कविश्री द्यानतराय
(आडिल्ल छन्द)
सरब-परव में बड़ो अठार्इ परव है |
नंदीश्वर सुर जाहिं लेय वसु दरब है ||
हमें सकति सो नाहिं इहाँ करि थापना |
पूजें जिनगृह-प्रतिमा है हित आपना ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षुविद्यमान द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट्! (आह्वाननम्)
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षुविद्यमान द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षुविद्यमान द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमासमूह! अत्र मम सत्रिहितो भव भव वषट्! (सत्रिधिकरणम्)
कंचन मणि मय भृंगार, तीरथ नीर भरा |
तिहुँ धार दर्इ निरवार, जामन मरन जरा ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
भव तप हर शीतल वाच, जो चंदन नाहीं |
प्रभु यह गुन कीजै साँच, आयो तुम ठाहीं ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: भवताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
उत्तम-अक्षत जिनराज, पुंज धरे सोहे |
सब जीते अक्ष समाज, तुम सम अरु को है ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।
तुम कामविनाशक देव, ध्याऊँ फूलन सों |
लहुँ शील लच्छमी एव, छूटूं सूलन सों ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
नेवज इंद्रिय-बलकार, सो तुमने चूरा |
चरु तुम ढिंग सोहे सार, अचरज है पूरा ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
दीपक की ज्योति प्रकाश, तुम तन माहिं लसे |
टूटे करमन की राश, ज्ञान कणी दरसे ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: मोहान्धकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।
कृष्णागरु धूप सुवास, दश दिशि नारि वरें |
अति हरष भाव परकाश, मानों नृत्य करें ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।
बहुविधि फल ले तिहुँ काल, आनंद राचत हैं |
तुम शिव फल देहु दयाल, तुहि हम जाचत हैं ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।
यह अरघ कियो निज हेत, तुमको अरपतु हूँ |
द्यानत कीज्यो शिव खेत भूमि समरपतु हूँ ||
नंदीश्वर श्रीजिन धाम, बावन पूज करूं |
वसु दिन प्रतिमा अभिराम, आनंद भाव धरूं ||
ओं ह्रीं श्रीनंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिक्षु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।
जयमाला
(दोहा)
कार्तिक फागुन साढ़ के, अंत-आठ-दिन माँहिं |
नंदीश्वर सुर जात हैं, हम पूजें इह ठाहिं ||१||
(लक्ष्मी छंद)
एक सौ त्रेसठ कोडि जोजन महा |
लाख चौरासिया एक-दिश में लहा ||
आठमों द्वीप नंदीश्वरं भास्वरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||२||
चार-दिशि चार अंजनगिरी राजहीं |
सहस-चौरासिया एक दिशि छाजहीं ||
ढोल सम गोल ऊपर तले सुन्दरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||३||
एक इक चार दिशि चार शुभ बावरी |
एक इक लाख जोजन अमल-जल भरी ||
चहुँ दिशा चार वन लाख जोजन वरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||४||
सोल वापीन मधि सोल-गिरि दधिमुखं |
सहस दश महाजोजन लखत ही सुखं ||
बावरी कोण दो माँहि दो रतिकरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||५||
शैल-बत्तीस इक सहस जोजन कहे |
चार सोलै मिलैं सर्व बावन लहे ||
एक-इक सीस पर एक जिनमंदिरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||६||
बिंब अठ एक सौ रतनमयि सोहहीं |
देव देवी सरब नयन मन मोहहीं ||
पाँचसै धनुष तन पद्म-आसन परं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||७||
लाल नख-मुख नयन स्याम अरु स्वेत हैं |
स्याम-रंग भौंह सिर-केश छवि देत हैं ||
वचन बोलत मनों हँसत कालुष हरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||८||
कोटि-शशि-भानु-दुति-तेज छिप जात है |
महा-वैराग-परिणाम ठहरात है ||
वयन नहिं कहें, लखि होत सम्यक्धरं |
भौन-बावन्न प्रतिमा नमूं सुखकरं ||९||
(सोरठा छन्द)
नंदीश्वर-जिन-धाम, प्रतिमा-महिमा को कहे |
'द्यानत' लीनो नाम, यही भगति शिव-सुख करे ||
ओं ह्रीं श्री नंदीश्वरद्वीपे पूर्व-दक्षिण-पश्चिम-उत्तरदिशु द्विपंचाशज्जिनालयस्थ जिनप्रतिमाभ्य: जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।
।। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।