करते हैं और विदेह क्षेत्र में जाकर साक्षात् जिनभगवान् की पूजा - भक्ति करते हैं। मतलब यह है कि पुण्य के उदय से उन्हें सब कुछ सुख प्राप्त हैं और वे आनन्द-उत्सव के साथ अपना समय बिताते हैं ॥३३-३६॥ जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप इन तीन महान् रत्नों से भूषित हैं, जो जिन भगवान् के चरणों के सच्चे भक्त हैं, चारित्र धारण करने वालों में जो सबसे ऊँचे हैं, जिनकी परम पवित्र बुद्धि गुणरूपी रत्नों से शोभा को धारण किए हैं और जो ज्ञान के समुद्र हैं, ऐसे बलभद्र मुनिराज मुझे वह सुख, शांति और वह मंगल दें, जिससे मन सदा प्रसन्न रहे ॥३७॥
  10. देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों और राजाओं, महाराजाओं द्वारा पूजा किए गए भगवान् के चरणों को नमस्कार कर नागदत्ता की कथा लिखी जाती है ॥१॥ आभीर देश नासक्य नगर में सागरदत्त नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम नागदत्त था। इसके एक लड़का और एक लड़की थी ॥२॥ दोनों के नाम थे श्रीकुमार और श्रीषेणा । नागदत्ता का चाल-चलन अच्छा न था। अपनी गायों को चराने वाले नन्द नाम के ग्वाल के साथ उसकी आशनाई थी । नागदत्ता ने उसे एक दिन कुछ सिखा-सुझा दिया। सो वह बीमारी का बहाना बनाकर गायें चराने को नहीं आया । तब बेचारे सागरदत्त को स्वयं गायें चराने को जाना पड़ा । जंगल में गायों को चरते छोड़कर वह एक झाड़के नीचे सो गया। पीछे से नन्दग्वाल ने आकर उसे मार डाला। बात यह थी कि नागदत्ता ने ही अपने पति को मार डालने के लिए उसे उकसाया था और फिर परस्त्री - लम्पटी पुरुष अपने सुख में आने वाले विघ्न को नष्ट करने के लिए कौन बुरा काम नहीं करता ॥३-६॥ नागदत्ता और पापी नन्द इस प्रकार अनर्थ द्वारा अपने सिर पर एक बड़ा भारी पाप का बोझ लादकर अपनी नीच मनोवृत्तियों को प्रसन्न करने लगे। श्रीकुमार अपनी माता की इस नीचता से बेहद कष्ट पाने लगा। उसे लोगों को मुँह दिखाना तक कठिन हो गया । उसे बड़ी लज्जा आने लगी और इसके लिए उसने अपनी माता को बहुत कुछ कहा सुना भी। पर नागदत्ता के मन पर उसका कुछ असर नहीं हुआ। वह पिचली हुई नागिन की तरह उसी पर दाव खाने लगी। उसने नाराज होकर श्रीकुमार को भी मार डालने के लिए नन्द को उभारा । नन्द फिर बीमारी का बहाना बनाकर गायें चराने को नहीं आया। तब श्रीकुमार स्वयं ही जाने को तैयार हुआ । उसे जाता देखकर उसकी बहिन श्रीषेणा उसे रोककर कहा-भैया, तुम मत जाओ । मुझे माता का इसमें कुछ कपट दिखता है। उसने जैसे नन्द द्वारा अपने पिताजी को मरवा डाला है, वह तुम्हें भी मरवा डालने के लिए दाँत पीस रही है। मुझे जान पड़ता है नन्द इसीलिए बहाना बनाकर आज गायें चराने को नहीं आया । श्रीकुमार बोला- बहिन, तुमने मुझे आज सावधान कर दिया। यह बड़ा ही अच्छा किया। तू मत घबरा। मैं अपनी रक्षा अच्छी तरह कर सकूँगा। अब मुझे रंचमात्र भी डर नहीं रहा और मैं तुम्हारे कहने से नहीं जाता, पर इससे माता को अधिक सन्देह होता और वह फिर कोई दूसरा ही यत्न कर मुझे मरवाने का करती क्योंकि वह चुप तो कभी बैठी ही न रहेगी। आज बहुत ही अच्छा मौका हाथ लगा है। इसीलिए मरा जाना ही उचित है। और जहाँ तक मेरा बस चलेगा मैं जड़मूल से उस अंकुर को उखाड़कर फेंक दूँगा, जो हमारी माता के अनर्थ का मूल कारण है । बहिन ! तुम किसी तरह की चिन्ता मन में न लाओ। अनाथों का नाथ अपना भी मालिक है ॥७-१२॥ श्रीकुमार बहिन को समझा कर जंगल में गायें चराने को गया । उसने वहाँ एक बड़े लकड़े को वस्त्रों से ढककर इस तरह रख दिया कि वह दूसरों को सोया हुआ मनुष्य जान पड़ने लगा और आप एक ओर छिप गया श्रीषेणा की बात सच निकली । नन्द नंगी तलवार लिए दबे पाँव उस लकड़े के पास आया और तलवार उठाकर उसने उस पर दे मारी। इतने में श्रीकुमार ने आकर उसकी पीठ में इस जोर की एक भाले की जमाई कि भाला आर-पार हो गया और नन्द देखते-देखते तड़फड़ाकर मर गया। इधर श्रीकुमार गायों को लेकर घर लौट आया। आज गायें दोहने के लिए भी श्रीकुमार ही गया। उसे देखकर नागदत्ता ने उससे पूछा- क्यों कुमार, नन्द नहीं आया? मैंने तो तेरे ढूँढ़ने के लिए उसे जंगल में भेजा था। क्या तूने उसे देखा है कि वह कहाँ पर है? श्रीकुमार से तब न रहा गया और गुस्से में आकर उसने कह डाला - माता, मुझे तो मालूम नहीं कि नन्द कहाँ है। पर मेरा यह भाला अवश्य जानता है। नागदत्ता की आँखें जैसे ही उस खून से भरे भाले पर पड़ी तो उसकी छाती धड़क उठी। उसने समझ लिया कि इसने उसे मार डाला है। अब तो क्रोध से वह भर गई उसे सामने एक मूसला रखा था। उस पापिनी ने उसे ही उठाकर श्रीकुमार के सिर पर इस प्रकार जोर से मारा कि सिर फटकर तत्काल वह भी धराशायी हो गया । अपने भाई की इस प्रकार हत्या हुई देखकर श्रीषेणा दौड़ी और नागदत्ता के हाथ से झट से मूसला छुड़ाकर उसने उसके सिर पर एक जोर की मार जमाई, जिससे वह भी अपने किए की योग्य सजा पा गई। नागदत्ता मरकर पाप के फल से नरक गई। सच है-पापी को अपना जीवन पाप में ही बिताना पड़ता है । नागदत्ता इसका उदाहरण है। उस दुराचार को धिक्कार, उस काम को धिक्कार, जिसके वश मनुष्य महा पापकर्म कर और फिर उसके फल से दुर्गति में जाता है । इसलिए सत्पुरुषों को उचित है कि वे जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए, सबको प्रसन्न करने वाले और सुख प्राप्ति के साधन ब्रह्मचर्य व्रत का सदा पालन करें ॥१३-२२॥
  11. केवलज्ञानरूपी नेत्रों की अपूर्व शोभा को धारण किए हुए श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर भीमराज की कथा लिखी जाती है, जिसे सुनकर सत्पुरुषों को इस दुःखमय संसार से वैराग्य होगा ॥१॥ वद्यापी कांपिल्य नगर में भीम नाम का एक राजा हो गया है। वह दुर्बुद्धि बड़ा पापी था। उसकी रानी का नाम सोमश्री था। इसके भीमदास नाम का एक लड़का था । भीम ने कुल - क्रम के अनुसार नन्दीश्वर पर्व में मुनादी पिटवाई कि कोई इस पर्व में जीवहिंसा न करें । राजा ने मुनादी तो पिटवा दी, पर स्वयं महा लम्पटी था। मांस खाये बिना उसे एक दिन भी चैन नहीं पड़ता था। उसने इस पर्व में भी अपने रसोइये से मांस पकाने को कहा । पर दुकानें सब बन्द थीं, अतः उसे बड़ी चिन्ता हुई वह मांस लाये कहाँ से? तब उसने एक युक्ति की । वह मसान से एक बच्चे की लाश उठा लाया और उसे पकाकर राजा को खिलाया । राजा को वह मांस बड़ा ही अच्छा लगा। तब उसने रसोइये से कहा- क्यों रे, आज यह मांस और दिनों की अपेक्षा इतना स्वादिष्ट क्यों हैं? रसोइये ने डरकर सच्ची बात राजा से कह दी। राजा ने तब उससे कहा- आज से तू बालकों का ही मांस पकाया करना ॥२-७॥ राजा ने तो झट से कह दिया कि अब से बालकों का ही मांस खाने के लिए पकाया करना पर रसोइये को इसकी बड़ी चिन्ता हुई कि वह रोज-रोज बालकों को लाये कहाँ से? और राजाज्ञा का पालन होना ही चाहिए । तब उसने यह प्रयत्न किया कि रोज शाम के वक्त शहर के मुहल्लों में जाना जहाँ बच्चे खेल रहे हों उन्हें मिठाई का लोभ देकर झट से किसी एक को पकड़ कर उठा लाना । इसी तरह वह रोज-रोज एक बच्चे की जान लेने लगा। सच है -पापी लोगों की संगति दूसरों को भी पापी बना देती है । जैसे भीमराज की संगति से उसका रसोइया भी उसी के सरीखा पापी हो गया ॥ ८-९ ॥ बालकों को प्रतिदिन इस प्रकार एकाएक गायब होने से शहर में बड़ी हलचल मच गई सब इसका पता लगाने की कोशिश में लगे । एक दिन इधर तो रसोइया को चुपके से एक गृहस्थ के बालक को उठाकर चला कि पीछे से उसे किसी ने देख लिया । रसोइया झट-पट पकड़ लिया गया। उससे जब पूछा गया तो उसने सब बातें सच्ची - सच्ची बतला दीं। यह बात मंत्रियों के पास पहुँची । उन्होंने सलाह कर भीमदास को अपना राजा बनाया और भीम को रसोइये के साथ शहर से निकाल बाहर किया। सच है, पापियों का कोई साथ नहीं देता । माता, पुत्र, भाई, बहिन, मित्र, मंत्री, प्रजा आदि सब ही विरुद्ध होकर उसके शत्रु बन जाते हैं ॥१०-१३॥ भीम यहाँ से चलकर अपने रसोइये के साथ एक जंगल में पहुँचा । यहाँ इसे बहुत ही भूख लगी । इसके पास खाने को कुछ नहीं था। तब यह अपने रसोइये को ही मारकर खा गया। यहाँ से घूमता- फिरता यह मेखलपुर पहुँचा और वहाँ वासुदेव के हाथ मारा जाकर नरक गया ॥१४-१५॥ अधर्मी पुरुष अपने ही पापकर्मों से संसार - समुद्र में रुलते हैं । इसलिए सुख की चाह करने वाले बुद्धिमानों को चाहिए कि वे सुख के स्थान जैनधर्म का पालन करें ॥१६॥
  12. सब सुखों के देने वाले जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर मूर्खिणी गन्धर्वसेना का चरित लिखा जाता है। गन्धर्वसेना भी एक विषय की अत्यासक्ति से मौत के पंजे में फँसी थी ॥१॥ पाटलिपुत्र (पटना) के राजा गन्धर्वदत्त की रानी गन्धर्वदत्त के गन्धर्वसेना नाम की एक कन्या थी। गन्धर्वसेना गानविद्या की बड़ी जानकार थी और इसीलिए उसने प्रतिज्ञा कर रक्खी थी कि जो मुझे गाने में जीत लेगा “वही मेरा स्वामी होगा, उसी की मैं अंकशायिनी बनूँगी।” गन्धर्वसेना की खूबसूरती की मनोहारी सुगन्ध की लालसा से अनेक क्षत्रियकुमार भौंरे की तरह खिंचे हुए आते थे, पर यहाँ आकर उन सबको निराश - मुँह लौट जाना पड़ता था । गन्धर्व सेना के सामने गाने में कोई नहीं ठहर पाता था ॥२-४॥ एक पांचाल नाम का उपाध्याय गानशास्त्र का बहुत अच्छा अभ्यासी था । उसकी इच्छा भी गन्धर्वसेना को देखने की हुई वह अपने पाँच सौ शिष्यों को साथ लिए पटना आकर एक बगीचे में ठहरा। समय गर्मी का था और बहुत दूर की मंजिल तय करने से पांचाल थक भी गया था। इसलिए वह अपने शिष्यों से यह कहकर, कि कोई यहाँ आए तो मुझे जगा देना, एक वृक्ष की ठंडी छाया में सो गया। इधर वह सोया और उधर इसके बहुत से विद्यार्थी शहर देखने को चल दिये ॥५-८॥ गन्धर्वसेना को जब पांचाल के आने और उसके पाण्डित्य की खबर लगी । वह इसे देखने को आई उसने उसे बहुत-सी वीणाओं को आस - पास रखे सोया देखकर समझा कि वह विद्वान् तो बहुत भारी है, पर जब उसके लार बहते हुए मुँह पर उसकी नजर गई तो उसे पांचाल से बड़ी नफरत हुई उसने फिर उसकी ओर आँख उठाकर भी न देखा और जिस झाड़के नीचे पांचाल सोया हुआ था। उसकी चन्दन, फूल वगैरह से पूजा कर वह उसी समय अपने महल लौट आई। गन्धर्वसेना के जाने के बाद जब पांचाल की नींद खुली और उसने वृक्ष को गंध- पुष्पादि से पूजा हुआ पाया तो कुछ संदेह हुआ। एक विद्यार्थी से इसका कारण पूछा तो उसने एक स्त्री के आने और इस वृक्ष की पूजा कर उसके चले जाने का हाल पांचाल से कहा। पांचाल ने समझ लिया कि गन्धर्वसेना आकर चली गई तब उसने सोचा यह तो ठीक नहीं हुआ। सोने ने सब बना-बनाया खेल बिगाड़ दिया। खैर, जो हुआ, अब लौट जाना भी ठीक नहीं । चलकर प्रयत्न जरूर करना चाहिए। इसके बाद वह राजा के पास गया और प्रार्थना कर अपने रहने को एक स्थान उसने माँगा। स्थान उसकी प्रार्थना के अनुसार गन्धर्वसेना के महल के पास ही मिला । कारण राजा से पांचाल ने कह दिया था कि आपकी राजकुमारी गान में बड़ी होशियार है, ऐसा मैं सुनता हूँ और मैं भी आपकी कृपा से थोड़ी बहुत गाना जानता हूँ, इसलिए मेरी इच्छा राजकुमारी का गाना सुनकर यह बात देखने की है कि इस विषय में उसकी कैसी गति है। यही कारण था कि राजा ने कुमारी के महल के समीप ही उसे रहने की आज्ञा दे दी। अस्तु ॥९-१२॥ एक दिन पांचाल कोई रात के तीन चार बजे के समय वीणा को हाथ में लिए बड़ी मधुरता से गाने लगा। उसके मधुर मनोहर गाने की आवाज शान्त रात्रि में आकाश को भेदती हुई गन्धर्वसेना के कानों से जाकर टकराई गन्धर्वसेना उस समय भर नींद में थी । पर उस मनोमुग्ध करने वाली आवाज को सुनकर वह सहसा चौंक कर उठ बैठी । न केवल उठ बैठने ही से उसे सन्तोष हुआ बल्कि वह उठकर उधर दौड़ी और उधर गई जिधर से आवाज गूँजती हुई आ रहा थी। इस बे-भान अवस्था में दौड़ते हुए उसका पाँव खिसक गया और वह धड़ाम से आकर जमीन पर गिर पड़ी। देखते-देखते उसका आत्माराम उसे छोड़कर चला गया। इस विषयासक्ति से उसे फिर संसार में चिर समय तक रुलना पड़ा । गन्धर्वसेना एक कर्णेन्द्रिय के विषय की लम्पटता से जब अथाह संसार सागर में डूबी, तब जो पाँचों इन्द्रियों के विषयों में सदा काल मस्त रहते हैं, वे यदि डूबे तो इसमें नई बात क्या? इसलिए बुद्धिमानों का कर्तव्य है कि वे इन दुःखों के कारण विषयभोगों को छोड़कर सुख के सच्चे स्थान जिनधर्म का आश्रय लें ॥१३-१६॥
  13. अनन्त गुण-विराजमान और संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर गन्धमित्र राजा की कथा लिखी जाती है, जो घ्राणेन्द्रिय के विषय में फँसकर अपनी जान गँवा बैठा है ॥१॥ अयोध्या के राजा विजय सेन और रानी विजयवती के दो पुत्र थे । इनके नाम थे जयसेन और गन्धमित्र। इनमें गन्धमित्र बड़ा लम्पटी था । भौरे की तरह नाना प्रकार के फूलों के सूँघने में वह सदा मस्त रहता था ॥२-३॥ उनके पिता विजयसेन एक दिन कोई कारण देखकर संसार में विरक्त हो गए। इन्होंने अपने बड़े लड़के जयसेन को राज्य देकर और गन्धमित्र को युवराज बनाकर सागरसेन मुनिराज से योग ले लिया। सच है, जो अच्छे पुरुष होते हैं उनकी धर्म की ओर स्वभाव ही से रुचि होती है ॥४-५॥ महत्त्वाकांक्षा राजा होने की थी तब उसने राज्य के लोभ में पड़कर अपने बड़े भाई के विरुद्ध षड्यंत्र रचा। कितने ही बड़े-बड़े कर्मचारियों को उसने धन का लोभ देकर उभारा, प्रजा में से बहुतों को उल्टी-सीधी सुझाकर बहकाया । गन्धमित्र को इसमें सफलता प्राप्त हुई । उसने मौका पाकर बड़े भाई जयसेन को सिंहासन से उतार राज्य से बाहर कर दिया और आप राजा बन बैठा । राजवैभव सचमुच ही महापाप का कारण है। देखिए न, इस राजवैभव के लोभ में पड़कर मूर्खजन अपने सगे भाई की जान तक लेने की कोशिश में रहते हैं ॥ ६-८ ॥ राज्य-भ्रष्ट जयसेन को अपने भाई के इस अन्याय से बड़ा दुःख हुआ । उसका उसे ठीक बदला मिले, उस उपाय में अब लग गया। प्रतिहिंसा से अपने कर्तव्य को वह भूल बैठा। उस दिन का रास्ता वह बड़ी उत्सुकता से देखने लगा जिस दिन गन्धमित्र को वह लात मारकर अपने हृदय को सन्तुष्ट करे। गन्धमित्र लम्पटी तो था ही, सो रोज-रोज अपनी स्त्रियों को साथ ले जाकर सरयू नदी में उनके साथ जलक्रीड़ा, हँसी, दिल्लगी किया करता था । जयसेन ने इस मौके को अपना बदला चुकाने के लिए बहुत अच्छा समझा । एक दिन उसने जहर के पुट लिये अनेक प्रकार के अच्छे-अच्छे मनोहर फूलों को ऊपर की ओर से नदी में बहा दिया। फूल गन्धमित्र के पास होकर बहे जा रहे थे । गन्धमित्र उन्हें देखते ही उनके लेने के लिए झपटा। कुछ फूलों को हाथ में ले वह सूँघने लगा। फूलों के विष का उस पर बहुत जल्दी असर हुआ और देखते-देखते वह चल बसा। मरकर गन्धमित्र घ्राणेन्द्रिय के विषय की अत्यन्त लालसा से नरक गया । सो ठीक है, इंद्रियों के अधीन हुए लोगों का नाश होता ही है ॥९ - १३॥ देखिये, गंधमित्र केवल एक विषय का सेवन कर नरक में गया, जो कि अनन्त दुःखों का स्थान है। तब जो लोग पाँचों इन्द्रियों के विषयों का सेवन करने वाले हैं, वे क्या नरकों में न जाएँगे? अवश्य जाएँगे। इसलिए जिन बुद्धिमानों को दुःख सहना अच्छा नहीं लगता या वे दुःखों को चाहते नहीं है उन्हें विषयों की ओर से अपने मन को खींचकर जिनधर्म की ओर लगाना चाहिए ॥१४॥
  14. सुखरूपी धान को हरा-भरा करने के लिए जो मेघ समान हैं, ऐसे जिनभगवान् के चरणों को नमस्कार कर भरत-पुत्र मरीचि की कथा लिखी जाती है, जैसी कि वह और शास्त्रों में लिखी है ॥१॥ अयोध्या में रहने वाले सम्राट् भारतेश्वर भरत के मरीचि नाम का पुत्र हुआ। मरीचि भव्य था और सरल मन था। जब आदिनाथ भगवान्, जो कि इन्द्र, धरणेन्द्र, विद्याधर, चक्रवर्ती आदि सभी महापुरुषों द्वारा सदा पूजा किए जाते थे, संसार छोड़कर योगी हुए तब उनके साथ कोई चार हजार राजा और भी साधु हो गए। इस कथा का नायक मरीचि भी इन साधुओं में था ॥२-३॥ भरतराज एक दिन भगवान् आदिनाथ तीर्थंकर का उपदेश सुनने को समवसरण में गए। भगवान् को नमस्कार कर उन्होंने पूछा-भगवन् आपके बाद तेईस तीर्थंकर और होंगे, ऐसा मुझे आपके उपदेश से जान पड़ा। पर इस सभा में भी कोई ऐसा महापुरुष जो तीर्थंकर होने वाला हो? भगवान् बोले- हाँ है। वह यही तेरा पुत्र मरीचि, जो अन्तिम तीर्थंकर महावीर के नाम से प्रख्यात होगा । इसमें कोई सन्देह नहीं । सुनकर भरत की प्रसन्नता का तो कुछ ठिकाना न रहा और इसी बात से मरीचि की मतिगति उल्टी ही हो गई । उसे अभिमान आ गया कि अब तो मैं तीर्थंकर होऊँगा ही, फिर मुझे नंगे रहना, दुःख सहना, पूरा खाना-पीना नहीं यह सब कष्ट क्यों ? किसी दूसरे वेष में रहकर मैं क्यों न सुख आरामपूर्वक रहूँ, बस फिर क्या था जैसे ही विचारों का हृदय में उदय हुआ, उसी समय वह सब व्रत, , संयम, आचार-विचार, सम्यक्त्व आदि को छोड़-छाड़ कर तापसी बन गया और सांख्य, परिव्राजक आदि कई मतों को अपनी कल्पना से चलाकर संसार के घोर दुःखों का भोगने वाला हुआ। इसके बाद वह अनेक कुगतियों में घूमा । सच है, प्रमाद, असावधानी या कषाय जीवों के कल्याण-मार्ग में बड़ा ही विघ्न करने वाली है और अज्ञान से अभव्यजन भी प्रमादी बनकर दुःख भोगते हैं। इसलिए ज्ञानियों को धर्मकार्यों में तो कभी भूलकर भी प्रमाद करना ठीक नहीं है। मोह की लीला से मरीचि को चिरकाल तक संसार में घूमना पड़ा। इसके बाद पापकर्म की कुछ शान्ति होने से उसे जैनधर्म का फिर योग मिल गया । उसके प्रसाद से वह नन्द नाम का राजा हुआ। फिर किसी कारण से इसे संसार से वैराग्य हो गया। मुनि होकर इसने सोलहकारण भावना द्वारा तीर्थंकर नाम प्रकृति का बन्ध किया। वहाँ से वह स्वर्ग गया। स्वर्गायु पूरी होने पर इसने कुण्डलपुर में सिद्धार्थ राजा की प्रियकारिणी प्रिया के यहाँ जन्म लिया । वे ही संसार - पूज्य महावीर भगवान् के नाम से प्रख्यात हुए। इन्होंने कुमारपन में ही दीक्षा लेकर तपस्या द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया। देव, विद्याधर, चक्रवर्त्तियों द्वारा वे पूज्य हुए। अनेक जीवों को इन्होंने कल्याण के मार्ग पर लगाया । अपने समय में धर्म के नाम पर होने वाली बे-शुमार पशु हिंसा का उन्होंने घोर विरोध कर उसे जड़मूल से उखाड़ कर फेंक दिया। उनके समय में अहिंसा धर्म की पुनः स्थापना हुई। अन्त में वे अघातिया कर्मों का नाश कर परमधाम - मोक्ष चले गए। इसलिए हे आत्मसुख के चाहने वालों! तुम्हें सच्चे मोक्ष सुख की यदि चाह है तो तुम सदा हृदय में जिनभगवान् के पवित्र उपदेश को स्थान दो । यही तुम्हारा कल्याण करेगा । विषयों की ओर ले जाने वाले उपदेश, कल्याण-मार्ग की ओर नहीं झुका सकते ॥४-१८॥ वे वर्द्धमान-महावीर भगवान् संसार में सदा जय लाभ करें, उनका पवित्र शासन निरन्तर मिथ्यान्धकार का नाश कर चमकता रहे, जो भगवान् जीवमात्र का हित करने वाले हैं, ज्ञान के समुद्र हैं, राजाओं महाराजाओं द्वारा पूज्यनीय हैं और जिसकी भक्ति स्वर्गादि का उत्तम सुख देकर अन्त में अनन्त, अविनाशी मोक्ष-लक्ष्मी से मिला देती है ॥१९॥
  15. अनन्त सुख के देने वाले और तीनों जगत् के स्वामी श्रीजनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर माया का नाश करने के लिए मायाविनी पुष्पदत्ता की कथा लिखी जाती है ॥१॥ प्राचीन समय से प्रसिद्ध अजितावर्त नगर के राजा पुष्पचूल की रानी का नाम पुष्पदत्ता था। राजसुख भोगते हुए पुष्पचूल ने एक दिन अमरगुरु मुनि के पास जिनधर्म का स्वरूप सुना, जो धर्म स्वर्ग और मोक्ष के सुख की प्राप्ति का कारण है। धर्मोपदेश सुनकर पुष्पचूल को संसार, शरीर, भोगादिकों से बड़ा वैराग्य हुआ । वे दीक्षा लेकर मुनि हो गए। उनकी रानी पुष्पदत्ता ने भी उनकी देखा-देखी ब्रह्मिला नाम की आर्यिका के पास आर्यिका की दीक्षा ले ली। दीक्षा ले-लेने पर भी उसे अपने बड़प्पन, राजकुल का अभिमान जैसा का तैसा बना रहा । धार्मिक आचार-व्यवहार से वह विपरीत चलने लगी और ओर आर्यिका को नमस्कार, विनय करना उसे अपने अपमान का कारण जान पड़ने लगा। इसलिए वह किसी को नमस्कारादि नहीं करती थी । इसके सिवा उस योग अवस्था में भी अनेक प्रकार की सुगन्धित वस्तुओं द्वारा अपने शरीर को सिंगारा करती थी । उसका इस प्रकार बुरा, धर्मविरुद्ध आचार-विचार देखकर एक दिन धर्मात्मा ब्रह्मला ने उसे समझाया कि इस योगदशा में तुझे ऐसा शरीर का श्रृंगार आदि करना उचित नहीं है । ये बातें धर्मविरुद्ध और पाप की कारण हैं। इसलिए कि इनसे विषयों की इच्छा बढ़ती है । पुष्पदत्ता ने कहा-नहीं जी, मैं कहाँ शृंगार-विंगार करती हूँ। मेरा तो शरीर ही जन्म से ऐसी सुगन्ध लिए हैं। सच है - जिनके मन में स्वभाव से धर्म-वासना न हो उन्हें कितना भी समझाया जाये, उन पर उस समझाने का कुछ असर नहीं होता। उनकी प्रवृत्ति और अधिक बुरे कामों की ओर जाती है । पुष्पदत्ता ने यह मायाचार कर ठीक न किया। इसका फल इसके लिए बुरा हुआ। वह मरकर इस मायाचार के पाप से चम्पापुरी में सागरदत्त सेठ के यहाँ दासी हुई। उसका नाम जैसा पूतिमुखी था, इसके मुँह से भी सदा वैसी दुर्गन्ध निकलती रहती थी। इसलिए बुद्धिमानों को चाहिए कि वे माया को पाप की कारण जानकर उसे दूर से ही छोड़ दें। यही माया पशुपति के दुःखों का कारण है और कुल, सुन्दरता, यश, माहात्म्य, सुगति, धन-दौलत तथा सुख आदि का नाश करने वाली है और संसार के बढ़ाने वाली लता है। यह जानकर माया को छोड़े हुए जैनधर्म के अनुभवी विद्वानों को उचित है कि वे धर्म की ओर अपनी बुद्धि का लगावें ॥२-१३॥
  16. जिन जगद्बन्धु का ज्ञान लोक और अलोक का प्रकाशित करने वाला है जिनके ज्ञान द्वारा सब पदार्थ जाने जा सकते हैं, अपने हित के लिए उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर मान करने के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है । मगधदेश के लक्ष्मी नाम के सुन्दर गाँव में सोमशर्मा ब्राह्मण रहता था। इसकी स्त्री का नाम लक्ष्मीमती था । लक्ष्मीमती बहुत सुन्दरी थी । अवस्था उसकी जवान थी। उसमें सब गुण थे, पर एक दोष भी था । वह यह कि इसे अपनी जाति का बड़ा अभिमान था और यह सदा अपने को शृंगारने - सजाने में मस्त रहती थी ॥१-३॥ एक दिन पन्द्रह दिन के उपवास किए हुए श्रीसमाधिगुप्त मुनिराज आहार के लिए उसके यहाँ आए। सोमशर्मा ने उन्हें आहार कराने के लिए भक्ति से ऊँचा आसन पर विराजमान कर और अपनी स्त्री को उन्हें आहार करा देने के लिए कहकर आप कहीं बाहर चला गया। उसे किसी काम की जल्दी थी ॥४-६॥ इधर ब्राह्मणी बैठी-बैठी काँच में अपना मुख देख रही थी। उसने अभिमान में आकर मुनि को बहुत सी गालियाँ दीं, उनकी निन्दा की और किवाड़ बन्द कर लिए। हाय! इससे अधिक और क्या पाप होगा? मुनिराज शान्त-स्वभावी थे, तप के समुद्र थे, सबका हित करने वाले थे, अनेक गुणों से युक्त थे और उच्च चारित्र के धारक थे, इसलिए ब्राह्मणी की उस दुष्टता पर कुछ ध्यान न देकर वे लौट गए। सच है, पापियों के यहाँ आई हुई निधि भी चली जाती है। मुनि निन्दा के पाप से लक्ष्मीमती के सातवें दिन कोढ़ निकल आया । उसकी दशा बिगड़ गई। सच है - साधु-सन्तों की निन्दा-बुराई से कभी शान्ति नहीं मिलती । लक्ष्मीमती की बुरी हालत देखकर घर के लोगों ने उसे घर से बाहर कर दिया। यह कष्ट पर कष्ट उससे न सहा गया, सो वह आग में बैठकर जल मरी । उसकी मौत बड़े बुरे भावों से हुई । उसी पाप से वह इसी गाँव में एक धोबी के यहाँ गधी हुई इस दशा में इसे दूध पीने को नहीं मिला । यह मरकर सूअरी हुई। फिर दो बार कुत्ती की पर्याय उसने ग्रहण की। इसी दशा में वह वन में दावाग्नि से जल मरी । अब वह नर्मदा नदी के किनारे पर बसे हुए भृगुकच्छ गाँव में एक मल्लाह के यहाँ काणा नाम की लड़की हुई । शरीर उसका जन्म से ही बड़ा दुर्गन्धित था। किसी की इच्छा उसके पास तक बैठने की नहीं होती थी । देखिये अभिमान का फल कि लक्ष्मीमती ब्राह्मणी थी, पर उसने अपनी जाति का अभिमान कर अब मल्लाह के यहाँ जन्म लिया। इसलिए बुद्धिमानों को कभी जाति का गर्व न करना चाहिए ॥७–१६॥ एक दिन काणा लोगों को नाव द्वारा नदी पार करा रही थी । उसने नदी किनारे पर तपस्या करते हुए उन्हीं मुनि को देखा, जिनकी कि लक्ष्मीमती की पर्याय में इसने निन्दा की थी। उन ज्ञानी मुनि को नमस्कार कर उनसे पूछा- प्रभो, मुझे याद आता है कि मैंने कहीं आपको देखा है? मुनि ने कहा बच्ची, तू पूर्वजन्म में ब्राह्मणी थी, तेरा नाम लक्ष्मीमती था और सोमशर्मा तेरा भर्त्ता था। तूने अपने जाति के अभिमान में आकर मुनिनिन्दा की । उसके पाप से तेरे कोढ़ निकल आया। तू उस दुःख को न सहकर आग में जल मरी। इस आत्महत्या के पाप से तुझे गधी, सुअरी और दो बार कुत्ती होना पड़ा। कुत्ती के भव से मरकर तू इस मल्लाह के यहाँ पैदा हुई है । अपना पूर्व भव का हाल सुनकर काणा को जातिस्मरण हो गया, पूर्वजन्म की सब बातें उसे याद हो उठीं। वह मुनि को नमस्कार कर बड़े दुःख के साथ बोली- प्रभो ! मैं बड़ी पापिनी हूँ। मैंने साधु महात्माओं की बुराई कर बड़ा ही नीच काम किया है। मुनिराज, मेरी पाप से अब रक्षा करो, मुझे कुगतियों में जाने से बचाओ तब मुनि ने उसे धर्म का उपदेश दिया। काणा सुनकर बड़ी सन्तुष्ट हुई उसे बहुत वैराग्य हुआ। वह वहीं मुनि के पास दीक्षा लेकर क्षुल्लिका हो गई। उसने फिर अपनी शक्ति के अनुसार खूब तपस्या की, अन्त में शुभ भावों से मरकर वह स्वर्ग गई । यही काणा फिर स्वर्ग से आकर कुण्ड नगर के राजा भीष्म की महारानी यशस्वती के रूपिणी नाम की बहुत सुन्दर कन्या हुई। रूपिणी का ब्याह वासुदेव के साथ हुआ। सच है, पुण्य के उदय के जीवों को सब धन-दौलत मिलती है ॥१७-२७॥ जैन धर्म सबका हित करने वाला सर्वोच्च धर्म है। जो इसे पालते हैं, वे अच्छे कुल में जन्म लेते हैं, उन्हें यश-सम्पत्ति प्राप्त होती है, वे कुगति में न जाकर उच्च गति में जाते हैं और अन्त में मोक्ष का सर्वोच्च सुख लाभ करते हैं ॥२८॥
  17. भूख, प्यास, रोग, शोक, जन्म, मरण, भय, माया, चिन्ता, मोह, राग, द्वेष आदि अठारह दोषों से जो रहित हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर वशिष्ठ तापसी की कथा लिखी जाती है ॥१॥ उग्रसेन मथुरा के राजा थे। उनकी रानी का नाम रेवती था । रेवती अपने स्वामी की बड़ी प्यारी थी। यहीं एक जिनदत्त सेठ रहता था। जिनदत्त के यहाँ प्रियंगुलता नाम की एक नौकरानी थी । मथुरा में यमुना किनारे पर वशिष्ठ नाम का एक तापसी रहता था। वह रोज नहा-धोकर पंचाग्नि तप किया करता था। लोग उसे बड़ा भारी तपस्वी समझ कर उसकी खूब सेवा-भक्ति करते थे। सो ठीक ही है, असमझ लोग प्रायः देखा-देखी हर एक काम करने लग जाते हैं । यहाँ तक कि शहर की दासियाँ पानी भरने को कुँए पर जब आती तो वे भी तापस महाराज की बड़ी भक्ति से प्रदक्षिणा करती, उनके पाँवों पड़ती और उनकी सेवा - सुश्रुषा कर फिर वे घर जातीं । प्रायः सभी का यही हाल था । पर हाँ प्रियंगुलता इससे बरी थी । उसे ये बातें बिल्कुल नहीं रुचती थीं । इसलिए कि वह बचपने से ही जैनी के यहाँ काम करती रही । उसके साथ की और स्त्रियों को प्रियंगुलता का यह हठ अच्छा नहीं जान पड़ा और इसलिए मौका पाकर वे एक दिन प्रियंगुलता को उस तापसी के पास जबरदस्ती लिवा ले गई और इच्छा न रहते भी उन्होंने उसका सिर तापसी के पाँवों पर रख दिया। अब तो प्रियंगुलता से न रहा गया। उसने गुस्सा होकर साफ-साफ कह दिया कि यदि इस ढोंगी के मैं हाथ जोडूं, तब फिर मुझे एक धीवर (भोई) के ही क्यों न हाथ जोड़ना चाहिए? इससे तो वह बहुत अच्छा है। एक दासी के द्वारा अपनी निन्दा सुनकर तापसी जी को बड़ा गुस्सा आया । वे उन दासियों पर भी बहुत बिगड़े, जिन्होंने जर्बदस्ती प्रियंगुलता को उनके पाँवों पर पटका था । दासियाँ तो तापसी जी की लाल-पीली आँखें देखकर उसी समय वहाँ से नौ-दो-ग्यारह हो गई पर तापस महाराज की क्रोधाग्नि तब भी न बुझी॥२-१०॥ उसने उग्रसेन महाराज के पास पहुँचकर शिकायत की कि प्रभो, जिनदत्त सेठ ने मुझे धीवर बतलाकर मेरा बड़ा अपमान किया। उसे एक साधु की इस तरह बुराई करने का क्या अधिकार था? उग्रसेन को भी एक दूसरे धर्म के साधु की बुराई करना अच्छा नहीं जान पड़ा। उन्होंने जिनदत्त को बुलाकर पूछा, जिनदत्त ने कहा- महाराज यदि यह तपस्या करता है तो यह तापसी है ही, इसमें विवाद किसको है। पर मैंने तो इसे धीवर नहीं बतलाया और सचमुच जिनदत्त ने उससे कुछ कहा भी नहीं था । जिनदत्त को इंकार करते देख तापसी घबराया। तब उसने अपनी सच्चाई बतलाने के लिए कहा- ना प्रभो, जिनदत्त की दासी ने ऐसा कहा था तापसी की बात पर महाराज को कुछ हँसी-सी आ गई उन्होंने तब प्रियंगुलता को बुलवाया। वह आई उसे देखते ही तापसी के क्रोध का कुछ ठिकाना ना रहा । वह कुछ न सोचकर एक साथ ही प्रियंगुलता पर बिगड़ खड़ा हुआ और गाली देते हुए उसने कहा- राँड़ तूने मुझे धीवर बतलाया है, तेरे इस अपराध की सजा तो तुझे महाराज देंगे ही। पर देख, मैं धीवर नहीं हूँ किन्तु केवल हवा के आधार पर जीवन रखने वाला एक परम तपस्वी हूँ । बतला तो, तूने मुझे क्या समझ कर धीवर कहा ? प्रियंगुलता ने तब निर्भय होकर कहा- हाँ बतलाऊँ कि मैंने तुझे क्यों मल्लाह बतलाया था? ले सुन, जबकि तू रोज-रोज मच्छलियाँ मारा करता है तब तू मल्लाह तो है ही! मुझे ऐसी दशा से कौन समझदार तापसी कहेगा ? तू यह कहे कि इसके लिए सबूत क्या? तू जैनी के यहाँ रहती है, इसलिए दूसरे धर्मों की या उनके साधु-सन्तों की बुराई करना तो तेरा स्वभाव होना ही चाहिए। पर सुन, मैं तुझे आज यह बतला देना चाहती हूँ कि जैनधर्म सत्य का पक्षपाती है ॥११-१७॥ उसमें सच्चे साधु संत ही पुजते हैं। तेरे से ढोंगी, बेचारे भोले लोगों को धोखा देने वालों की उसके सामने दाल नहीं गल पाती। ऐसा ही ढोंगी देखकर तुझे मैंने मल्लाह बतलाया और न मैं तुझमें मछली मारने वाले मल्लाहों से कोई अधिक बात ही पाती हूँ। तब बतला मैंने इसमें कौन तेरी बुराई की? अच्छा, यदि तू मल्लाह नहीं है तो जरा अपनी इन जटाओं को तो झाड़ दे अब तो तापस महाराज बड़े घबराये और उन्होंने बातें बनाकर इस बात को ही उड़ा देना चाहा। पर प्रियंगुलता ऐसे कैसे रास्ते पर आ जाने वाली थी । उसने तापसी से जटा झड़वा कर ही छोड़ा । जटा झाड़ने पर सचमुच छोटी-छोटी मछलियाँ उसमें से गिरी । सब देखकर दंग रह गए। उग्रसेन ने तब जैनधर्म की खूब तारीफ कर तापसी से कहा - महाराज, जाइए - जाइए आपके इस भेष से पूरा पड़े। मेरी प्रजा को आपसे हृदय के मैले साधुओं की जरूरत नहीं । तापसी को भरी सभा में अपमानित होने से बहुत ही नीचा देखना पड़ा। वह अपना सा मुँह लिए वहाँ से अपने आश्रम में आया पर लज्जा, अपमान, आत्मग्लानि से वह मरा जाता था। जो उसे देख पाता वही उसकी ओर अँगुली उठाकर बतलाने लगता। तब उसने वहाँ रहना छोड़ देना ही अच्छा समझ कुच कर दिया । वहाँ से वह गंगा और गंधवती के मिलाप होने की जगह आया और वहीं आश्रम बनाकर रहने लगा । एक दिन जैनतत्त्व के परम जानकार श्री वीरभद्राचार्य अपने संघ को लिए इस ओर आ गए । वशिष्ठ - तापस को पंचाग्नि तप करते देख एक मुनि ने अपने गुरु से कहा- महाराज, यह तापसी तो बड़ा ही कठिन और असह्य तप करता है ॥ १८-२२॥ आचार्य बोले-हाँ यह ठीक है कि ऐसे तप में भी शरीर को बेहद कष्ट दिये बिना काम नहीं चलता, पर अज्ञानियों का तप कोई प्रशंसा के लायक नहीं । भला, जिनके मन में दया नहीं, जो संसार की सब माया, ममता और आरम्भ - सारम्भ छोड़-छोड़कर योगी हुए और फिर वे ऐसा दयाहीन, (जिसमें हजारों लाखों जीव रोज-रोज जलते हैं) तप करें तो इससे और अधिक दुःख की बात कौन होगी। वशिष्ठ के कानों में भी यह आवाज गई वह गुस्सा होकर आचार्य के पास आया और बोला- आपने मुझे अज्ञानी कहा, यह क्यों? मुझमें आपने क्या अज्ञानता देखी, बतलाइए? आचार्य ने कहा— भाई, गुस्सा मत हो। तुम्हें लक्ष कर तो मैंने कोई बात नहीं कही हैं। फिर क्यों इतना गुस्सा करते हों? मेरी धारणा तो ऐसे तप करने वाले सभी तापसों के सम्बन्ध में है कि वे बेचारे अज्ञान से ठगे जाकर ही ऐसे हिंसामय तप को तप समझते हैं। यह तप नहीं है किन्तु जीवों का होम करना है और जो तुम यह कहते हो, कि मुझे आपने अज्ञानी क्यों बतलाया, तो अच्छा एक बात तुम ही बतलाओ कि तुम्हारे गुरु, जो सदा ऐसा तप किया करते थे, मरकर तप के फल से कहाँ पैदा हुए हैं? तापस बोला- हाँ, क्यों नहीं कहूँगा? मेरे गुरुजी स्वर्ग में गए हैं। वीरभद्राचार्य ने कहा- नहीं तुम्हें इसका मालूम ही नहीं हो सकता। सुनो, मैं बतलाता हूँ कि तुम्हारे गुरु की मरे बाद क्या दशा हुई, आचार्य ने अवधिज्ञान जोड़कर कहा- - तुम्हारे गुरु स्वर्ग में नहीं गए किन्तु साँप हुए हैं और इस लकड़े के साथ-साथ जल रहे हैं। तापस को विश्वास नहीं हुआ बल्कि उसे गुस्सा भी आया कि इन्होंने क्यों मेरे गुरु को साँप हुआ बतलाकर उनकी बुराई की। पर आचार्य की बात सच है या झूठ इसकी परीक्षा कर देखने के लिए यही उपाय था कि उस लकड़े को चीरकर देखे। तापसी ने वैसा ही किया । लकड़े को चीरा । वीरभद्राचार्य का कहा सत्य हुआ। सर्प उसमें से निकला। देखते ही तापस को बड़ा अचम्भा हुआ । उसका सब अभिमान चूर-चूर हो गया। उसकी आचार्य पर बहुत ही श्रद्धा हो गई उसने जैनधर्म का उपदेश सुना। सुनकर उसके हिये की आँखें, जो इतने दिनों से बन्द थीं, एकदम खुल गई हृदय में पवित्रता का स्रोत फट निकला। बहुत दिनों का कूट-कपट, मायाचार रूपी मैलापन देखते-देखते न जाने कहाँ बहकर चला गया। वह उसी समय वीरभद्राचार्य से मुनि दीक्षा लेकर अब से सच्चा तापसी बन गया। यहाँ घूमते- फिरते और धर्मोपदेश करते वशिष्ठ मुनि एक बार मथुरा की ओर फिर आए । तपस्या के लिए इन्होंने गोवर्द्धन पर्वत बहुत पसन्द किया। वहीं ये तपस्या किया करते थे । एक बार इन्होंने महीना भर के उपवास किए। तप के प्रभाव से इन्हें कई विद्याएँ सिद्ध हो गई विद्याओं ने आकर इनसे कहा - प्रभो, हम आपकी दासियाँ हैं । आप हमें कोई काम बतलाइए । वशिष्ठ ने कहा- अच्छा, इस समय तो मुझे कोई काम नहीं, पर जब होगा तब मैं तुम्हें याद करूँगा। उस समय तुम उपस्थित होना। इसलिए इस समय तुम जाओ। जिन्होंने संसार की सब माया, ममता छोड़ रखी है, सच पूछो तो उनके लिए ऐसी ऋद्धि-सिद्धि की कोई जरूरत नहीं । पर वशिष्ठ मुनि ने लोभ में पड़कर विद्याओं को अपनी आज्ञा में रहने को कह दिया । पर यह उनके पदस्थ योग्य न था ॥२३ - ३१॥ महीना भर के उपवास से वशिष्ठ मुनि पारणा को शहर में आए। उग्रसेन को उनके उपवास करने की पहले से मालूम थी । इसलिए तभी से उन्होंने भक्ति के वश हो सारे शहर में डौंडी पिटवा दी थी कि तपस्वी वशिष्ठ मुनि को मैं पारणा कराऊँगा उन्हें आहार दूँगा और कोई न दे। सच है, कभी-कभी मूर्खता की हुई भक्ति भी दुःख की कारण बन जाया करती है । वशिष्ठ मुनि के प्रति उग्रसेन राजा की थी तो भक्ति, पर उसमें स्वार्थ का भाग होने से उसका उल्टा परिणाम हो गया। बात यह हुई कि जब वशिष्ठ मुनि पारणा के लिए आए, तब अचानक राजा का खास हाथी उन्मत्त हो गया। वह साँकल तुड़ाकर भाग खड़ा हुआ और लोगों को कष्ट देने लगा। राजा उसके पकड़वाने का प्रबन्ध करने में लग गए। उन्हें मुनि के पारणे की बात याद न रही । सो मुनि शहर में इधर-उधर घूम-घामकर वापस वन में लौट गए। शहर के और किसी गृहस्थ ने उन्हें इसलिए आहार न दिया कि राजा ने उन्हें सख्त मना कर दिया था। दूसरे दिन कर्मसंयोग से शहर के किसी मुहल्ले में भयंकर आग लग आई, सो राजा इसके मारे व्याकुल हो उठे। मुनि आज भी सब शहर में तथा राजमहल में भिक्षा के लिए चक्कर लगाकर लौट गए। उन्हें कहीं आहार न मिला। तीसरे दिन जरासन्ध राजा का किसी विषय को लिए आज्ञापत्र आ गया, सो आज इसकी चिन्ता के मारे उन्हें स्मरण न आया। सच है, अज्ञान से किया काम कभी सिद्ध नहीं हो पाता। मुनि आज भी अन्तराय कर लौट गए। शहर बाहर पहुँचते न पहुँचते वे गश खाकर जमीन पर गिर पड़े। मुनि की यह दशा देखकर एक बुढ़िया ने गुस्सा होकर कहा- यहाँ का राजा बड़ा ही दुष्ट है। न तो मुनि को आप ही आहार देता है और न दूसरों को देने देता है। हाय! एक निरपराध तपस्वी की उसने व्यर्थ ही जान ले ली। बुढ़िया की बातें मुनि ने सुन लीं ॥३२-४२॥ राजा की इस नीचता पर उन्हें अत्यन्त क्रोध आया। वे उठकर सीधे पर्वत पर गए। उन्होंने विद्याओं को बुलाकर कहा - मथुरा का राजा बड़ा ही पापी है, तुम जाकर फौरन ही मार डालो ! मुनि को इस प्रकार क्रोध की आग उगलते देख विद्याओं ने कहा- प्र - प्रभो, आपको कहने का हमें कोई और धर्म पर कोई कलंक न लगे कि एक अधिकार नहीं, पर तब भी आपके अच्छे के लिहाज से जैनमुनि ने ऐसा अन्याय किया, हम निःसंकोच होकर कहेंगे कि इस वेष के लिए आपकी यह आज्ञा सर्वथा अनुचित है और इसीलिए हम आपके साथ देने के लिए भी हिचकते हैं। आप क्षमा के सागर हैं, आपके लिए शत्रु और मित्र एक जैसे हैं। मुनि पर देवियों की इस शिक्षा का कुछ असर नहीं हुआ। उन्होंने यह कहते हुए प्राण छोड़ दिये कि अच्छा, तुम मेरी आज्ञा का दूसरे जन्म में पालन करना। मैं दान में विघ्न करने वाले इस उग्रसेन राजा को मारकर अपना बदला अवश्य चुकाऊँगा।मुनि ने तपस्या नाश करने वाले निदान को तप का फल पर जन्म में मुझे इस प्रकार मिले, ऐसे संकल्प को करके रेवती के गर्भ में जन्म लिया । सच है, क्रोध सब कामों को नष्ट करने वाला और पाप का मूल कारण है। एक दिन रेवती को दुर्बल देखकर उग्रसेन ने उससे पूछा-प्रिये, दिनों-दिन तुम ऐसी दुबली क्यों होती जाती हो? तुझे चिन्तातुर देख बड़ा खेद होता है । रेवती ने कहा- नाथ, क्या कहूँ, कहते हृदय काँपता है । नहीं जान पड़ता कि होनहार कैसी हो ? स्वामी, मुझे बड़ा ही भयंकर दोहला हुआ है। मैं नहीं कह सकती कि अपने यहाँ अब की बार किस अभागे ने जन्म लिया है। नाथ! कहते हुए आत्मग्लानि से मेरा हृदय फटा पड़ता है। मैं उसे कहकर आपको और अधिक चिन्ता में डालना नहीं चाहती । उग्रसेन को अधिकाधिक आश्चर्य और उत्कण्ठा बढ़ी। उन्होंने बड़े हठ के साथ पूछा-आखिर रानी को कहना ही पड़ा। वह बोली- अच्छा नाथ, यदि आपका आग्रह ही है तो सुनिए, जी कड़ा करके कहती हूँ। मेरी अत्यन्त इच्छा होती है कि- “मैं आपका पेट चीरकर खून पान करूँ।” मुझे नहीं जान पड़ता कि ऐसा दुष्ट दोहला क्यों होता है? भगवान् जाने। यह प्रसिद्ध है कि जैसा गर्भ में बालक आता है, दोहला भी वैसा ही होता है । सुनकर उग्रसेन को भी चिन्ता हुई, पर उसके लिए इलाज क्या था, उन्होंने सोचा, दोहला बुरा या भला, इसका निश्चय होना तो अभी असंभव है। पर उसके अनुसार रानी की इच्छा तो पूरी होनी ही चाहिए । तब इसके लिए उन्होंने यह युक्ति की कि अपने आकार का एक पुतला बनवाकर उसमें कृत्रिम खून भरवाया और रानी को उसकी इच्छा पूरी करने के लिए उन्होंने कहा । रानी ने अपनी इच्छा पूरी करने के लिए उस पापकर्म को किया। वह सन्तुष्ट हुई ॥४३ - ५२॥ थोड़े दिनों बाद रेवती ने एक पुत्र जना। वह देखने में बड़ा भयंकर था । उसकी आँखों से क्रूरता टपक पड़ती थी। उग्रसेन ने उसके मुँह की ओर देखा तो वह मुट्ठी बाँधे बड़ी क्रूर दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा । उन्हें विश्वास हो गया कि जैसे बाँसों की रगड़ से उत्पन्न हुआ आग सारे वन को जलाकर खाक कर देती है ठीक इसी तरह से कुल में उत्पन्न हुआ दुष्ट पुत्र भी सारे कुल को जड़मूल से उखाड़ फेंक देता है । मुझे इस लड़के की क्रूरता को देखकर भी यही निश्चय होता है कि अब इस कुल के भी दिन अच्छे नहीं है । यद्यपि अच्छा-बुरा होना दैवाधीन है, तथापि मुझे अपने कुल की रक्षा के निमित्त कुछ यत्न करना ही चाहिए। हाथ पर हाथ रखे बैठे रहने से काम नहीं चलेगा। यह सोचकर उग्रसेन ने एक छोटा-सा सुन्दर सन्दूक मँगवाया और उस बालक को अपने नाम की एक अँगूठी पहनाकर हिफाजत के साथ उस सन्दूक में रख दिया। इसके बाद सन्दूक को उन्होंने यमुना नदी में छुड़वा दिया। सच दुष्ट किसी को भी प्रिय नहीं लगता ॥५३-५६॥ कौशाम्बी में गंगाभद्र नाम का एक माली रहता था । उसकी स्त्री का नाम राजोदरी था। एक दिन वह जल भरने को नदी पर आई हुई थी । तब नदी में बहती हुई एक सन्दूक पर उसकी नजर पड़ी। वह उसे बाहर निकाल अपने घर ले आई सन्दूक को राजोदरी ने खोला। उसमें से एक बालक निकला। राजोदरी उस बालक को पाकर बड़ी खुश हुई कारण कि उसके कोई लड़का नहीं था। उसने बड़े प्रेम से इसे पाला-पोसा । वह बालक काँसे की सन्दूक में निकला था, इसलिए राजोदरी ने इसका नाम भी ‘कंस' रख दिया ॥५७-५८॥ कंस का स्वभाव अच्छा न होकर क्रूरता लिए हुए था । यह अपने साथ के बालकों को मारा- पीटा करता और बात-बात पर उन्हें तंग किया करता था । इसके अड़ोस - पड़ोस के लोग बड़े दुःखी रहा करते थे। राजोदरी के पास दिनभर में कंस की कोई पचासों शिकायतें आया करती थी । उस बेचारी ने बहुत दिन तक तो उसका उत्पात - उपद्रव सहा, पर फिर उससे भी यह दिन-रात का झगड़ा-टंटा न सहा गया । सो उसने कंस को घर से निकाल दिया । सच है - पापी पुरुषों से किसी को भी कभी सुख नहीं मिलता। कंस अब शौरीपुर पहुँचा । यहाँ वह वसुदेव का शिष्य बनकर शास्त्राभ्यास करने लगा। थोड़े दिनों में वह साधारण अच्छा लिख-पढ़ गया। वसुदेव की इस पर अच्छी कृपा हो गई इस कथा के साथ एक और कथा का सम्बन्ध है, इसलिए वह कथा यहाँ लिखी जाती है- ॥५९-६१॥ सिंहरथ नाम का एक राजा जरासन्ध का शत्रु था । जरासन्ध ने इसे पकड़ लाने का बड़ा यत्न किया, पर किसी तरह यह इसके काबू में नहीं आता था । तब जरासन्ध ने सारे शहर में डौंडी पिटवाई कि वीर-शिरोमणि सिंहरथ को पकड़कर मेरे सामने लाकर उपस्थित करेगा, उसे मैं अपनी जीवंजसा लड़की को ब्याह दूँगा और अपने देश का कुछ हिस्सा भी मैं उसे दूँगा । इसके लिए वसुदेव तैयार हुआ । वह अपने बड़े भाई की आज्ञा से सब सेना को साथ लिए सिंहरथ के ऊपर जा चढ़ा । उसने जाते ही सिंहरथ की राजधानी पोदनपुर के चारों ओर घेरा डाल दिया और आप एक व्यापारी के वेष में राजधानी के भीतर घुसा। कुछ खास-खास लोगों को धन का खूब लोभ देकर उसने उन्हें फोड़ लिया। हाथी के महावत, रथ के सारथी आदि को उसने पैसे का गुलाम बनाकर अपनी मुट्ठी में कर लिया। सिंहरथ को इसका समाचार लगते ही उसने भी उसी समय रणभेरी बजवाई और बड़ी वीरता के साथ वह लड़ने के लिए अपने शहर से बाहर हुआ। दोनों ओर से युद्ध के झुझारु बाजे बजने लगे। उनकी गम्भीर आवाज अनन्त आकाश को भेदती हुई स्वर्गों के द्वारों से जाकर टकराई, सुखी देवों का आसन हिल गया। अमरांगनाओं ने समझा कि हमारे यहाँ मेहमान आते हैं, सो वे उनके सत्कार के लिए हाथों में कल्पवृक्षों के फलों की मनोहर मालाएँ ले-लेकर स्वर्गों के द्वार पर उनकी अगवानी के लिए आ डटीं । स्वर्गों के दरवाजे उनसे ऐसे खिल उठे मानों चन्द्रमाओं की प्रदर्शनी की गई है। थोड़ी ही देर में दोनों ओर से युद्ध छिड़ गया । खूब मारकाट हुई खून की नदी बहने लगी। मृतकों के सिर और धड़ उसमें तैरने लगे। दोनों ओर की वीर सेना ने अपने-अपने स्वामी के नमक का जी खोलकर परिचय कराया । जिसे न्याय की जीत कहते हैं, वह किसी को प्राप्त न हुई । पर वसुदेव ने जो पोदनपुर के कुछ लोगों को अपने मुट्ठी में कर लिया था, उन स्वार्थियों, विश्वासघातियों ने अन्त में अपने मालिक को दगा दे दिया । सिंहरथ को उन्होंने वसुदेव के हाथ पकड़वा दिया ॥६२-६६॥ सिंहरथ का रथ मौके के समय बेकार हो गया। उसी समय वसुदेव ने उसे घेरकर कंस से कहा-जो कि उसके रथ का सारथी था, कंस देखते क्या हो? उतर कर शत्रु को बाँध लो । कंस ने गुस्से के साथ रथ से उतर कर सिंहरथ को बाँध लिया और रथ में रखकर उसी समय वे वहाँ से चल दिये। सच है, अग्नि एक तो वैसे ही तपी हुई होती है और ऊपर से यदि वायु बहने लगे तब तो उसके तपने का पूछना ही क्या ? सिंहरथ को बाँध लाकर वसुदेव ने जरासन्ध के सामने उसे रख दिया। देखकर जरासन्ध बहुत ही प्रसन्न हुआ । अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए उसने वसुदेव से कहा- मैं आपका बहुत ही कृतज्ञ हूँ । अब आप कृपाकर मेरी कुमारी का पाणिग्रहण कर मेरी इच्छा पूरी कीजिए और मेरे देश के जिस प्रदेश को आप पसन्द करें मैं उसे भी देने को तैयार हूँ। वसुदेव ने कहा - प्रभो, आपकी इस कृपा का मैं पात्र नहीं । कारण मैंने सिंहरथ को नहीं बाँधा है। इसे बाँधा है मेरे प्रिय शिष्य कंस ने। सो आप जो कुछ देना चाहें इसे देकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी कीजिए। जरासन्ध ने कंस की ओर देखकर उससे पूछा- भाई, तुम्हारी जाति-कुल क्या है? कंस को अपने विषय में जो बात ज्ञात थी, उसने वही स्पष्ट बतला दी कि प्रभो, मैं तो एक मालिन का लड़का हूँ। जरासन्ध को कंस की सुन्दरता और तेजस्विता देखकर यह विश्वास नहीं हुआ कि वह सचमुच ही एक मालिन का लड़का होगा। इसके निश्चय करने के लिए जरासन्ध ने उसकी माँ को बुलवाया। यह ठीक है कि राजा लोग प्रायः बुद्धिमान् और चतुर हुआ करते हैं । कंस की माँ को जब यह खबर मिली कि उसे राजदरबार में बुलाया है, तब तो उसकी छाती धड़कने लग गई वह कंस की शैतानी का हाल तो जानती ही थी, सो उसने सोचा कि जरूर कंस ने कोई बड़ा भारी गुनाह किया है और इसी से वह पकड़ा गया है। अब उसके साथ मेरी भी आफत आई वह घबराई और पछताने लगी कि हाय? मैंने क्यों इस दुष्ट को अपने घर लाकर रखा ? अब न जाने राजा मेरा क्या हाल करेगा? जो हो, बेचारी रोती-झींकती राजा के पास गई और अपने साथ उस सन्दूक को भी ले गई, जिसमें कि कंस निकला था। इसने राजा के सामने होते ही काँपते - काँपते कहा- दुहाई है महाराजा की! महाराज, यह पापी मेरा लड़का नहीं हैं, मैं सच कहती हूँ । इस सन्दूक में से यह निकला है । सन्दूक को आप लीजिए और मुझे छोड़ दीजिये। मेरा इसमें कोई अपराध नहीं । मालिन को इतनी घबराई देखकर राजा को कुछ हँसी-सी आ गई उसने कहा- नहीं, इतने डरने - घबराने की कोई बात नहीं। मैंने तुम्हें कोई कष्ट देने को नहीं बुलाया है। बुलाया है सिर्फ कंस की खरी-खरी हकीकत जानने के लिए। इसके बाद ने सन्दूक उठाकर खोला तो उसमें एक कम्बल और एक अँगूठी निकली। अँगूठी पर खुदा हुआ नाम पढ़कर राजा को कंस के सम्बन्ध में अब कोई शंका न रह गई उसने उसे एक अच्छे राजकुल में जन्मा समझ उसके साथ अपनी जीवंजसा कुमारी का ब्याह बड़े ठाटबाट से कर दिया। जरासन्ध ने उसे अपना राज का हिस्सा भी दिया। कंस अब राजा हो गया ॥ ६७-७९॥ राजा होने के साथ ही अब उसे अपनी राज्य सीमा और प्रभुत्व बढ़ाने की महत्त्वाकांक्षा हुई। मथुरा के राजा उग्रसेन के साथ उसकी पूर्व जन्म की शत्रुता है । कंस जानता था कि उग्रसेन मेरे पिता हैं, पर तब भी उन पर वह जला करता है और उसके मन में सदा यह भावना उठती हैं कि मैं उग्रसेन से लडूं और उनका राज्य छीनकर अपनी आशा पूरी करूँ । यही कारण था कि उसने पहली चढ़ाई अपने पिता पर ही की। युद्ध में कंस की विजय हुई उसने अपने पिता को एक लोहे के पिंजरे में बन्द कर और शहर के दरवाजे के पास उस पिंजरे को रखवा दिया और आप मथुरा का राजा बनकर राज्य करने लगा। कंस को इतने पर भी सन्तोष न हुआ सो अपना बैर चुकाने का अच्छा मौका समझ वह उग्रसेन को बहुत कष्ट देने लगा। उन्हें खाने के लिए वह केवल कोदू की रोटियाँ और छाछ देता। पीने के लिए गन्दा पानी और पहनने के लिए बड़े ही मैले-कुचैले और फटे-पुराने चिथड़े देता । मतलब यह कि उसने एक बड़े से बड़े अपराधी की तरह उनकी दशा कर रक्खी थी। उग्रसेन की इस हालात को देखकर उनके कट्टर दुश्मन की भी छाती फटकर उसकी आँखों से सहानुभूति के आँसू गिर सकते थे, पर पापी कंस को उनके लिए रत्तीभर भी दया या सहानुभूति नहीं थी । सच है - कुपुत्र कुल का काल होता है । अपने भाई की यह नीचता देखकर कंस के छोटे भाई अतिमुक्तक को संसार से बड़ी घृणा हुई उन्होंने सब मोह-माया छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर ली। वसुदेव कंस के गुरु थे। इसके सिवा उन्होंने उसका बहुत कुछ उपकार किया था, इसलिए कंस की उन पर बड़ी श्रद्धा थी। उसने उन्हें अपने ही पास बुलाकर रख लिया ॥८०-८४॥ मृतकावती पुरी के राजा देवकी के एक कन्या थी । वह बड़ी सुन्दर थी । राजा का उस पर बहुत प्यार था । इसलिए उसका नाम उन्होंने अपने ही नाम पर देवकी रख दिया था । कंस ने उसे अपनी बहिन मानी थी, सो वसुदेव के साथ उसने उसका ब्याह कर दिया। एक दिन की बात है कि कंस की स्त्री जीवंजसा ने देवकी के और अपने देवर अतिमुक्तक की स्त्री पुष्पवती के वस्त्रों को आप पहनकर नाच रही थी - हँसी मजाक कर रही थी । इसी समय कंस के भाई अतिमुक्तक मुनि आहार के लिए आए। जीवंजसा ने हँसते-हँसते मुनि से कहा- अजी ओ देवरजी, आइए! आइए ! मेरे साथ-साथ आप भी नाचिये । देखिए, फिर बड़ा ही आनन्द आयेगा। मुनि ने गंभीरता से उत्तर दिया। बहिन, मेरा यह मार्ग नहीं है। इसलिए अलग हो जा और मुझे जाने दे। पापिनी जीवंजसा ने मुनि को जाने न देकर उल्टा हाथ पकड़ लिया और बोली- नहीं, मैं तब तक आपको कहीं न जाने दूँगी जब तक कि आप मेरे साथ न नाचेंगे। मुनि को इससे कुछ कष्ट हुआ और इसी से उन्होंने आवेग में आ उससे कह दिया कि मूर्ख, नाचती क्यों है! जाकर अपने स्वामी से कह कि आपकी मौत देवकी के लड़के द्वारा होगी और वह समय बहुत नजदीक आ रहा है। सुनकर जीवंजसा को बड़ा गुस्सा आया। उसने गुस्से में आकर देवकी के वस्त्र को, जिसे कि वह पहने हुए थी, फाड़कर दो टुकड़े कर दिये। मुनि ने कहा- - मूर्ख स्त्री, कपड़े को फाड़ देने से क्या होगा? देख और सुन, जिस तरह तूने इस कपड़े के दो टुकड़े कर दिये हैं उसी तरह देवकी के होने वाला वीर पुत्र तेरे बाप के दो टुकड़े करेगा । जीवंजसा को बड़ा ही दुःख हुआ। वह नाचना गाना सब भूल गई अपने पति के पास दौड़ी जाकर वह रोने लगी। सच है यह जीव अज्ञानदशा में हँसता-हँसता जो पाप कमाता है उसका फल भी इसे बड़ा ही बुरा भोगना पड़ता है । कंस जीवंजसा को रोती देखकर बड़ा घबराया। उसने पूछा-प्रिये, क्यों रोती हो? बतलाओ, क्या हुआ? संसार में ऐसा कौन धृष्ट होगा जो कंस की प्राणप्यारी को रुला सके ! प्रिये, जल्दी बतलाओ, तुम्हें रोती देखकर मैं बड़ा दुःखी हो रहा हूँ। जीवंजसा ने मुनि द्वारा जो-जो बातें सुनी थीं, उन्हें कंस से कह दिया । सुनकर कंस को भी बड़ी चिन्ता हुई। वह जीवंजसा से बोला- प्रिये, घबराने की कोई बात नहीं, मेरे पास इस रोग की भी दवा है। इसके बाद ही वह वसुदेव के पास पहुँचा और उन्हें नमस्कार कर बोला-गुरु महाराज, आपने मुझे पहले एक‘वर’ दिया था। उसकी मुझे अब जरूरत पड़ी है। कृपा कर मेरी आशा पूरी कीजिए इतना कहकर कंस ने कहा- मेरी इच्छा देवकी के होने वाले पुत्र के मार डालने की है। इसलिए कि मुनि ने उसे मेरा शत्रु बतलाया है। सो कृपाकर देवकी की प्रसूति मेरे महल में हो इसके लिए अपनी अनुमति दीजिए ॥८५-९८॥ अपने एक शिष्य की इस प्रकार नीचता, गुरुद्रोह देखकर वसुदेव की छाती धड़क उठी। उनकी आँखों में आँसू भर आए । पर करते क्या? वे क्षत्रिय थे और क्षत्रिय लोग इस व्रत के व्रती होते हैं कि “प्राण जाँहि पर वचन न जाँहि ।” तब उन्हें लाचार होकर कंस का कहना बिना कुछ कहे- सुने मान लेना पड़ा क्योंकि सत्पुरुष अपने वचनों का पालन करने में कभी कपट नहीं करते। देवकी ये सब बातें खड़ी-खड़ी सुन रही थी । उसे अत्यन्त दुःख हुआ । वह वसुदेव से बोली-प्राणनाथ, मुझसे यह दुःसह पुत्र-दुःख नहीं सहा जायेगा। मैं तो जाकर जिनदीक्षा ले लेती हूँ। वसुदेव ने कहा- प्रिये, घबराने की कोई बात नहीं है, चलो, हम चलकर मुनिराज से पूछे कि बात क्या है? फिर जैसा कुछ होगा विचार करेंगे। वसुदेव अपनी प्रिया के साथ वन में गए वहाँ अतिमुक्तक मुनि एक फले हुए आम के झाड़ के नीचे स्वाध्याय कर रहे थे। उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार कर वसुदेव ने पूछा-हे जिनेन्द्र भगवान् के सच्चे भक्त योगिराज, कृपा कर मुझे बतलाइए कि मेरे किस पुत्र द्वारा कंस और जरासंध की मौत होगी ? इस समय देवकी आम की एक डाली पकड़े हुए थी । उस पर आठ आम लगे थे। उनमें छह आम तो दो-दो की जोड़ी में लगे थे और उनमें ऊपर दो आम जुदा-जुदा लगे थे। इन दो आमों में से एक आम इसी समय पृथ्वी पर गिर पड़ा और दूसरा आम थोड़ी ही देर बाद पक गया। इस निमित्त ज्ञान पर विचार कर अवधिज्ञानी मुनि बोले- भव्य वसुदेव, सुनो मैं तुम्हें खुलासा समझाये देता हूँ । देखो, देवकी के आठ पुत्र होंगे। उनमें छह तो नियम से मोक्ष जायेंगे। रहे दो, सो इनमें सातवाँ जरासंध और कंस का मारने वाला होगा और आठवाँ कर्मों का नाश कर मुक्ति- महिला का पति होगा। मुनिराज से इस सुख - समाचार को सुनकर वसुदेव और देवकी को बहुत आनन्द हुआ। वसुदेव को विश्वास था कि मुनि का कहा कभी झूठ नहीं हो सकता। मेरे पुत्र द्वारा कंस और जरासंध की होने वाली मौत को कोई नहीं टाल सकता। इसके बाद वे दोनों भक्ति से मुनि को नमस्कार कर अपने घर आए। सच है - जिनभगवान् के धर्म पर विश्वास करना ही सुख का कारण है ॥९९-११०॥ देवकी के जब से सन्तान होने की सम्भावना हुई तब से उसके रहने का प्रबन्ध कंस के महल पर हुआ। कुछ दिनों बाद पवित्रमना देवकी ने दो पुत्रों को एक साथ जना । इसी समय कोई ऐसा पुण्य- योग मिला कि भद्रिलापुर में श्रुतदृष्टि सेठ की स्त्री अलका के भी पुत्र युगल हुआ। पर वह युगल- मरा हुआ था। सो देवकी के पुत्रों के पुण्य से प्रेरित होकर एक देवता इस मृत-युगल को उठा कर तो देवकी के पास रख आया और उसके जीते पुत्रों को अलका के पास ला रखा। सच है, पुण्यवानों की देव भी रक्षा करते हैं । इसलिए कहना पड़ेगा कि जिन भगवान् ने जो पुण्यमार्ग में चलने का उपदेश दिया है वह वास्तव में सुख का कारण है और पुण्य भगवान् की पूजा करने से होता है, दान देने से होता है और व्रत, उपवासदि करने से होता है । इसलिए इन पवित्र कर्मों द्वारा निरन्तर पुण्य कमाते रहना चाहिए। कंस को देवकी की प्रसूति का हाल मालूम होते ही उसने उस मरे हुए पुत्र- युगल को उठा लाकर बड़े जोर से शिला पर दे मारा। ऐसे पापियों के जीवन को धिक्कार हैं । इसी तरह देवकी के जो दो और पुत्र - युगल हुए, उन्हें देवता वहीं अलका सेठानी के यहाँ रख आए और उसके मरे पुत्र युगलों को उसने देवकी के पास ला रखा। कंस ने इन दोनों युगलों की भी पहले युगल की सी दशा की। देवकी के ये छहों पुत्र इसी भव से मोक्ष जायेंगे, इसलिए इनका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। ये सुखपूर्वक यहीं रहकर बढ़ने लगे ॥१११ - ११८॥ अब सातवें पुत्र की प्रसूति का समय नजदीक आने लगा । अब की बार देवकी के सातवें महीने में पुत्र हो गया। यही शत्रुओं का नाश करने वाला था; इसलिए वसुदेव को इसकी रक्षा की चिन्ता थी। समय कोई दो तीन बजे रात का था। पानी बरस रहा था। वसुदेव उसे गोद में लेकर चुपके से कंस के महल से निकल गए। बलभद्र ने इस होनहार बच्चे के ऊपर छत्री लगायी। चारों ओर गाढ़ान्धकार के मारे हाथ से हाथ तक भी न देख पड़ता था । पर इस तेजस्वी बालक के पुण्य से वही देवता, जिसने कि इसके छह भाइयों की रक्षा की है, बैल के रूप में सींगों पर दीया रखे आगे-आगे हो चला। आगे चलकर इन्हें शहर बाहर होने के दरवाजे बन्द मिले, पर भाग्य की लीला अपरम्पार है। उससे असम्भव भी सम्भव हो जाता है। वही हुआ। बच्चे के पाँवों का स्पर्श होते ही दरवाजा भी खुल गया। आगे चले तो नदी अथाह बह रही थी । उसे पार करने का कोई उपाय न था बड़ी कठिन समस्या उपस्थित हुई उन्होंने होना-करना सब भाग्य के भरोसे पर छोड़कर नदी में पाँव रख दिया। पुण्य की कैसी महिमा जो यमुना का अथाह जल घुटनों प्रमाण हो गया। पार होकर वे एक देवी के मन्दिर में गए । इतने में इन्हें किसी के आने की आहट सुनाई दी। वे वेदी के पीछे छुप गए ॥११९-१२४॥ इसी से संबंध रखने वाली एक और घटना का हाल सुनिये ! एक नन्द नाम का ग्वाल यहीं पास के गाँव में रहता है। उसकी स्त्री का नाम यशोदा है । यशोदा के प्रसूति होने वाली थी, सो वह पुत्र की इच्छा से देवी की पूजा वगैरह कर गई थी। आज ही रात को उसके प्रसूति हुई पुत्र न होकर पुत्री हुई उसे बड़ा दुःख हुआ कि मैंने पुत्र की इच्छा से देवी की इतनी आराधना पूजा की और फिर भी लड़की हुई मुझे देवी के इस प्रसाद की जरूरत नहीं । यह विचार कर वह उठी और गुस्सा में आकर उसी लड़की को लिए देवी के मन्दिर पहुँची । लड़की को देवी के सामने रखकर वह बोली- देवी, लीजिए अपनी पुत्री को? मुझे इसकी जरूरत नहीं है । यह कहकर यशोदा मन्दिर से चली गई। वसुदेव ने इस मौके को बहुत ही अच्छा समझ पुत्र को देवी के सामने रख दिया। लड़की को आप उठाकर चल दिये। जाते हुए वे यशोदा से कहते गए कि अरी, जिसे तू देवता के पास रख आई है वह लड़की नहीं है किन्तु एक बहुत ही सुन्दर लड़का है। उसे जल्दी से ले आ; नहीं तो और कोई उठा ले जायेगा । यशोदा को पहले तो आश्चर्य सा हुआ। पर फिर वह अपने पर देवी की कृपा समझ झटपट दौड़ी गई और जाकर देखा तो सचमुच ही वह एक सुन्दर बालक है। यशोदा के आनन्द का अब कुछ ठिकाना न रहा । वह पुत्र को गोद में लिए उसे चूमती हुई घर पर आ गई। सच है - पुण्य का कितना वैभव है, इसका कुछ पार नहीं। जिसकी स्वप्न में भी आशा न हो वही पुण्य से सहज मिल जाता है ॥१२५-१३३॥ इधर वसुदेव और बलभद्र ने घर पहुँचकर उस लड़की को देवकी को सौंप दिया। सबेरा होते ही जब लड़की के होने का हाल कंस को मालूम हुआ तो उस पापी ने आकर बेचारी उस लड़की की नाक काट ली ॥१३४॥ यशोदा के यहाँ वह पुत्र सुख से रहकर दिनों-दिन बढ़ने लगा। जैसे-जैसे वह उधर बढ़ता है कंस के यहाँ वैसे ही अनेक प्रकार के अपशकुन होने लगे। कभी आकाश से तारा टूटकर पड़ता, कभी बिजली गिरती, कभी उल्का गिरती और कभी और कोई भयानक उपद्रव होता। यह देख कंस को बड़ी चिन्ता हुई वह बहुत घबराया। उसकी समझ में कुछ न आया कि वह सब क्या होता है? एक दिन विचार कर उसने एक ज्योतिषी को बुलाया और उसे सब हाल कहकर पूछा कि पंडित जी, यह सब उपद्रव क्यों होते हैं? इसका कारण क्या आप मुझे कहेंगे? ज्योतिषी ने निमित्त विचार कर कहा- महाराज, इन उपद्रव का होना आपके लिए बहुत ही बुरा है । आपका शत्रु दिनों-दिन बढ़ रहा है। उसके लिए कुछ प्रयत्न कीजिए और वह कोई बड़ी दूर न होकर यही गोकुल में हैं। कंस बड़ी चिन्ता में पड़ा। वह अपने शत्रु के मारने का क्या यत्न करे, यह उसकी समझ में न आया। उसे चिन्ता करते हुए अपनी पूर्व सिद्ध हुई विद्याओं की याद हो उठी। एकदम चिन्ता मिटकर उसके मुँह पर प्रसन्नता की झलक दीख पड़ी। उसने उन विद्याओं को बुलाकर कहा - उस समय तुमने बड़ा सहारा दिया। आओ, अब पलभर की भी देरी न कर जहाँ मेरा शत्रु हो उसे मारकर मुझे बहुत जल्दी उसकी मौत के शुभ समाचार दो। विद्याएँ श्रीकृष्ण को मारने को तैयार हो गई उनमें पहली पूतना विद्या ने धाय के वेष में जाकर श्रीकृष्ण को दूध की जगह विष पिलाना चाहा। उसने जैसे ही उसके मुँह में स्तन दिया, श्रीकृष्ण ने उसे इतने जोर से काटा कि पूतना के होश गुम हो गए। वह चिल्लाकर भाग खड़ी हुई उसकी यहाँ तक दुर्दशा हुई कि उसे अपने जीने में भी सन्देह होने लगा । दूसरी विद्या कौए के वेश में श्रीकृष्ण की आँखें निकाल लेने के यत्न में लगी, सो उसने चोंच, पंख वगैरह को नोंच- नाचकर उसे भी ठीक कर दिया । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पाँचवीं, छठी और सातवीं देवी जुदा- जुदा वेष में श्रीकृष्ण को मारने का यत्न करने लगीं, पर सफलता किसी को भी न हुई। इसके विपरीत देवियों को ही बहुत कष्ट सहना पड़ा। यह देख आठवीं देवी को बड़ा गुस्सा आया। वह तब कालिका का वेष लेकर श्री कृष्ण को मारने के लिए तैयार हुई श्रीकृष्ण ने उसे भी गौवर्द्धन पर्वत उठाकर उसके नीचे दबा दिया। मतलब यह है विद्याओं ने जितनी भी कुछ श्री कृष्ण को मारने की चेष्टा की वह व्यर्थ गईं। वे सब अपना सा मुँह लेकर कंस के पास पहुँची और उससे बोली-देव, आपका शत्रु कोई ऐसा वैसा साधारण मनुष्य नहीं। वह बड़ा बलवान् है । हम उसे किसी तरह नहीं मार सकतीं। देवियाँ इतना कहकर चल दीं।॥१३५-१४७॥ कंस ने अपने मन को खूब समझा कर श्रीकृष्ण के मारने की एक नई योजना की । उसके यहाँ दो बड़े प्रसिद्ध पहलवान थे । इन दोनों को भी कृष्ण ने शीघ्र नष्ट कर पश्चात् दुष्ट कंस को मारकर उग्रसेन को राज्य में स्थापित किया । इस कृष्ण नारायण ने बाद में प्रतिनारायण जरासंध को भी मार डाला और अर्धचक्री हो त्रिखण्डाधिपति कहलाए। वासुदेव ने उसी समय कंस के पिता उग्रसेन को लाकर राज्यसिंहासन पर अधिष्ठित किया। इसके बाद श्री कृष्ण ने जरासन्ध पर चढ़ाई करके उसे भी कंस का रास्ता बतलाया और आप फिर अर्धचक्रवर्ती होकर प्रजा का नीति के साथ शासन करने लगा। यह कथा प्रसंगवश यहाँ संक्षेप में लिख दी गई हैं, जिन्हें विस्तार के साथ पढ़ना हो उन्हें हरिवंशपुराण का स्वाध्याय करना चाहिए ॥ १४८-१५०॥ जो क्रोधी, मायाचारी, ईर्ष्या करने वाले, द्वेष करने वाले और मानी थे, धर्म के नाम से जिन्हें चिढ़ थी, जो धर्म से उल्टा चलते थे, अत्याचारी थे, जड़बुद्धि थे और खोटे कर्मों की जाल में सदा फँसे रहकर कोई पाप करने से नहीं डरते थे ऐसे कितने मनुष्य अपने ही कर्मों से काल के मुँह में नहीं पड़े? अर्थात् कोई बुरा काम करे या अच्छा, काल के हाथ तो सभी को पड़ना ही पड़ता है । पर दोनों में विशेषता यह होती है कि एक मरे बाद भी जन साधारण की श्रद्धा का पात्र होता है और सुगति लाभ करता है और दूसरा जीते जी भी अनेक तरह की निन्दा, बुराई, तिरस्कार आदि दुर्गुणों का पात्र बनकर अन्त में कुगति में जाता है। इसलिए जो विचारशील है, सुख प्राप्त करना जिनका ध्येय है, उन्हें तो यही उचित है कि वे संसार के दुःखों का नाशकर स्वर्ग या मोक्ष का सुख देने वाले जिनभगवान् का उपदेश किया, पवित्र जिनधर्म का सेवन करें ॥१५१॥
  18. केवलज्ञान की शोभा को प्राप्त हुए और तीनों जगत् के गुरु ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर लुब्धक सेठ की कथा लिखी जाती है ॥१॥ राजा अभयवाहन चम्पापुरी के राजा हैं इनकी रानी पुण्डरीका है। नेत्र इसके ठीक पुण्डरीक कमल जैसे हैं। चम्पापुरी में लुब्धक नाम का एक सेठ रहता है। इसकी स्त्री का नाम नागवसु हैं । लुब्धक के दो पुत्र हैं। इनके नाम गरुड़दत्त और नागदत्त हैं। दोनों भाई सदा हँस-मुख रहते हैं ॥२-४॥ लुब्धक के पास बहुत धन था । उसने बहुत कुछ खर्च करके यक्ष, पक्षी, हाथी, ऊँट, घोड़ा, सिंह, हरिण आदि पशुओं की एक - एक जोड़ी सोने की बनवाई । इसके सींग, पूँछ, खूर आदि में अच्छे- अच्छे बहुमूल्य हीरा, मोती, माणिक आदि रत्नों को जड़ाकर लुब्धक ने देखने वालों के लिए एक नया ही आविष्कार कर दिया था। जो इन जोड़ियों को देखता वह बहुत खुश होता और लुब्धक की तारीफ किये बिना नहीं रहता। स्वयं लुब्धक भी अपनी इस जगमगाती प्रदर्शनी को देखकर अपने को बड़ा धन्य मानता था। इसके सिवा लुब्धक को थोड़ा-सा दुःख इस बात का था कि उसने एक बैल की जोड़ी बनवाना शुरू की थी और एक बैल बन भी चुका था, पर फिर सोना न रहने के कारण वह दूसरा बैल नहीं बनवा सका। बस, इसी की उसे एक चिन्ता थीं । पर यह प्रसन्नता की बात है कि वह सदा चिन्ता से घिरा न रहकर इसी कमी को पूरा करने के यत्न में लगा रहता था ॥५-६॥ एक बार सात दिन बराबर पानी की झड़ी लगी रही। नदी-नाले सब पूर आ गये । पर कर्मवीर लुब्धक ऐसे समय भी अपने दूसरे बैल के लिए लकड़ी लेने को स्वयं नदी पर गया और बहती नदी में से बहुत-सी लकड़ी निकालकर उसने उसकी गठरी बाँधी और उसे आप ही अपने सिर पर लादे लाने लगा। सच है, ऐसे लोभियों की तृष्णा कहीं कभी किसी से मिटी है? नहीं ॥७-८॥ इस समय रानी पुण्डरीका अपने महल पर बैठी हुई प्रकृति की शोभा को देख रही थी । महाराज अभयवाहन भी इस समय यहीं पर थे। लुब्धक को सिर पर एक बड़ा भारी काठ का भार लादकर लाते देख रानी ने अभयवाहन से कहा - प्राणनाथ, जान पड़ता है आपके राज में यह कोई बड़ा ही दरिद्री है। देखिए, बेचारा सिर पर लकड़ियों का कितना भारी गट्ठा लादे हुए आ रहा है। दया करके इसे कुछ आप सहायता दीजिए, जिससे इसका कष्ट दूर हो जाये। यह उचित ही है कि दयावानों की बुद्धि दूसरों पर दया करने की होती है । राजा ने उसी समय नौकरों को भेजकर लुब्धक को अपने पास बुलवाया । लुब्धक के आने पर राजा ने उससे कहा- जान पड़ता है तुम्हारे घर की हालत अच्छी नहीं है। इसका मुझे खेद है कि इतने दिनों से मेरा तुम्हारी ओर ध्यान न गया। अस्तु, तुम्हें जितने रुपये पैसे की जरूरत हो, तुम खजाने से ले जाओ। मैं तुम्हें एक पत्र लिख देता हूँ। यह कहकर राजा पत्र लिखने को तैयार हुए कि लुब्धक ने उनसे कहा- महाराज, मुझे और कुछ न चाहिए किन्तु एक बैल की जरूरत है। कारण मेरे पास एक बैल तो है, पर उसकी जोड़ी मुझे मिलानी है। राजा ने कहा-अच्छी बात है तो जाओ हमारे बहुत से बैल है उनमें तुम्हें जो बैल पसंद आवे उसे अपने घर ले जाओ। राजा के जितने बैल थे उन सबको देख आकर लुब्धक ने राजा से कहा- महाराज, उन बैलों में मेरे बैल सरीखा तो एक भी बैल मुझे नहीं दिखाई पड़ा । सुनकर राजा को बड़ा अचम्भा हुआ। उन्होंने लुब्धक से कहा- भाई, तुम्हारा बैल कैसा है, यह मैं नहीं समझा। क्या तुम मुझे अपना बैल दिखाओगे? लुब्धक बड़ी खुशी के साथ अपना बैल दिखाना स्वीकार कर महाराज को अपने घर पर लिवा ले गया। राजा को उस सोने के बने बैल को देखकर बड़ा अचम्भा हुआ। जिसे उन्होंने एक महा दरिद्री समझा था, वही इतना बड़ा धनी है, यह देखकर किसे अचम्भा न होगा ॥९-१८॥ लुब्धक की स्त्री नागवसु अपने घर पर महाराज को आये देखकर बहुत ही प्रसन्न हुई उसने महाराज की भेंट के लिए सोने का थाल बहुमूल्य सुन्दर - सुन्दर रत्नों से सजाया और उसे अपने स्वामी के हाथ में देकर कहा - इस थाल को महाराज को भेंट कीजिए । रत्नों के थाल को देखकर लुब्धक की तो छाती बैठ गई, पर पास ही महाराज के होने से उसे वह थाल हाथों में लेना पड़ा। जैसे ही थाल को उसने हाथों में लिया उसके दोनों हाथ थर-थर काँपने लगे और ज्यों ही उसने थाल देने को महाराज के पास हाथ बढ़ाया तो लोभ के मारे इसकी अंगुलियाँ महाराज को साँप के फण की तरह देख पड़ी। सच है, जिस पापी ने कभी किसी को एक कौड़ी तक नहीं दी, उसका मन क्या दूसरे की प्रेरणा से भी कभी दान की ओर झुक सकता है? नहीं । राजा को उसके ऐसे बुरे बरताव पर बड़ी नफरत हुई फिर एक पल भर भी उन्हें वहाँ ठहरना अच्छा न लगा। वे उसका नाम ‘फणहस्त’ रखकर अपने महल पर आ गये ॥१९-२०॥ लुब्धक की दूसरा बैल बनाने की आकांक्षा अभी पूरी नहीं हुई वह उसके लिए धन कमाने को सिंहलद्वीप गया। लगभग चार करोड़ का धन उसने वहाँ रहकर कमाया भी। जब वह अपना धन, माल-असबाब जहाज पर लाद कर लौटा तो रास्ते में आते-आते कर्मयोग से हवा उलटी वह चली। समुद्र में तूफान पर तूफान आने लगे । एक जोर की आँधी आई उसने जहाज को एक ऐसा जोर का धक्का मारा कि जहाज उलट कर देखते-देखते समुद्र के विशाल गर्भ में समा गया। लुब्धक, उसका धन-असबाब, इसके सिवा और भी बहुत से लोग जहाज के संगी हुए । लुब्धक आर्त्तध्यान से मरकर अपने धन का रक्षक साँप हुआ। तब भी उसमें से एक कोड़ी भी किसी को नहीं उठाने देता था ॥२१-२६॥ एक सर्प को अपने धन पर बैठा देखकर लुब्धक के बड़े लड़के गरुड़दत्त को बहुत क्रोध आया और इसीलिए उसने उसे उठाकर मार डाला । यहाँ से वह बड़े बुरे भावों से मरकर चौथे नरक गया, जहाँ के पापकर्मों का बड़ा ही दुस्सह फल भोगना पड़ता था। इस प्रकार धर्मरहित जीव क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वश होकर पाप के उदय से इस दुःखों के समुद्र संसार में अनन्त काल तक दुःख- कष्ट उठाया करता है । इसलिए जो सुख चाहते हैं, जिन्हें सुख प्यारा है, उन्हें चाहिए कि वे इन क्रोध, लोभ, मान, मायादि को संसार में दुःख देने वाले मूल कारण समझ कर इनका मन, वचन और शरीर से त्याग करें और साथ ही जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किये धर्म को भक्ति और शक्ति के अनुसार ग्रहण करें, जो परम शान्ति - मोक्ष का प्राप्त कराने वाला है ॥२७-२९॥
  19. सुख देने वाले और सारे संसार के प्रभु श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन लोभी पिण्याकगन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥ रत्नप्रभ कांपिल्य नगर के राजा थे। उनकी रानी विद्युत्प्रभा थी। वह सुन्दर और गुणवती थी। यहीं एक जिनदत्त सेठ रहता था | जिनधर्म पर इनकी गाढ़ श्रद्धा थी । अपने योग्य आचार-विचार इसके बहुत अच्छे थे। राजदरबार में भी इसकी अच्छी पूछ थी, मान-मर्यादा थी । यहीं एक और सेठ था। जिसका नाम पिण्याकगन्ध था। इसके पास कई करोड़ का धन था, पर तब भी वह मूर्ख और बड़ा लोभी था, कृपण था। वह न किसी को कभी एक कौड़ी देता और न स्वयं आप ही अपने धन को खाने-पीने, पहनने में खर्च करता और न ही खाया करता था। इसके पास सब सुख की सामग्री थी, पर अपने पाप के उदय से या यों कहो कि अपनी कंजूसी से वह सदा ही दुःख भोगा करता था। उसकी स्त्री का नाम सुन्दरी था । उसके एक विष्णुदत्त नाम का लड़का था ॥२-६॥ एक दिन राजा के तालाब को खोदते वक्त उडु नाम के मजूर को सोने के सलाइयों की भरी हुई लोहे की सन्दूक मिल गई । वह सन्दूक वहाँ हजारों वर्षों से गड़ी हुई होगी। यही कारण था कि उसे खूब कीटों ने खा लिया था । उसके भीतर की सलाइयों पर भी बहुत मैल जमा हो गया । मैल से यह नहीं जान पड़ता था कि वे सोने की हैं । उडु ने उसमें से एक सलाई लाकर जिनदत्त सेठ को लोहे के भाव बेचा। सेठ ने उस समय तो उसे ले लिया, पर जब वह ध्यान से धो-धाकर देखी गई तो जान पड़ा कि वह एक सोने की सलाई है। सेठ ने उसे चोरी का माल समझ अपने घर में उसका रखना उचित नहीं समझा। उसने उसकी एक जिनप्रतिमा बनवा ली और प्रतिष्ठा कराकर उसे मंदिर में विराजमान कर दिया । सच है, धर्मात्मा पुरुष पाप से बड़े डरते हैं । कुछ दिनों बाद उडु फिर एक सलाई लिए जिनदत्त के पास आया। पर अब की बार सेठ ने उसे नहीं खरीदा। इसलिए कि वह धन दूसरे का है। तब उडु ने उसे पिण्याकगन्ध को बेच दिया । पिण्याकगन्ध को भी मालूम हो गया कि वह सलाई सोने की है, पर तब भी लोभ में आकर उसने उडु से कहा कि यदि तेरे पास ऐसी सलाइयाँ और हों तो उन्हें यहाँ दे जाया करना ॥ ७-१२॥ मुझे इन दिनों लोहे की कुछ अधिक जरूरत है। मतलब यह कि पिण्याकगन्ध ने उडु से कोई अट्ठानवे सलाइयाँ खरीद कर ली । बेचारे उडु को उसकी सच्ची कीमत ही मालूम न थी, इसलिए उसने सब की सब सलाइयाँ लोहे के भाव बेच दीं ॥१३॥ एक दिन पिण्याकगन्ध अपनी बहिन के विशेष कहने-सुनने से अपने भानजे के ब्याह में दूसरे गाँव जाने लगा। जाते समय धन के लोभ से पुत्र को वह सलाई बतलाकर कह गया कि इसी आकार- प्रकार का लोहा कोई बेचने अपने यहाँ आवे तो तू उसे मोल ले लिया करना । पिण्याकगन्ध के पाप का घड़ा अब बहुत भर चुका था । अब उसके फूटने की तैयारी थी इसलिए तो वह पापकर्म की जबरदस्ती से दूसरे गाँव भेजा गया ॥१४-१५॥ तू लेन उडु के पास अब केवल एक ही सलाई बची थी। वह उसे भी बेचने को पिण्याकगन्ध के पास आया । पर पिण्याकगन्ध तो वहाँ था नहीं, तब वह उसके लड़के विष्णुदत्त के हाथ सलाई देकर बोला- आपके पिताजी ने ऐसी बहुतेरी सलाइयाँ मुझसे मोल ली है। अब यह केवल एक ही बची है। इसे आप लेकर मुझको इसकी कीमत दे दीजिये । विष्णुदत्त ने उसे यह कहकर टाल दिया, कि मैं इसे लेकर क्या करूँगा? मुझे जरूरत नहीं । तुम इसे ले जाओ। इस समय एक सिपाही ने उड्डु को देख लिया । उसने खोदने के लिए वह सलाई उससे छुड़ा ली। एक दिन वह सिपाही जमीन खोद रहा था । उससे सलाई पर जमा हुआ कीट साफ हो जाने से कुछ लिखा हुआ उसे दिख पड़ा। लिखा यह था कि सोने की सौ सलाइयाँ सन्दूक में हैं । यह लिखा देखकर सिपाही ने उड्डु को पकड़ लाकर उससे सन्दूक की बाबत पूछा। उडु ने सब बातें ठीक-ठाक बतला दीं। सिपाही उडु को राजा के पास ले गया। राजा के पूछने पर उसने कहा कि मैंने ऐसी अट्ठानबे सलाइयाँ तो पिण्याकगन्ध सेठ को बेची हैं ओर एक जिनदत्त सेठ को। राजा ने पहले जिनदत्त को बुलाकर सलाई मोल लेने के बाबत पूछा। जिनदत्त ने कहा-महाराज, मैंने एक सलाई खरीदी तो जरूर है, पर जब मुझे यह मालूम पड़ा कि वह सोने की है तो मैंने उसकी जिनप्रतिमा बनवा ली। प्रतिमा मन्दिर में मौजूद है । राजा प्रतिमा को देखकर बहुत खुश हुआ। उसने जिनदत्त की इस सच्चाई पर उसका बहुत मान किया, उसे बहुमूल्य वस्त्राभूषण दिए। सच है, गुणों की पूजा सब जगह हुआ करती है॥१६-२१॥ इसके बाद राजा ने पिण्याकगन्ध को बुलवाया। पर वह घर पर न होकर गाँव गया हुआ था। राजा को उसके न मिलने से और निश्चय हो गया कि उसने अवश्य राजधन धोखा देकर ठग लिया है। राजा ने उसी समय उसका घर जब्त करवा कर उसके कुटुम्ब को कैदखाने में डाल दिया। इसलिए कि उसने पूछ-ताछ करने पर भी सलाइयों का हाल नहीं बताया था। सच है, जो आशा के चक्कर में पड़कर दूसरों का धन मारते हैं, वे अपने हाथों अपना सर्वनाश करते हैं ॥२२-२३॥ उधर ब्याह हो जाने के बाद पिण्याकगंध घर की ओर वापस आ रहा था। रास्ते में ही उसे अपने कुटुम्ब की दुर्दशा का समाचार सुन पड़ा। उसे उसका बड़ा दुःख हुआ। उसने अपने इस धन-जन की दुर्दशा का मूल कारण अपने पाँवों को ठहराया । इसलिए कि वह उन्हीं के द्वारा दूसरे गाँव गया था। पाँवों पर उसे बड़ा गुस्सा आया और इसीलिए उसने बड़ा भारी पत्थर लेकर उससे अपने दोनों पाँवों को तोड़ लिया। मृत्यु उसके सिर पर खड़ी ही थी । वह लोभी आर्त्तध्यान; बुरे भावों से मरकर नरक गया । यह कथा शिक्षा देती है जो समझदार है उन्हें चाहिए कि वे अनीति के कारण और पाप के बढ़ाने वाले इस लोभ का दूर ही से छोड़ने का यत्न करें ॥२४-२७॥ वे कर्मों को जीतने वाले जिन भगवान् संसार में सदा काल रहें जो संसार के पदार्थों को दिखलाने के लिये दीपक के समान है; सब दोषों से रहित हैं, भव्य-जनों को स्वर्ग-मोक्ष का सुख देने वाले हैं, जिनके वचन अत्यन्त ही निर्मल या निर्दोष हैं, जो गुणों के समुद्र हैं, देवों द्वारा पूज्य हैं और सत्पुरुषों के लिए ज्ञान के समुद्र हैं ॥२८॥
  20. जिनेन्द्र भगवान् को, जो कि सारे संसार द्वारा पूज्य हैं और सबसे उत्तम गिनी जाने वाली जिनवाणी तथा गुरुओं को भक्तिपूर्वक नमस्कार कर परिग्रह के सम्बन्ध की कथा लिखी जाती है ॥१॥ मणिवत देश में मणिवत नाम का एक शहर था। उसके राजा का नाम भी मणिवत था। मणिवत की रानी पृथ्विीमति थी। इसके मणिचन्द्र नाम एक पुत्र था। मणिवत विद्वान्, बुद्धिमान् और अच्छा शूरवीर था । राजकाज में उसकी बहुत अच्छी गति थी ॥२-३॥ राजा पुण्योदय से राजकाज योग्यता के साथ चलाते हुए सुख से अपना समय बिताते थे । धर्म पर उनकी पूरी श्रद्धा थी वे सुपात्रों को प्रतिदिन दान देते, भगवान् की पूजा करते और दूसरों की भलाई करने में भरसक यत्न करते। एक दिन रानी पृथ्वीमति महाराज के बालों को सँवार रही थीं कि उनकी नजर एक सफेद बाल पर पड़ी। रानी ने उसे निकालकर राजा के हाथ में रख दिया। राजा उस सफेद बाल को काल का भेजा दूत समझ कर संसार और विषयभोगों से बड़े विरक्त हो गए। उन्होंने अपने मणिचन्द्र पुत्र को राज्य का सब कारोबार सौंप दिया और आप भगवान् की पूजा, अभिषेक कर तथा याचकों को दान दे जंगल की ओर रवाना हो गए और दीक्षा लेकर तपस्या करने लगे। वे अब दिनों-दिन आत्मा को पवित्र बनाते हुए परमात्म-स्मरण में लीन रहने लगे ॥४-९॥ मणिवत मुनि नाना देशों में धर्मोपदेश करते हुए एक दिन उज्जैन के बाहर श्मसान में आए। रात के समय वे मृतक शय्या द्वारा ध्यान करते हुए शान्ति के लिए परमात्मा का स्मरण-चिन्तन कर रहे थे। इतने में वहाँ एक कापालिक बैताली विद्या साधने के लिए आया । उसे चूल्हा बनाने के लिए तीन मुर्दों की जरूरत पड़ी। सो एक तो उसने मुनि को समझ लिया और दो मुर्दों को वह और घसीट लाया। उन तीनों के सिर पर चूल्हा बनाकर उस पर उसने एक कपाल रखा और आग सुलगाकर कुछ नैवेद्य पकाने लगा। थोड़ी देर बाद जब आग जोर से चेती और मुनि की नसें जलने लगीं तब एकदम मुनि का हाथ ऊपर की ओर उठ जाने से सिर पर का कपाल गिर पड़ा । कापालिक उससे डर कर भागकर खड़ा हुआ। मुनिराज मेरु समान वैसे के वैसे ही अचल बने रहे । सबेरा होने पर किसी आते-जाते मनुष्य ने मुनि की यह दशा देख जिनदत्त को यह हाल सुनाया । जिनदत्त उसी समय दौड़ा-दौड़ा श्मसान में गया। मुनि की दशा देखकर उसे बेहद दुःख हुआ। मुनि को अपने घर पर लाकर उसने एक प्रसिद्ध वैद्य से उनके इलाज के लिए पूछा । वैद्य महाशय ने कहा- सोमशर्मा भट्ट के यहाँ लक्षपाक नाम का बहुत ही अच्छा तैल है, उसे लाकर लगाओ। उससे बहुत जल्दी आराम होगा, आग का जला उससे फौरन आराम होता है। सेठ सोमशर्मा के घर दौड़ा हुआ गया। घर पर भट्ट महाशय नहीं थे, इसलिए उसने उनकी तुंकारी नाम की स्त्री से तैल के लिए प्रार्थना की । तैल के कई घड़े उसके यहाँ भरे रखे थे । तुंकारी ने उनमें से एक घड़ा ले जाने को जिनदत्त से कहा। जिनदत्त ऊपर जाकर एक घड़ा उठाकर लाने लगा । भाग्य से सीढ़ियाँ उतरते समय पाँव फिसल जाने से घड़ा उसके हाथों से छूट पड़ा। घड़ा फूट गया और तैल सब रेलम-ठेल हो गया। जिनदत्त को इससे बहुत भय हुआ। उसने डरते-डरते घड़े के फूट जाने का हाल तुकारी से कहा । तब तुंकारी ने दूसरा घड़ा ले आने को कहा। उसे पहले घड़े के फूट जाने का कुछ भी ख्याल नहीं हुआ। सच है- सज्जनों का हृदय समुद्र से भी कहीं अधिक गम्भीर हुआ करता है । जिनदत्त दूसरा घड़ा लेकर आ रहा था। अब की बार तैल से चिकनी जगह पर पाँव पड़ जाने से फिर भी वह फिसल गया और घड़ा फूटकर उसका सब तैल बह गया। इसी तरह तीसरा घड़ा भी फूट गया । अब तो जिनदत्त के देवता कूँच कर गए। भय के मारे वह थर-थर काँपने लगा । उसकी यह दशा देखकर तुंकारी ने उससे कहा कि घबराने और डरने की कोई बात नहीं । तुमने कोई जानकर थोड़े ही फोड़े हैं। तुम किसी तरह की चिन्ता-फिकर मत करो। जब तक तुम्हें जरूरत पड़े तुम प्रसन्नता के साथ तैल ले जाया करो देने से मुझे कोई उजर न होगा। कोई कैसा ही सहनशील क्यों न हो, पर ऐसे मौके पर उसे भी गुस्सा आये बिना नहीं रहता। फिर इस स्त्री में इतनी क्षमा कहाँ से आई? इसका जिनदत्त को बड़ा आश्चर्य हुआ। जिनदत्त ने तुकारी से पूछा भी, कि माँ मैंने तुम्हारा इतना भारी अपराध किया, उस पर भी तुमको रत्तीभर क्रोध नहीं आया, इसका क्या कारण है? तुकारी ने कहा- भाई, क्रोध करने का फल जैसा चाहिए वैसा मैं भुगत चुकी हूँ ॥१०-२७॥ इसलिए क्रोध के नाम से ही मेरा जी काँप उठता है । यह सुनकर जिनदत्त का कौतुक और बढ़ा, तब उसने पूछा यह कैसे ? तुकारी कहने लगी- चन्दनपुर में शिवशर्मा ब्राह्मण रहता है। वह धनवान् और राजा का आदरपात्र है। उसकी स्त्री का नाम कमल श्री है। उसके कोई आठ तो पुत्र और एक लड़की है। लड़की का नाम भट्टा है और वह मैं ही हूँ। मैं थी बड़ी सुन्दरी, पर मुझमें एक बड़ा दुर्गुण था। वह यह कि मैं अत्यन्त मानिनी थी । मैं बोलने में बड़ी ही तेज थी और इसलिए मेरे भय का सिक्का लोगों के मन पर ऐसा जमा हुआ था कि किसी की हिम्मत मुझे 'तू' कहकर पुकारने की नहीं होती थी। मुझे ऐसी अभिमानी देखकर मेरे पिता ने एक बार शहर में डौंडी पिटवा दी कि मेरी बेटी को कोई ‘तू’ कहकर न पुकारे क्योंकि जहाँ मुझसे किसी ने 'तू' कहा कि मैं उससे लड़ने- झगड़ने को तैयार ही रहा करती थी और फिर जहाँ तक मुझमें शक्ति जोर होता मैं उसकी हजारों पीढ़ियों को एक पलभर में अपने सामने ला खड़ा करती और पिताजी इस लड़ाई-झगड़े से सौ हाथ दूर भागने की कोशिश करते । जो हो, पिताजी ने अच्छा ही काम किया था, पर मेरे खोटे भाग्य से उनका डौंडी पिटवाना मेरे लिए बहुत ही बुरा हुआ। उस दिन से मेरा नाम ही ‘तुंकारी' पड़ गया और सब ही मुझे इस नाम से पुकार - पुकार कर चिढ़ाने लगे। सच है - अधिक मान भी कभी अच्छा नहीं होता और इसी चिड़ के मारे मुझसे कोई ब्याह करने तक के लिए तैयार न होता था। मेरे भाग्य से इन सोमशर्मा जी ने इस बात की प्रतिज्ञा की कि मैं कभी इसे 'तू' कहकर न पुकारूँगा। तब इनके साथ मेरा ब्याह हो गया। मैं बड़े उत्साह के साथ उज्जैन में लाई गई। सच कहूँगी कि इस घर में आकर मैं बड़े सुख से रही। भगवान् की कृपा से घर सब तरह हरा भरा है। धन सम्पत्ति भी मनमानी है ॥२८-३४॥ पर “पड़ा स्वभाव जाए जीव से " इस कहावत के अनुसार मेरा स्वभाव भी सहज में थोड़े ही मिट जाने वाला था। सो एक दिन की बात है कि मरे स्वामी नाटक देखने गए। नाटक देखकर आते हुए उन्हें बहुत देर लग गई उनकी इस देरी से मुझे अत्यन्त गुस्सा आया। मैंने निश्चय कर लिया कि आज जो कुछ भी हो, मैं दरवाजा नहीं खोलूँगी और मैं सो गई थोड़ी देर बाद वे आए और दरवाजे पर खड़े रहकर बार-बार मुझे पुकारने लगे। मैं चुप्पी साधे पड़ी रही, पर मैंने किवाड़ न खोले । बाहर से चिल्लाते-चिल्लाते वे थक गए, पर उसका मुझ पर कुछ असर न हुआ । आखिर उन्हें भी बड़ा क्रोध हो आया। क्रोध में आकर वे अपनी प्रतिज्ञा तक भूल बैठे । सो उन्होंने मुझे 'तू' कहकर पुकार लिया। बस, उनका ‘तू’ कहना था कि मैं सिर से पाँव तक जल उठी और क्रोध से अन्धी बनकर किवाड़ खोलती हुई घर से निकल भागी । मुझे उस समय कुछ न सूझा कि मैं कहाँ जा रही हूँ। मैं शहर के बाहर होकर जंगल की ओर चल धरी । रास्ते में चोरों ने मुझे देख लिया। उन्होंने मेरे सब गहने- दागी ने और वस्त्र छीन-छानकर विजयसेन नाम के एक भील को सौंप दिया। मुझे खूबसूरत देखकर इस पापी ने मेरा धर्म बिगाड़ना चाहा, पर उस समय मेरे भाग्य से किसी दिव्य स्त्री ने आकर मुझे बचाया, मेरे धर्म की उसने रक्षा की। भील ने उस दिव्य स्त्री से डरकर मुझे एक सेठ के हाथ में सौंप दिया । उसकी नियत भी मुझ पर बिगड़ी। मैंने उसे खूब ही आड़े हाथों लिया। इससे वह मेरा कर तो कुछ न सका, पर गुस्से में आकर उस नीच ने मुझे एक ऐसे मनुष्य के हाथ सौंप दिया जो जीवों के खून से रँगकर कम्बल बनाया करता था। वह मेरे शरीर पर जौंके लगा-लगाकर मेरा रोज-रोज बहुत सा खून निकाल लेता था और उसमें फिर कम्बल को रँगा करता था। सच है, एक तो वैसे ही पाप कर्म का उदय और उस पर ऐसा क्रोध, तब उससे मुझ सरीखी हत-भागिनियों को यदि पद-पद पर कष्ट उठाना पड़े तो उसमें आश्चर्य ही क्या? ॥३५-४४॥ इसी समय उज्जैन के राजा ने मेरे भाई को यहाँ के राजा पारस के पास किसी कार्य के लिए भेजा। मेरा भाई अपना काम पूराकर उज्जैन की ओर जा रहा था कि अचानक मेरी उसकी भेंट हो गई मैंने अपने कर्मों पर बड़ा पश्चाताप किया। जब मैंने अपना सब हाल उससे कहा तो उसे भी बहुत दुःख हुआ। उसने मुझे धीरज दिया। इसके बाद वह उसी समय राजा के पास गया और सब हाल उनसे कहकर उस कम्बल बनाने वाले पापी से उसने मेरा पंजा छुड़ाया । वहाँ से लाकर बड़ी आरजू- मिन्नत के साथ उसने फिर मुझे अपने स्वामी के घर ला रखा। सच है, सच्चे बन्धु वे ही हैं जो कष्ट के समय काम आवें। यह तो तुम्हें मालूम ही है कि मेरे शरीर का प्रायः खून निकल चुका था। इसी कारण घर पर आते ही मुझे लकवा मार गया । तब वैद्य ने यह लक्षपाक तैल बनाकर मुझे जिलाया। इसके बाद मैंने एक वीतरागी साधु द्वारा धर्मोपदेश सुनकर सर्वश्रेष्ठ और सुख देने वाला सम्यक्त्व व्रत ग्रहण किया और साथ ही यह प्रतिज्ञा की कि आज से मैं किसी पर क्रोध नहीं करूँगी । यही कारण है कि मैं अब किसी पर क्रोध नहीं करती। अब आप जाइए और इस तैल द्वारा मुनिराज की सेवा कीजिए। अधिक देरी करना उचित नहीं है ॥४५-५१ ॥ जिनदत्त भट्टारक को नमस्कार कर घर गया और तेल की मालिश वगैरह से बड़ी सावधानी के साथ मुनि की सेवा करने लगा। कुछ दिन तक बराबर मालिश करते रहने से आराम हो गया। सेठ ने भी अपनी इस सेवा भक्ति द्वारा बहुत पुण्यबंध किया। चौमासा आ गया था इसलिए मुनिराज ने कहीं अन्यत्र जाना ठीक न समझ यहीं जिनदत्त सेठ के जिनमंदिर में वर्षायोग ले लिया और यहीं वे रहने लगे ॥५२-५५॥ जिनदत्त का एक लड़का था, नाम इसका कुबेरदत्त था । इसका चाल-चलन अच्छा न देखकर जिनदत्त इस के डर से कीमती रत्नों का भरा अपना एक घड़ा जहाँ मुनि सोया करते थे वहाँ खोद कर गाड़ दिया। जिनदत्त ने यह कार्य किया तो था बड़ी दुपका - चोरी से, पर कुबेरदत्त को इसका पता पड़ गया। उसने अपने पिता का सब कर्म देख लिया और मौका पाकर वहाँ से घड़े को निकाल मंदिर के आँगन में दूसरी जगह गाड़ दिया । कुबेरदत्त को ऐसा करते मुनि ने देख लिया था परन्तु तब भी वह चुपचाप रहे और उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा और कहते भी कहाँ से जब कि उनका यह मार्ग ही नहीं है ॥५६-५७॥ जब योग पूरा हुआ तब मुनिराज जिनदत्त को सुख - साता पूछकर वहाँ से बिहार कर गए। शहर बाहर जाकर वे ध्यान करने बैठे। इधर मुनिराज के चले जाने के बाद सेठ ने वह रत्नों का घड़ा घर ले जाने के लिए जमीन खोद कर देखा तो वहाँ घड़ा नहीं । घड़े को एकाएक गायब हो जाने का उसे बड़ा अचंभा हुआ और साथ ही उसका मन व्याकुल भी हुआ । उसने सोचा कि घड़े का हाल केवल मुनि ही जानते थे, फिर बड़े अचंभे की बात है कि उनके रहते यहाँ से घड़ा गायब हो जाए? उसे घड़ा गायब करने का मुनि पर कुछ सन्देह हुआ। तब वह मुनि के पास गया और उनसे उसने प्रार्थना की कि प्रभो, आप पर मेरा बड़ा ही प्रेम है, आप जब से चले आए है तब से मुझे सुहाता ही नहीं, इसलिए चलकर आप कुछ दिनों तक और वहीं ठहरें तो बड़ी कृपा हो । इस प्रकार मायाचारी से जिनदत्त मुनिराज को अपने मन्दिर पर लौटा लाया। इसके बाद उसने कहा, स्वामी, कोई ऐसी धर्म-कथा सुनाए, जिससे मनोरंजन हो । तब मुनि बोले- हम तो रोज ही सुनाया करते है, आज तुम ही कोई ऐसी कथा कहो। तुम्हें इतने दिन शास्त्र पढ़ते हो गए, देखें तुम्हें उसका सार कैसा याद रहता है? तब जिनदत्त अपने भीतरी कपट- भावों को प्रकट करने के लिए एक ऐसी ही कथा सुनाने लगा । वह बोला- ॥५८-६४॥ एक दिन पद्मरथपुर के राजा वसुपाल ने अयोध्या के महाराज जितशत्रु के पास किसी काम के लिए अपना एक दूत भेजा। एक तो गर्मी का समय और ऊपर से चलने की थकावट सो इसे बड़े जोर की प्यास लग आई पानी इसे कहीं नहीं मिला । आते-आते यह एक घने वन में आकर वृक्ष के नीचे गिर पड़ा। इसके प्राण कण्ठगत हो गए। इसको यह दशा देखकर एक बन्दर दौड़ा-दौड़ा तालाब पर गया और उसमें डूबकर यह उस वृक्ष के नीचे पड़े पथिक के पास आया। आते ही इसने अपने शरीर को उस पर झिड़का दिया। जब जल उस पर गिरा और उसकी आँखें खुली तब बन्दर आगे होकर उसे इशारे से तालाब के पास ले गया । जल पीकर इसे बहुत शान्ति मिली। अब इसे आगे के लिए जल की चिन्ता हुई पर इसके पास कोई बरतन वगैरह न होने से यह जल ले जा नहीं सकता था। तब इसे एक युक्ति सूझी। इसने उस बेचारे जीवदान देने वाले बन्दर को बन्दूक से मारकर उसके चमड़े की थैली बनाई और उसमें पानी भर चल दिया । अच्छा प्रभो, अब आप बतलाइए कि उस नीच, निर्दयी, अधर्मी को अपने उपकारी बन्दर को मार डालना क्या उचित था? मुनि बोले तुम ठीक कहते हो। उस दूत का यह अत्यन्त कृतघ्नता भरा नीच काम था। इसके बाद अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए मुनिराज ने भी एक कथा कहना आरम्भ किया। वे कहने लगे- ॥६५-७२॥ कौशाम्बी में किसी समय एक शिवशर्मा ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम कपिला था। इसके कोई लड़का नहीं था। एक दिन शिवशर्मा किसी दूसरे गाँव से अपने शहर की ओर लौट रहा था। रास्ते में एक जंगल में उसने एक नेवला के बच्चे को देखा। शिवशर्मा ने उसे घर उठा लाकर अपनी प्रिया से कहा-ब्राह्मणी जी आज मैं तुम्हारे लिए एक लड़का लाया हूँ। यह कहकर उसने नेवले को कपिला की गोद में रख दिया। सच है -मोह से अन्धे हुए मनुष्य क्या नहीं करते? ब्राह्मणी ने उसे ले लिया और पाल-पोस कर उसे कुछ सिखा-विखा भी दिया । नेवले में जितना ज्ञान और जितनी शक्ति थी वह उसके अनुसार ब्राह्मणी का बताये कुछ काम भी कर दिया करता था ॥७३-७६॥ भाग्य से अब ब्राह्मणी के भी एक पुत्र हो गया। सो एक दिन ब्राह्मणी बच्चे को पालने में सुलाकर आप धान खाँडने को चली गई और जाते समय पुत्ररक्षा का भार वह नेवले को सौंपती गई इतने में एक सर्प ने आकर इस बच्चे को काट लिया बच्चा मर गया। क्रोध में आकर नेवले ने सर्प के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। इसके बाद वह खून भरे मुँह से ही कपिला के पास गया। कपिला उसे खून से लथ-पथ भरा देखकर काँप गई उसने समझा कि इसने मेरे बच्चे को खा लिया। उसे अत्यन्त क्रोध आया। क्रोध के वेग में उसने न कुछ सोचा- विचारा और न जाकर देखा ही कि असल में बात क्या है किन्तु एक साथ ही पास में पड़े हुए मूसले को उठा कर नेवले पर दे मारा। नेवला तड़फड़ा कर मर गया। अब वह दौड़ी हुई बच्चे के पास गई देखती है तो वहाँ एक काला भुजंग सर्प मरा हुआ पड़ा है। फिर उसे बहुत पछतावा हुआ। ऐसे मूर्ख को धिक्कार है जो बिना विचारे जल्दी में आकर हर एक काम कर बैठते हैं। अच्छा सेठ महाशय, कहिए तो सर्प के अपराध पर बेचारे नेवले को इस प्रकार निर्दयता से मार देना ब्राह्मणी को योग्य था क्या? जिनदत्त ने कहा- नहीं। यह उसकी बड़ी गलती हुई। यह कहकर उसने फिर एक कथा कहना आरम्भ की - ॥७७-८२॥ बनारस के राजा जितशत्रु के यहाँ धनदत्त राज्यवैद्य था । इसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था। वैद्य महाशय के धनमित्र और धनचन्द्र नाम के दो लड़के थे । लाड़-प्यार में रहकर इन्होंने अपनी कुलविद्या भी न पढ़ पाई कुछ दिनों बाद वैद्यराज काल कर गए। राजा ने दोनों भाइयों को मूर्ख देख इनके पिता की जीविका पर किसी दूसरे को नियुक्त कर दिया। तब इनकी बुद्धि ठिकाने आई ये दोनों भाई अब वैद्यशास्त्र पढ़ने की इच्छा से चम्पापुरी में शिवभूति वैद्य के पास गए। इन्होंने वैद्य से अपनी सब हालत कहकर उनसे वैद्यक पढ़ने की इच्छा जाहिर की । शिवभूति बड़ा दयावान् और परोपकारी था, इसलिए उसने इन दोनों भाइयों को अपने ही पास रखकर पढ़ाया और कुछ ही वर्षों में इन्हें अच्छा होशियार कर दिया। दोनों भाई गुरु महाशय के अत्यन्त कृतज्ञ होकर बनारस की ओर रवाना हुए। रास्ते में आते हुए इन्होंने जंगल में आँख की पीड़ा से दुःखी एक सिंह को देखा । धनचन्द्र को उस पर दया आई अपने बड़े भाई के बहुत कुछ मना करने पर भी धनचन्द्र ने सिंह की आँखों का इलाज किया। उससे सिंह को आराम हो गया। आँख खोलते ही उसने धनचन्द्र को अपने पास खड़ा पाया। वह अपने जन्म स्वभाव को न छोड़कर क्रूरता के साथ उसे खा गया। मुनिराज उस दुष्ट सिंह को बेचारे वैद्य को खा जाना क्या अच्छा काम हुआ? मुनि ने 'नहीं' कहकर एक और कथा कहना शुरू की ॥८३-८९॥ चम्पापुरी में सोमशर्मा ब्राह्मण की दो स्त्रियाँ थी । एक का नाम सोमिल्या और दूसरी का सोमशर्मा था। सोमिल्या बाँझ थी और सोमशर्मा के एक लड़का था । यहीं एक बैल रहता था। लोग उसे ‘भद्र' नाम से बुलाया करते थे । बेचारा बड़ा सीधा था । कभी किसी को मारता नहीं था । वह सबके घर पर घूमा-फिरा करता था। उसे इस तरह जहाँ थोड़ी बहुत घास खाने को मिलती वह उसे खाकर रह जाता था। एक दिन उस बाँझ पापिनी ने डाह के मारे अपनी सौत के बच्चे को निर्दयता से मार कर उसका अपराध बेचारे बैल पर लगा दिया। उसे ब्राह्मण बालक का मारने वाला समझ कर सब लोगों ने घास खिलाना छोड़ दिया और शहर से निकाल बाहर कर दिया। बेचारा भूख- प्यास के मारे बड़ा दुःख पाने लगा। बहुत ही दुबला पतला हो गया। पर तब भी किसी ने उसे शहर के भीतर नहीं घुसने दिया । एक दिन जिनदत्त सेठ की स्त्री पर व्यभिचार का अपराध लगा। वह अपनी निर्दोषता बतलाने के लिए चौराहे पर जाकर खड़ी हुई, जहाँ बहुत से मनुष्य इकट्ठे हो रहे थे उसने कोई भयंकर दिव्य लेने के इरादे से एक लोहे के टुकड़े को अग्नि में खूब तपाकर लाल सुर्ख किया। इस मौके को अपने लिए बहुत अच्छा समझ उस बैल ने झट वहाँ पहुँच कर जलते हुए उस लोहे के टुकड़े को मुँह से उठा लिया। उसका यह भयंकर दृश्य देखकर सब लोगों ने उसे निर्दोष समझ लिया। अच्छा सेठ महाशय, बतलाइए तो क्या उन मूर्ख लोगों को बिना समझे-बूझे एक निरपराध पशु पर दोष लगाना ठीक था क्या? जिनदत्त ने 'नहीं' कहकर फिर एक कथा छेड़ी ॥९०-९८॥ वह बोला-‘“गंगा के किनारे कीचड़ में एक बार एक हाथी का बच्चा फँस गया। विश्वभूति तापस ने उसे तड़फते हुए देखा। वह कीचड़ से उस हाथी के बच्चे को निकालकर अपने आश्रम में लिवा ले आया। उसने उसे बड़ी सावधानी के साथ पाला-पोसा भी। धीरे-धीरे वह बड़ा होकर एक महान् हाथी के रूप में आ गया । श्रेणिक ने इसकी प्रशंसा सुनकर इसे अपने यहाँ रख लिया। हाथी जब तक तापस के यहाँ रहा तब तक बड़ी स्वतंत्रता से रहा । वहाँ इसे कभी अंकुश वगैरह का कष्ट नहीं सहना पड़ा। पर जब यह श्रेणिक के यहाँ पहुँचा तबसे इसे बन्धन, अंकुश आदि का बहुत कष्ट सहना पड़ता था। इस दुःख के मारे एक दिन यह सांकल तोड़ - ताड़ कर तापस के आश्रम में भाग आया। इसके पीछे-पीछे राजा के नौकर भी इसे पकड़ने को आए । तापसी मीठे-मीठे शब्दों से हाथी को समझा कर उसे नौकरों के सुपुर्द करने लगा। हाथी को इससे अत्यन्त गुस्सा आया। सो इसने उस बेचारे तापस की ही जान ले ली। तो क्या मुनिराज, हाथी को यह उचित था कि वह अपने को बचाने वाले को ही मार डाले? इसके उत्तर में मुनि 'ना' कहकर और एक कथा कहने लगे। उन्होंने कहा- हस्तिनागपुर की पूरब दिशा में विश्वसेन राजा का बनाया आमों का एक बगीचा था। उसमें आम खूब लग रहे थे। एक दिन एक चील मरे साँप को चोंच में लिए आम के झाड़ पर बैठ गई उस समय साँप के जहर से एक आम पक गया, पीला - सा पड़ गया । माली ने उस पके फल को ले जाकर राजा को भेंट किया। राजा ने उसे 'प्रेमोपहार' के रूप में अपनी प्रिय रानी धर्मसेना को दिया। रानी उसे खाते ही मर गई राजा को बड़ा गुस्सा आया और उसने एक फल के बदले सारे बगीचे को ही कटवा डाला। मुनिराज ने कहा, तो क्या सेठ महाशय, राजा का यह काम ठीक हुआ ? सेठ ने भी 'ना' कहकर और एक कथा कहना शुरू की ॥९९ - ११० ॥ के वह बोला-एक मनुष्य जंगल से चला जा रहा था। रास्ते में वह सिंह को देखकर डर के मारे एक वृक्ष पर चढ़ गया। जब सिंह चला गया, तब यह नीचे उतरा और जाने लगा। रास्ते में इसे राजा बहुत से आदमी मिले, जो कि भेरी के लिए अच्छे और बड़े झाड़ की तलाश में आये थे । सो इस दुष्ट मनुष्य ने वह वृक्ष इन लोगों को बता दिया, जिस पर चढ़कर कि इसने अपनी जान बचाई थी। राजा के आदमी उस घनी छाया वाले सुन्दर वृक्ष को काटकर ले गये । मुनिराज, जिसने बन्धु की तरह अपनी रक्षा की, मरने से बचाया, उस वृक्ष के लिए इस दुष्ट को ऐसा करना योग्य था क्या? मुनिराज 'नहीं' कहकर और एक कथा कही ॥१११-११४॥ वे बोले-गन्धर्वसेन राजा की कौशाम्बी नगरी में एक अंगारदेव सुनार रहता था । जाति का यह ऊँच था। यह रत्नों की जड़ाई का काम बहुत ही बढ़िया करता था। एक दिन अंगारदेव राजमुकुट के एक बहुमूल्य मणि को उजाल रहा था । इसी समय उसके घर पर मेदज नाम के एक मुनि आहार के लिए आये । वह मुनि को एक ऊँची जगह बैठाकर और उनके सामने उस मणि को रखकर आप भीतर स्त्री के पास चला गया। इधर मणि को मांस के भ्रम से फूँज पक्षी निगल गया । जब सुनार सब विधि ठीक-ठाक कर आया तो देखता है वहाँ मणि नहीं। मणि न देखकर उसके तो होश उड़ गये। उसने मुनिराज से पूछा - मुनिराज, मणि को मैं आपके पास अभी रखकर गया हूँ, इतने में वह कहाँ चला गया? कृपा करके बतलाइए। मुनि चुप रहे। उन्हें चुप्पी साधे देखकर अंगारदेव का उन्हीं पर कुछ शक गया। उसने फिर पूछा- स्वामी, मणि का क्या हुआ ? जल्दी कहिये । राजा को मालूम हो जाने से वह मेरा और मेरे बाल-बच्चों तक का बुरा हाल कर डालेगा। मुनि तब भी चुप ही रहे । अब तो अंगारदेव से न रहा गया। क्रोध से उसका चेहरा लाल सुर्ख पड़ गया। उसने जान लिया कि मणि को इसी ने चुराया है। सो मुनि को बाँधकर उसने उन पर लकड़े की मार मारना शुरू की। उन्हें खूब मारा-पीटा सही, पर तब भी मुनि उसी तरह स्थिर बने रहे। ऐसे धन को, ऐसी मूर्खता को धिक्कार है जिससे मनुष्य कुछ भी सोच-समझ नहीं पाता और हर एक काम को जोश में आकर कर डालता है। अंगारदेव मुनि को लकड़े से पीट रहा था तब एक चोट फूँज पक्षी के गले पर भी जाकर लगी। उससे वह मणि बाहर आ गिरा । मणि को देखते ही अंगारदेव आत्मग्लानि, लज्जा और पश्चाताप के मारे अधमरा-सा हो गया। उसे काटो तो खून नहीं। वह मुनि के पाँवों में गिर पड़ा और रो-रोकर उनसे क्षमा माँगने लगा । इतना कह कर मुनिराज बोले- क्यों सेठ महाशय, अब समझे? मेदज मुनि को उस मणि का हाल मालूम था, पर तब भी दया के वश हो उन्होंने पक्षी का मणि निगल जाना न बतलाया । इसलिए कि पक्षी की जान न जाय और न मुनियों का ऐसा मार्ग ही है। इसी तरह मैं भी यद्यपि तुम्हारे घड़े का हाल जानता हूँ, तथापि कह नहीं सकता। इसलिए कि संयमी का यह मार्ग नहीं है कि वे किसी को कष्ट पहुँचावे । अब जैसा तुम जानते हो और जो तुम्हारे मन में हो उसे करो। मुझे उसकी परवा नहीं । घड़े का छुपाने वाला कुबेरदत्त अपने पिता और मुनि का यह परस्पर का कथोपकथन छुपा सुन रहा था। मुनि का अन्तिम निश्चय सुन उसकी उन पर बड़ी भक्ति हो गई वह दौड़ा जाकर झट से घड़े को निकाल लाया और अपने पिता के सामने उसे रखकर जरा गुस्से से बोला-हाँ देखता हूँ आप मुनिराज पर अब कितना उपसर्ग करते हैं? यह देखकर जिनदत्त बड़ा शर्मिन्दा हुआ। उसने अपने भ्रम भरे विचारों पर बड़ा ही पछतावा किया। अन्त में दोनों पिता-पुत्रों ने उन मेरु के समान स्थिर और तप के खजाने मुनिराज के पाँवों में पड़कर अपने अपराध की क्षमा कराई और संसार से उदासीन होकर उन्हीं के पास उन्होंने दीक्षा भी ले ली, जो कि मोक्ष- सुख की देने वाली है। दोनों पिता-पुत्र मुनि होकर अपना कल्याण करने लगे और दूसरों को भी आत्मकल्याण का मार्ग बतलाने लगे। वे साधुरत्न मुझे सुख-शान्ति दें, जो भगवान् के उपदेश किये सम्यग्ज्ञान के उमड़े हुए समुद्र हैं, सम्यक्त्वरूपी रत्नों को धारण किये हैं और पवित्र शील जिसकी लहरें हैं। ऐसे मुनिराजों को मैं भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। मूलसंघ के मुख्य चलाने वाले श्रीकुन्दकुन्दाचार्य की परम्परा में भट्टारक मल्लि भूषण हुए हैं। वे मेरे गुरु हैं, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र को धारण किये हैं और गुणों की खान हैं। वे आप लोगों का कल्याण करें ॥११५-१३५॥
  21. केवलज्ञानरूपी उज्ज्वल नेत्र और तीनों लोक को देखने और जानने वाले ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन के लोभ से डरकर मुनि हो जाने वाले सागरदत्त की कथा लिखी जाती है ॥१॥ किसी समय धनमित्र, धनदत्त आदि बहुत से सेठों के पुत्र व्यापार के लिए कौशाम्बी से चलकर राजगृह की ओर रवाना हुए। रास्ते में एक गहन वन में चोरों ने इन्हें लूट लिया। इनका सब माल- असबाब छीन-छानकर वे चलते हुए । सच है, जिनके पल्ले में कुछ पुण्य नहीं होता। वे कोई भी काम करें, उन्हें नुकसान ही उठाना पड़ता है ॥२-३॥ उधर धन पाकर चोरों की नियत बिगड़ी । सब परस्पर में यह चाहने लगे कि धन मेरे ही हाथ पड़े और किसी को कुछ न मिले और इसी लालसा से एक-एक के विरुद्ध जान लेने की कोशिश करने लगे। रात को जब वे सब खाने को बैठे तो किसी ने भोजन में विष मिला दिया और उसे खाकर सब के सब परलोक सिधार गए। यहाँ तक कि जिसने विष मिलाया था, वह भी भ्रम से उसे खाकर मर गया। उसमें एक सागरदत्त नामक वैश्यपुत्र बच गया । वह इसलिए कि उसे रात्रि में खाने-पीने की प्रतिज्ञा थी । धन के लोभ में फँसने से एक साथ सबको मरा देखकर सागरदत्त को बड़ा वैराग्य हुआ। वह उस धन को वहीं छोड़-छाड़कर चल दिया और एक साधु के पास जाकर आप मुनि बन गया ॥४-७॥ रात्रिभुक्तत्यागव्रती सागरदत्त ने संसार की सब लीलाओं को दुःख का कारण और जीवन को बिजली की तरह जानकर पलभर में नाश होने वाला सब धन वहीं पर पड़ा छोड़कर आप एक ऊँचा आचरण का धारक साधु हो गया। वह सागरदत्त मुनि आप सज्जनों का कल्याण करें ॥८॥
  22. धन, धान्य, दास, दासी, सोना, चाँदी आदि जो संसार के जीवों को तृष्णा के जाल में फँसाकर कष्ट पर कष्ट देने वाले हैं ऐसे परिग्रह से माया, ममता छोड़ने वाले जो साधु-सन्त हैं, उनसे भी जो ऊँचा हैं, जिनके त्याग से आगे त्याग की कोई सीमा नहीं, ऐसे सर्वश्रेष्ठ जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर परिग्रह से डरे हुए दो भाइयों की कथा लिखी जाती है ॥१॥ दशार्ण देश में बहुत सुन्दर एकरथ नाम का एक शहर था । उसमें धनदत्त नाम का सेठ रहता था। इसकी स्त्री का नाम धनदत्ता था । इसके धनदेव और धनमित्र ऐसे दो पुत्र और धनमित्रा नाम की सुन्दर लड़की थी ॥२-३॥ धनदत्त की मृत्यु के बाद इन दोनों भाइयों के कोई ऐसा पापकर्म का उदय आया,जिससे इनका सब धन नष्ट हो गया, ये महा दरिद्र बन गए। कुछ सहायता मिलेगी इस आशा से ये दोनों भाई अपने मामा के यहाँ कौशाम्बी गए और इन्होंने बड़े दुःख के साथ पिता की मृत्यु का हाल मामा को सुनाया। मामा भी इनकी हालत देखकर बड़ा दुःखी हुआ । उसने अनेक प्रकार समझा-बुझाकर इन्हें धीरज दिया और साथ ही आठ कीमती रत्न दिये, जिससे कि ये अपना संसार चला सकें । सच है, यही बन्धुपना है, यही दयालुपना है और यही गम्भीरता है जो अपने धन द्वारा याचकों की आशा पूरी की जाए ॥४-७॥ दोनों भाई रत्नों को लेकर अपने घर की ओर रवाना हुए। रास्ते में आते-आते इन दोनों की नियत उन रत्नों के लोभ से बिगड़ी। दोनों ही के मन में परस्पर के मार डालने की इच्छा हुई इतने में गाँव पास आ जाने से इन्हें सुबुद्धि सूझ गई। दोनों ने अपने-अपने नीच विचारों पर बड़ा ही पश्चाताप किया और परस्पर में अपना विचार प्रकट कर मन का मैल निकाल डाला। ऐसे पाप विचारों के मूल कारण इन्हें वे रत्न ही जान पड़े। इसलिए उन रत्नों को वेत्रवती नदी में फेंककर ये अपने घर पर चले आए। उन रत्नों को मांस समझकर एक मछली निगल गई यही मछली एक धीवर के जाल में आ फँसी । धीवर ने मछली को मारा। उसमें से वे रत्न निकले। धीवर ने उन्हें बाजार में बेच दिया। धीरे-धीरे कर्मयोग से वही रत्न इन दोनों भाईयों की माँ के हाथ पड़े। माता ने उनके लोभ से अपने लड़के-लड़की को ही मार डालना चाहा परन्तु तत्काल सुबुद्धि उपज जाने से उसने बहुत पश्चाताप किया और रत्नों को अपनी लड़की को दे दिये । धनमित्रा की भी यही दशा हुई उसकी भी लोभ के मारे नियत बिगड़ गई उसने माता, भाई आदि की जान लेनी चाही । सच है - संसार में सबसे बड़ा भारी पाप का मूल लोभ है। अन्त में धनमित्रा को भी अपने विचार पर बड़ी घृणा हुई और उसने फिर उन रत्नों को अपने भाइयों के हाथ दे दिया। वे उन्हें पहचान गए। उन्हें रत्नों के प्राप्त होने का हाल जानकर बड़ा ही वैराग्य हुआ। उसी समय वे संसार की सब माया-ममता छोड़कर, जो कि ॥ महा दुःख का कारण है, दमधर मुनि के पास दीक्षा के लिए गए। इन्हें साधु हुए देखकर इनकी माता और बहिन भी आर्यिका हो गई आगे चलकर ये दोनों भाई बड़े तपस्वी महात्मा हुए। अपना और दूसरों का संसार के दुःखों से उद्धार करना ही एक मात्र इनका कर्तव्य हो गया। स्वर्ग के देवता और प्रायः सब ही बड़े-बड़े राजा-महाराजा इनकी सेवा-पूजा करने को आने लगे ॥८-१८॥ यह लोभ संसार के दुःखों का मूल कारण और अनेक कष्टों का देने वाला है, जो माता, पिता, भाई, बहिन, बन्धु, बान्धव आदि के परस्पर में ठगने और बुरे विचारों के उत्पन्न करने की इच्छा करते हैं, उन्हें चाहिए कि वे इस पाप के बाप लोभ को मनसा, वाचा, कर्मणा छोड़कर संसार का हित करने वाले और स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख देने वाले जिनेन्द्र भगवान् के उपदेश किए परम पवित्र धर्म में अपने मन को दृढ़ करने का यत्न करें ॥१९॥
  23. संसार के द्वारा पूजे गए भगवान् आदि ब्रह्मा (आदिनाथ स्वामी) को नमस्कार कर, देवपुत्र ब्रह्मा की कथा लिखी जाती है ॥ १ ॥ कुछ असमझ लोग ऐसा कहते हैं कि एक दिन ब्रह्माजी के मन में आया कि मैं इन्द्रादिक का पद छीनकर सर्वश्रेष्ठ हो जाऊँ और इसके लिए उन्होंने एक भयंकर वन में हाथ ऊँचा किए बड़ी घोर तपस्या की। वे कोई साढ़े चार हजार वर्ष पर्यन्त (यह वर्ष संख्या देवों के वर्ष के हिसाब से हैं, जो कि मनुष्यों के वर्षों से कई गुणी होती है।) एक ही पाँव से खड़े होकर तप करते रहे और केवल वायु का आहार करते रहे । ब्रह्माजी की यह कठिन तपस्या निष्फल न गई इन्द्रादि का आसन हिल गया। उन्हें अपने राज्य नष्ट होने का बड़ा भय हुआ । तब उन्होंने ब्रह्माजी का तप भ्रष्ट करने के लिए स्वर्ग की एक तिलोत्तमा नाम की वेश्या को, जो कि गन्धर्व देवों के समान गाने और बड़ी सुन्दर नाचने वाली थी, भेजा । तिलोत्तमा उनके पास आई और अनेक प्रकार के हाव-भाव विलास बतला - बतलाकर नाचने लगी। तिलोत्तमा का नृत्य, तिलोत्तमा की भुवन मनोहारिणी रूपराशि और उसका हाव-भाव-विलास देखकर ब्रह्माजी तपसे डगमगे। उन्होंने हजारों वर्षों की तपस्या को एक क्षण भर में नष्ट कर अपने को काम के हाथ सौंप दिया। वे आँखें फाड़-फाड़कर तिलोत्तमा की रूप राशि को बड़े चाव से देखने लगे। तिलोत्तमा ने जब देखा कि हाँ योगिराज अब अपने आपमें नहीं है और आँखें फाड़-फाड़कर मेरी ही ओर देख रहे हैं, तब उनकी इच्छा को और जागृत करने के लिए वह उनकी बायीं ओर आकर नाचने लगी । ब्रह्मा जी ने तब अपनी हजारों वर्षों की तपस्या के प्रभाव से अपना दूसरा मुँह बाँयी ओर बना लिया । तिलोत्तमा जब उनकी पीठ पीछे आकर नाचने लगी। ब्रह्माजी ने तब तीसरा मुँह पीछे की ओर बना लिया ॥२-१०॥ तिलोत्तमा फिर उनकी दाहिनी ओर जाकर नाचने लगी, ब्रह्माजी ने उस ओर भी मुँह बना लिया। अन्त में तिलोत्तम आकाश में जाकर नाचने लगी। तब ब्रह्माजी ने अपना पाँचवाँ मुँह गधे के मुख के आकार का बनाया । कारण अब उनकी तपस्या का फल बहुत थोड़ा बच रहा था । मतलब यह कि तिलोत्तमा ने जिस प्रकार ब्रह्माजी को नचाया वे उसी प्रकार नाचे। इस प्रकार उन्हें तप से भ्रष्ट कर और उनके हृदय में काम की आग धधका कर चालाक तिलोत्तमा अछूती की अछूती स्वर्ग को चली गई और बेचारे ब्रह्माजी काम के तीव्र वेग से मूर्च्छा खाकर पृथ्वी पर आ गिरे । तिलोत्तमा ने सब हाल इन्द्र से कहकर कहा-प्रभो, अब आप अनन्त काल तक सुख से रहे। मैं ब्रह्माजी की खूब गति बना आई हूँ। तब इन्द्र ने बहुत खुश होकर उससे पूछा- हाँ तिलोत्तमा, तू ब्रह्माजी के पास ठहरी नहीं? तिलोत्तमा बोली- वाह ! प्रभो, भली उस बूढ़े की और मेरी आपने जोड़ी मिलाई ! मैं तो कभी उसके पास खड़ी तक नहीं रह सकती। यह सुन इन्द्र को ब्रह्माजी की हालत पर बड़ी दया आई उसने फिर सुन्दर वेश्या को उनके पास भेजा । इन्द्र की आज्ञा सिर पर चढ़ा उर्वशी ब्रह्माजी के पास आई उनके पाँवों को छूकर उन्हें उसने सचेत किया। ब्रह्माजी पाँव तले एक स्वर्गीय सुन्दरी को बैठी देखकर बहुत प्रसन्न हुए । उन्हें मानों आज उनकी कड़ी तपस्या का फल मिल गया। ब्रह्माजी अब घर बनाकर उर्वशी के साथ रहने लगे और मनमाने भोग भोगने लगे; तब से लौकिक ब्रह्मा कहलाने लगे ॥११-१७॥ बड़े दुःख की बात है कि असमझ लोग देव या देव के सच्चे स्वरूप को जानते नहीं और जैसी अपनी इच्छा में आता है उन्मत्त की तरह झूठा ही कह दिया करते हैं क्या कोई हठ करके इन्द्रादि का का पद छीन सकता है ? और क्या स्वर्ग की देवांगनाएँ व्यभिचार कर सकती है ? और जो ब्रह्मा तीन लोक का स्वामी देव कहा जाता है वह क्या ऐसा नीच कर्म करेगा? समझदारों को ये बातें झूठी समझना चाहिए और जिसमें ऐसी बातें हैं वह कभी ब्रह्मा नहीं हो सकता । जैन शास्त्रों में ब्रह्मा उसे कहा है, जो मोक्षमार्ग का बताने वाला, सच्चे ज्ञान और सच्चे चारित्र की प्राप्ति कराने वाला और आत्मा को निजस्वरूप में स्थिर करने वाला है। वह अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन अवस्थाओं से पाँच प्रकार का है । इनके सिवा संसार में कोई ब्रह्मा नहीं है क्योंकि राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया लोभ आदि दोषों से युक्त कभी ब्रह्मा - देव हो ही नहीं सकता किन्तु जो इन रागादि दोषों से रहित हैं, लोक और अलोक जानने वाले हैं और केवलज्ञानरूपी नेत्र से युक्त हैं वे ही ऋषभ द्यापीठ भगवान् मेरे सच्चे ब्रह्मा हैं ॥१८-२३॥ वे परम पवित्र आदिनाथ जिनेन्द्र मुझे संसार के दुःखों से छुड़ाकर शांति प्रदान करें, जो भव्यजनरूपी कमलों को प्रफुल्लित करने के लिए सूरज के समान हैं, संसार - समुद्र पार करने वाले हैं, गुणों के समुद्र हैं, स्वर्ग और मोक्ष का पवित्र सुख देने वाले हैं, इंद्रादि देवों द्वारा पूज्य हैं और केवलज्ञान द्वारा सारे संसार के जानने और देखने वाले हैं ॥२४॥
  24. केवलज्ञान ही जिनका नेत्र है, ऐसे जिनभगवान् को नमस्कार कर शास्त्रों के अनुसार सात्यकि और रुद्र की कथा लिखी जाती है ॥१॥ गन्धार देश में महेश्वरपुर एक सुन्दर शहर था । उसके राजा सत्यन्धर थे। सत्यन्धर की प्रिया का नाम सत्यवती था। इनके एक पुत्र हुआ उसका नाम सात्यकि था । सात्यकि ने राजविद्या में अच्छी कुशलता प्राप्त की थी और ठीक भी है, राजा बिना राजविद्या के शोभा भी नहीं पाता ॥२-३॥ इस समय सिन्धुदेश की विशाला नगरी का राजा चेटक था। चेटक जैनधर्म का पालक और जिनेन्द्र भगवान् का सच्चा भक्त था, इसकी रानी का नाम सुभद्रा था। सुभद्रा बड़ी पतिव्रता और धर्मात्मा थी। इसके सात कन्याएँ थी। उनके नाम थे - पवित्रता, मृगावती, सुप्रभा, प्रभावती, चेलना, ज्येष्ठा और चन्दना ॥४-७॥ सम्राट् श्रेणिक ने चेटक से चेलना के लिए याचना की थी, पर चेटक ने उनकी आयु अधिक देखकर लड़की देने से इनकार कर दिया । इससे श्रेणिक को बहुत बुरा लगा। अपने पिता के दुःख का कारण जानकर अभयकुमार उनका एक बहुत ही बढ़िया चित्र बनवा कर विशाला में पहुँचा । उसने वह चित्र चेलना को बतलाकर उसे श्रेणिक पर मुग्ध कर लिया। पर चेलना के पिता को उसका ब्याह श्रेणिक से करना सम्मत नहीं किया था । इसलिए अभयकुमार ने गुप्त मार्ग से चेलना को ले जाने का विचार किया। जब चेलना उसके साथ जाने को तैयार हुई जब ज्येष्ठा ने उससे अपने को भी ले चलने के लिए कहा । चेलना सहमत तो हो गई, पर उसे उसका चलना इष्ट नहीं था, इसलिए जब ये दोनों बहिनें थोड़ी दूर गई होंगी कि धूर्ता चेलना ने ज्येष्ठा से कहा- बहिन, मैं अपने आभूषण तो सब महल ही में भूल आई हूँ। तू जाकर उन्हें ले आ न? मैं तब तक यहीं खड़ी हूँ । बेचारी भोली ज्येष्ठा उसके झाँसे में आकर चली गई वह थोड़ी दूर ही पहुँची होगी कि इसने इधर आगे का रास्ता पकड़ा और जब तक ज्येष्ठा संकेत स्थान पर आती है तब तक यह बहुत दूर आगे बढ़ आई। अपनी बहिन की इस कुटिलता या धोखेबाजी से ज्येष्ठा को बेहद दुःख हुआ और इसी दुःख के मारे वह यशस्वती आर्यिका के पास दीक्षा ले गई । ज्येष्ठा की सगाई सत्यन्धर के पुत्र सात्यकि से हो चुकी थी। पर जब सात्यकि ने उसका दीक्षा ले लेना सुना तो वह भी विरक्त होकर समाधिगुप्त मुनि द्वारा दीक्षा लेकर मुनि बन गया ॥८-११॥ एक दिन यशस्वती, ज्येष्ठा आदि आर्यिकाएँ श्रीवर्द्धमान भगवान् की वन्दना करने को चलीं । वे सब एक वन में पहुँची होगी कि पानी बरसने लगा, और खूब बरसा। इससे इस आर्यिका संघ को बड़ा कष्ट हुआ। कोई किधर और कोई किधर, इस तरह उनका सब संघ तितिर-बितर हो गया। ज्येष्ठा एक कालगुहा नाम की गुफा में पहुँची। वह उसे एकान्त समझकर शरीर से भीगे वस्त्रों को उतार कर उन्हें निचोड़ने लगी। भाग्य से सात्यकि मुनि भी इसी गुफा में ध्यान कर रहे थे। सो उन्होंने ज्येष्ठा आर्यिका का खुला शरीर देख लिया। देखते ही विकार भावों से उनका मन भ्रष्ट हुआ और उन्होंने शीलरूपी मौलिक रत्न को आर्यिका के शरीररूपी अग्नि में झोंक दिया। सच है, काम से अन्धा बना मनुष्य क्या नहीं कर डालता ॥१२-१६॥ गुराणी यशस्वती ज्येष्ठा की चेष्टा वगैरह से उसकी दशा जान गई और इस भय से कि धर्म का अपवाद न हो, वह ज्येष्ठा को चेलना के पास रख आई चेलना ने उसे अपने यहाँ गुप्त रीति से रख लिया। सो ठीक ही है, सम्यग्दृष्टि निन्दा आदि से शासन की सदा रक्षा करते हैं ॥१७॥ नौ महीने होने पर ज्येष्ठा के पुत्र हुआ । पर श्रेणिक ने इस रूप में प्रकट किया कि चेलना के पुत्र हुआ। ज्येष्ठा उसे वही रखकर आप आर्यिका के संघ में चली आई और प्रायश्चित्त लेकर तपस्विनी हो गई इसका लड़का श्रेणिक के यही पलने लगा। बड़ा होने पर वह और लड़कों के साथ खेलने को जाने लगा। पर संगति इसकी अच्छे लड़कों के साथ नहीं थी इससे इसके स्वभाव में कठोरता अधिक आ गई। यह अपने साथ के खेलने वाले लड़को को रुद्रता के साथ मारने-पीटने लगा। इसकी शिकायत महारानी के पास आने लगी । महारानी को इस पर बड़ा गुस्सा आया। उसने इसका ऐसा रौद्र स्वभाव देखकर नाम भी इसका रुद्र रख दिया। सो ठीक ही है जो वृक्ष जड़ से खराब होता है तब उसके फलों में मीठापन आ भी कहाँ से सकता है । इसी तरह रुद्र से एक दिन और कोई अपराध बन पड़ा। सो चेलना ने अधिक गुस्से में आकर यह कह डाला कि किसने तो इस दुष्ट को जना और किसे यह कष्ट देता है । चेलना के मुँह से, जिसे कि यह अपनी माता समझता था, ऐसी अचम्भा पैदा करने वाली बात सुनकर बड़े गहरे विचार में पड़ गया। इसने सोचा कि इसमें कोई कारण जरूर होना चाहिए। यह सोचकर यह श्रेणिक के पास पहुँचा और उनसे इसने आग्रह के साथ पूछा- पिताजी, सच बतलाइए, मेरे वास्तव में पिता कौन हैं और कहाँ हैं? श्रेणिक ने इस बात के बताने को बहुत आनाकानी की। पर जब रुद्र ने बहुत ही उनका पीछा किया और किसी तरह वह नहीं मानने लगा। तब लाचार हो उन्हें सब सच्ची बात बता देनी पड़ी । रुद्र को इससे बड़ा वैराग्य हुआ और वह अपने पिता के पास जाकर मुनि हो गया ॥१८-२४॥ एक दिन रुद्र ग्यारह अंग और दस पूर्व का बड़े ऊँचे से पाठ कर रहा था। उस समय श्रुतज्ञान के माहात्म्य से पाँच सौ तो बड़ी-बड़ी विद्याएँ और सात सौ छोटी-छोटी विद्याएँ सिद्ध होकर आयी। उन्होंने अपने को स्वीकार करने की रुद्र से प्रार्थना की। रुद्र ने लोभ के वश हो उन्हें स्वीकार तो कर लिया, पर लोभ आगे होने वाले सुख और कल्याण के नाश का कारण होता है, इसका उसने कुछ विचार न किया ॥२५-२७॥ इस समय सात्यकि मुनि गोकर्ण पर्वत की ऊँची चोटी पर प्रायः ध्यान किया करते थे। समय गर्मी का था। उनकी वन्दना को अनेक धर्मात्मा भव्य - पुरुष आया जाया करते थे । पर जब से रुद्र को विद्याएँ सिद्धि हुई, तब से वह मुनि - वन्दना के लिए आने वाले धर्मात्मा भव्य - पुरुषों को अपने विद्याबल से सिंह, व्याघ्र, गेंडा, चीता आदि हिंसक और भयंकर पशुओं द्वारा डरा कर पर्वत पर न जाने देता था। सात्यकि मुनि को जब यह हाल ज्ञात हुआ तब उन्होंने इसे समझाया और ऐसे दुष्ट कार्य करने से रोका। पर इसने उनका कहा नहीं माना और अधिक यह लोगों को कष्ट देने लगा । सात्यकि ने तब कहा-तेरे इस पाप का फल बहुत बुरा होगा ॥२८-३०॥ तेरी तपस्या नष्ट होगी। तू स्त्रियों द्वारा तपभ्रष्टा होकर आखिर मृत्यु का ग्रास बनेगा । इसलिए अभी तुझे सम्हल जाना चाहिए। जिससे कुगतियों के दुःख न भोगना पड़े। रुद्र पर उनके इस कहने का कुछ असर न हुआ । वह और अपनी दुष्टता करता ही चला गया। सच है, पापियों के हृदय में गुरुओं का अच्छा उपदेश कभी नहीं ठहरता ॥ ३१-३२॥ एक दिन रुद्र मुनि प्रकृति के दृश्यों से अपूर्व मनोहरता धारण किए हुए कैलाश पर्वत पर गया और वहाँ तापन योग द्वारा तप करने लगा। इसके बीच में एक और कथा है, जिसका इसी से सम्बन्ध है। विजयार्द्ध पर्वत की दक्षिण श्रेणी में मेघनिबद्ध, मेघनिचय और मेघनिदान ऐसे तीन सुन्दर शहर है।उनका राजा था कनकरथ । कनकरथ की रानी का नाम मनोहरा था । इसके दो पुत्र हुए। एक देवदारु और दूसरा विद्युज्जिह्व। ये दोनों भाई खूबसूरत भी थे और विद्वान् भी थे। इन्हें योग्य देखकर इनका पिता कनकरथ राज्यशासन का भार बड़े पुत्र देवदारु को सौंप आप गणधर मुनिराज के पास दीक्षा लेकर योगी बन गया । सबको कल्याण के मार्ग पर लगाना ही एक मात्र अब इसका कर्तव्य हो गया ॥३३-३८॥ दोनों भाईयों की कुछ दिनों तक तो पटी, पर बाद में किसी कारण को लेकर बिगड़ पड़ी। उसका फल यह निकला कि छोटे भाई ने राज्य के लोभ में फँसकर और अपने बड़े भाई के विरुद्ध षड्यंत्र रच उसे राज्य से निकाल दिया । देवदारु को अपने मानभंग का बड़ा दुःख हुआ। वह वहाँ से चलकर कैलाश पर आया यहीं पर रहने भी लगा । सच है, घरेलू झगड़ों से कौन नष्ट नहीं हो जाता। देवदारु के आठ कन्याएँ थीं और सब ही सुन्दर थीं । सो एक दिन ये सब बहिनें मिलकर तालाब पर स्नान करने को आई अपने सब कपड़े उतारकर ये नहाने को जल में घुसीं । रुद्र मुनि ने इन्हें खुले शरीर देखा। देखते ही वह काम से पीड़ा जाकर इन पर मोहित हो गया । उसने अपनी विद्या द्वारा उनके सब कपड़े चुरा मँगाये । कन्याएँ जब नहाकर जल बाहर हुई तब उन्होंने देखा कपड़े वहाँ नहीं; उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। वे खड़ी खड़ी बेचारी लज्जा के मारे सिकुड़ने लगीं और व्याकुल भी वे अत्यन्त हुई, इतने में उनकी नजर रुद्र मुनि पर पड़ी। उन्होंने मुनि के पास जाकर बड़े संकोच के साथ पूछा-प्रभो, हमारे वस्त्रों को यहाँ से कौन ले गया ? कृपाकर हमें बतलाइए। सच है, पाप के उदय से आपत्ति आ पड़ने पर लज्जा संकोच सब जाता रहता है। पापी रुद्र मुनि ने निर्लज्ज होकर उन कन्याओं से कहा-हाँ मैं तुम्हारे वस्त्र वगैरह सब बता सकता हूँ, पर इस शर्त पर कि यदि तुम मुझे चाहने लगो। तब कन्याओं ने कहा- हम अभी अबोध ठहरी, इसलिए हमें इस बात पर विचार करने का कोई अधिकार नहीं । हमारे पिताजी यदि इस बात को स्वीकार कर लें तो फिर हमें कोई परेशानी नहीं रहेगी। कुल बालिकाओं का यह उत्तर देना उचित ही था । उनका उत्तर सुनकर मुनि ने उन्हें उनके वस्त्र वगैरह दे दिये। उन बालिकाओं ने घर आकर यह सब घटना अपने पिता से कह सुनाई देवदारु ने तब अपने एक विश्वस्त कर्मचारी को मुनि के पास कुछ बातें समझाकर भेजा। उसने जाकर देवदारु की ओर से कहा- आपकी इच्छा देवदारु महाराज को जान पड़ी । उसके उत्तर में उन्होंने यह कहा है कि हाँ मैं अपनी लड़कियों को आपको अर्पण कर सकता हूँ, पर इस शर्त पर कि “ आप विद्युज्जिह को मारकर मेरा राज्य मुझे दिलवा दें। " रुद्र ने यह स्वीकार किया। सच है, कामी पुरुष कौन पाप नहीं करता । रुद्र को अपनी इच्छा के अनुकूल देख देवदारु उसे अपने घर पर लिवा लाया और बहुत ठीक है, राज्य-भ्रष्ट राजा राज्य प्राप्ति के लिए क्या काम नहीं करता ॥३९-५२॥ " इसके बाद रुद्र विजयार्द्ध पर्वत पर गया और विद्याओं की सहायता से उसने विद्युज्जिह्व को मारकर उसी समय देवदारु को राज्य सिंहासन पर बैठा दिया। राज्य प्राप्ति के बाद ही देवदारु ने भी अपनी प्रतिज्ञा पूरी की। अपनी सब लड़कियों का ब्याह आनन्द-उत्सव के साथ उसने रुद्र से कर दिया। इसके सिवा उसने और भी बहुत सी कन्याओं को उसके साथ ब्याह दिया । रुद्र तब बहुत ही कामी हो गया। उसके इस प्रकार तीव्र कामसेवन का नतीजा यह हुआ कि सैकड़ों बेचारी राजबालिकाएँ अकाल में मर गई पर यह पापी तब भी सन्तुष्ट नहीं हुआ । इसने अब की बार पार्वती के साथ ब्याह किया। उसके द्वारा इसकी कुछ तृप्ति जरूर हुई ॥५३-५७॥ कामी होने के सिवा इसे अपनी विद्याओं का भी बड़ा घमंड हो गया था । इसने सब राजाओं को विद्याबल से बड़ा कष्ट दे रखा था, बिना ही कारण यह सबको तंग किया करता था । और सच भी है दुष्ट से किसे शान्ति मिल सकती है । इसके द्वारा बहुत तंग आकर पार्वती के पिता तथा और भी बहुत से राजाओं ने मिलकर इसे मार डालने का विचार किया। पर इसके पास था विद्याओं का बल, सो उसके सामने होने की किसी की हिम्मत न पड़ती और पड़ती भी तो वे कुछ कर नहीं सकते थे। तब उन्होंने इस बात का शोध लगाया कि विद्याएँ इससे किस समय अलग रहती हैं। इस उपाय से उन्हें सफलता प्राप्त हुई। उन्हें यह ज्ञात हो गया कि कामसेवन के समय बल विद्याएँ रुद्र से पृथक् हो जाती है। सो मौका देखकर पर्वती के पिता वगैरह ने खड्ग द्वारा रुद्र को सस्त्रीक मार डाला। सच है-पापियों के मित्र भी शत्रु हो जाया करते हैं ॥ ५८-६०॥ विद्याएँ अपने स्वामी की मृत्यु देखकर बड़ी दुःखी हुई और साथ ही उन्हें क्रोध भी अत्यन्त आया। उन्होंने तब प्रजा को दुःख देना शुरू किया और अनेक प्रकार की बीमारियाँ प्रजा में फैला दीं। उससे बेचारी गरीब प्रजा त्राह-वाह कर उठी । इसी समय एक ज्ञानी मुनि इस ओर आ निकले। प्रजा के कुछ लोगों ने जाकर मुनि से इस उपद्रव का कारण और उपाय पूछा। मुनि ने सब कथा कहकर कहा- जिस अवस्था में रुद्र मारा गया है, उसकी एक बार स्थापना करके उससे क्षमा कराओ। वैसा ही किया गया। प्रजा का उपद्रव शान्त हुआ, पर तब भी लोगों की मूर्खता देखो जो एक बार कोई काम किसी कारण को लेकर किया गया सो उसे अब तक भी गडरिया प्रवाह की तरह करते चले आते हैं और देवता के रूप में उसकी सेवा-पूजा करते हैं। पर यह ठीक नहीं । सच्चा देव वही हो सकता है जिसमें राग-द्वेष नहीं जो सबका जानने और देखने वाला हो सकता है और जिसे स्वर्ग के देव, चक्रवर्ती, विधाधर, राजा, महाराजा आदि सभी बड़े-बड़े लोग मस्तक झुकाते हैं और ऐसे देव एक अर्हन्त भगवान् ही हैं ॥६१-६४॥ वे जिन भगवान् मुझे शान्ति दें, जो अनन्त उत्तम - उत्तम गुणों के धारक हैं, सब सुखों के देने वाले हैं, दुःख, शोक, सन्ताप के नाश करने वाले हैं, केवलज्ञान के रूप में जो संसार का आताप हर कर उसे शीतलता देने वाले चन्द्रमा हैं और तीनों लोकों के स्वामियों द्वारा जो भक्तिपूर्वक पूजे जाते हैं ॥६५॥
  25. जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर अन्यमतों की असत्य कल्पनाओं का सत्पुरुषों को ज्ञान हो, इसलिए उन्हीं के शास्त्रों में लिखी हुई पाराशर नामक एक तपस्वी की कथा यहाँ लिखी जाती है ॥१॥ हस्तिनापुर में गंगभट नाम का एक धीवर रहा करता था । एक दिन वह पाप-बुद्धि एक बड़ी भारी मछली को नदी से पकड़कर लाया। घर लाकर उस मछली को जब उसने चीरा तो उसमें से एक सुन्दर कन्या निकली। उसके शरीर से बड़ी दुर्गन्ध निकल रही थी। उस धीवर ने उसका नाम सत्यवती रखा। वही उसका पालन-पोषण भी करने लगा। पर सच पूछो तो यह बात सर्वथा-असंभव है। कही मछली से भी कन्या पैदा हुई? खेद है कि लोग आँख बन्द किए ऐसी-ऐसी बातों पर भी अन्धश्रद्धा किए चले आते हैं ॥२-४॥ जब सत्यवती बड़ी हो गई तो एक दिन की बात है कि गंगभट सत्यवती को नदी किनारे नाव पर बैठाकर आप किसी काम के लिए घर पर आ गया । इतने में रास्ते का थका हुआ एक पाराशर नाम का मुनि, जहाँ सत्यवती नाव लिए बैठी हुई थी, वहाँ आया। वह सत्यवती से बोला-लड़की मुझे नदी के उस पार जाना है, तू अपनी नाव पर बैठाकर नदी के पार उतार दे तो बहुत अच्छा हो। भोली सत्यवती ने उसका कहा मान लिया और नाव में उसे अच्छी तरह बैठाकर वह नाव खेने लगी। सत्यवती खूबसूरत तो थी ही और इस पर वह अब तेरह चौदह वर्ष की हो चुकी थी; इसलिए उसकी खिलती हुई नई जवानी थी। उसकी मनोहारी मधुर सुन्दरता ने तपस्वी के तप को डगमगा दिया। वह काम वासना का गुलाम हुआ। उसने अपनी पापमयी मनोवृत्ति को सत्यवती पर प्रकट किया। सत्यवती सुनकर लजा गई, और डरी भी । वह बोली- महाराज, आप साधु-सन्त, सदा गंगास्नान करने वाले और शाप देने तथा दया करने में समर्थ और मैं नीच जाति की लड़की, इस पर भी मेरा शरीर दुर्गन्धमय, फिर मैं आप सरीखों के योग्य कैसे हो सकती हूँ? पाराशर को इस भोली लड़की के निष्कपट हृदय की बात पर भी कुछ शर्म नहीं आई और कामियों को शर्म होती भी कहाँ ? उसने सत्यवती से कहा-तू इसकी कुछ चिन्ता न कर । मैं तेरा शरीर अभी सुगन्धमय बनाये देता हूँ। यह कहकर पाराशर ने अपने विद्याबल से उसके शरीर को देखते-देखते सुगन्धमय कर दिया। उसके प्रभाव को देखकर सत्यवती को राजी हो जाना पड़ा। कामी पाराशर ने अपनी वासना नाव में ही मिटाना चाही, तब सत्यवती बोली-आपको इसका ख्याल नहीं कि सब लोग देखकर क्या कहेंगे? तब पाराशर ने आकाश को धुँधला कर, जिससे कोई देख न सके और अपनी इच्छा इसके बाद उसने नदी के बीच में एक छोटा-सा गाँव बसाया और सत्यवती के साथ ब्याह कर आप वहीं रहने लगा ॥५-१२॥ एक दिन पाराशर अपनी वासनाओं की तृप्ति कर रहा था कि उस समय सत्यवती के एक व्यास नाम का पुत्र हुआ। उसके सिर पर जटाएँ थीं, वह यज्ञोपवीत पहने हुआ था और उससे उत्पन्न होते ही अपने पिता को नमस्कार किया । पर लोगों का यह कहना उन्मत्त पुरुष के सरीखा है और न किसी ज्ञान-नेत्र वाले की समझ में ये बातें आवेंगी ही क्योंकि वे समझते हैं कि समझदार कभी ऐसी असंभव बातें नहीं कहते किन्तु भक्ति के आवेश में आकर अतत्त्व पर विश्वास लाने वालों ने ऐसा लिख दिया है। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे उन विद्वानों की संगति करें जो जैनधर्म का रहस्य समझने वाले हैं और जैनधर्म से ही प्रेम करें और उसी के शास्त्रों का भक्ति और श्रद्धा साथ अध्ययन करें, उनमें पवित्र बुद्धि को लगावें, इसी से उन्हें सच्चा सुख प्राप्त व्यास नाम का पुत्र हुआ। उसके सिर पर जटाएँ थीं, वह यज्ञोपवीत पहने हुआ था और उससे उत्पन्न होते ही अपने पिता को नमस्कार किया । पर लोगों का यह कहना उन्मत्त पुरुष के सरीखा है और न किसी ज्ञान-नेत्र वाले की समझ में ये बातें आवेंगी ही क्योंकि वे समझते हैं कि समझदार कभी ऐसी असंभव बातें नहीं कहते किन्तु भक्ति के आवेश में आकर अतत्त्व पर विश्वास लाने वालों ने ऐसा लिख दिया है। इसलिए बुद्धिमानों को उचित है कि वे उन विद्वानों की संगति करें जो जैनधर्म का रहस्य समझने वाले हैं और जैनधर्म से ही प्रेम करें और उसी के शास्त्रों का भक्ति और श्रद्धा साथ अध्ययन करें, उनमें पवित्र बुद्धि को लगावें, इसी से उन्हें सच्चा सुख प्राप्त होगा ॥१३-१६॥
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