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JainSamaj.World
Unknown


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Lyric: भक्तामर स्तोत्र श्लोक 37
इत्थं यथा तव विभूति- रभूज्-जिनेन्द्र !
धर्मोपदेशन-विधौ न तथा परस्य।

यादृक्-प्र्रभा दिनकृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्-कुतो ग्रहगणस्य विकासिनोऽपि॥ 37॥
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