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दस लक्षण पर्व ऑनलाइन महोत्सव

शांति पथ प्रदर्शन (जिनेंद्र वर्णी)

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  1. सब दोषों के नाश करने वाले और सुख के देने वाले ऐसे जिन भगवान् को नमस्कार कर अपने बुरे कर्मों की निन्दा-आलोचना करने वाली बीरा ब्राह्मणी की कथा लिखी जाती है ॥१॥ दुर्योधन जब अयोध्या का राजा था तब की यह कथा है। यह राजा बड़ा न्यायी और बुद्धिमान् हुआ है। इसकी रानी का नाम श्रीदेवी था । श्रीदेवी बड़ी सुन्दरी और सच्ची पतिव्रता थी । यहाँ एक सर्वोपाध्याय नाम का ब्राह्मण रहता था । उसकी स्त्री का नाम वीरा था । उसका चाल-चलन अच्छा न था। जवानी के जोर में वह मस्त रहा करती थी । उपाध्याय के घर पर एक विद्यार्थी पढ़ा करता था। उसका नाम अग्निभूति था । वीरा ब्राह्मणी के साथ इसकी अनुचित प्रीति थी । ब्राह्मणी इसे बहुत चाहती थी। पर उपाध्याय इन दोनों के सुख का काँटा था। इसलिए ये मनमाना ऐशोआराम न कर पाते थे। ब्राह्मणी को यह बहुत खटका करता था । सो एक दिन मौका पाकर ब्राह्मणी ने अपने पति को मार डाला और उसे श्मशान में फेंक आने को छत्री में छुपाकर अन्धेरी रात में वह घर से निकली । श्मशान में जैसे ही उपाध्याय के मुर्दे को फेंकने को तैयार हुई कि एक व्यन्तरदेवी ने उसके ऐसे नीच कर्म पर गुस्सा होकर छत्री को कील दिया और कहा - " सबेरा होने पर जब तू सारे शहर की स्त्रियों के घर-घर पर जाकर अपना यह नीच कर्म प्रकट करेगी, अपने कर्म पर पछतायेगी तब तेरे सिर पर से यह छत्री गिरेगी।” देवी के कहे अनुसार ब्राह्मणी ने वैसा ही किया। तब कहीं उसका पीछा छूटा, छत्री सिर से अलग हो सकी। इस आत्म-निन्दा से ब्राह्मणी का पापकर्म बहुत हल्का हो गया, वह शुद्ध हुई। इसी तरह अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे प्रतिदिन होने वाले बुरे कर्मों की गुरुओं के पास आलोचना किया करें। उससे उनका पाप नष्ट होगा और अपने आत्मा को वे शुद्ध बना सकेंगे। किसी पुरुष के शरीर में काँटा लग गया और वह उससे बहुत कष्ट पा रहा है। पर जब तक वह काँटा उसके शरीर से नहीं निकलेगा तब तक वह सुखी नहीं हो सकता। इसलिए उस काँटे को निकाल फेंककर जैसे वह पुरुष सुखी होता है, उसी तरह जो आत्म- हितैषी जैनधर्म के बताये सिद्धान्त पर चलने वाले वीतरागी साधुओं की शरण ले अपने आत्मा को कष्ट पहुँचाने वाले पापकर्म रूपी काँटे की कृत कर्मों की आलोचना द्वारा निकाल फेंकते हैं वे फिर कभी नाश न होने वाली आत्मीक लक्ष्मी को प्राप्त करते हैं ॥२- १०॥
  2. चारों प्रकार के देवों द्वारा पूजे जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर उस स्त्री की कथा लिखी जाती है कि जिसने अपने किए पापकर्मों की आलोचना कर अच्छा फल प्राप्त किया है ॥१॥ बनारस के राजा विशाखदत्त थे । उनकी रानी का नाम कनकप्रभा था। इनके यहाँ एक चितेरा रहता था। इसका नाम विचित्र था । वह चित्रकला का बड़ा अच्छा जानकार था । चितेरे की स्त्री का नाम विचित्रपताका था। उसके बुद्धिमती नाम की एक लड़की थी । बुद्धिमती बड़ी सुन्दरी और चतुर थी ॥२-४॥ एक दिन विचित्र चितेरा राजा के खास महल में, जो कि बड़ा सुन्दर था, चित्रकारी कर रहा था। उसकी लड़की बुद्धिमती उसके लिए भोजन लेकर आयी । उसने विनोद वश हो भीत पर मोर की पीछी का एक चित्र बनाया वह चित्र इतना सुन्दर बना कि सहसा कोई न जान पाता कि वह चित्र है। जो उसे देखता वह यही कहता कि यह मोर की पीछी है । इसी समय महाराज विशाखदत्त इस ओर आ गए। वे उस चित्र को मोर की पीछी समझ उठाने को उसकी ओर बढ़े। यह देख बुद्धिमती ने समझा कि महाराज बे - समझ है । नहीं तो इन्हें इतना भ्रम नहीं होता ॥५-६ ॥ दूसरे दिन बुद्धिमती ने एक और अद्भुत चित्र राजा को बतलाते हुए अपने पिता को पुकारा- पिताजी, जल्दी आइए, भोजन की जवानी का समय बीत रहा है। बुद्धिमती के इन शब्दों को सुनकर राजा बड़े अचम्भे में पड़ गया । वह उसके कहने का कुछ भाव न समझ कर एक टक की लगाये उसके मुँह की ओर देखता रह गया । राजा को अपना भाव न समझा देख बुद्धिमती को उसके मूर्ख होने का और दृढ़ विश्वास हो गया ॥७-९॥ अब की बार बुद्धिमती ने एक और चाल चली। एक भींत पर दो परदे लगा दिये और राजा को चित्र बतलाने के बहाने उसने एक परदा उठाया। उसमें चित्र न था। तब राजा उस दूसरे परदे की ओर चित्र की आशा से आँखें फाड़कर देखने लगा । बुद्धिमती ने दूसरा परदा भी उठा दिया। भीत पर चित्र को न देखकर राजा बड़ा शर्मिंदा हुआ । उसकी इन चेष्टाओं से उसे पूरा मूर्ख समझ बुद्धिमती ने जरा हँस दिया । राजा और भी अचम्भे में पड़ गया । वह बुद्धिमती का कुछ भी अभिप्राय न समझ सका। उसने तब व्यग्र हो बुद्धिमती से ऐसा करने का कारण पूछा। बुद्धिमती के उत्तर से उसे जान पड़ा कि वह उसे चाहती है और इसलिए पिता को भोजन के लिए पुकारते समय व्यंग से राजा पर उसने अपना भाव प्रकट किया था । राजा उसकी सुन्दरता पर पहले ही से मुग्ध था, सो वह बुद्ध की बातों से बड़ा खुश हुआ । उसने फिर बुद्धिमती के साथ ब्याह भी कर लिया । धीरे- धीरे राजा का उस पर इतना अधिक प्रेम बढ़ गया कि अपनी सब रानियों में पट्टरानी उसने उसे ही बना दिया। सच बात यह है कि प्राणियों की उन्नति के लिए उनके गुण ही उनका दूतपना करते हैं, उन्हें उन्नति पर पहुँचा देते हैं ॥१०-१२॥ राजा ने बुद्धिमती को सारे रनवास की स्वामिनी बना तो दिया, पर उसमें सब रानियाँ उस बेचारी की शत्रु बन गईं, उससे डाह, ईर्ष्या करने लगीं । आते-जाते वे बुद्धिमती के सिर पर मारती और उसे बुरी-भली सुनाकर बेहद कष्ट पहुँचातीं । बेचारी बुद्धिमती सीधी-साधी थी, सो न तो वह उनसे कुछ कहती और न महाराज से ही कभी उनकी शिकायत करती । इस कष्ट और चिन्ता से मन ही मन घुलकर वह सूख सी गई । वह जब जिन मन्दिर दर्शन करने जाती तब सब सिद्धियों के देने वाले भगवान् के सामने खड़े हो अपने पूर्व कर्मों की निन्दा करती और प्रार्थना करती कि हे संसार पूज्य, हे स्वर्ग-मोक्ष के सुख देने वाले, हे दुःखरूपी दावानल के बुझाने वाले मेघ, और हे दयासागर, मैं एक छोटे कुल में पैदा हुई हूँ, इसीलिए मुझे ये सब कष्ट हो रहे हैं। पर नाथ, इसमें दोष किसी का नहीं। मेरे पूर्व जन्म के पापों का उदय है। प्रभो, जो हो, पर मुझे विश्वास है कि जीवों को चाहे कितने ही कष्ट क्यों न सता रहे हों, पर जो आपको हृदय से चाहता है, आपका सच्चा सेवक है, उसके सब कष्ट बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं और इसीलिए हे नाथ, कामी, क्रोधी, मानी, मायावी देवों को छोड़कर मैंने आपकी शरण ली है। आप मेरा कष्ट दूर करेंगे ही। बुद्धिमती न मन्दिर में ही किन्तु महल पर भी अपने कर्मों की आलोचना किया करती । वह सदा एकान्त में रहती और न किसी से विशेष बोलती - चालती । राजा ने उसके दुर्बल होने का कारण पूछा - बार - बार आग्रह किया, पर बुद्धिमती ने उससे कुछ भी न कहा ॥१३-१८॥ बुद्धिमती क्यों दिनों-दिन दुर्बल होती जाती है, इसका शोध लगाने के लिए एक दिन राजा उसके पहले जिनमन्दिर आ गया । बुद्धिमती ने प्रतिदिन की तरह आज भी भगवान् के सामने खड़ी होकर आलोचना की। राजा ने वह सब सुन लिया । सुनकर वह सीधा महल पर आया। अपनी सब रानियों को उसने खूब ही फटकारा, धिक्कारा और बुद्धिमती को ही उनकी मालकिन-पट्टरानी बनाकर उन सबको उसकी सेवा करने के लिए बाध्य किया ॥१९-२०॥ जिस प्रकार बुद्धिमती ने अपनी आत्म-निन्दा की, उसी तरह अन्य बुद्धिमानों और क्षुल्लक आदि को भी जिन भगवान् के सामने भक्तिपूर्वक आत्मनिन्दा - पूर्वक कर्मों की आलोचना करना उचित है। उत्तम कुल और उत्तम सुखों की देन वाली तथा दुर्गति के दुःखों की नाश करने वाली जिन भगवान् की भक्ति मुझे भी मोक्ष का सुख दें ॥२१-२२॥
  3. निर्मल केवलज्ञान द्वारा सारे संसार के पदार्थों को प्रकाशित करने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर श्रद्धागुण के धारी विनयंधर राजा की कथा लिखी जाती है जो कथा सत्पुरुषों को प्रिय है ॥१॥ कुरुजांगल देश की राजधानी हस्तिनापुर का राजा विनयंधर था । उसकी रानी का नाम विनयवती था। यहाँ वृषभसेन नाम का एक सेठ रहता था । उसकी स्त्री का नाम वृषभसेना था। उसके जिनदास नाम का एक बुद्धिमान् पुत्र था ॥२-३॥ विनयंधर बड़ा कामी था । सो एक बार इसके कोई महारोग हो गया। सच है, ज्यादा मर्यादा से बाहर विषय सेवन भी उल्टा दुःख का ही कारण होता है । राजा ने बड़े- बड़े वैद्यों से इलाज करवाया पर उसका रोग किसी तरह न मिटा । राजा इस रोग से बड़ा दुःखी हुआ । उसे दिन-रात चैन न पड़ने लगा ॥४-५॥ राजा का एक सिद्धार्थ नाम का मंत्री था । यह जैनी था । शुद्ध सम्यग्दर्शन का धारक था। सो एक दिन उसने पादौषधिऋद्धि के धारक मुनिराज के पाँव प्रक्षालन का जल लाकर, जो कि सब रोगों का नाश करने वाला होता है, राजा को दिया । जिन भगवान् के सच्चे भक्त उस राजा ने बड़ी श्रद्धा के साथ उस जल को पी लिया उसे पीने से उसका सब रोग जाता रहा। जैसे सूरज के उगने से अन्धकार जाता रहता है । सच है, महात्माओं के तप के प्रभाव को कौन कह सकता है, जिनके कि पाँव धोने के पानी से ही सब रोगों की शान्ति हो जाती है । जिस प्रकार सिद्धार्थ मन्त्री ने मुनि के पाँव प्रक्षालन का पवित्र जल राजा को दिया, उसी प्रकार अन्य भव्यजनों को भी उचित है कि वे धर्मरूपी जल सर्व-साधारण को देकर उनका संसार ताप शान्त करें । जैनतत्त्व के परम विद्वान् वे पादौषधिऋद्धि के धारक मुनिराज मुझे शान्ति - सुख दें ॥६-१२॥ जैनधर्म में या जैनधर्म के अनुसार किए जाने वाले दान, पूजा, व्रत, उपवास आदि पवित्र कार्यों में की हुई श्रद्धा, किया हुआ विश्वास दुःखों का नाश करने वाला है । इस श्रद्धा का आनुषङ्गिक फल है-इन्द्र, चक्रवर्ती, विद्याधर आदि की सम्पदा का लाभ और वास्तविक फल है मोक्ष का कारण केवलज्ञान, जिसमें कि अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य ये चार अनन्तचतुष्टय- आत्मा की खास शक्तियाँ प्रकट हो जाती हैं। वह श्रद्धा आप भव्यजनों का कल्याण करे ॥१३॥
  4. सुख के देने वाले संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर शकाल मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥ पाटलिपुत्र (पटना) के राजा नन्द के दो मंत्री थे । एक शकटाल और दूसरा वररुचि । शकटाल जैनी था, इसलिए सुतरां उसकी जैनधर्म पर अचल श्रद्धा या प्रीति थी और वररुचि जैनी नहीं था, इसलिए सुतरां उसे जैनधर्म से, जैनधर्म के पालने वालों से द्वेष करती थी और इसलिए शकटाल और वररुचि की कभी न बनती थी, एक से एक अत्यन्त विरुद्ध थे ॥ २-३॥ एक दिन जैनधर्म के परम विद्वान् महापद्य मुनिराज अपने संघ को साथ लिए पटना में आए। शकटाल उनके दर्शन करने को गया । बड़ी भक्ति के साथ उसने उनकी पूजा - वन्दना की और उनके पास बैठकर मुनि और गृहस्थ धर्म का उनसे पवित्र उपदेश सुना । उपदेश का शकटाल के धार्मिक अतएव कोमल हृदय पर बहुत प्रभाव पड़ा। वह उसी समय संसार का सब मायाजाल तोड़कर दीक्षा ले मुनि हो गया। इसके बाद उसने अपने गुरु द्वारा सिद्धान्तशास्त्र का अच्छा अभ्यास किया। थोड़े ही दिनों में शकटाल मुनि ने कई विषयों में बहुत अच्छी योग्यता प्राप्त कर ली। गुरु इनकी बुद्धि, विद्वत्ता, तर्कणाशक्ति और सर्वोपरि स्वाभाविक प्रतिभा देखकर बहुत ही खुश हुए। उन्होंने अपना आचार्य पद अब इन्हें ही दे दिया। यहाँ से ये धर्मोपदेश और धर्मप्रचार के लिए अनेक देशों, शहरों और गाँवों में घूमे-फिरे । इन्होंने बहुतों को आत्महित साधक पवित्र मार्ग पर लगाया और दुर्गति के दुःखों का नाश करने वाले पवित्र जैनधर्म का सब ओर प्रकाश फैलाया । इस प्रकार धर्म प्रभावना करते हुए ये एक बार फिर पटना में आए ॥४-७॥ एक दिन की बात है कि शकटाल मुनि राजा के अन्तःपुर में आहार कर तपोवन की ओर जा रहे थे। मंत्री वररुचि ने इन्हें देख लिया। सो उस पापी ने पुराने बैर का बदला लेने का अच्छा मौका देखकर नन्द से कहा-महाराज, आपको कुछ खबर है कि इस समय अपना पुराना मंत्री पापी शकटाल भीख के बहाने आपके अन्तःपुर में, रनवास में घुसकर न जाने क्या अनर्थ कर गया है। मुझे तो उसके चले जाने के बाद ये समाचार मिले, नहीं तो मैंने उसे कभी का पकड़वा कर पाप की सजा दिलवा दी होती। अस्तु, आपको ऐसे धूर्तों के लिए चुप बैठना उचित नहीं । सच है, दुर्गति में जाने वाले ऐसे पापी लोग बुरा से बुरा कोई काम करते नहीं चूकते । नन्द ने अपने मंत्री के बहकावे में आकर गुस्से से उसी समय एक नौकर को आज्ञा दी कि वह जाकर शकटाल को जान से मार आवें । सच है, मूर्ख पुरुष दुर्जनों द्वारा उकसाने पर, करने और न करने योग्य भले-बुरे कार्य का कुछ विचार न कर, अन्याय कर डालते हैं। शकटाल मुनि ने जब उस घातक मनुष्य को अपनी ओर आते देखा तब उन्हें विश्वास हो गया कि वह मेरे को ही मारने को आ रहा है और यह सब कर्म मन्त्री वररुचि का है। अस्तु, जब तक वह घातक शकटाल मुनि के पास पहुँचता है उसके पहले ही उन्होंने सावधान होकर संन्यास ले लिया। घातक अपना काम पूरा कर वापस लौट गया। इधर शकटाल मुनि ने समाधि से शरीर त्याग कर स्वर्ग लाभ किया। सच है, दुष्ट पुरुष अपनी ओर से कितनी ही दुष्टता क्यों न करे, पर उससे सत्पुरुषों को कुछ नुकसान न पहुँच कर लाभ ही होता है ॥८- १५॥ परन्तु जब नन्द को यह सब सच्चा हाल ज्ञात हुआ और उसने सब बातों की गहरी छान-बीन की तब उसे मालूम हो गया कि शकटाल मुनि का कोई दोष न था, वे सर्वथा निरपराध थे । इसके पहले जैन मुनियों के सम्बन्ध में जो उसकी मिथ्या धारण हो गई थी और उन पर जो उसका बे-हद क्रोध हो रहा था उस सबको हृदय से दूर कर वह अब बड़ा ही पछताया । अपने पाप कर्मों की उसने बहुत निन्दा की। इसके बाद वह श्रीमहापद्म मुनि के पास गया। बड़ी भक्ति से उसने उनकी पूजा- वन्दना की और सुख के कारण पवित्र जैनधर्म का उनके द्वारा उपदेश सुना। धर्मोपदेश का उसके चित्त पर बहुत प्रभाव पड़ा। उसने श्रावकों के व्रत धारण किए। जैनधर्म पर अब इसकी अचल श्रद्धा हो गई॥१६-१८॥ इस जीव को जब कोई बुरी संगति मिल जाती है तब तो वह बुरे से बुरे पापकर्म करने लग जाता है और जब अच्छे महात्मा पुरुषों की संगति मिलती है तब यही पुण्य-पवित्र कर्म करने लगता है। इसलिए भव्यजनों को सदा ऐसे महापुरुषों की संगति करना चाहिए जो संसार के आदर्श हैं और जिनकी सत्संगति से स्वर्ग - मोक्ष प्राप्त हो सकता है ॥१९ - २० ॥ इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तपरूप रत्नों की सुन्दर माला को प्रभाचन्द्र आदि पूर्वाचार्यों ने शास्त्रों का सार लेकर बनाया है, जो ज्ञान के समुद्र और सारे संसार के जीव मात्र का हित करने वाले थे । उन्हीं की कृपा से मैंने इस आराधनारूपी माला को अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार बनाया है। यह माला भव्यजनों को और मुझे सुख दे ॥२१॥
  5. स्वर्गादि सुखों को देने वाले और मोक्षरूपी रमणी के स्वामी श्रीजिन भगवान् को नमस्कार कर जयसेन राजा की सुन्दर कथा लिखी जाती है ॥१॥ श्रावस्ती के राजा जयसेन की रानी वीरसेना के एक पुत्र था। इसका नाम वीरसेन था। वीरसेन बुद्धिमान् और सच्चे हृदय का था, मायाचार-कपट उसे छू तक न गया था ॥२॥ यहाँ एक शिवगुप्त नाम का बुद्ध भिक्षुक रहता था । यह मांसभक्षी और निर्दयी था। ईर्ष्या और द्वेष इसके रोम-रोम में ठसा था मानों वह इनका पुतला था। यह शिवगुप्त राजगुरु था। ऐसे मिथ्यात्व को धिक्कार है जिसके वश हो ऐसे मायावी और द्वेषी भी गुरु हो जाते हैं ॥३॥ एक दिन यतिवृषभ मुनिराज अपने सारे संघ को साथ लिए श्रावस्ती में आए। राजा यद्यपि बुद्धधर्म का मानने वाला था, तथापि वह और लोगों को मुनिदर्शन के लिए जाते देख आप भी गया। उसने मुनिराज द्वारा धर्म का पवित्र उपदेश चित्त लगाकर सुना । उपदेश उसे बहुत पसन्द आया। उसने मुनिराज से प्रार्थना कर श्रावक के व्रत लिए। जैनधर्म पर अब उसकी दिनों-दिन श्रद्धा बढ़ती ही गई उसने अपने सारे राज्यभर में कोई ऐसा स्थान न रहने दिया जहाँ जिनमन्दिर न हो । प्रत्येक शहर, प्रत्येक गाँव में उसने जिनमन्दिर बनवा दिया। जिनधर्म के लिए राजा का यह प्रयत्न देख शिवगुप्त ईर्ष्या और द्वेष के मारे जल कर खाक हो गया। वह अब राजा को किसी प्रकार मार डालने के प्रयत्न में लगा। और एक दिन खास इसी काम के लिए वह पृथ्वीपुरी गया और वहाँ के बुद्धधर्म के अनुयायी राजा सुमति को उसने जयसेन के जैनधर्म धारण करने और जगह- जगह जिनमन्दिरों के बनवाने आदि का सब हाल कह सुनाया । यह सुन सुमति ने जयसेन को एक पत्र लिखा कि 'तुमने बुद्धधर्म छोड़कर जो जैनधर्म ग्रहण किया, यह बहुत बुरा किया है। तुम्हें उचित है कि तुम फिर से बुद्धधर्म स्वीकार कर लो।" इसके उत्तर में जयसेन ने लिख भेजा कि - " मेरा विश्वास है, निश्चय है कि जैनधर्म ही संसार में एक ऐसा सर्वोच्च धर्म है जो जीवमात्र का हित करने वाला है। जिस धर्म में जीवों का मांस खाया जाता है या जिनमें धर्म के नाम पर हिंसा वगैरह महापाप बड़ी खुशी के साथ किए जाते हैं वे धर्म नहीं हो सकते। धर्म का अर्थ है जो संसार के दुःखों से छुड़ाकर उत्तम सुख में रक्खें, सो यह बात सिवा जैनधर्म के और धर्मों में नहीं है। इसलिए इसे छोड़कर और सब अशुभ बन्ध के कारण है।" सच है, जिसने जैनधर्म का सच्चा स्वरूप जान लिया वह क्या फिर किसी से डिगाया जा सकता है? नहीं । प्रचण्ड हवा भी क्यों न चले पर क्या वह मेरु को हिला देगी? नहीं। जयसेन के इस प्रकार विश्वास को देख सुमति को बड़ा गुस्सा आया। तब उसने दो आदमियों को इसलिए श्रावस्ती में भेजा कि वे जयसेन की हत्या कर आवें । वे दोनों आकर कुछ समय तक श्रावस्ती में ठहरे और जयसेन के मार डालने की खोज में लगे रहे, पर उन्हें ऐसा मौका ही न मिल पाया जो वे जयसेन को मार सकें। तब लाचार हो वे वापस पृथ्वीपुरी लौट आए और सब हाल उन्होंने राजा से कह सुनाया। इससे सुमति का क्रोध और भी बढ़ गया । उसने तब अपने सब नौकरों को इकट्ठा कर कहा-क्या कोई मेरे आदमियों में ऐसा भी हिम्मत बहादुर है जो श्रावस्ती जाकर किसी तरह जयसेन को मार आवे। उनमें से एक हिमारक नाम के दुष्ट ने कहा- हाँ महाराज, मैं इस काम को कर सकता हूँ। आप मुझे आज्ञा दें। इसके बाद ही वह राजाज्ञा पाकर श्रावस्ती आया और यतिवृषभ मुनिराज के पास मायाचार से जिनदीक्षा लेकर मुनि हो गया ॥४-१६॥ एक दिन जयसेन मुनिराज के दर्शन करने को आया और अपने नौकर-चाकरों को मन्दिर के बाहर ठहरा कर आप मन्दिर में गया। मुनि को नमस्कार कर वह कुछ धर्म-सम्बन्धी बातचीत की। इसके बाद जब वह चलने के पहले मुनिराज को ढोक देने के लिए झुका कि इतने में वह दुष्ट हिमारक जयसेन को मार कर भाग गया। सच है - बुद्ध लोग बड़े ही दुष्ट हुआ करते हैं। यह देख मुनि यतिवृषभ को बड़ी चिन्ता हुई उन्होंने सोचा - कहीं सारे संघ पर विपत्ति न आए, इसलिए पास ही की भीत पर उन्होंने यह लिखकर कि “ दर्शन या धर्म की डाह के वश होकर ऐसा काम किया गया है।” छुरी से अपना पेट चीर लिया और स्थिरता से संन्यास द्वारा मृत्यु प्राप्त कर वे स्वर्ग गए ॥१७-२२॥ वीरसेन को जब अपने पिता की मृत्यु का हाल मालूम हुआ तो वह उसी समय दौड़ा हुआ मन्दिर आया। उसे इस प्रकार दिन-दहाड़े किसी साधारण आदमी की नहीं किन्तु खास राजा साहब की हत्या हो जाने और हत्याकारी का कुछ पता न चलने का बड़ा ही आश्चर्य हुआ और जब उसने अपने पिता के पास मुनि को भी मरा पाया तब तो उसके आश्चर्य का कुछ ठिकाना ही न रहा। वह बड़े विचार में पड़ गया। वे हत्याएँ क्यों हुई? और कैसे हुई? इसका कारण कुछ भी उसकी समझ में न आया। उसे यह भी सन्देह हुआ कि कहीं इन मुनि ने तो यह काम न किया हो? पर दूसरे ही क्षण में उसने सोचा कि ऐसा नहीं हो सकता । इनका और पिताजी का कोई वैर-विरोध नहीं, लेना- देना नहीं, फिर वे क्यों ऐसा करने चले ? और पिताजी तो इनके इतने बड़े भक्त थे और न केवल यही बात थी कि पिताजी ही इनके भक्त हों, ये साधु भी तो उनसे बड़ा प्रेम करते थे; घण्टों तक उनके साथ इनकी धर्मचर्चा हुआ करती थी । फिर इस सन्देह को जगह नहीं रहती कि एक निस्पृह और शान्त योगी यह अनर्थ किया जा सके। तब हुआ क्या? बेचारा वीरसेन बड़ी कठिन समस्या में फँसा । वह इस प्रकार चिन्तातुर हो कुछ सोच-विचार कर ही रहा था कि उसकी नजर सामने की भीत पर जा पड़ी। उस पर यह लिखा हुआ, कि “ दर्शन या धर्म की डाह के वश होकर ऐसा हुआ है” देखते ही उसकी समझ में उस समय सब बातें बराबर आ गई उसके मन को अब रहा-सहा सन्देह भी दूर हो गया। उसकी अब मुनिराज पर अत्यन्त श्रद्धा हो गई। उसने मुनिराज के धैर्य और सहनपने की बड़ी प्रशंसा की। जैनधर्म के विषय में उसका पूरा-पूरा विश्वास हो गया । जिनका दुष्ट स्वभाव है, जिनसे दूसरों के धर्म का अभ्युदय - उन्नति नहीं सही जाती ऐसे लोग जिनधर्म सरीखे पवित्र धर्म पर चाहे कितना ही दोष क्यों न लगावें, पर जिनधर्म तो बादलों से न ढके हुए सूरज की तरह सदा ही निर्दोष रहता है ॥२३-२५॥ जिस धर्म को चारों प्रकार के देव, विद्याधर, चक्रवर्ती, राजा-महाराजा आदि सभी महापुरुष भक्ति से पूजते-मानते हैं, जो संसार के दुःखों का नाश कर स्वर्ग या मोक्ष का देने वाला हैं, सुख का स्थान है, संसार के जीव मात्र का हित करने वाला है और जिसका उपदेश सर्वज्ञ भगवान् ने किया है और इसीलिए सबसे अधिक प्रमाण या विश्वास करने योग्य है, वह धर्म - वह आत्मा की एक खास शक्ति मुझे प्राप्त होकर मोक्ष का सुख दे ॥२६॥
  6. स्वर्ग और मोक्ष का सुख देने वाले तथा सारे संसार के द्वारा पूज्य-माने जाने वाले श्री भगवान् को नमस्कार कर वृषभसेन की कथा लिखी जाती है ॥१॥ पाटलिपुत्र (पटना) में वृषभदत्त नाम का एक सेठ रहता था। पूर्व पुण्य के प्रभाव से इसके पास धन सम्पत्ति खूब थी। उसकी स्त्री का नाम वृषभदत्ता था। उसके वृषभसेन नाम का सर्वगुण-सम्पन्न एक पुत्र था। वृषभसेन बड़ा धर्मात्मा और सदा दान-पूजादिक पुण्यकर्मों का करने वाला था ॥२-३॥ वृषभसेन के मामा सेठ धनपति की स्त्री श्रीकान्ता के एक लड़की थी। उसका नाम धनश्री था। धनश्री सुन्दरी थी, चतुर थी और लिखी - पढ़ी थी । धनश्री का ब्याह वृषभसेन के साथ हुआ था। दोनों दम्पत्ति सुख से रहते थे । नाना प्रकार के विषय-भोगों की वस्तुएँ उनके लिए सदा हाजिर रहती थी ॥४-५॥ एक दिन वृषभसेन दमधर मुनिराज के दर्शनों के लिए गया । भक्ति सहित उनकी पूजा- वन्दना कर उसने उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना । उपदेश उसे बहुत रुचा और उसका प्रभाव भी उस पर बहुत पड़ा। वह उसी समय संसार और भ्रम से सुख जान पड़ने वाले विषय-भोगों से उदासीन हो मुनिराज के पास आत्महित की साधक जिनदीक्षा ले गया । उसे युवावस्था में ही दीक्षा ले जाने से धनश्री को बड़ा दुःख हुआ । उसे दिन-रात रोने के सिवा कुछ न सूझता था। धनश्री का यह दुःख उसके पिता धनपति से न सहा गया। वह तपोवन में जाकर वृषभसेन को उठा लाया और जबरदस्ती उसकी दीक्षा वगैरह खण्डित कर दी, उसे गृहस्थ बना दिया । सच है, मोही पुरुष करने और न करने योग्य कर्मों का विचार न कर उन्मत्त की तरह हर एक काम करने लग जाता है, जिससे कि पापकर्मों का उसके तीव्र बन्ध होता है ॥ ६-८ ॥ जैसे मनुष्य को कैद में जबरदस्ती रहना पड़ता है उसी समय वृषभसेन को भी कुछ समय तक और घर में रहना पड़ा। उसके बाद वह फिर मुनि हो गया । उसका फिर मुनि हो जाना जब धनपति को मालूम हुआ तो किसी बहाने से घर पर लाकर अब की बार उसे उसने लोहे की साँकल से बाँध दिया। मुनि ने यह सोचकर, कि यह मुझे अब की बार फिर व्रतरूपी पर्वत से गिरा देगा, मेरा व्रत भंग कर देगा, संन्यास ले लिया और इसी अवस्था में शरीर छोड़कर वह पुण्य के उदय से स्वर्ग में देव हुआ। दुर्जनों द्वारा सत्पुरुषों को कितने ही कष्ट क्यों न पहुँचाये जायें पर वे कभी पापबन्ध के कारण कामों में नहीं फँसते ॥९-१२॥ दुर्जन पुरुष चाहे कितनी ही तकलीफ क्यों न दें, पर पवित्र बुद्धि के धारी सज्जन महात्मा पुरुष तो जिन भगवान् के चरणों की सेवा-पूजा से होने वाले पुण्य से सुख ही प्राप्त करेंगे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं ॥१३॥
  7. इस प्रकार के देवों द्वारा जो पूजा-स्तुति किए जाते हैं और ज्ञान के समुद्र हैं, उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धर्मसिंह मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥ दक्षिण देश के कौशलगिर नगर के राजा वीरसेन की रानी वीरमती के दो सन्तान थीं। एक पुत्र और एक कन्या थी। पुत्र का नाम चन्द्रभूति और कन्या का चन्द्रश्री था । चन्द्र श्री बड़ी सुन्दर थी। उसकी सुन्दरता देखते ही बनती थी । कौशल देश और कौशल ही शहर के राजा धर्मसिंह के साथ चन्द्रश्री का विवाह हुआ था। दोनों दम्पति सुख से रहते थे । नाना प्रकार की भोगोपभोग वस्तुएँ सदा उनके लिए मौजूद रहती थी। इतना होने पर भी राजा का धर्म पर पूर्ण विश्वास था, अगाध श्रद्धा थी। वे सदा दान, पूजा, व्रतादि धर्म कार्य करते ॥२-५॥ एक दिन धर्मसिंह तपस्वी दमधर मुनि के दर्शनार्थ गए। उनकी भक्ति से पूजा-स्तुति कर उन्होंने उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना, जो धर्म देवों द्वारा भी बड़ी भक्ति के साथ पूजा जाता है । धर्मोपदेश का धर्मसिंह के चित्त पर बड़ा गहरा असर पड़ा। उससे वे संसार और विषय-भोगों से विरक्त हो गए और मुनि दीक्षा ले ली। उनकी रानी चन्द्र श्री को उन्हें जवानी में दीक्षा ले जाने से बड़ा कष्ट हुआ। पर बेचारी लाचार थी । उसके दुःख की बात जब उसके भाई चन्द्रभूति को मालूम हुई तो उसे भी अत्यन्त दुःख हुआ । उससे अपनी बहिन की यह हालत न देखी गई। उसने तब जबरदस्ती अपने बहनोई धर्मसिंह को उठा लाकर चन्द्र श्री के पास ला रखा । धर्मसिंह फिर भी न ठहरे और जाकर उन्होंने पुनः दीक्षा ले ली और महा तप तपने लगे ॥६-९॥ एक दिन इसी तरह वे तपस्या कर रहे थे। तब उन्होंने चन्द्रभूति को अपनी ओर आता हुआ देखा। उन्होंने समझ लिया कि यह फिर मेरी तपस्या बिगाड़ेगा । सो तप की रक्षा के लिए पास ही पड़े हुए मृत हाथी के शरीर में घुसकर उन्होंने समाधि ले ली और अन्त में शरीर छोड़कर वे स्वर्ग में गए। इसलिए भव्यजनों को कष्ट के समय भी अपने व्रत की रक्षा करनी चाहिए। जिससे स्वर्ग या मोक्ष का सर्वोच्च सुख प्राप्त होता है ॥ १०-१३॥ निर्मल जैनधर्म के प्रेमी श्रीधर्मसिंह मुनि ने जिन भगवान् के उपदेश किए और स्वर्ग-मोक्ष के देने वाले तप मार्ग का आश्रय ले उसके पुण्य से स्वर्ग-सुख लाभ किया। वे संसार प्रसिद्ध महात्मा और अपने गुणों से सबकी बुद्धि पर प्रकाश डालने वाले मुझे भी मंगल - सुख दान करें ॥१४॥
  8. देवों, विद्याधरों, राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किए जाने वाले जिन भगवान् को नमस्कार कर सुदृष्टि नामक सुनार की, जो रत्नों के काम में बड़ा होशियार था, कथा लिखी जाती है ॥१॥ उज्जैन के राजा प्रजापाल बड़े प्रजाहितैषी, धर्मात्मा और भगवान् के सच्चे भक्त थे। उनकी रानी का नाम सुप्रभा था । सुप्रभा बड़ी सुन्दरी और सती थी । सच है - संसार में वही रूप और वही सौन्दर्य प्रशंसा के लायक होता है जो शील से भूषित हो ॥२-३॥ यहाँ एक सुदृष्टि नाम का सुनार रहता था । जवाहरात के काम में यह बड़ा चतुर था तथा सदाचारी और सरल-स्वभावी था । इसकी स्त्री का नाम विमला था, विमला दुराचारिणी थी । अपने घर में रहने वाले एक वक्र नाम के विद्यार्थी से, जिसे कि सुदृष्टि अपने खर्च से लिखाता-पढ़ाता था, विमला का अनुचित सम्बन्ध था । विमला अपने स्वामी से बहुत नाखुश थी । इसलिए उसने अपने प्रेमी वक्र को उस्का कर, उसे कुछ भली - बुरी सुझाकर सुदृष्टि का खून करवा दिया। खून उस समय किया गया जब कि सुदृष्टि विषय - सेवन में मग्न था । सो यह मरकर विमला के ही गर्भ में आया। विमला ने कुछ दिनों बाद पुत्र प्रसव किया । आचार्य कहते हैं कि संसार की स्थिति बड़ी ही विचित्र है जो पल भर में कर्मों की पराधीनता से जीवों का अजब परिवर्तन हो जाता है । वे नट की तरह क्षणक्षण में रूप बदला ही करते हैं ॥४-८॥ चैत का महीना था वसन्त शोभा ने सब ओर अपना साम्राज्य स्थापित कर रखा था । वन जन विद्याप उपवनों की शोभा मन को मोह लेती थी। इसी सुन्दर समय में एक दिन महारानी सुप्रभा अपने खास बगीचे में प्राणनाथ के साथ हँसी विनोद कर रही थी । इसी हँसी - विनोद में उसका क्रीड़ा - विलास नाम का सुन्दर बहुमूल्य हार टूट पड़ा। उसके सब रत्न बिखर गए । राजा ने उसे फिर वैसा ही बनवाने का बहुत यत्न किया, जगह-जगह से अच्छे सुनार बुलवाए पर हार पहले सा किसी से नहीं बना। सच है-बिना पुण्य के कोई उत्तम कला या ज्ञान नहीं होता। इसी टूटे हुए हार को विमला के लड़के ने अर्थात् पूर्वभव के उसके पति सुदृष्टि ने देखा। देखते ही उसे जातिस्मरण पूर्व जन्म का ज्ञान हो गया। उससे उसने इस हार को पहले जैसा ही बना दिया । इसका कारण यह था कि इस हार को पहले भी सुदृष्टि ने ही बनाया था और यह बात सच है कि इस जीव को पूर्व जन्म के संस्कार पुण्य से ही कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान दान - पूजा आदि सभी बातें प्राप्त हुआ करती है। प्रजापाल उसकी ऐसी होशियारी देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उससे पूछा भी कि भाई, यह हार जैसा सुदृष्टि का बनाया था वैसा ही तुमने कैसे बना दिया? तब वह विमला का लड़का मुँह नीचा कर बोला- राजाधिराज, मैं अपनी कथा आपसे क्या कहूँ। आप यह समझें कि वास्तव में मैं ही सुदृष्टि हूँ। इसके बाद उसने बीती हुई सब घटना राजा से कह सुनाई । वे संसार की इस विचित्रता को सुनकर विषय- भोगों से बड़े विरक्त हुए । उन्होंने उसी समय सब माया-जाल छोड़कर आत्महित का पथ जिनदीक्षा ग्रहण कर ली ॥९ - १६॥ इधर विमला के लड़के को भी अत्यन्त वैराग्य हुआ। वह स्वर्ग- मोक्ष के सुखों को देने वाली जिनदीक्षा लेकर योगी बन गया। यहाँ से फिर यह विशुद्धात्मा धर्मोपदेश के लिए अनेक शहरों में घूम- फिर कर तपस्या करता हुआ और अनेक भव्यजनों को आत्महित के मार्ग पर लगाता हुआ शौरीपुर के उत्तर भाग में यमुना के पवित्र किनारे पर आकर ठहरा। यहाँ शुक्लध्यान द्वारा कर्मों का नाश कर इसने लोकालोक का ज्ञान कराने वाला केवलज्ञान प्राप्त किया और संसार द्वारा पूज्य होकर अन्त में मुक्ति लाभ किया। वे विमला - सुत मुनि मुझे शान्ति दें ॥१७-२०॥ वे जिन भगवान् आप भव्यजनों को और मुझे मोक्ष का सुख दें, जो संसार - सिन्धु में डूबते हुए, असहाय-निराधार जीवों को पार करने वाले हैं, कर्म - शत्रुओं का नाश करने वाले है।, , संसार के सब पदार्थों को देखने वाले केवलज्ञान से युक्त हैं, सर्वज्ञ हैं, स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख देने वाले हैं और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि प्रायः सभी महापुरुषों से पूजा किए जाते हैं ॥२१॥
  9. संसार का हित करने वाले जिनेन्द्र भगवान् को प्रसन्नता पूर्वक नमस्कार कर शुभ नाम के राजा की कथा लिखी जाती है । मिथिला नगर के राजा शुभ की रानी मनोरमा के देवरति नाम का एक पुत्र था। देवरति गुणवान् और बुद्धिमान् था । किसी प्रकार का दोष या व्यसन उसे छू तक न गया था ॥१-२॥ एक दिन देवगुरु नाम के अवधिज्ञानी मुनिराज अपने संघ को साथ लिए मिथिला आए। शुभ राजा तब बहुत से भव्यजनों के साथ मुनि-पूजा के लिए गया । मुनिसंघ की सेवा-पूजा कर उसने धर्मोपदेश सुना। अन्त में उसने अपने भविष्य के सम्बन्ध का मुनिराज से प्रश्न किया - योगिराज, कृपाकर बतलाइए कि आगे मेरा जन्म कहाँ होगा ? उत्तर में मुनिराज ने कहा- राजन् सुनिए- पाप कर्मों के उदय से तुम्हें आगे के जन्म में तुम्हारे ही पाखाने में एक बड़े कीड़े की देह प्राप्त होगी, शहर में घुसते समय तुम्हारे मुँह में विष्टा प्रवेश करेगा, तुम्हारा छत्रभंग होगा और आज के सातवें दिन बिजली गिरने से तुम्हारी मौत होगी। सच है - जीवों के पाप के उदय से सभी कुछ होता है। मुनिराज ने ये सब बातें राजा से बड़े निडर होकर कहीं और यह ठीक भी है कि योगियों के मन में किसी प्रकार का भय नहीं रहता । मुनि का शुभ के सम्बन्ध का भविष्य कथन सच होने लगा । एक दिन बाहर से लौट कर जब वे शहर में घुसने लगे तब घोड़े के पाँवों की ठोकर से उड़े हुए थोड़े से विष्टा का अंश उनके मुँह में आ गिरा और यहाँ से वे थोड़े ही आगे बढ़े होंगे कि एक जोर की आँधी ने उनके छत्र को तोड़ डाला । सच है, पाप कर्मों के उदय से क्या नहीं होता। उन्होंने तब अपने पुत्र देवरति को बुलाकर कहा- बेटा, मेरे कोई ऐसा पापकर्म का उदय आएगा उससे मैं मरकर अपने पाखाने में पाँच रंग का कीड़ा होऊँगा, सो तुम उस समय मुझे मार डालना । इसलिए कि फिर मैं कोई अच्छी गति प्राप्त कर सकूँ । उक्त घटना को देखकर शुभ को यद्यपि यह एक तरह निश्चय-सा हो गया था कि मुनिराज की कहीं बातें सच्ची हैं और वे अवश्य होंगी पर तब भी उनके मन में कुछ- कुछ सन्देह बना रहा और इसी कारण बिजली गिरने के भय से डरकर उन्होंने एक लोहे की बड़ी मजबूत सन्दूक मँगवाई और उसमें बैठकर गंगा के गहरे जल में उसे रख आने को नौकरों को आज्ञा की। इसलिए कि जल में बिजली का असर नहीं होता । उन्हें आशा थी कि मैं इस उपाय से रक्षा पा जाऊँगा। पर उनकी ये बे-समझी थी । कारण प्रत्यक्ष - ज्ञानियों की कोई बात कभी झूठी नहीं होती। जो हो, सातवाँ दिन आया । आकाश में बिजलियाँ चमकने लगीं। इसी समय भाग्य से एक बड़े मच्छ ने राजा की उस सन्दूक को एक ऐसा जोर का उथेला दिया कि सन्दूक जल के बाहर दो हाथ ऊँचे तक उछल आयी सन्दूक का बाहर होना था कि इतने में बड़े जोर से कड़क कर उस पर बिजली आ गिरी। खेद है कि उस बिजली के गिरने से राजा अपने यत्न में कामयाब न हुए और आखिर वे मौत के मुँह में पड़ ही गए। मरकर वह मुनिराज के कहे अनुसार पाखाने में कीड़ा हुए। पिता के कहे अनुसार जब देवरति ने जाकर देखा तो सचमुच एक पाँच रंग का कीड़ा उसे देख पड़ा और तब उसने उसे मार डालना चाहा। पर जैसे ही देवरति ने हाथ का हथियार उसके मारने को उठाया, वह कीड़ा उस विष्टा के ढेर में घुस गया । देवरति को इससे बड़ा अचम्भा हुआ । उसने जिन-जिन से इस घटना का हाल कहा, उन सब को संसार की इस भयंकर लीला को सुन बड़ा डर मालूम हुआ। उन्होंने तब संसार का बन्धन काट देने के लिए जैनधर्म का आश्रय लिया, कितनों ने सब माया-ममता तोड़ जिनदीक्षा ग्रहण की और कितनों ने अभ्यास बढ़ाने को पहले श्रावकों के व्रत ही लिए ॥३-१६॥ देवरति को इन घटना से बड़ा अचम्भा हो ही रहा था, सो एक दिन उसने ज्ञानी मुनिराज से इसका कारण पूछा-भगवन् ! क्यों तो मेरे पिता ने मुझसे कहा कि मैं विष्टा में कीड़ा होऊँगा सो मुझे तू मार डालना और जब मैं उस कीड़े को मारने जाता हूँ तब वह भीतर ही भीतर घुसने लगता है। मुनि ने उसके उत्तर में देवरति से कहा- भाई, जीव गति सुखी होता है फिर चाहे वे कितनी ही बुरी से बुरी जगह भी क्यों न पैदा हो। वह उसी में अपने को सुखी मानेगा, वहाँ से कभी मरना पसन्द न करेगा। यही कारण है कि जब तक तुम्हारे पिता जीते थे तब तक उन्हें मनुष्य जीवन से प्रेम था, उन्होंने न मरने के लिए यत्न भी किया, पर उन्हें सफलता न मिली और ऐसी उच्च मनुष्य गति से वे मरकर कीड़ा होंगे, सो भी विष्टा में । उसका उन्हें खेद था और इसलिए उन्होंने तुमसे उस अवस्था में मार डालने को कहा था । पर अब उन्हें वही जगह अत्यन्त प्यारी हैं, वे मरना पसन्द नहीं करते । इसलिए जब तुम उस कीड़ा को मारने जाते हो तब वह भीतर घुस जाता है। इसमें आश्चर्य और खेद करने की कोई बात नहीं । संसार की स्थिति ही ऐसी है । मुनिराज द्वारा यह मार्मिक उपदेश सुनकर देवरति को बड़ा वैराग्य हुआ । वह संसार छोड़कर, इसलिए कि उसमें सार कुछ नहीं है, मुनिपद स्वीकार कर आत्महित साधक योगी हो गया । जिनके वचन पापों के नाश करने वाले हैं, सर्वोत्तम हैं और संसार का भ्रमण मिटाने वाले हैं, वे देवों द्वारा, पूजे जाने वाले जिन भगवान् मुझे तब तक अपने चरणों को सेवा का अधिकार दें जब तक कि मैं कर्मों का नाश कर मुक्ति प्राप्त न कर लूँ ॥१७-१८॥
  10. चारों प्रकार के देवों द्वारा जिनके चरण पूजे जाते हैं उन जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर आठवें चक्रवर्ती सुभौम की कथा लिखी जाती है ॥१॥ सुभौम ईर्ष्यावान् शहर के राजा कार्त्तवीर्य की रानी रेवती के पुत्र थे । चक्रवर्ती का एक विजयसेन नाम का रसोइया था । एक दिन चक्रवर्ती जब भोजन करने को बैठे तब रसोइये ने उन्हें गरम-गरम खीर परोस दी । उसके खाने से चक्रवर्ती का मुँह जल गया। इससे उन्हें रसोइये पर बड़ा गुस्सा आया। गुस्से से उन्होंने खीर रखे गरम बरतन को ही उसके सिर पर दे मारा। उससे उसका सारा सिर जल गया। इसकी घोर वेदना से मरकर वह लवणसमुद्र में व्यन्तर देव हुआ। कु- अवधिज्ञान से अपने पूर्वभव की बात जानकर सुभौम चक्रवर्ती पर उसके गुस्से का पार न रहा। प्रतिहिंसा से उसका जी बे-चैन हो उठा। तब वह एक तापसी बनकर अच्छे-अच्छे सुन्दर फलों को अपने हाथ में लिए चक्रवर्ती के पास पहुँचा । फलों को उसने चक्रवर्ती को भेंट किया । चक्रवर्ती उन फलों को खाकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने उस तापस से कहा - महाराज, ये फल तो बड़े ही मीठे हैं । आप ये फल कहाँ से लाये ? और ये कहाँ मिलेंगे ? तब उस व्यन्तर ने धोखा देकर चक्रवर्ती से कहा- समुद्र के बीच में एक छोटा सा टापू है । वहीं मेरा घर है। आप मुझ गरीब पर कृपा कर मेरे घर को पवित्र करें तो मैं आपको बहुत से ऐसे - ऐसे उत्तम और मीठे फल भेंट करूँगा। कारण वहाँ ऐसे फलों के बहुत बगीचे हैं। चक्रवर्ती लोभ में फँसकर व्यन्तर के फॉंसे में आ गए और उसके साथ चल दिये। जब व्यन्तर उन्हें साथ लिए बीच समुद्र में पहुँचा तब अपने सच्चे स्वरूप में आ उसने बड़े गुस्से से चक्रवर्ती को कहा- पापी, जानता है कि मैं तुझे यहाँ क्यों लाया हूँ? यदि न जानता हो तो सुन-मैं तेरा जयसेन नाम का रसोइया था, तब तूने मुझे निर्दयता के साथ जलाकर मार डाला था। अब उसी का बदला लेने को मैं तुझे यहाँ लाया हूँ । बतला अब कहाँ जाएगा? जैसा किया उसका फल भोगने को तैयार हो जा । तुझसे पापियों की ऐसी गति होनी ही चाहिए। पर सुन, अब भी एक उपाय है, जिससे तू बच सकता है और वह यह कि यदि तू पानी में पंच नमस्कार मन्त्र लिखकर उसे अपने पाँवों से मिटा दे तो तुझे मैं जीता छोड़ सकता हूँ । अपनी जान बचाने के लिए कौन किस काम को नहीं कर डालता? ॥२-११॥ वह भला है या बुरा इसके विचार करने की तो उसे जरूरत ही नहीं रहती। उसे तब पड़ी रहती है अपनी जान की। यही दशा चक्रवर्ती महाशय की हुई उन्होंने तब नहीं सोच पाया कि इस अनर्थ से मेरी क्या दुर्दशा होगी? उन्होंने उस व्यन्तर के कहे अनुसार झटपट जल में मंत्र लिख कर पाँव से उसे मिटा डाला। उनका मन्त्र मिटाना था कि व्यन्तर ने उन्हें मारकर समुद्र में फेंक दिया। इसका कारण यह हो सकता है कि मंत्र को पाँव से मिटाने के पहले व्यन्तर की हिम्मत चक्रवर्ती को मारने की इसलिए न पड़ी होगी कि जगत्पूज्य जिनेन्द्र भगवान् के भक्त को वह कैसे मारे या यह भी संभव था कि उस समय कोई जिनशासन का भक्त अन्य देव उसे इस अन्याय से रोककर चक्रवर्ती की रक्षा कर लेता और अब मंत्र को पाँवों से मिटा देने से चक्रवर्ती जिनधर्म का द्वेषी समझा गया और इसलिए व्यन्तर ने उसे मार डाला। मरकर इस पाप के फल से चक्रवर्ती सातवें नरक गया । उस मूर्खता को, उस लम्पटता को धिक्कार है जिससे चक्रवर्ती सारी पृथ्वी का सम्राट् दुर्गति में गया। जिसका जिन भगवान् के धर्म पर विश्वास नहीं होता उसे चक्रवर्ती की तरह कुगति में जाना पड़े तो इसमें आश्चर्य क्या? वे पुरुष धन्य है और वे ही सबके आदर पात्र हैं, जिनके हृदय में सुख देने वाले जिन वचन रूप अमृत का सदा स्रोत बहता रहता है। इन्हीं वचनों पर विश्वास करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं। यह सम्यग्दर्शन जीवमात्र का हित करने वाला है, संसार भय मिटाने वाला है, नाना प्रकार के सुखों का देने वाला है, और मोक्ष प्राप्ति का मुख्य कारण है । देव, विद्याधर आदि सभी बड़े-बड़े पुरुष सम्यग्दर्शन की या उसके धारण करने वाले की पूजा करते हैं । यह गुणों का खजाना है । सम्यग्दृष्टि को किसी प्रकार की भय-बाधा नहीं होती। वह बड़ी सुख - शान्ति से रहता है । इसलिए जो सच्चे सुख की आशा रखते हैं उन्हें आठ अंग सहित इस पवित्र सम्यग्दर्शन का विश्वास के साथ पालन करना चाहिए ॥ १२-१६॥
  11. केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक और स्वयंभू श्री आदिनाथ भगवान् को नमस्कार कर सत्पुरुषों को इस बात का ज्ञान हो कि केवल मन की भावना से ही मन में विचार करने मात्र से ही कितना दोष या कर्मबन्ध होता है, इसकी एक कथा लिखी जाती है ॥१॥ सबसे अन्त के स्वयंभूरमण समुद्र में एक बड़ी भारी दीर्घकाय मच्छ है । वह लम्बाई में एक हजार योजन, चौड़ाई में पाँच सौ योजन और ऊँचाई में ढाई सौ योजन का है। (एक योजन चार या दो हजार कोस का होता है) यहीं एक और शालिसिक्थ नाम का मच्छ इस बड़े मच्छ के कानों के पास रहता है। पर यह बहुत ही छोटा है और इस बड़े मच्छ के कानों का मैल खाया करता है। जब यह बड़ा मच्छ सैकड़ों छोटे-मोटे जल - जीवों को खाकर और मुँह फाड़े छह मास की गहरी नींद के खुर्राटे में मग्न हो जाता उस समय कोई एक-एक दो-दो योजन के लंबे-चौड़े कछुए, मछलियाँ, घड़ियाल, मगर आदि जल जन्तु, बड़े निर्भीक होकर इसके विकराल डाढों वाले मुँह में घुसते और बाहर निकलते रहते हैं तब यह छोटा सिक्थ-मच्छ रोज-रोज सोचा करता है कि यह बड़ा मच्छ कितना मूर्ख है जो अपने मुख में आसानी से आए हुए जीवों को व्यर्थ ही जाने देता है! यदि कहीं मुझे वह सामर्थ्य प्राप्त हुई होती तो मैं कभी एक भी जीव को न जाने देता। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग अपने आप ही ऐसे बुरे भावों द्वारा महान् पाप का बन्धकर दुर्गतियों में जाते हैं और वहाँ अनेक कष्ट सहते हैं । सिक्थ-मच्छ की भी यह दशा हुई वह इस प्रकार बुरे भावों से तीव्र कर्मों का बन्ध कर सातवें नरक गया क्योंकि मन के भाव ही तो पुण्य या पाप के कारण होते हैं। इसलिए सत्पुरुषों को जैन शास्त्रों के अभ्यास या पढ़ने-पढ़ाने से मन को सदा पवित्र बनाये रखना चाहिए, जिससे उसमें बुरे विचारों का प्रवेश ही न हो पाये और शास्त्रों के अभ्यास के बिना अच्छे बुरे का ज्ञान नहीं हो पाता, इसलिए शास्त्राभ्यास पवित्रता का प्रधान कारण है ॥२-११॥ यही जिनवाणी मिथ्यात्वरूपी अंधेरे को नष्ट करने के लिए दीपक है, संसार के दुःखों को जड़मूल से उखाड़ फेंकने वाली है, स्वर्ग- मोक्ष के सुख की कारण है और देव, विद्याधर आदि सभी महापुरुषों के आदर की पात्र है। सभी जिनवाणी की उपासना बड़ी भक्ति से करते हैं । आप लोग भी इस पवित्र जिनवाणी का शांति और सुख के लिए सदा अभ्यास मनन- चिन्तन करें ॥१२॥
  12. जिनेन्द्र भगवान्, जिनवाणी और ज्ञान के समुद्र साधुओं को नमस्कार कर वृषभसेन की उत्तम कथा लिखी जाती है ॥१॥ दक्षिण दिशा की ओर बसे हुए कुण्डल नगर के राजा वैश्रवण बड़े धर्मात्मा और सम्यग्दृष्टि थे और रिष्टामात्य नाम का इनका मंत्री इनसे बिल्कुल उल्टा - मिथ्यात्वी और जैनधर्म का बड़ा द्वेषी था। सो ठीक ही है, चन्दन के वृक्षों के आसपास सर्प रहा ही करते हैं ॥२-३॥ एक दिन श्रीवृषभसेन मुनि अपने संघ को साथ लिए कुण्डल नगर की ओर आए। वैश्रवण उनके आने के समाचार सुन बड़ी विभूति के साथ भव्यजनों को संग लिए उनकी वन्दना को गया। भक्ति से उसने उनकी प्रदक्षिणा की, स्तुति की, वन्दना की और पवित्र द्रव्यों से पूजा की तथा उनसे जैनधर्म का उपदेश सुना । उपदेश सुनकर वह बड़ा प्रसन्न हुआ। सच है, इस सर्वोच्च और सब सुखों के देने वाले जैनधर्म का उपदेश सुनकर कौन सद्गति - का पात्र सुखी न होगा? ॥४-८॥ राजमंत्री भी मुनिसंघ के पास आया। पर वह इसलिए नहीं कि वह उनकी पूजा - स्तुति करे किन्तु उनसे वाद-शास्त्रार्थ कर उनका मान भंग करने, लोगों की श्रद्धा उन पर से उठा देने। पर यह उसकी भूल थी। कारण, जो दूसरों के लिए कुँआ खोदते हैं उनमें पहले उन्हें ही गिरना पड़ता है। यही हुआ भी। मंत्री ने मुनियों का अपमान करने की गर्ज से उनसे शास्त्रार्थ किया, पर अपमान भी उसी का हुआ। मुनियों के साथ उसे हार जाना पड़ा। उस अपमान की उसके हृदय पर गहरी चोट लगी। इसका बदला चुकाना निश्चित कर वह शाम को छुपा हुआ मुनिसंघ के पास आया और जिस स्थान में वह ठहरा था उसमें उस पापी ने आग लगा दी। बड़े दुःख की बात है कि दुर्जनों का स्वभाव एक विलक्षण ही तरह का होता है। वे स्वयं तो पहले दूसरों के साथ छेड़-छाड़ करते हैं और जब उन्हें अपने कृत का फल मिलता है तब वे यह समझ कर, कि मेरा इसने बुरा किया, दूसरे निर्दोष सत्पुरुषों पर क्रोध करते हैं और फिर उनसे बदला लेने के लिए उन्हें नाना प्रकार के कष्ट देते हैं ॥९-११॥ जो हो, मंत्री ने अपनी दुष्टता में कोई कसर न की । मुनिसंघ पर उसने बड़ा ही भयंकर उपसर्ग किया। पर उन तत्त्वज्ञानी - वस्तु स्थिति को जानने वाले मुनियों ने इस कष्ट की कुछ परवाह न कर बड़ी सहन-शीलता के साथ सब कुछ सह लिया और अन्त में अपने - अपने भावों की पवित्रता के अनुसार उनमें से कितने ही मोक्ष गए और कितने ही स्वर्ग में ॥१२॥ दुष्ट पुरुष सत्पुरुषों को कितना ही कष्ट क्यों न पहुँचावे उससे खराबी उन्हीं की है उन्हें ही दुर्गति में दुःख भोगना पड़ेंगे और सत्पुरुष तो ऐसे कष्ट के समय में भी अपनी प्रतिज्ञाओं पर दृढ़ रहकर अपना धर्म अर्थात् कर्तव्य पालन कर सर्वोच्च सुख लाभ करेंगे। जैसा कि उक्त मुनिराजों ने किया ॥१३॥ वे मुनिराज आप लोगों को भी सुख दें, जिन्होंने ध्यानरूपी पर्वत का आश्रय ले बड़ा दुःसह उपसर्ग जीता, अपने कर्तव्य से सर्वश्रेष्ठ कहलाने का सम्मान लाभ किया और अन्त में अपने उच्च भावों से मोक्ष सुख प्राप्त कर देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों आदि द्वारा पूजा को प्राप्त हुए और संसार में सबसे पवित्र गिने जाने लगे ॥१४॥
  13. देवों द्वारा पूजा किए जाने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर चाणक्य की कथा लिखी जाती है ॥१॥ पाटलिपुत्र या पटना के राजा नन्द के तीन मंत्री थे । कावी, सुबन्धु और शकटाल ये उनके नाम थे। यहीं एक कपिल नाम का पुरोहित रहता था । कपिल की स्त्री का नाम देविला था। चाणक्य इन्हीं का पुत्र था। यह बड़ा बुद्धिमान् और वेदों का ज्ञाता था ॥२-३॥ एक बार आस-पास छोटे-मोटे राजाओं ने मिलकर पटना पर चढ़ाई कर दी । कावी मंत्री ने इस चढ़ाई का हाल नन्द से कहा । नन्द ने घबरा कर मंत्री से कह दिया कि जाओ जैसे बने उन अभिमानियों को समझा-बुझाकर वापस लौटा दो। धन देना पड़े तो वह भी दो । राजाज्ञा पा मंत्री ने उन्हें धन वगैरह देकर लौटा दिया। सच है, बिना मंत्री के राज्य स्थिर हो ही नहीं सकता ॥४-६॥ एक दिन नन्द को स्वयं कुछ धन की जरूरत पड़ीं । उसने खजांची से खजाने में कितना धन मौजूद है, इसके लिए पूछा। खजांची ने कहा- महाराज, धन तो सब मंत्री महाशय ने दुश्मनों को दे डाला। खजाने में तो अब नाम मात्र के लिए थोड़ा-बहुत धन बचा होगा । यद्यपि दुश्मनों को धन स्वयं राजा ने दिलवाया था और इसलिए गलती उसी की थी, पर उस समय अपनी यह भूल उसे न दीख पड़ी और दूसरे के उकसाने में आकर उसने बेचारे निर्दोष मंत्री को और साथ में उसके सारे कुटुम्ब को एक अन्धे कुँए में डलवा दिया। मंत्री तथा उसका कुटुम्ब वहाँ बड़ा कष्ट पाने लगा। उनके खाने-पीने के लिए बहुत थोड़ा भोजन और थोड़ा सा पानी दिया जाता था। वह इतना थोड़ा था कि एक मनुष्य भी उससे अच्छी तरह पेट न भर सकता था । सच है, राजा किसी का मित्र नहीं होता । राजा के इस अन्याय ने कावी के मन में प्रतिहिंसा की आग धधका दी। इस आग ने बड़ा भयंकर रूप धारण किया। कावी ने तब अपने कुटुम्ब के लोगों से कहा- जो भोजन इस समय हमें मिलता है उसे यदि हम इसी तरह थोड़ा थोड़ा सब मिलकर खाया करेंगे तब तो हम धीरे - धीरे सब ही मर मिटेंगे और ऐसी दशा में कोई राजा से उसके इस अन्याय का बदला लेने वाला न रहेगा। पर मुझे यह सह्य नहीं । इसलिए मैं चाहता हूँ कि मेरा कोई कुटुम्ब का मनुष्य राजा से बदला ले। तब ही मुझे शान्ति मिलेगी। इसलिए इस भोजन को वही मनुष्य अपने में से खाये जो बदला लेने की हिम्मत रखता हो। तब उसके कुटुंबियों ने कहा-इसका बदला लेने में आप ही समर्थ देख पड़ते हैं । इसलिए हम खुशी के साथ कहते हैं कि इस भार को आप ही अपने सर पर लें। उस दिन से उसका सारा कुटुम्ब भूखा रहने लगा और धीरे- धीरे सबका सब मर मिटा । इधर कावी अपने रहने योग्य एक छोटा सा गड्ढा उस कुँए में बनाकर दिन काटने लगा। ऐसे रहते उसे कोई तीन वर्ष बीत गए ॥७-१२॥ जब यह खबर आस-पास के राजाओं के पास पहुँची तब उन्होंने उस समय राज्य को अव्यवस्थित देख फिर चढ़ाई कर दी। अब तो नन्द के कुछ होश ढीले पड़े, अकल ठिकाने आई अब उसे न सूझ पड़ा कि वह क्या करे? तब उसे अपने मंत्री कावी की याद आयी । उसने नौकरों को आज्ञा दो कुँए से मंत्री को निकलवाया और मंत्री की जगह नियत किया। मंत्री ने भी इस समय तो उन राजाओं से सुलह कर नन्द की रक्षा कर ली। पर अब उसे अपना वैर निकालने की चिन्ता हुई वह किसी ऐसे मनुष्य को खोज करने लगा, जिससे उसे सहायता मिल सके। एक दिन कावी किसी वन में हवाखोरी के लिए गया हुआ था। इसने वहाँ एक मनुष्य को देखा कि जो काँटों के समान चुभने वाली दूबा को जड़-मूल से उखाड़ - उखाड़ कर फेंक रहा था, उसे एक निकम्मा काम करते देखकर कावी ने चकित होकर पूछा-ब्रह्मदेव, इसे खोदने से तुम्हारा क्या मतलब है? क्यों बे-फायदा इतनी तकलीफ उठा रहे हो? इस मनुष्य का नाम चाणक्य था । इसका उल्लेख ऊपर आ चुका है । चाणक्य ने तब कहा- वाह महाशय! इसे आप बे-फायदा बतलाते हैं। आप जानते हैं कि इसका क्या अपराध है? सुनिये ! इसने मेरा पाँव छेद डाला और मुझे महा कष्ट दिया, तब मैं क्यों इसे छोड़ने चला? मैं तो इसका जड़मूल से नाश कर ही दम लूँगा । यही मेरा संकल्प है। तब कावी ने उसके हृदय की थाह लेने के लिए कि इसकी प्रतिहिंसा की आग कहाँ जाकर ठण्डी पड़ती है, कहा - तो महाशय ! अब इस बेचारी को क्षमा कीजिए, बहुत हो चुका। उत्तर में चाणक्य ने कहा- नहीं, तब तक इसके खोदने से लाभ ही क्या जब तक कि इसकी जड़े बाकी रह जायें । उस शत्रु के मारने से क्या लाभ जब कि उसका सिर न काट लिया जाये ? चाणक्य की यह ओजस्विता देखकर कावी को बहुत संतोष हुआ । उसे निश्चय हो गया कि इसके द्वारा नन्दकुल का जड़ - मूल से नाश हो सकेगा । इससे अपने को बहुत सहायता मिलेगी। अब सूर्य और राहु का योग मिला देना अपना काम है । किसी तरह नन्द के सम्बन्ध में इसका मनमुटाव करा देना ही अपने कार्य का श्रीगणेश हो जाएगा। कावी मंत्री इस तरह का विचार कर ही रहा था कि प्यासे की जल की आशा होने की तरह एक योग मिल ही गया । इसी समय चाणक्य की स्त्री यशस्वती ने आकर चाणक्य से कहा - सुनती हूँ, राजा नन्द ब्राह्मणों को गौ दान किया करते हैं तब आप भी जाकर उनसे गौ लाइये न । चाणक्य ने कहा- अच्छी बात है, मैं अपने महाराज के पास जाकर जरूर गौ लाऊँगा । यशस्वती के मुँह से यह सुनकर कि नन्द गौओं का दान किया करता है, कावी मंत्री खुश होता हुआ राजदरबार में गया और राजा से बोला- महाराज! क्या आज आप गौएँ दान करेंगे? ब्राह्मणों को इकट्ठा करने की योजना की जाए ? महाराज, आपको तो यह पुण्यकार्य करना ही चाहिए । धन का ऐसी जगह सदुपयोग होता है। मंत्री ने अपना चक्र चलाया और वह राजा पर चल भी गया । सच है, जिनके मन में कुछ और होता है, जो वचनों से कुछ और बोलते हैं तथा शरीर जिनका माया से सदा लिपटा रहता हैं, उन दुष्टों की दुष्टता का पता किसी को नहीं लग पाता । कावी की सत् सम्मति सुनकर नन्द ने कहा-अच्छा ब्राह्मणों को आप बुलवाइये, मैं उन्हें गौएँ दान करूँगा। मंत्री जैसा चाहता था, वही हो गया। वह झटपट जाकर चाणक्य को ले आया और उसे सबसे आगे रखे आसन पर बैठा दिया। लोभी चाणक्य ने तब अपने आस-पास रखे हुए बहुत से आसनों को घर ले जाने की इच्छा से इकट्ठा कर अपने पास रख लिए। उसे इस प्रकार लोभी देखकर कावी ने कपट से कहा- - पुरोहित महाराज ! राजा साहस कहते हैं और बहुत से ब्राह्मण विद्वान् आए हैं, आप उनके लिए आसन दीजिये । चाणक्य ने तब एक आसन निकाल कर दे दिया। इसी तरह धीरे- धीरे मंत्री ने उससे सब आसन रखवाकर अन्त में कहा- महाराज, क्षमा कीजिए ! मेरा कोई अपराध नहीं हैं। मैं तो पराया नौकर हूँ । इसलिए जैसा मालिक कहते हैं उनका हुक्म बजाता हूँ पर जान पड़ता है कि राजा बड़ा अविचारी है जो आप सरीखे महा ब्राह्मण का अपमान करना चाहता है । महाराज, राजा का कहना है कि आप जिस अग्रासन पर बैठे हैं उसे छोड़कर चले जाइए। यह आसन दूसरे विद्वान् के लिए पहले ही से दिया जा चुका है। यह कहकर ही कावी ने गर्दन पकड़ चाणक्य को निकाल बाहर कर दिया । चाणक्य एक तो वैसे ही महाक्रोधी और अब उसका ऐसा अपमान किया गया और वह भी भरी राजसभा में! तब तो अब चाणक्य के क्रोध का पूछना ही क्या? वह नन्दवंश को जड़मूल से उखाड़ फेंकने का दृढ़ संकल्प कर जाता-जाता बोला कि जिसे नन्द का राज्य चाहना हो, वह मेरे पीछे-पीछे चला आवे। यह कहकर वह चलता बना । चाणक्य की इस प्रतिज्ञा के साथ ही कोई एक मनुष्य उसके पीछे हो गया। चाणक्य उसे लेकर उन आस-पास के राजाओं से मिल गया और फिर मौका देख एक घातक मनुष्य को साथ ले वह पटना आया और नन्द को मरवा कर आप उस राज्य का मालिक बन बैठा । सच है, मंत्री के क्रोध से कितने राजाओं का नाम इस पृथ्वी से उठ गया होगा ॥१३-३३॥ इसके बाद चाणक्य ने बहुत दिनों तक राज्य किया । एक दिन उसे श्रीमहीधर मुनि द्वारा जैनधर्म का उपदेश सुनने का मौका मिला। उस उपदेश का उसके चित्त पर खूब असर पड़ा। वह उसी समय सब राज-काज छोड़कर मुनि बन गया । चाणक्य बुद्धिमान् और बड़ा तेजस्वी था। इसलिए थोड़े ही दिनों बाद उसे आचार्य पद मिल गया । वहाँ से कोई पाँच सौ शिष्यों को साथ लिए उसने बिहार किया। रास्ते में पड़ने वाले देशों, नगरों और गाँवों में धर्मोपदेश करता और अनेक भव्य-जनों को हितमार्ग में लगाता वह दक्षिण की ओर बसे हुए वनवास देश के क्रौंचपुर में आया। इस पुर के पश्चिम किनारे कोई अच्छी जगह देख इसने संघ ठहरा दिया । चाणक्य को यहाँ यह मालूम हो गया कि उसकी उमर बहुत थोड़ी रह गई है। इसलिए उसने वहीं प्रायोगपगमन संन्यास ले लिया ॥३४-३७॥ नन्द का दूसरा मंत्री सुबन्धु था । चाणक्य ने जब नन्द को मरवा डाला तब उसके क्रोध का पार नहीं रहा। प्रतिहिंसा की आग उसके हृदय में दिन-रात जलने लगी। पर उस समय उसके पास कोई साधन बदला लेने का न था । इसलिए वह लाचार चुप रहा । नन्द की मृत्यु के बाद वह इसी क्रौंचपुर में आकर यहाँ के राजा सुमित्र का मंत्री हो गया। राजा ने जब मुनिसंघ के आने का समाचार सुना तो वह उसकी वन्दना - पूजा के लिए आया, बड़ी भक्ति से उसने सब मुनियों की पूजा कर उनसे धर्मोपदेश सुना और बाद उनकी स्तुति कर वह अपने महल में लौट आया । मिथ्यात्वी सुबन्धु को चाणक्य से बदला लेने का अब अच्छा मौका मिल गया। उसने उस मुनिसंघ के चारों ओर खूब घास इकट्ठा करवा कर उसमें आग लगवा दी। मुनि संघ पर हृदय को हिला देने वाला बड़ा ही भयंकर दुःसह उपसर्ग हुआ सही, पर उसने उसे बड़ी सहन-शीलता के साथ सह लिया और अन्त में अपनी शुक्लध्यानरूपी आत्मशक्ति से कर्मों का नाश कर सिद्धगति लाभ की । जहाँ राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, दुःख, चिन्ता आदि दोष नहीं हैं और सारा संसार जिसे सबसे श्रेष्ठ समझता है ॥ ३८-४२॥ चाणक्य आदि निर्मल चारित्र के धारक ये सब मुनि अब सिद्धगति में ही सदा रहेंगे। ज्ञान के समुद्र ये मुनिराज मुझे भी सिद्धगति का सुख दें ॥४३॥
  14. जिनेन्द्र भगवान् के चरणों को नमस्कार कर पाँच सौ मुनियों पर एक साथ बीतने वाली घटना का हाल लिखा जाता है, जो कि कल्याण का कारण है ॥१॥ भरत के दक्षिण की ओर बसे हुए कुम्भकारकट नाम के पुराने शहर के राजा का नाम दण्डक और उनकी रानी का नाम सुव्रता था । सुव्रता रूपवती ओर विदुषी थी । राजमंत्री का नाम बालक था। यह पापी जैनधर्म से बड़ा द्वेष रखा करता था। एक दिन इस शहर में पाँच सौ मुनियों का संघ आया। बालक मंत्री को अपनी पंडिताई पर बड़ा अभिमान था । सो वह शास्त्रार्थ करने को मुनिसंघ के आचार्य के पास जा रहा था । रास्ते में इसे एक खण्डक नाम के मुनि मिल गए। सो उन्हीं से आप झगड़ा करने को बैठ गया और लगा अन्ट-सन्ट बकने । तब मुनि ने उसकी युक्तियों का अच्छी तरह खण्डन कर स्याद्वाद-सिद्धान्त का इस शैली से प्रतिपादन किया कि बालक मंत्री का मुँह बन्द हो गया, उनके सामने फिर उससे कुछ बोलते न बना। तब उसे लज्जित हो घर लौट आना पड़ा। इस अपमान की आग उसके हृदय में खूब धधकी । उसने तब इसका बदला चुकाने की ठानी। इसके लिए उसने यह युक्ति की कि एक भाँड को छल से मुनि बनाकर सुव्रता रानी के महल में भेजा । यह भाँड रानी के पास जाकर उससे भला-बुरा हँसी-मजाक करने लगा । इधर उसने यह सब लीला राजा को भी बतला दी और कहा - महाराज, आप इन लोगों की इतनी भक्ति करते हैं, सदा इनकी सेवा में लगे रहते हैं, तो क्या यह सब इसी दिन के लिए है? जरा आँखें खोलकर देखिए कि सामने क्या हो रहा है? उस भाँड की लीला देखकर मूर्खराज दण्डक के क्रोध का कुछ पार न रहा। क्रोध से अन्धे होकर उसने उसी समय हुक्म दिया कि जितने मुनि इस समय मेरे शहर में मौजूद हों, उन सबको घानी में पेल दो। पापी मंत्री तो इसी पर मुँह धोये बैठा था । सो राजाज्ञा होते ही उसने पलभर का भी विलम्ब करना उचित न समझ मुनियों के पेले जाने की सब व्यवस्था फौरन जुटा दी। देखते-देखते वे सब मुनि घानी में पेल दिये गए। बदला लेकर बालक मंत्री की आत्मा सन्तुष्ट हुई । सच है-जो पापी होते हैं, जिन्हें दुर्गतियों में दुःख भोगना है, वे मिथ्यात्वी लोग भयंकर पाप करने में जरा भी नहीं हिचकते । चाहे फिर उस पाप के फल से उन्हें जन्म-जन्म में क्यों न कष्ट सहना पड़े। जो हो, मुनिसंघ पर इस समय बड़ा ही घोर और दुःसह उपद्रव हुआ। पर वे साहसी धन्य हैं, जिन्होंने जबान से चूँ तक न निकाल कर सब कुछ बड़े साहस के साथ सह लिया । जीवन की इस अन्तिम कसौटी पर वे खूब तेजस्वी उतरे । उन मुनियों ने शुक्लध्यानरूपी अपनी महान् आत्मशक्ति से कर्मों का, जो कि आत्मा के पक्के दुश्मन हैं, नाश कर मोक्ष लाभ किया ॥२-११॥ दिपते हुए सुमेरु के समान स्थिर, कर्मरूपी मैल को, जो कि आत्मा को मलिन करने वाला हैं, नाश करने वाले और देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों, राजाओं और महाराजाओं द्वारा पूजा किए गए जिन मुनिराजों ने संसार का नाश कर मोक्ष लाभ किया वे मेरा भी संसार - भ्रमण मिटावें ॥१२॥
  15. सर्वोच्च धर्म का उपदेश करने वाले श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर धन्य नाम के मुनि की कथा लिखी जाती है, जो पढ़ने या सुनने से सुख प्रदान करने वाली है ॥१॥ जम्बूद्वीप पूर्व की ओर बसे हुए विदेह क्षेत्र की प्रसिद्ध राजधानी वीतशोकपुर का राजा अशोक बड़ा ही लोभी राजा हो चुका है। जब फसल काटकर खेतों पर खले किए जाते थे तब वह बेचारे बैलों का मुँह बँधवा दिया करता और रसोई घर में रसोई बनाने वाली स्त्रियों के स्तन बँधवा कर उनके बच्चे को दूध न पीने देता था, सच है, लोभी मनुष्य कौन सा पाप नहीं करते? ॥२-५॥ एक दिन अशोक के मुँह में कोई ऐसी बीमारी हो गई जिससे उसका असर उसके सिर में आ गया। सिर में हजारों फोड़े-फुंसी हो गए। उससे उसे बड़ा कष्ट होने लगा। उसने उस रोग की औषधि बनवाई वह उसे पीने को ही था कि इतने में अपने चरणों से पृथ्वी को पवित्र करते हुए मुनि आहार के लिए इसी ओर आ निकले। भाग्य से यह मुनि भी राजा की तरह इसी माह रोग से पीड़ित हो रहे थे। इन तपस्वी मुनि की यह कष्टमय दशा देखकर राजा ने सोचा कि जिस रोग से मैं कष्ट पा रहा हूँ, जान पड़ता है उसी रोग से ये तपोनिधि भी दुःखी है। यह सोचकर या दया से प्रेरित होकर राजा जिस दवा को स्वयं पीने वाला था, उसे उसने मुनिराज को पिला दिया और वैसा ही उन्हें पथ्य भी दिया। दवा ने बहुत लाभ किया। बारह वर्ष का यह मुनि का महारोग थोड़े ही समय में मिट गया, मुनि भले चंगे हो गए ॥६-११॥ अशोक जब मरा तो इस पुण्य के फल से वह अमलकण्ठपुर के राजा निष्ठसेन की रानी नन्दमती के धन्य नाम का सुन्दर गुणवान् पुत्र हुआ । धन्य को एक दिन श्रीनेमिनाथ भगवान् के पास धर्म का उपदेश सुनने को मौका मिला। वह भगवान् के द्वारा अपनी उम्र बहुत थोड़ी जानकर उसी समय सब माया-ममता छोड़ मुनि बन गया । एक दिन वह शहर में आहार के लिए गया, पर पूर्वजन्म के पाप कर्म के उदय से उसे आहार नहीं मिला। वह वैसे ही तपोवन में लौट आया। यहाँ से विहार कर वह तपस्या करता तथा धर्मोपदेश देता हुआ शौरीपुर आकर यमुना के किनारे आतापन योग द्वारा ध्यान करने लगा । इसी ओर यहाँ का राजा शिकार के लिए आया हुआ था, पर आज उसे शिकार न मिला। वह वापस अपने महल की ओर आ रहा था कि इसी समय इसकी नजर मुनि पर पड़ी। इसने समझ लिया कि बस, शिकार न मिलने का कारण इस नंगे का दीख पड़ना है, उसने यह अपशकुन किया है। यह धारणा कर इस पापी राजा ने मुनि को बाणों से खूब वेध दिया। मुनि ने तब शुक्लध्यान की शक्ति से कर्मों का नाश कर सिद्ध गति प्राप्त की । सच है, महापुरुषों की धीरता बड़ी ही चकित करने वाली होती है। जिससे महान् कष्ट के समय में भी मोक्ष प्राप्ति हो जाता है ॥१२- २०॥ वे धन्य मुनि रोग, शोक, चिन्ता आदि दोषों को नष्ट कर मुझे शाश्वत, कभी नाश न होने वाला सुख दें, जो भव्यजनों का भय मिटाने वाले हैं, संसार समुद्र से पार करने वाले हैं, देवों द्वारा पूजा किए जाते हैं, मोक्ष - महिला के स्वामी हैं, ज्ञान का समुद्र हैं और चारित्र-चूड़ामणि हैं ॥२१॥
  16. केवलज्ञान जिनका प्रकाशमान नेत्र हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर चिलातपुत्र की कथा लिखी जाती है ॥१॥ राजगृह के राजा उपश्रेणिक एक बार हवाखोरी के लिए शहर से बाहर गए । वे जिस घोड़े पर सवार थे, वह बड़ा दुष्ट था। सो उसने उन्हें एक भयानक वन में जा छोड़ा। उस वन का मालिक एक यमदण्ड नाम का भील था । उसके एक लड़की थी। उसका नाम तिलकवती था । वह बड़ी सुन्दरी थी । उपश्रेणिक उसे देखकर काम के बाणों से अत्यन्त बींधे गये । उनकी यह दशा देखकर यमदण्ड ने उनसे कहा-राजाधिराज, यदि आप इससे उत्पन्न होने वाले पुत्र को राज्य का मालिक बनाना मंजूर करें तो मैं इसे आपके साथ ब्याह सकता हूँ । उपश्रेणिक ने यमदण्ड की शर्त मंजूर कर ली। यमदण्ड ने तब तिलकवती का ब्याह उनके साथ कर दिया। वे प्रसन्न होकर उसे साथ लिये राजगृह लौट आये ॥२-७॥ बहुत दिनों तक उन्होंने तिलकवती के साथ सुख भोगा, आनन्द मनाया। तिलकवती के एक पुत्र हुआ। इसका नाम चिलातपुत्र रखा गया । उपश्रेणिक के पहली रानियों से उत्पन्न हुए और भी कई पुत्र थे। यद्यपि राज्य वे तिलकवती के पुत्र को देने का संकल्प कर चुके थे, तो भी उनके मन में यह खटका सदा बना रहता था कि कहीं इसके हाथ में राज्य जाकर धूलधानी न हो जाये । जो हो, I वे अपनी प्रतिज्ञा के न तोड़ने को लाचार थे । एक दिन उन्होंने एक अच्छे विद्वान् ज्योतिषी को बुलाकर उससे पूछा-पंडित जी, अपने निमित्तज्ञान को लगाकर मुझे आप यह समझाइए कि मेरे इन पुत्रों में राज्य का मालिक कौन होगा? ज्योतिषी जी बहुत कुछ सोच-विचार के बाद राजा से बोले- सुनिये महाराज, मैं आपको इसका खुलासा कहता हूँ । आपके सब पुत्र खीर का भोजन करने को एक जगह बिठाएँ जायें और उस समय उन पर कुत्तों का एक झुंड छोड़ा जाये। तब उन सबमें जो निडर होकर वहीं रखे हुए सिंहासन पर बैठे नगारा बजाता जाये और भोजन भी करता जाये और दूसरे कुत्तों को भी डालकर खिलाता जाये, उसमें राजा होने की योग्यता है। मतलब यह कि अपनी बुद्धिमानी से कुत्तों के स्पर्श से अछूता रहकर आप भोजन कर ले ॥८- १०॥ दूसरा निमित्त यह होगा कि आग लगने पर जो सिंहासन, छत्र, चाँवर आदि राज्यचिह्नों को निकाल सके, वह राजा हो सकेगा इत्यादि और कई बातें है, पर उनके विशेष कहने की जरूरत नहीं ॥११-१२॥ कुछ दिन बीतने पर उपश्रेणिक ने ज्योतिषी जी के बताये निमित्त की जाँच करने का उद्योग किया। उन्होंने सिंहासन के पास ही एक नगारा रखवाकर वहीं अपने सब पुत्रों को खीर खाने को बैठाया। वे जीमने लगे कि दूसरी ओर से कोई पाँच सौ कुत्तों का झुण्ड दौड़कर उन पर लपका। उन कुत्तों को देखकर राजकुमारों के तो होश गायब हो गए। वे सब चीख मारकर भाग खड़े हुए। पर हाँ एक श्रेणिक जो इन सबसे वीर और बुद्धिमान् था, उन कुत्तों से डरा नहीं और बड़ी फुरती से उठकर उसने खीर परोसी हुई बहुत-सी पत्तलों को एक ऊँची जगह रख कर आप पास ही रखे हुए सिंहासन पर बैठ गया और आनन्द से खीर खाने लगा। साथ में वह उन कुत्तों को भी थोड़ी-थोड़ी देर बाद एक एक पत्तल उठा-उठा डालता गया और नगारा बजाता गया, जिससे कि कुत्ते उपद्रव न करें ॥१३-१६॥ इसके कुछ दिनों बाद उपश्रेणिक ने दूसरे निमित्त की भी जाँच की । अब की बार उन्होंने कहीं कुछ थोड़ी-सी आग लगवा लोगों द्वारा शोरगुल करवा दिया कि राजमहल में आग लग गई। श्रेणिक ने जैसे ही आग लगने की बात सुनी वह दौड़ा गया और झटपट राजमहल से सिंहासन, चँवर आदि राज्यचिह्नों को निकाल बाहर हो गया । यही श्रेणिक आगे तीर्थंकर होगा ॥१७॥ श्रेणिक की वीरता और बुद्धिमानी देखकर उपश्रेणिक को निश्चय हो गया कि राजा यही होगा। इसी के यह योग्य भी है। श्रेणिक के राजा होने की बात तब तक कोई न जान पाए जब तक वह अपना अधिकार स्वयं अपनी भुजाओं द्वारा प्राप्त न कर ले | इसके लिए उन्हें उसके रक्षा की चिन्ता हुई। कारण उपश्रेणिक राज्य का अधिकारी तिलकवती के पुत्र चिलात को बना चुके थे और इस हाल में किसी दुश्मन को या चिलात के पक्षपातियों को यह पता लग जाता कि इस राज्य का राजा तो श्रेणिक ही होगा, तब यह असम्भव नहीं था कि वे उसे राजा होने देने के पहले ही मार डालते। इसलिए उपश्रेणिक को यह चिन्ता करना वाजिब था, समयोचित और दूरदर्शिता का था। इसके लिए उन्हें एक अच्छी युक्ति सूझ गई और बहुत जल्दी उन्होंने उसे कार्य में भी परिणत कर दिया। उन्होंने श्रेणिक के सिर पर यह अपराध मढ़ा कि उसने कुत्तों का झूठा खाया, इसलिए वह भ्रष्ट है। अब वह न तो राजघराने में ही रहने योग्य रहा और न देश में ही । इसलिए मैं उसे आज्ञा देता हूँ कि वह बहुत जल्दी राजगृह से बाहर हो जाये । सच है पुण्यवानों की सभी रक्षा करते हैं ॥१८-१९॥ श्रेणिक अपने पिता की आज्ञा पाते ही राजगृह से उसी समय निकल गया। वह फिर पलभर के लिए भी वहाँ न ठहरा। वहाँ से चलकर वह द्राविड़ देश की प्रधान नगरी काँची में पहुँचा। उसने अपनी बुद्धिमानी से वहाँ कोई ऐसा वसीला लगा लिया जिससे उसके दिन बड़े सुख से कटने लगे ॥२०॥ इधर उपश्रेणिक कुछ दिनों तक तो और राजकाज चलाते रहे। इसके बाद कोई ऐसा कारण उन्हें देख पड़ा जिससे संसार और विषयभोगों से वे बहुत उदासीन हो गए। अब उन्हें संसार का वास एक बहुत ही पेचीला जाल जान पड़ने लगा। उन्होंने तब अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार चिलातपुत्र को राजा बनाकर सब जीवों का कल्याण करने वाला मुनिपद ग्रहण कर लिया ॥२१-२२॥ चिलात - पुत्र राजा हो गया, पर उसका जाति - स्वभाव न गया और ठीक भी है कौए को मोर के पांख भले ही लगा दिये जायें, पर वह मोर न बनकर रहेगा कौआ का कौआ ही। यही दशा चिलातपुत्र की हुई। वह राजा बना भी दिया गया तो क्या हुआ, उसमें अगत के तो कुछ गुण नहीं थे, तब वह राजा होकर भी क्या बड़ा कहला सका? नहीं। अपने जाति स्वभाव के अनुसार प्रजा को कष्ट देना, उस पर जबरन जोर-जुल्म करना उसने शुरू किया । यह एक साधारण बात है कि अन्यायी का कोई साथ नहीं देता और यही कारण हुआ कि मगध की प्रजा की श्रद्धा उस पर से बिल्कुल ही उठ गई । सारी प्रजा उससे हृदय से नफरत करने लगी । प्रजा का पालक होकर जो राजा उसी पर अन्याय करे तब उससे बढ़कर और दुःख की बात क्या हो सकती है? ॥२३॥ परन्तु इसके साथ यह भी बात है कि प्रकृति अन्याय को नहीं सहती । अन्यायी को अपने अन्याय का फल तुरन्त मिलता है । चिलातपुत्र के अन्याय की डुगडुगी चारों ओर पिट गई । श्रेणिक को जब यह बात सुन पड़ी तब उससे चिलातपुत्र का प्रजा पर जुल्म करना न सहा गया। वह उसी समय मगध की ओर रवाना हुआ। जैसे ही प्रजा को श्रेणिक के राजगृह आने की खबर लगी उसने उसका एकमत होकर साथ दिया । प्रजा की इस सहायता से श्रेणिक ने चिलात को राज्य से बाहर निकाल आप मगध का सम्राट् बना। सच है, राजा होने के योग्य वही पुरुष है जो प्रजा का पालन करने वाला हो। जिसमें यह योग्यता नहीं वह राजा नहीं किन्तु इस लोक में तथा परलोक में अपनी कीर्ति का नाश करने वाला है | २४ - २५॥ चिलात पुत्र मगध से भागकर एक वन में जाकर बसा । वहाँ उसने एक छोटा-मोटा किला बनवा लिया और आसपास के छोटे-छोटे गाँवों से जबरदस्ती कर वसूल कर आप उनका मालिक बन बैठा। इसका भर्तृमित्र नाम का एक मित्र था । भर्तृमित्र के मामा रुद्रदत्त के एक लड़की थी । सो भर्तृमित्र ने अपने मामा से प्रार्थना की-वह अपनी लड़की का ब्याह चिलातपुत्र के साथ कर दे। उसकी बात पर कुछ ध्यान न देकर रुद्रदत्त चिलातपुत्र को लड़की देने से साफ मुकर गया। चिलातपुत्र से अपना वह अपमान न सहा गया। वह छुपा हुआ राजगृह में पहुँचा और विवाहित स्नान करती हुई सुभद्रा को उठा चलता बना। जैसे ही यह बात श्रेणिक के कानों में पहुँची वह सेना लेकर उसके पीछे दौड़ा। चिलातपुत्र ने जब देखा कि अब श्रेणिक के हाथ से बचना कठिन है, तब उस दुष्ट निर्दयी ने बेचारी सुभद्रा को जान से मार डाला और आप जान बचाकर भागा । वह वैभारपर्वत पर से जा रहा था कि उसे वहाँ एक मुनियों का संघ देख पड़ा । चिलातपुत्र दौड़ा हुआ संघाचार्य श्री मुनिदत्त मुनिराज के पास पहुँचा और उन्हें हाथ जोड़ सिर नवा उसने प्रार्थना की कि प्रभो, मुझे तप दीजिए, जिससे मैं अपना हित कर सकूँ । आचार्य ने तब उससे कहा-प्रिय, तूने बड़ा अच्छा सोचा 'तू तप लेना चाहता है। तेरी आयु अब सिर्फ आठ दिन की रह गई है। ऐसे समय जिनदीक्षा लेकर तुझे अपना हित करना उचित ही है। मुनिराज से अपनी जिन्दगी इतनी थोड़ी सुन उनसे उसी समय तप ले लिया जो संसार-समुद्र से पार करने वाला है। चिलातपुत्र तप लेने के साथ ही प्रायोपगमन संन्यास ले धीरता से आत्मभावना भाने लगा। इधर उसके पकड़ने को पीछे आने वाले श्रेणिक ने वैभारपर्वत पर आकर उसे इस अवस्था में जब देखा तब उसे चिलातपुत्र की इस धीरता पर बड़ा चकित होना पड़ा। श्रेणिक ने तब उसके इस साहस की बड़ी तारीफ की। इसे बाद वह उसे नमस्कार कर राजगृह लौट आया । चिलातपुत्र ने जिस सुभद्रा को मार डाला था, वह मरकर व्यन्तर देवी हुई । उसे जान पड़ा कि मैं चिलातपुत्र द्वारा बड़ी निर्दयता से मारी गई हूँ । मुझे भी तब अपने बैर का बदला लेना ही चाहिए । यह सोचकर वह चील का रूप ले चिलात मुनि के सिर पर आकर बैठ गई उसने मुनि को कष्ट देना शुरू किया। पहले उसने चोंच से उनकी दोनों आँखें निकाल लीं और बाद मधुमक्खी बनकर वह उन्हें काटने लगी। आठ दिन तक उन्हें उसने बेहद कष्ट पहुँचाया। चिलातमुनि ने विचलित न हो इस कष्ट को बड़े शान्ति से सहा। अन्त में समाधि से मरकर उसने सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की ॥२६-४०॥ जिस वीरों के वीर और गुणों की खान चिलात मुनि ने ऐसा दुःसह उपसर्ग सहकर भी अपना धैर्य नहीं छोड़ा और जिनेन्द्र भगवान् के चरणों का, जो कि देवों द्वारा भी पूज्य हैं, खूब मन लगाकर ध्यान करते रहे और अन्त में जिन्होंने अपने पुण्यबल से सर्वार्थसिद्धि प्राप्त की वे मुझे भी मंगल दें ॥ २६-४१॥
  17. जिनकी कृपा से केवलज्ञानरूपी लक्ष्मी प्राप्त हो सकती है, उन पंच परमेष्ठी - अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधुओं को नमस्कार कर गुरुदत्त मुनि का पवित्र चरित लिखा जाता है ॥१॥ गुरुदत्त हस्तिनापुर के धर्मात्मा राजा विजयदत्त की रानी विजया के पुत्र थे। बचपन से ही इनकी प्रकृति में गम्भीरता, धीरता, सरलता तथा सौजन्यता थी । सौन्दर्य में भी वे अद्वितीय थे। अस्तु, पुण्य की महिमा अपरम्पार है ॥२- ३॥ विजयदत्त अपना राज्य गुरुदत्त को सौंपकर स्वयं मुनि हो गए और आत्महित करने लगे। राज्य की बागडोर गुरुदत्त ने अपने हाथ में लेकर बड़ी सावधानी और नीति के साथ शासन आरम्भ किया। प्रजा उनसे बहुत खुश हुई वह अपने नये राजा को हजार-हजार साधुवाद देने लगी। दुःख किसे कहते हैं, यह बात गुरुदत्त की प्रजा जानती ही न थी । कारण - किसी को कुछ, थोड़ा भी कष्ट होता था तो गुरुदत्त फौरन ही उसकी सहायता करता । तन से, मन से और धन से वह सभी के काम आता था ॥४॥ लाट देश में द्रोणीमान पर्वत के पास चन्द्रपुरी नाम की एक सुन्दर नगरी बसी हुई थी। उसके राजा थे चन्द्रकीर्ति। उनकी रानी का नाम चन्द्रलेखा था । उनके अभयमती नाम की एक पुत्री थी । गुरुदत्त ने चन्द्रकीर्ति से अभयमती के लिए प्रार्थना की कि वे अपनी कुमारी का ब्याह उसके साथ कर दें परन्तु चन्द्रकीर्ति ने उनकी इस बात से साफ इनकार कर दिया, वे गुरुदत्त के साथ अभयमती का ब्याह करने को राजी न हुए। गुरुदत्त ने इससे कुछ अपना अपमान हुआ समझा । चन्द्रकीर्ति पर उसे गुस्सा आया। उसने उसी समय चन्द्रपुरी पर चढ़ाई कर दी और उसे चारों ओर से घेर लिया। कुमारी अभयमती गुरुदत्त पर पहले ही से मुग्ध थी और जब उसने उसके द्वारा चन्द्रपुरी का घेरा जाना सुना तो वह अपने पिता के पास आकर बोली- पिताजी ! अपने सम्बन्ध में मैं आपसे कुछ कहना उचित नहीं समझती, पर मेरे संसार को सुखमय होने में कोई बाधा या विघ्न न आए। इसलिए कहना या प्रार्थना करना उचित जान पड़ता है क्योंकि मुझे दुःख में देखना तो आप सपने में भी पसन्द नहीं करेंगे। वह प्रार्थना यह है कि आप गुरुदत्त जी के साथ ही मेरा ब्याह कर दें, इसी में मुझे सुख होगा । उदार-हृदय चन्द्रकीर्ति ने अपनी पुत्री की बात मान ली। इसके बाद अच्छा दिन देख खूब आनन्दोत्सव के साथ उन्होंने अभयमती का ब्याह गुरुदत्त के साथ कर दिया। इस सम्बन्ध से कुमार और कुमारी दोनों ही सुखी हुए। दोनों की मनचाही बात पूरी हुई ॥५ - ९॥ ऊपर जिस द्रोणीमान पर्वत का उल्लेख हुआ है, उसमें एक बड़ा भयंकर सिंह रहता था। उसने सारे शहर को बहुत ही आतंकित कर रखा था। सबके प्राण सदा मुट्ठी में रहा करते थे। कौन जाने कब आकर सिंह खा ले, इस चिन्ता से सब हर समय घबराए हुए से रहते थे। इस समय कुछ लोगों ने गुरुदत्त से जाकर प्रार्थना की कि राजाधिराज, इस पर्वत पर एक बड़ा भारी हिंसक सिंह रहता है। उससे हमें बड़ा कष्ट है इसलिए आप कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे हम लोगों का कष्ट दूर हो ॥१०-११॥ गुरुदत्त उन लोगों को धीरज बँधाकर आप अपने कुछ वीरों को साथ लिए पर्वत पर पहुँचा। सिंह को उसने सब ओर से घेर लिया। पर मौका पाकर वह भाग निकला और जाकर एक अँधेरी गुफा में घुसकर छिप गया। गुरुदत्त ने तब इस मौके को अपने लिए और भी अच्छा समझा। उसने उसी समय बहुत से लकड़े गुफा में भरवाकर सिंह के निकलने का रास्ता बन्द कर दिया और बाहर गुफा के मुँह पर भी एक लकड़ों का ढेर लगवा कर उसमें आग लगवा दी। लकड़ों की खाक के साथ-साथ उस सिंह की भी देखते-देखते खाक हो गयी। सिंह बड़े कष्ट के साथ मरकर इसी चन्द्रपुरी में भरत नाम के ब्राह्मण की विश्वदेवी स्त्री के कपिल नाम का लड़का हुआ। वह जन्म से ही बड़ा क्रूर हुआ और यह ठीक भी है कि पहले जैसा संस्कार होता है, वह दूसरे जन्म में भी आता है ॥१२- १५॥ इसके बाद गुरुद्रत अपनी प्रिया को लिए राजधानी में लौट आया। दोनों नव दम्पत्ति बड़े सुख से रहने लगे। कुछ दिनों बाद अभयमती के एक पुत्र ने जन्म लिया। इसका नाम रखा गया सुवर्णभद्र। यह सुन्दर था, सरलता और पवित्रता की प्रतिमा था और बुद्धिमान् था। इसीलिए सब उसे बहुत प्यार करते थे। जब उसकी उमर योग्य हो गई और सब कामों में वह होशियार हो गया तब जिनेन्द्र भगवान् के सच्चे भक्त उसके पिता गुरुदत्त ने अपना राज्यभार इसे देकर आप वैरागी बन मुनि हो गए। इसके कुछ वर्षों बाद अनेक देशों, नगरों और गाँवों में धर्मोपदेश करते, भव्य-जनों को सुलटाते एक बार चन्द्रपुरी की ओर आए ॥१६-१९॥ एक दिन गुरुदत्त मुनि कपिल ब्राह्मण के खेत पर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे। उसी समय कपिल घर पर अपनी स्त्री से यह कह कर, कि प्रिये, मैं खेत पर जाता हूँ, तुम वहाँ भोजन लेकर जल्दी आना, , खेत पर आ गया। जिस खेत पर गुरुदत्त मुनि ध्यान कर रहे थे, उसे तब जोतने योग्य न समझ वह दूसरे खेत पर जाने लगा। जाते समय मुनि से वह यह कहता गया कि मेरी स्त्री यहाँ भोजन लिए हुए आवेगी सो उसे आप कह दीजियेगा कि कपिल दूसरे खेत पर गया है। तू भोजन वहीं ले जा, सच है, मूर्ख लोग महामुनि के मार्ग को न समझ कर कभी-कभी बड़ा ही अनर्थ कर बैठते हैं। इसके बाद जब कपिल की स्त्री भोजन लेकर खेत पर आई और उसने अपने स्वामी को खेत पर न पाया तब मुनि से पूछा- - क्यों साधु महाराज, मेरे स्वामी यहाँ से कहाँ गए हैं? मुनि चुप रहे, कुछ बोले नहीं। उनसे कुछ उत्तर न पाकर वह घर पर लौट आयी । इधर समय पर समय बीतने लगा ब्राह्मण देवता भूख के मारे छटपटाने लगे पर ब्राह्मणी का अभी तक पता नहीं; यह देख उन्हें बड़ा गुस्सा आया। वे क्रोध से गुर्राते हुए घर आये और लगे बेचारी ब्राह्मणी पर गालियों की बौछार करने । राँड, मैं तो भूख के मारे मरा जाता हूँ और तेरा अभी तक आने का ठिकाना ही नहीं । उस नंगे को पूछकर खेत पर चली आती । बेचारी ब्राह्मणी घबराती हुई बोली- अजी तो इसमें मेरा क्या अपराध था । मैंने उस साधु से तुम्हारा ठिकाना पूछा। उसने कुछ न बताया तब मैं वापस घर पर आ गई। ब्राह्मण ने दाँत पीसकर कहा- हाँ, उस नंगे ने तुझे मेरा ठिकाना नहीं बताया और मैं तो उससे कह गया था । अच्छा, मैं अभी जाकर उसे उसका मजा चखता हूँ । पाठकों को याद होगा कि कपिल पहले जन्म में सिंह था और उसे इन्हीं गुरुदत्त मुनि ने राज अवस्था में जलाकर मार डाला था तब इस हिसाब से कपिल के वे शत्रु हुए। यदि कपिल को किसी तरह यह जान पड़ता कि ये मेरे शत्रु हैं, तो उस शत्रुता का बदला उसने कभी का ले लिया होता पर उसे इसके जानने का न तो कोई जरिया मिला और न था ही। तब उस शत्रुता को जाग्रत करने के लिए कपिल की स्त्री को कपिल के दूसरे खेत पर जाने का हाल जो मुनि ने न बताया, यह घटना सहायक हो गई । कपिल गुस्से से लाल होता हुआ मुनि के पास पहुँचा। वहाँ बहुत सी सेमल की रुई पड़ी हुई थी। कपिल ने उस रुई से मुनि को लपेट कर उसमें आग लगा दी। मुनि पर बड़ा उपसर्ग हुआ। पर उसे उन्होंने बड़ी धीरता से सहा । उस समय शुक्लध्यान के बल से घातिया कर्मों का नाश होकर उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हो गया। देवों ने आकर उन पर फूलों की वर्षा की, आनन्द मनाया। कपिल ब्राह्मण यह सब देखकर चकित हो गया । उसे तब जान पड़ा कि जिन साधु को मैंने अत्यन्त निर्दयता से जला डाला उनका कितना माहात्म्य था । उसे अपनी इस नीचता पर बड़ा ही पछतावा हुआ । उसने बड़ी भक्ति से भगवान् को हाथ जोड़कर अपने अपराध की उनसे क्षमा माँगी। भगवान् के उपदेश को उसने बड़े चाव से सुना । उसे वह बहुत रुचा भी । वैराग्यपूर्ण भगवान् के उपदेश ने उसके हृदय पर गहरा असर किया । वह उसी समय सब छोड़ कर अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिये मुनि हो गया। सच है, सत्पुरुषों-महात्माओं की संगति सुख देने वाली होती है। यही तो कारण था कि एक महाक्रोधी ब्राह्मण पल भर में सब छोड़कर योगी बन गया। इसलिये भव्य-जनों को सत्पुरुषों की संगति से अपने को, अपनी सन्तान को और अपने कुल को सदा पवित्र करने का यत्न करते रहना चाहिए । यह सत्संग परम सुख का कारण है ॥२० - ३४॥ वे कर्मों के जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् सदा संसार में रहें, उनका शासन चिरकाल तक जय लाभ करे जो सारे संसार को सुख देने वाले हैं, सब सन्देहों के नाश करने वाले हैं और देवों द्वारा जो पूजा स्तुति किये जाते हैं तथा दुःसह उपसर्ग आने पर भी जो मेरु की तरह स्थिर रहे और जिन्होंने अपना आत्मस्वभाव प्राप्त किया ऐसे गुरुदत्त मुनि तथा मेरे परम गुरु श्रीप्रभाचन्द्राचार्य, ये मुझे आत्मीक सुख प्रदान करें ॥३५॥
  18. सब सुखों के देने वाले और संसार में सर्वोच्च गिने जाने वाले जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर शास्त्रों के अनुसार विद्युच्चर मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥ मिथिलापुर के राजा वामरथ के राज्य में इनके समय कोतवाल के ओहदे पर एक यमदण्ड नाम का मनुष्य नियुक्त था। वहीं एक विद्युच्चर नाम का चोर रहता था । यह अपने चोरी के फन में बड़ा चलता हुआ था। सो यह क्या करता कि दिन में तो एक कोढ़ी के वेष में किसी सुनसान मन्दिर में रहता और ज्यों ही रात होती कि एक सुन्दर मनुष्य का वेष धारण कर खूब मजा - मौज मारता । यही ढंग इसका बहुत दिनों से चला आता था । पर इसे कोई पहचान न सकता था। एक दिन विद्युच्चर राजा के देखते-देखते खास उन्हीं के हार को चुरा लाया । पर राजा से तब कुछ भी न बन पड़ा। सुबह उठकर राजा ने कोतवाल को बुलाकर कहा- देखो, कोई चोर अपनी सुन्दर वेषभूषा से मुझे मुग्ध बनाकर मेरा रत्न-हार उठा ले गया है। इसलिए तुम्हें हिदायत की जाती है कि सात दिन के भीतर उस हार को या उसके चुरा ले जाने वाले को मेरे सामने उपस्थित करो, नहीं तो तुम्हें इसकी पूरी सजा भोगनी पड़ेगी। जान पड़ता है तुम अपने कर्तव्य पालन में बहुत त्रुटि करते हों । नहीं तो राजमहल में से चोरी हो जाना कोई कम आश्चर्य की बात नहीं है । " हुक्म हुजूर का” कहकर कोतवाल चोर के ढूँढ़ने को निकला। उसने सारे शहर की गली - कूँची, घर-बार आदि एक-एक करके छान डाला, पर उसे चोर का पता कहीं न चला। ऐसे उसे छह दिन बीत गए। सातवें दिन वह फिर घर से बाहर हुआ। चलते- चलते उसकी नजर एक सुनसान मन्दिर पर पड़ी। वह उसके भीतर घुस गया। वहाँ उसने एक कोढ़ी को पड़ा पाया। उस कोढ़ी का रंग ढंग देखकर कोतवाल को कुछ सन्देह हुआ। उसने उससे कुछ बातचीत इस ढंग से की कि जिससे कोतवाल उसके हृदय का कुछ पता पा सके। यद्यपि उस बातचीत से कोतवाल को जैसी चाहिए थी वैसी सफलता न हुई, पर तब भी उसके पहले शक को सहारा अवश्य मिला। कोतवाल उस कोढ़ी को राजा के पास ले गया और बोला - महाराज, आपके हार का चोर है। राजा के पूछने पर उस कोढ़ी ने साफ इनकार कर दिया कि मैं चोर नहीं हूँ। मुझे ये जबरदस्ती पकड़ लाये है। राजा ने कोतवाल की ओर नजर की। कोतवाल ने फिर भी दृढ़ता के साथ कहा कि महाराज, यही चोर है । इसमें कोई सन्देह नहीं। कोतवाल को बिना कुछ सबूत के इस प्रकार जोर देकर कहते देखकर कुछ लोगों के मन में यह विश्वास जम गया कि यह अपनी रक्षा के लिए जबरन इस बेचारे गरीब भिखारी को चोर बताकर सजा दिलवाना चाहता है । उसकी रक्षा हो जाए, इस आशय से उन लोगों ने राजा से प्रार्थना की कि महाराज, कहीं ऐसा न हो कि बिना ही अपराध के इस गरीब भिखारी को कोतवाल साहब की मार खाकर बेमौत मर जाना पड़े और इसमें कोई सन्देह नहीं कि ये इसे मारेंगे अवश्य । तब कोई ऐसा उपाय कीजिए, जिससे अपना हार भी मिल जाए और बेचारे गरीब की जान भी न जाए। जो हो, राजा ने उन लोगों की प्रार्थना पर ध्यान दिया या नहीं, पर यह स्पष्ट है कि कोतवाल साहब उस गरीब कोढ़ी को अपने घर लिवा ले गए और जहाँ तक उनसे बन पड़ा। उन्होंने उसके मारने पीटने, सजा देने, बाँधने आदि में कोई कसर न की। वह कोढ़ी इतने दुःसह कष्ट दिये जाने पर भी हर बार यही कहता रहा कि मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ। दूसरे दिन कोतवाल ने फिर उसे राजा के सामने खड़ा करके कहा - महाराज, यही पक्का चोर है। कोढ़ी ने फिर भी यही कहा कि महाराज मैं हर्गिज चोर नहीं हूँ । सच है, चोर बड़े ही कट्टर साहसी होते हैं॥२-१५॥ तब राजा ने उससे कहा- अच्छा, मैं तेरा सब अपराध क्षमा कर तुझे अभय देता हूँ, तू सच्चा- सच्चा हाल कर दे कि तू चोर है या नहीं? राजा से जीवनदान पाकर उस कोढ़ी या विद्युच्चर ने कहा- यदि ऐसा है तो लीजिए कृपानाथ, मैं सब सच्ची बात आपके सामने प्रकट करे देता हूँ। यह कहकर वह बोला-राजाधिराज, अपराध क्षमा हो । वास्तव में मैं ही चोर हूँ । आपके कोतवाल साहब का कहना सत्य है। सुनकर राजा चकित हो गए। उन्होंने तब विद्युच्चर से पूछा - जब तू चोर था तब फिर तूने इतनी मारपीट कैसे सह ली रे? विद्युच्चर बोला-महाराज, इसका तो कारण यह है कि मैंने एक मुनिराज द्वारा नरकों के दुःखों का हाल सुन रखा था। तब मैंने विचारा कि नरकों के दुःखों में और इन दुःखों में तो पर्वत और राई का सा अन्तर है और जब मैंने अनन्त बार नरकों के भयंकर दुःख, जिनके कि सुनने मात्र से ही छाती दहल उठती है, सहे है तब इन तुच्छ, ना कुछ चीज दुःखों का सह लेना कौन बड़ी बात है! यही विचार कर मैंने सब कुछ सहकर चूँ तक भी नहीं की। विद्युच्चर से उसकी सच्ची घटना सुनकर राजा ने खुश होकर उसे वर दिया कि तुझे 'जो कुछ माँगना हो माँग’। मुझे तेरी बातें सुनने से बड़ी प्रसन्नता हुई तब विद्युच्चर ने कहा- महाराज, आपकी इस कृपा का मैं अत्यन्त उपकृत हूँ। इस कृपा के लिए आप जो कुछ मुझे देना चाहते हैं वह मेरे मित्र इन कोतवाल साहब को दीजिए। राजा सुनकर और भी अधिक अचम्भे में पड़ गए। उन्होंने विद्युच्चर से कहा- क्यों यह तेरा मित्र कैसे है ? विद्युच्चर ने तब कहा - सुनिए महाराज, मैं सब आपको खुलासा सुनाता हूँ। यहाँ से दक्षिण की ओर आभीर प्रान्त में बहने वाली वेना नदी के किनारे पर बेनातट नाम का एक शहर बसा हुआ है। उसके राजा जितशत्रु और उनकी रानी जयावती ये मेरे माता-पिता हैं । मेरा नाम विद्युच्चर है। मेरे शहर में एक यमपाश नाम के कोतवाल थे। उनकी स्त्री यमुना थी। ये आपके कोतवाल यमदण्ड साहब उन्हीं के पुत्र है। हम दोनों एक ही गुरु के पास पढ़े हुए है। इसलिए तभी से मेरी इनके साथ मित्रता है। विशेषता यह है कि इन्होंने तो कोतवाली सम्बन्धी शास्त्राभ्यास किया था और मैंने चौर्यशास्त्र का । यद्यपि मैंने यह विद्या केवल विनोद के लिए पढ़ी थी, तथापि एक दिन हम दोनों अपनी-अपनी चतुरता की तारीफ कर रहे थे; तब मैंने जरा घमण्ड के साथ कहा-भाई, मैं अपने फन में कितना होशियार हूँ, इसकी परीक्षा मैं इसी से कराऊँगा कि जहाँ तुम कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त होगे, वहीं मैं आकर चोरी करूँगा । तब इन महाशय ने कहा- अच्छी बात है, मैं भी उसी जगह रहूँगा जहाँ तुम चोरी करोगे और मैं तुमसे शहर की अच्छी तरह रक्षा करूँगा। तुम्हारे द्वारा मैं उसे कोई तरह की हानि न पहुँचने दूँगा ॥१६-२९॥ इसके कुछ दिनों बाद मेरे पिता जितशत्रु मुझे सब राजभार दे जिनदीक्षा ले गए। मैं तब राजा हुआ और इनके पिता यमपाश भी तभी जिनदीक्षा लेकर साधु बन गए । इनके पिता की जगह तब इन्हें मिली। पर ये मेरे डर के मारे मेरे शहर में न रहकर यहाँ कोतवाली के ओहदे पर नियुक्त हुए। मैं अपनी प्रतिज्ञा के वश चोर बनकर इन्हें ढूंढ़ने को यहाँ आया । यह कहकर फिर विद्युच्चर ने उनके हार के चुराने के सब बातें कह सुनाई और फिर यमदण्ड को साथ लिए वह अपने शहर में आ गया ॥३०-३४॥ विद्युच्चर को इस घटना से बड़ा वैराग्य हुआ । उसने राजमहल में पहुँचते ही अपने पुत्र को बुलाया और उसके साथ जिनेन्द्र भगवान् का पूजा-अभिषेक किया। इसके बाद वह सब राजभार पुत्र को सौंपकर आप बहुत से राजकुमारों के साथ जिनदीक्षा ले मुनि बन गया ॥३५-३६॥ यहाँ से विहार कर विद्युच्चर मुनि अपने सारे संघ को साथ लिए देश विदेशों में बहुत घूमे- फिरे । बहुत से बे-समझ या मोह-माया में फँसे हुए जनों को इन्होंने आत्महित के मार्ग पर लगाया और स्वयं भी काम, क्रोध, लोभ, राग, द्वेषादि आत्मशत्रुओं का प्रभुत्व नष्ट कर उन पर विजय लाभ किया। आत्मोन्नति के मार्ग में दिन ब दिन बेरोक-टोक ये बढ़ने लगे। एक दिन घूमते-फिरते ये ताम्रलिप्तपुरी की ओर आए। अपने संघ के साथ वे पुरी में प्रवेश करने को ही थे कि इतने में वहाँ की चामुण्डा देवी ने आकर भीतर घुसने से इन्हें रोका और कहा - योगिराज, जरा ठहरिए, अभी मेरी पूजाविधि हो रही है। इसलिए जब तक वह पूरी न हो जाये तब तक आप यहीं ठहरें, भीतर न जायें । देवी के इस प्रकार मना करने पर भी अपने शिष्यों के आग्रह से वे न रुककर भीतर चले गए और पुरी के पश्चिम तरफ के परकोटे के पास कोई पवित्र जगह देखकर वहीं सारे संघ ने ध्यान करना शुरू कर दिया। अब तो देवी के क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उसने अपनी माया से कोई कबूतर के बराबर डाँस तथा मच्छर आदि खून पीने वाले जीवों की सृष्टि रचकर मुनि पर घोर उपद्रव किया। विद्युच्चर मुनि ने इस कष्ट को बड़ी शान्ति से सह कर बारह भावनाओं के चिन्तन से अपने आत्मा को वैराग्य की ओर खूब दृढ़ किया और अन्त में शुक्ल - ध्यान के बल से कर्मों का नाश कर अक्षय और अनन्त मोक्ष के सुख को अपनाया ॥३७-४५॥ उन देवों, विद्याधरों, चक्रवर्तियों तथा राजाओं - महाराजाओं द्वारा, जो अपने मुकुटों में जड़े हुए बहुमूल्य दिव्य रत्नों की कान्ति से चमक रहे हैं, बड़ी भक्ति से पूजा किए गए और केवलज्ञान से विराजमान वे विद्युच्चर मुनि मुझे और आप भव्य-जनों को मंगल-मोक्ष सुख दें, जिससे संसार का भटकना छूटकर शान्ति मिले ॥४६॥
  19. देवों द्वारा पूजा भक्ति किए गए जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर अभयघोष मुनिका चरित्र लिखा जाता है ॥१॥ अभयघोष काकन्दी के राजा थे उनकी रानी का नाम अभयमती था। दोनों में परस्पर बहुत प्यार था। एक दिन अभयघोष घूमने को जंगल में गए हुए थे। इस समय एक मल्लाह एक बहुत बड़े और जीवित कछुए के चारों पाँव बाँध कर उसे लकड़ी में लटकाये हुए लिए जा रहा था। पापी अभयघोष की उस पर नजर पड़ गई उन्होंने मूर्खता के वश हो अपनी तलवार से उसके चारों पाँवों को काट दिया। बड़े दुःख की बात है कि पापी लोग बेचारे ऐसे निर्दोष जीवों को निर्दयता के साथ मार डालते हैं और न्याय-अन्याय का कुछ विचार नहीं करते! कछुआ उसी समय तड़फड़ा कर गत प्राण हो गया। मरकर वह अकाम - निर्जरा के फल से इन्हीं अभयघोष के यहाँ चंडवेग नाम का पुत्र हुआ ॥२-६॥ एक दिन राजा को चन्द्र ग्रहण देखकर वैराग्य हुआ । उन्होंने विचार किया जो एक महान् तेजस्वी ग्रह है, जिसकी तुलना कोई नहीं कर सकता और जिसकी गणना देवों में है, वह भी जब दूसरों से हार खा जाता है तब मनुष्यों की तो बात ही क्या ? जिनके सिर पर काल सदा चक्कर लगाता रहता है। हाय, मैं बड़ा ही मूर्ख हूँ जो आज तक विषयों में फँसा रहा और कभी अपने हित की ओर मैंने ध्यान नहीं दिया। मोह रूपी गाढ़े अँधेरे ने मेरी दोनों आँखों को ऐसा अन्धा बना डाला, जिससे मुझे अपने कल्याण का रास्ता देखने या उस पर सावधानी के साथ चलने को सूझ ही न पड़ा। इसी मोह के पापमय जाल में फँस कर मैंने जैनधर्म से विमुख होकर अनेक पाप किए। हाय, मैं अब इस संसाररूपी अथाह समुद्र को पार कर सुखमय किनारे को कैसे प्राप्त कर सकूँगा? प्रभो, मुझे शक्ति प्रदान कीजिए, जिससे मैं आत्मिक सच्चा सुख पा सकूँ । इस विचार के बाद उन्होंने निश्चित किया कि जो हुआ सो हुआ । अब भी मुझे अपने कर्तव्य के लिए बहुत समय है। जिस प्रकार मैंने संसार में रहकर विषय सुख भोगा, शरीर और इन्द्रियों को खूब सन्तुष्ट किया, उसी तरह अब मुझे अपने आत्महित के लिए कड़ी से कड़ी तपस्या कर अनादि काल से पीछा किए हुए इन आत्मशत्रुरूपी कर्मों का नाश करना उचित हैं, यही मेरे पहले किए कर्मों का पूर्ण प्रायश्चित्त है और ऐसा करने से ही मैं शिवरमणी के हाथों का सुख - स्पर्श कर सकूँगा । इस प्रकार स्थिर विचार कर अभयघोष ने सब राजभार अपने कुँवर चण्डवेग को सौंप जिन दीक्षा ग्रहण कर ली, जो कि इन्द्रियों को विषयों की ओर से हटाकर उन्हें आत्मशक्ति के बढ़ाने को सहायक बनाती है। इसके बाद अभयघोष मुनि संसार-समुद्र से पार करने वाले और जन्म-जरा-मृत्यु को नष्ट करने वाले अपने गुरु महाराज को नमस्कार कर और उनकी आज्ञा ले देश विदेशों में धर्मोपदेशार्थ अकेले ही विचार कर गए। इसके कितने वर्षों बाद वे घूमते-फिरते फिर एक बार अपनी राजधानी काकन्दी की ओर आ निकले। एक दिन वे वीरासन से तपस्या कर रहे थे। इसी समय उनका पुत्र चण्डवेग इस ओर आ निकला। पाठकों को याद होगा कि चण्डवेग की और इसके पिता अभयघोष की शत्रुता है। कारण चण्डवेग पूर्व जन्म में कछुआ था और उसके पाँव अभयघोष न काट डाले थे। चण्डवेग की जैसे ही इन पर नजर पड़ी उसे अपने पूर्व की घटना याद आ गई उसने क्रोध से अन्धे होकर उनके भी हाथ पाँवों को काट डाला। सच है धर्महीन अज्ञानी जन कौन पाप नहीं कर डालते ॥७-१६॥ अभयघोष मुनि पर महान् उपसर्ग हुआ, पर वे तब भी मेरु के समान अपने कर्तव्य में दृढ़ बने रहे। अपने आत्मध्यान से वे रत्तीभर भी न डिगे। इसी ध्यान बल से केवलज्ञान प्राप्त कर अन्त में उन्होंने अक्षयान्त मोक्ष लाभ किया। सच है, आत्मशक्ति बड़ी गहन है, आश्चर्य पैदा करने वाली है। देखिए कहाँ तो अभयघोष मुनि पर दुःसह कष्ट का आना और कहाँ मोक्ष प्राप्ति का कारण दिव्य आत्मध्यान ॥१७-१८॥ सत्पुरुषों द्वारा सेवा किए गए वे अभयघोष मुनि मुझे भी मोक्ष का सुख दें, जिन्होंने दुःसह परीषह को जीता, आत्मशत्रु राग, द्वेष, मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि को नष्ट किया और जन्म-जन्म में दारुण दुःखों के देने वाले कर्मों का क्षय कर मोक्ष का सर्वोच्च सुख, जिस सुख की कोई तुलना नहीं कर सकता, प्राप्त किया ॥१९॥
  20. संसार के सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थों को देखने जानने के लिए केवलज्ञान जिनका सर्वोत्तम नेत्र है और जो पवित्रता की प्रतिमा और सब सुखों के दाता हैं, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर कार्तिकेय मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥ कार्तिकपुर के राजा अग्निदत्त की रानी वीरवती के कृतिका नाम की एक लड़की थी। एक बार अठाई के दिनों में उसने आठ दिन के उपवास किए। अन्त के दिन वह भगवान् की पूजा कर शेषा को- भगवान् के लिए चढ़ाई फूलमाला को लाई । उसे उसने अपने पिता को दिया। उस समय उसकी दिव्य रूपराशि को देखकर उसके पिता अग्निदत्त की नियत ठिकाने न रही। काम के वश हो उस पापी ने बहुत से अन्य धर्मी और कुछ जैन साधुओं को इकट्ठा कर उनसे पूछा -योगी-महात्माओं, आप कृपा कर मुझे बतलावें कि मेरे घर में पैदा हुए रत्न का मालिक मैं ही हो सकता हूँ या कोई और? राजा का प्रश्न पूरा होता है कि सब ओर से एक ही आवाज आई कि महाराज, उस रत्न के तो आप ही मालिक हो सकते हैं, न कि दूसरा। पर जैन साधुओं ने राजा के प्रश्न पर कुछ गहरा विचार कर इस रूप में राजा के प्रश्न का उत्तर दिया- राजन्, यह बात ठीक है कि अपने यहाँ उत्पन्न हुए रत्न के मालिक आप हैं, पर एक कन्या-रत्न को छोड़कर। उसकी मालिकी पिता के नाते से ही आप कर सकते हैं और रूप में नहीं। जैन साधुओं का यह हित भरा उत्तर राजा को बड़ा बुरा लगा और लगना ही चाहिए क्योंकि पापियों को हित की बात कब सुहाती है? राजा ने गुस्सा होकर उन मुनियों को देश बाहर कर दिया और अपनी लड़की के साथ स्वयं ब्याह कर लिया । सच है, जो पापी हैं, कामी हैं जिन्हें आगामी दुर्गतियों में दुःख उठाना है, उसमें कहाँ धर्म, कहाँ लाज, कहाँ नीति-सदाचार और कहाँ सुबुद्धि ? ॥२-९॥ कुछ दिनों बाद कृतिका के दो सन्तान हुई एक पुत्र और एक पुत्री । पुत्र का नाम रखा कार्तिकेय और पुत्री का नाम वीरमती । वीरमती बड़ी खूबसूरत थी । उसका ब्याह रोहेड़ नगर के राजा क्रोंच के साथ हुआ। वीरमती वहाँ रहकर सुख के साथ दिन बिताने लगी ॥१०-११॥ इधर कार्तिकेय भी बड़ा हुआ। अब उसकी उम्र कोई १४ वर्ष की हो गई थी। एक दिन वह अपने साथी राजकुमारों के साथ खेल रहा था। वे सब अपने नाना के यहाँ से आए हुए अच्छे-अच्छे कपड़े और आभूषण पहने हुए थे। पूछने पर कार्तिकेय को ज्ञात हुआ कि वे वस्त्राभरण उन सब राजकुमारों के नाना-मामा के यहाँ से आए हैं। तब उसने अपनी माँ से जाकर पूछा- क्यों माँ! मेरे साथी राजपुत्रों के लिए तो उनके नाना-मामा अच्छे-अच्छे वस्त्राभरण भेजते हैं, भला फिर मेरे नाना-मामा मेरे लिए क्यों नहीं भेजते हैं? अपने प्यारे पुत्र की ऐसी भोली बात सुनकर कृतिका का हृदय भर आया। आँखों से आँसू बह चले । अब वह उसे क्या कहकर समझायें और कहने को जगह ही कौन सी बच रही थी परन्तु अबोध पुत्र के आग्रह से उसे सच्ची हालत कहने को बाध्य होना पड़ा। वह रोती हुई बोली- बेटा, मैं इस महापाप की बात तुझसे क्या कहूँ । कहते हुए छाती फटती है। जो बात कभी नहीं हुई, वही बात मेरे तेरे सम्बन्ध में है। वह केवल यही कि जो मेरे पिता हैं वे ही तेरे भी पिता हैं। मेरे पिता ने मुझसे बलात् ब्याह कर मेरी जिन्दगी कलंकित की । उसकी करनी का तू फल है। कार्तिकेय को काटो तो खून नहीं। उसे अपनी माँ का हाल सुनकर बेहद दुःख हुआ । लज्जा और आत्मग्लानि से उसका हृदय तिलमिला उठा। इसके लिए वह लाइलाज था। उसने फिर अपनी माँ से पूछा- तो क्यों माँ! उस समय मेरे पिता को ऐसा अनर्थ करते किसी ने रोका नहीं, सब कानों में तेल डाले पड़े रहे? उसने कहा- बेटा !रोका क्यों नहीं? जैन मुनियों ने उन्हें रोका था, पर उनकी कोई बात नहीं सुनी गई, उल्टे वे ही देश से निकाल दिये गए ॥१२-१७॥ कार्तिकेय ने तब पूछा-माँ वे गुणवान् मुनि कैसे होते हैं? कृतिका बोली बेटा! वे कभी कपड़े नहीं पहनते, उनका वस्त्र केवल यह आकाश है। वे बड़े दयावान् होते हैं, कभी किसी जीव को जरा भी नहीं सताते! इसी दया को पूरी तौर से पालने के लिए वे अपने पास सदा मोर के अत्यन्त कोमल पंखों की एक पीछी रखते हैं और जहाँ उठते-बैठते हैं, वहाँ की जमीन को पहले उस पीछी से झाड़- पोंछकर साफ कर लेते हैं । उनके हाथ में लकड़ी का एक कमण्डलु होता है, जिसमें वे शौच वगैरह के लिए प्रासु (जीवरहित) पानी रखते हैं। अपनी माता द्वारा जैन साधुओं की तारीफ सुनकर कार्तिकेय की उन पर बड़ी श्रद्धा हो गई उसे अपने पिता के कार्य से वैराग्य तो पहले ही हो चुका था, घर से निकल गया और मुनियों के स्थान तपोवन में जा पहुँचा । मुनियों का संघ देख उसे बड़ी प्रसन्नता हुई उसने बड़ी भक्ति से उन सब साधुओं को हाथ जोड़कर प्रणाम किया और दीक्षा के लिए उनसे प्रार्थना की। संघ के आचार्य ने उसे होनहार जान दीक्षा दे मुनि बना लिया। कुछ दिनों में ही कार्तिकेय मुनि, आचार्य के पास शास्त्राभ्यास कर बड़े विद्वान् हो गए । कार्तिकेय की जुदाई का दुःख सहना उसकी माँ के लिए बड़ा कठिन हो गया । दिनों-दिन उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और आखिर वह पुत्र शोक से मृत्यु को प्राप्त हुई। मरते समय भी वह पुत्र के आर्तध्यान से मरी, अतः मरकर व्यन्तर देवी हुई। उधर कार्तिकेय मुनि घूमते-फिरते एक बार रोहेड़ नगरी की ओर आ गए, जहाँ इनकी बहिन ब्याही थी । ज्येष्ठ का महीना था। खूब गर्मी थी । अमावस्या के दिन कार्तिकेय मुनि शहर में आहार के लिए गए। राजमहल के नीचे होकर वे जा रहे थे कि ऊपर महल पर बैठी हुई उनकी बहिन वीरमती की नजर पड़ गई वह उसी समय अपनी गोद में सिर रखकर लेटे हुए पति के सिर को नीचे रखकर दौड़ी हुई भाई के पास आई और बड़ी भक्ति से उसने भाई को हाथ जोड़कर नमस्कार किया। प्रेम के वशीभूत हो वह उसके पाँवों में गिर पड़ी और ठीक है - भाई होकर फिर मुनि हो तब किसका प्रेम उन पर न हो? क्रौंचराज ने जब एक नंगे भिखारी के पाँव पड़ते अपनी रानी को देखा तब उसके क्रोध का कुछ ठिकाना न रहा। उन्होंने आकर मुनि को खूब मार लगाई यहाँ तक कि मुनि मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। सच है, पापी, मिथ्यात्वी और जैनधर्म से द्वेष करने वाले लोग ऐसा कौन सा नीच कर्म नहीं कर गुजरते जो जन्म-जन्म में अनन्त दुःखों का देने वाला न हो ॥१८-२८॥ कार्तिकेय को अचेत पड़े देखकर उनकी पूर्वजन्म की माँ, जो इस जन्म में व्यन्तर देवी हो गई थीं, मोरनी का रूप ले उनके पास आई और उन्हें उठा लाकर बड़े यत्न से शीतलनाथ भगवान् के मन्दिर में एक निरापद जगह में रख दिया। कार्तिकेय मुनि की हालत बहुत खराब हो चुकी थी । उनके अच्छे होने की कोई सूरत न थी । इसलिए ज्योंही मुनि को मूर्च्छा से चेत हुआ उन्होंने समाधि ले ली। उसी दशा में शरीर छोड़कर वे स्वर्गधाम सिधारे। तब देवों ने आकर उनकी भक्ति से बड़ी पूजा की। उसी दिन से वह स्थान भी कीर्तिकेय तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ और बे वीरमती के भाई थे इसलिए' भाई दूज' के नाम से दूसरा लौकिक पर्व प्रचलित हुआ ॥२९-३३॥ आप लोग जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट ज्ञान का अभ्यास करें । वह सब सन्देहों का नाश करने वाला और स्वर्ग तथा मोक्ष का सुख प्रदान करने वाला है। जिनका ऐसा उच्च ज्ञान संसार के पदार्थों का स्वरूप दिखाने के लिए दिये की तरह सहायता करने वाला है वे देवों द्वारा पूजे जाने वाले, जिनेन्द्र भगवान् मुझे भी कभी नाश न होने वाला सुख देकर अविनाशी बनावें ॥३४-३५॥
  21. जिन्हें सारा संसार बड़े आनन्द के साथ सिर झुकाता है, उन जिन भगवान् को नमस्कार कर वृषभसेन का चरित लिखा जाता है ॥१॥ उज्जैन के राजा प्रद्योत एक दिन उन्मत्त हाथी पर बैठकर हाथी पकड़ने के लिए स्वयं किसी एक घने जंगल में गए। हाथी इन्हें बड़ी दूर ले भागा और आगे-आगे भागता ही चला जाता था। इन्होंने उसके ठहराने की बड़ी कोशिश की, पर उसमें वे सफल नहीं हुए । भाग्य से हाथी एक झाड़ के नीचे होकर जा रहा था कि इन्हें सुबुद्धि सूझ गई वे उसकी टहनी पकड़ कर लटक गए और फिर धीरे-धीरे नीचे उतर आए। यहाँ से चलकर वे खेट नाम के एक छोटे से पर बहुत सुन्दर गाँव के पास पहुँचे। एक पनघट पर जाकर ये बैठ गये । उन्हें बड़ी प्यास लग रही थी । इन्होंने उसी समय पनघट पर पानी भरने को आई हुई जिनपाल की लड़की जिनदत्ता से जल पिला देने के लिए कहा। उसने इनके चेहरे के रंग-ढंग से इन्हें कोई बड़ा आदमी समझ जल पिला दिया। बाद में अपने घर पर आकर उसने प्रद्योत का हाल अपने पिता से कहा । सुनकर जिनपाल दौड़ा हुआ आकर उन्हें अपने घर लिवा लाया और बड़े आदर सत्कार के साथ उसने उन्हें स्नान-भोजन कराया। प्रद्योत उसकी इस मेहमानी से बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने जिनपाल को अपना सब परिचय दिया। जिनपाल ने ऐसे महान् अतिथि द्वारा अपना घर पवित्र होने से अपने को बड़ा भाग्यशाली माना । वे कुछ दिन वहाँ और ठहरे। इतने में उनके सब नौकर-चाकर भी उन्हें लिवाने को आ गए। प्रद्योत अपने शहर जाने को तैयार हुए। इसके पहले एक बात कह देने की है कि जिनदत्ता को जबसे प्रद्योत ने देखा तब ही से उनका उस पर अत्यन्त प्रेम हो गया था और इसी से जिनपाल की सम्मति पा उन्होंने उसके साथ ब्याह भी कर लिया था । दोनों नव दम्पत्ति सुख के साथ अपने राज्य में आ गए। जिनदत्ता को तब प्रद्योत ने अपनी पट्टरानी का सम्मान दिया। सच है, समय पर दिया हुआ थोड़ा भी दान बहुत ही सुखों का देने वाला होता है। जैसे वर्षाकाल में बोया हुआ बीज बहुत फलता है । जिनदत्ता के उस जलदान से, जो उसने प्रद्योत को किया था, जिनदत्ता को एक राजरानी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वे नये दम्पत्ति सुख से समय बिताने लगे, प्रतिदिन नये-नये सुखों का स्वाद लेने में इनके दिन कटने लगे ॥२- १०॥ कुछ दिनों बाद इनके एक पुत्र हुआ। जिस दिन पुत्र होने वाला था, उसी रात को राजा ने सपने में एक सफेद बैल को देखा था । इसलिए पुत्र का नाम भी उन्होंने वृषभसेन रख दिया। पुत्र- लाभ होने के बाद राजा की प्रवृत्ति धर्म - कार्यों की ओर अधिक झुक गई वे प्रतिदिन पूजा, प्रभावना, अभिषेक, दान आदि पवित्र कार्यों को बड़ी भक्ति - श्रद्धा के साथ करने लगे। इसी तरह सुख के साथ कोई आठ बरस बीत गए। जब वृषभसेन कुछ होशियार हुआ तब एक दिन राजा ने उससे कहा- बेटा, अब तुम अपने इस राज्य के कार्य - भार को सम्भालो । मैं अब जिन भगवान् के उपदेश किए पवित्र तप को ग्रहण करता हूँ। वही शान्ति प्राप्ति का कारण है। वृषभसेन ने तब कहा-पिताजी, आप तप क्यों ग्रहण करते हैं, क्या परलोक - सिद्धि, मोक्ष - प्राप्ति राज्य करते हुए नहीं हो सकती है? राजा ने कहा-बेटा हाँ, जिसे सच्ची सिद्धि या मोक्ष कहते हैं, वह बिना तप किए नहीं होती। जिन भगवान् ने मोक्ष का कारण एक मात्र तप बताया है । इसलिए आत्महित करने वालों को उसका ग्रहण करना अत्यन्त ही आवश्यक है । राजपुत्र वृषभसेन ने तब कहा - पिताजी, यदि यह बात है तो फिर मैं इस दुःख के कारण राज्य को लेकर क्या करूँगा? कृपाकर यह भार मुझ पर न रखिए। राजा ने वृषभसेन को बहुत समझाया, पर उसके ध्यान में तप छोड़कर राज्यग्रहण करने की बात बिल्कुल न आयी। लाचार हो राजा राज्यभार अपने भतीजे को सौंपकर आप पुत्र के साथ जिनदीक्षा ले ली ॥११- १८॥ यहाँ से वृषभसेन मुनि तपस्या करते हुए अकेले ही देश, विदेशों में धर्मोपदेशार्थ घूमते-फिरते एक दिन कौशाम्बी के पास आ एक छोटी-सी पहाड़ी पर ठहरे। समय गर्मी का था। बड़ी तेज धूप पड़ती थी। मुनिराज एक पवित्र शिला पर कभी बैठे और कभी खड़े इस कड़ी धूप में योग साधा करते थे। उनकी इस कड़ी तपस्या और आत्मतेज से दिपते हुए उनके शारीरिक सौन्दर्य को देख लोगों की उन पर बड़ी श्रद्धा हो गई जैनधर्म पर उनका विश्वास खूब दृढ़ जम गया ॥१९-२१॥ एक दिन चारित्रचूड़ामणि श्रीवृषभसेन मुनि आहार के लिए शहर में गए हुए थे कि पीछे से किसी जैनधर्म के प्रभाव को न सहने वाले बुद्धदास नाम के बुद्धधर्मी ने मुनिराज के ध्यान करने की शिला को आग से तपाकर लाल सुर्ख कर दिया। सच है, साधु-महात्माओं का प्रभाव दुर्जनों से नहीं सहा जाता। जैसे सूरज के तेज को उल्लू नहीं सह सकता। जब मुनिराज आहार कर लौटे और उन्होंने शिला को अग्नि की तपी हुई देखा, यदि वे चाहते और भौतिक शरीर से उन्हें मोह होता तो बिना शक वे अपनी रक्षा कर सकते थे। पर उनमें यह बात न थी; वे कर्तव्यशील थे, अपनी प्रतिज्ञाओं का पालना वे सर्वोच्च समझते । यही कारण था कि वे संन्यास की शरण ले उस आग से धधकती शिला पर बैठ गए। उस समय उनके परिणाम इतने ऊँचे चढ़े कि उन्हें शिला पर बैठते ही केवलज्ञान हो गया और उसी समय अघातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने निर्वाण- - लाभ किया । सच है, महापुरुषों का चारित्र मेरु से भी कहीं अधिक स्थिर होता है ॥२२-२७॥ जिसके चित्तरूपी अत्यन्त ऊँचे पर्वत की तुलना में बड़े-बड़े पर्वत एक ना कुछ चीज परमाणु की तरह दीखने लगते हैं, समुद्र दूबा की अणी पर ठहरे जल कण सा प्रतीत होता है, वे गुणों के समुद्र और कर्मों को नाश करने वाले वृषभसेन जिन मुझे अपने गुण प्रदान करें, जो सब मनचाही सिद्धियों के देने वाले हैं॥२८॥
  22. केवलज्ञानरूपी सर्वोच्च लक्ष्मी के जो स्वामी हैं, ऐसे जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर श्रीदत्त मुनि की कथा लिखी जाती हैं, जिन्होंने देवों द्वारा दिये हुए कष्ट को बड़ी शान्ति से सहा ॥१॥ श्रीदत्त इलावर्द्धनपुरी के राजा जितशत्रु की रानी इला के पुत्र थे । अयोध्या के राजा अंशुमान की राजकुमारी अंशुमती से इनका ब्याह हुआ था । अंशुमती ने एक तोते को पाल रखा था। जब ये पति- पत्नी विनोद के लिए चौपड़ वगैरह खेलते तब तोता कौन कितनी बार जीता, इसके लिए अपने पैर के नख से रेखा खींच दिया करता था। पर इसमें यह दुष्टता थी कि जब श्रीदत्त जीतता तब तो यह एक ही रेखा खींचता और जब अपनी मालकिन की जीत होती तब दो रेखाएँ खींच दिया करता था। आश्चर्य है कि पक्षी भी ठगाई कर सकते है । श्रीदत्त तोते की इस चालाकी को कई बार तो सहन कर गया। पर आखिर उसे तोते पर बहुत गुस्सा आया । सो उसने तोते की गरदन पकड़ कर मरोड़ दी । तोता उसी दम मर गया। बड़े कष्ट के साथ मरकर वह व्यन्तरदेव हुआ ॥२-६॥ इधर साँझ को एक दिन श्रीदत्त अपने महल पर बैठा हुआ प्रकृति की सुन्दरता को देख रहा था। इतने में एक बादल का बड़ा भारी टुकड़ा उसकी आँखों के सामने से गुजरा। वह थोड़ी दूर न गया होगा कि देखते देखते छिन्न-भिन्न हो गया। उसकी इस क्षण नश्वरता का श्रीदत्त के चित्त पर बहुत असर पड़ा। संसार की सब वस्तुएँ उसे बिजली की तरह नाशवान् दिखाई पड़ने लगीं। सर्प के समान भयंकर विषय-भोगों से उसे डर लगने लगा। शरीर जिससे कि वह बहुत प्यार करता था सर्व अपवित्रता का स्थान जान पड़ने लगा। उसे ज्ञान हुआ कि ऐसे दुःखमय और देखते-देखते नष्ट होने वाले संसार के साथ जो प्रेम करते हैं, माया-ममता बढ़ाते हैं, वे बड़े बे समझ हैं। वह अपने लिए भी बहुत पछताया कि हाय! मैं कितना मूर्ख हूँ जो अब तक अपने हित को न शोध सका । मतलब यह है कि संसार की दशा से उसे बड़ा वैराग्य हुआ और अन्त में वह सुख के कारण जिनदीक्षा ले ही गया ॥७-१०॥ इसके बाद श्रीदत्त मुनि ने बहुत से देशों और नगरों में भ्रमण कर अनेक भव्य-जनों को सम्बोधा, उन्हें आत्महित की ओर लगाया । घूमते-फिरते वे एक बार अपने शहर की ओर आ गए। समय जाड़े का था। एक दिन श्रीदत्त मुनि शहर के बाहर कायोत्सर्ग ध्यान कर रहे थे, उन्हें ध्यान में खड़ा देख उस तोते के जीव को, जिसे श्रीदत्त ने गर्दन मरोड़ मार डाला था और जो मरकर व्यन्तर हुआ था, अपने बैरी पर बड़ा क्रोध आया। उस बैर का बदला लेने के अभिप्राय से उसने मुनि पर बड़ा उपद्रव किया। एक तो वैसे ही जाड़े का समय, उस पर इसने बड़ी जोर की ठंडी-ठार हवा चलाई, पानी बरसाया, , ओले गिराये। मतलब यह कि उसने अपना बदला चुकाने में मुनि को बहुत कष्ट दिया। श्रीदत्त मुनिराज ने इन सब कष्टों को बड़ी शान्ति और धीरज के साथ सहा । व्यन्तर उनका पूरा दुश्मन था, पर तब भी इन्होंने उस पर रंच मात्र भी क्रोध न किया। वे वैरी और हितैषी को सदा समान भाव से देखते थे । अन्त में शुक्लध्यान द्वारा केवलज्ञान प्राप्त कर वे कभी नाश न होने वाले मोक्ष स्थान को चले गए ॥११- १५॥ जितशत्रु राजा के पुत्र श्रीदत्त मुनि देवकृत कष्टों को बड़ी शान्ति के साथ सहकर अन्त में शुक्लध्यान द्वारा सब कर्मों का नाश कर मोक्ष गए। वे केवलज्ञानी भगवान् मुझे अपनी भक्ति प्रदान जितशत्रु करें, जिससे मुझे भी शान्ति प्राप्त हो ॥१६॥
  23. सत्य धर्म का उपदेश करने वाले अतएव सारे संसार के स्वामी जिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर श्रीधर्मघोष मुनि की कथा लिखी जाती है ॥१॥ एक महीना के उपवास से धर्ममूर्ति श्रीधर्मघोष मुनि एक दिन चम्पापुरी के किसी मुहल्ले में पारणा कर तपोवन की ओर लौट रहे थे। रास्ता भूल जाने से उन्हें बड़ी दूर तक हरी-हरी घास पर चलना पड़ा। चलने में अधिक परिश्रम होने से थकावट के मारे उन्हें प्यास लग आई, वे आकर गंगा के किनारे एक छायादार वृक्ष के नीचे बैठे गए। उन्हें प्यास से कुछ व्याकुल से देखकर गंगा देवी पवित्र जल का भरा एक लोटा लेकर उनके पास आई वह उनसे बोली- योगिराज, मैं आपके लिए ठंडा पानी लाई हूँ, आप इसे पीकर प्यास शान्त कीजिए। मुनि ने कहा- देवी, तूने अपना कर्तव्य पूरा किया, यह तेरे लिए उचित ही था; पर हमारे लिए देवों द्वारा दिया गया आहार- पानी काम नहीं आता । देवी सुनकर बड़ी चकित हुई वह उसी समय इसका कारण जानने के लिए विदेह क्षेत्र में गई और वहाँ सर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर उसने पूछा-भगवान्, एक प्यासे मुनि को मैं जल पिलाने गई, पर उन्होंने मेरे हाथ का पानी नहीं पिया; इसका क्या कारण है? तब भगवान् ने इसके उत्तर में कहा- देवों का दिया आहार मुनि लोग नहीं कर सकते । भगवान् का उत्तर सुन देवी निरुपाय हुई तब उसने मुनि को शान्ति प्राप्त हो, इसके लिए उनके चारों ओर सुगन्धित और ठण्डे जल की वर्षा शुरू की । उससे मुनि को शान्ति प्राप्त हुई। इसके बाद शुक्लध्यान द्वारा घातिया कर्मों का नाश कर उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। स्वर्ग के देव उनकी पूजा करने को आए । अनेक भव्य-जनों को आत्म-हित के रास्ते पर लगा कर अन्त में उन्होंने निर्वाण लाभ किया ॥२-१२॥ वे धर्मघोष मुनिराज आपको तथा मुझे भी सुखी करें, जो पदार्थों की सूक्ष्म स्थिति देखने के लिए केवलज्ञानरूपी नेत्र के धारक हैं, भव्य जनों को हितमार्ग में लगाने वाले हैं, लोक तथा अलोक के जानने वाले हैं, देवों द्वारा पूजित हैं और भव्य - जनों के मिथ्यात्व, मोहरूपी गाढ़े अन्धकार को नाश करने के लिए सूर्य हैं ॥१३॥
  24. लोक और अलोक के प्रकाश करने वाले- उन्हें देख जानकर उनके स्वरूप को समझाने वाले श्रीसर्वज्ञ भगवान् को नमस्कार कर बत्तीस सेठ पुत्रों की कथा लिखी जाती है ॥१॥ कौशाम्बी में बत्तीस सेठ थे । उनके नाम थे इन्द्रदत्त, जिनदत्त, सागरदत्त आदि । इनके पुत्र भी बत्तीस ही थे। उनके नाम समुद्रदत्त, वसुमित्र, नागदत्त, जिनदास आदि थे। ये सब ही धर्मात्मा थे, जिनभगवान् के सच्चे भक्त थे, विद्वान् थे, गुणवान् थे और सम्यक्त्वरूपी रत्न से भूषित थे। इन सबकी परस्पर में बड़ी मित्रता थी । वह एक उनके पुण्य का उदय कहना चाहिए जो सब ही धनवान्, सब ही गुणवान्, सब ही धर्मात्मा और सबकी परस्पर में गाड़ी मित्रता । बिना पुण्य के ऐसा योग कभी मिल ही नहीं सकता ॥२-५॥ एक दिन ये सब ही मित्र मिलकर एक केवलज्ञानी योगिराज की पूजा करने को गए । भक्ति से इन्होंने भगवान् की पूजा की और फिर उनसे धर्म का पवित्र उपदेश सुना। भगवान् से पूछने पर इन्हें जान पड़ा कि इनकी उमर अब बहुत थोड़ी रह गई है। तब अन्त समय में आत्म हित साधने के योग को उचित समझ उन सभी ने संसार का भटकना मिटाने वाली जिनदीक्षा ले ली। दीक्षा लेकर तपस्या करते हुए ये यमुना नदी के किनारे पर आए। यहीं इन्होंने प्रायोपगमन संन्यास ले लिया ।भाग्य से इन्हीं दिनों में खूब जोर की वर्षा हुई । नदी, नाले सब पूर आ गए। यमुना भी खूब चढ़ी। एक जोर का ऐसा प्रवाह आया कि ये सभी मुनि उसमें बह गए। अन्त में समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर स्वर्ग गए। सच है - महापुरुषों का चरित्र सुमेरु से कहीं स्थिरशाली होता है । स्वर्ग में दिव्य सुखों को भोगते हुए वे सब जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति में सदा लीन रहते हैं ॥६-१२॥ कर्मों को जीतने वाले जिनेन्द्र भगवान् सदा जय लाभ करें। उनका पवित्र शासन संसार में सदा रहकर जीवों का हित साधन करे। उनका सर्वोच्च चारित्र अनेक प्रकार के दुःसह कष्टों को सहकर भी मेरु सदृश स्थिर रहता है, उसकी तुलना किसी के साथ नहीं की जा सकती, वह संसार में सर्वोत्तम आदर्श है, भव - भ्रमण मिटाने वाला है, परम सुख का स्थान है और मोह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष आदि आत्म शत्रुओं का नाश करने वाला है, उन्हें जड़ मूल से उखाड़ फेंक देने वाला है। हे भव्यजन! आप भी इस उच्च आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न करिये, ताकि आप भी परमसुख -मोक्ष के पात्र बन सकें । जिनेन्द्र भगवान् इसके लिए आप सबको शक्ति प्रदान करें, यही भावना है॥१३॥ प्रध्वस्तघातिकर्माणः केवलज्ञान भास्कराः । कुर्वन्तु जगतः शान्तिं वृषभाद्या जिनेश्वराः॥ ॥ इति आराधना कथाकोश द्वितीय भाग ॥
  25. संसार का कल्याण करने वाले और देवों द्वारा नमस्कार किए गए श्रीजिनेन्द्र भगवान् को नमस्कार कर पंचम श्रुतकेवली श्रीभद्रबाहु मुनिराज की कथा लिखी जाती है, जो कथा सबका हित करने वाली है ॥१॥ पुण्ड्रवर्द्धन देश के कोटीपुर नामक नगर के राजा पद्मरथ के समय में वहाँ सोमशर्मा नाम का एक पुरोहित ब्राह्मण था । इसकी स्त्री का नाम श्रीदेवी था । कथा - नायक भद्रबाहु इसी के लड़के थे। भद्रबाहु बचपन से ही शान्त और गम्भीर प्रकृति के थे । उनके भव्य चेहरे को देखने से यह झट : से कल्पना होने लगती थी कि ये आगे चलकर कोई बड़े भारी प्रसिद्ध महापुरुष होंगे क्योंकि यह कहावत बिल्कुल सच्ची है कि “पूत के पग पालने में ही नजर आ जाते हैं।” अस्तु ॥२-३॥ जब भद्रबाहु आठ वर्ष के हुए और इनका यज्ञोपवीत और मूँजीबंधन हो चुका था तब एक दिन की बात है कि ये अपने साथी बालकों के साथ खेल रहे थे । खेल था गोलियों का । सब अपनी-अपनी होशियारी और हाथों की सफाई से गोलियों को एक पर एक रखकर दिखला रहे थे । किसी ने दो, किसी ने चार, किसी ने छह और किसी-किसी ने अपनी होशियारी से आठ गोलियाँ तक ऊपर तले चढ़ा दी। पर हमारे कथानायक भद्रबाहु इन सबसे बढ़कर निकले। इन्होंने एक साथ चौदह गोलियाँ तले ऊपर चढ़ा दीं। सब बालक देखकर दंग रहे गए। इसी समय एक घटना हुई वह यह कि-श्रीवर्धमान भगवान् को निर्वाण लाभ के बाद होने वाले पाँच श्रुतकेवलियों में चौदह महापूर्व के जानने वाले चौथे श्रुतकेवली श्री गोवर्द्धनाचार्य गिरनार की यात्रा को जाते हुए इस ओर आ गए। उन्होंने भद्रबाहु के खेल की इस चकित करने वाली चतुरता को देखकर निमित्तज्ञान से समझ लिया कि पाँचवें होने वाले श्रुतकेवली भद्रबाहु ही हैं। भद्रबाहु से उनका नाम वगैरह जानने पर उन्हें और भी दृढ़ निश्चय हो गया । वे भद्रबाहु को साथ लिए उसके घर पर गये । सोमशर्मा से उन्होंने भद्रबाहु को पढ़ाने के लिए माँगा । सोमशर्मा ने कुछ आनाकानी न कर अपने लड़के को आचार्य महाराज के सुपुर्द कर दिया । आचार्य ने भद्रबाहु को लाकर खूब पढ़ाया और सब विषयों में उसे आदर्श विद्वान् बना दिया। जब आचार्य ने देखा कि भद्रबाहु अच्छा विद्वान् हो गया तब उन्होंने उसे वापस घर लौटा दिया इसीलिए कि कहीं सोमशर्मा यह न समझ ले कि मेरे लड़के को बहका कर इन्होंने साधु बना लिया । भद्रबाहु घर गए सही, पर अब उनका मन घर में न लगा। उन्होंने माता-पिता से अपने साधु होने की प्रार्थना की। माता-पिता को उनकी इस इच्छा से बड़ा दुःख हुआ। भद्रबाहु ने उन्हें समझा बुझाकर शान्त किया और आप सब माया-मोह छोड़कर गोवर्द्धनाचार्य द्वारा दीक्षा ले योगी हो गए। सच है, जिसने तत्त्वों का स्वरूप समझ लिया वह फिर गृह जंजाल को क्यों अपने सिर पर उठायेगा? जिसने अमृत चख लिया है वह फिर क्यों खारा जल पीयेगा? मुनि होने के बाद भद्रबाहु अपने गुरुमहाराज गोवर्द्धनाचार्य की कृपा से चौदह महापूर्व के भी विद्वान् हो गए। जब संघाधीश गोवर्द्धनाचार्य का स्वर्गवास हो गया तब उनके बाद पट्ट पर भद्रबाहु श्रुतकेवली ही बैठे। जब भद्रबाहु आचार्य अपने संघ को साथ लिए अनेक देशों और नगरों में अपने उपदेशामृत द्वारा भव्यजनरूपी धन को बढ़ाते हुए उज्जैन की ओर आए और सारे संघ को एक पवित्र स्थान में ठहरा कर आप आहार के लिए शहर में गए। जिस घर में इन्होंने पहले ही पाँव दिया वहाँ एक बालक पालने में झूल रहा था और जो अभी स्पष्ट बोलना तक न जानता था; इन्हें घर में पाँव रखते देख वह सहसा बोल उठा कि “महाराज, जाइए! जाइए! जाइए!! एक अबोध बालक का बोलना देखकर भद्रबाहु आचार्य बड़े चकित हुए । उन्होंने उस पर निमित्तज्ञान से विचार किया तो उन्हें जान पड़ा कि यहाँ बारह वर्ष का भयानक दुर्भिक्ष पड़ेगा और वह इतना भीषणरूप धारण करेगा कि धर्म- कर्म की रक्षा तो दूर रहे, पर मनुष्यों को अपनी जान बचाना भी कठिन हो जाएगा। भद्रबाहु आचार्य उसी समय अन्तराय कर लौट आए। शाम के समय उन्होंने अपने सारे संघ को इकट्ठा कर उनसे कहा—साधुओं, यहाँ बारह वर्ष का बड़ा भारी अकाल पड़ने वाला है, और तब धर्म-कर्म का निर्वाह होना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाएगा। इसलिए आप लोग दक्षिण दिशा की ओर जायें और मेरी आयु बहुत ही थोड़ी रह गई है। इसलिए मैं इधर ही रहूँगा। यह कहकर उन्होंने दसपूर्व के जानने वाले अपने प्रधान शिष्य श्री विशाखाचार्य को चारित्र की रक्षा के लिए सारे संघसहित दक्षिण की ओर रवाना कर दिया। दक्षिण की ओर जाने वाले उधर सुख - शान्ति से रहे । उसका चारित्र निर्विघ्न पला और सच है, गुरु के वचनों का मानने वाले शिष्य सदा सुखी रहते हैं ॥४-२३॥ सारे संघ को चला गया देख उज्जैन के राजा चन्द्रगुप्त को उसके वियोग का बहुत रंज हुआ। उसने भी दीक्षा ले मुनि बन गए और भद्रबाहु आचार्य की सेवा में रहे । आचार्य की आयु थोड़ी रह गई थी, इसलिए उन्होंने उज्जैन में ही किसी एक बड़ के झाड़ के नीचे समाधि ले ली और भूख-प्यास आदि की परीषह जीतकर अन्त में स्वर्गलाभ किया। वे जैनधर्म के सार तत्त्व को जानने वाले महान् तपस्वी श्रीभद्रबाहु आचार्य हमें सुखमयी सन्मार्ग में लगावें ॥२४-२७॥ सोमशर्मा ब्राह्मण के वंश के एक चमकते हुए रत्न, जिनधर्मरूप समुद्र के बढ़ाने को पूर्ण चन्द्रमा और मुनियों के, योगियों के शिरोमणि श्रीभद्रबाहु पंचम श्रुतकेवली हमें वह लक्ष्मी दें जो सर्वोच्च सुख की देने वाली है, सब धन-दौलत, वैभव - सम्पत्ति में श्रेष्ठ है ॥२८॥
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