नहीं स्नेह वश तव पद शरणा गहते भविजन पामर हैं।
यहाँ हेतु है बहु दु:खों से भरा हुआ भवसागर है।
धरा उठी जल ज्येष्ठ काल है भानु उगलता आग कहीं।
करा रहा क्या छाँव शशी के जल के प्रति अनुराग नहीं?॥ १॥
कुपित कृष्ण अहि जिसको डंसता फैला हो वह विष तन में।
विद्या औषध हवन मन्त्र जल से मिट सकता है क्षण में।
उसी भांति जिन तुम पद-कमलों की थुति में जो उद्यत है।
पाप शमन हो रोग नष्ट हो चेतन तन के संगत है॥ २॥
कनक मेरु आभा वाले या तप्त कनक की छवि वाले।
हे जिन ! तुम पद नमते मिटते दुस्सह दुख हैं शनि वाले।
उचित रहा रवि उषाकाल में उदार उर ले उगता है।
बहुत जनों के नेत्रज्योति-हर सघन तिमिर भी भगता है॥ ३॥
सब पर विजयी बना तना है नाक-मरोड़ा दम तोड़ा।
देवों देवेन्द्रों को मारा नरपति को भी ना छोड़ा।
दावा बन कर काल घिरा है उग्र रूप को धार घना।
कौन बचावे? हमें कहो जिन ! तव पद थुति नद-धार बिना॥ ४॥
लोकालोकालोकित करते ज्ञानमूर्ति हो जिनवर हे !
बहुविध मणियाँ जड़ी दण्ड में तीन छत्र शित तुम सर पे।
हे जिन ! तव पद-गीत धुनी सुन रोग मिटे सब तन मन के।
दाढ़ उघाड़े सिंह दहाड़े गजमद गलते वन-वन के॥ ५॥
तुम्हें देवियाँ अथक देखती विभव मेरु पर तव गाथा।
बाल भानु की आभा हरता मण्डल तव जन जन भाता।
हे जिन ! तव पद थुति से ही सुख मिलता निश्चय अटल रहा
निराबाध नित विपुल सार है अचिंत्य अनुपम अटल रहा॥ ६॥
प्रकाश करता प्रभा पुंज वह भास्कर जब तक ना उगता।
सरोवरों में सरोज दल भी तब तक खिलता ना जगता।
जिसके मानस सर में जब तक जिनपद पंकज ना खिलता।
पाप-भार का वहन करे वह भ्रमण भवों में ना टलता॥ ७॥
प्यास शान्ति की लगी जिन्हें है तव पद का गुणगान किया।
शान्तिनाथ जिन शान्त भाव से परम शान्ति का पान किया।
करुणाकर ! करुणा कर मुझको प्रसन्नता में निहित करो।
भक्तिमग्न है भक्त आपका दृष्टि-दोष से रहित करो॥ ८॥
शरद शशी सम शीतल जिनका नयन मनोहर आनन है।
पूर्ण शील के व्रत संयम के अमित गुणों के भाजन हैं।
शत वसु लक्षण से मण्डित है जिनका औदारिक तन है।
नयन कमल हैं जिनवर जिनके शान्तिनाथ को वन्दन है॥९॥
चक्रधरों में आप चक्रधर पंचम हैं गुण मंडित हैं।
तीर्थकरों में सोलहवें जिन सुर - नरपति से वंदित हैं।
शान्तिनाथ हो विश्वशान्ति हो भांति-भांति की भ्रांति हरो।
प्रणाम ये स्वीकार करो लो किसी भांति मुझ कांति भरो॥१०॥
(चौपाई छन्द)
दुंदभि बजते पुष्प बरसते, आतप हरते चामर ढुरते।
भामंडल की आभा भारी, सिंहासन की छटा निराली॥११॥
अशोक तरु सो शोक मिटाता,भविक जनों से ढोक दिलाता।
योजन तक जिन घोष फैलता, समवसरण में तोष तैरता ॥१२॥
झुका-झुका कर मस्तक से मैं शान्तिनाथ को नमन करूँ।
देव जगत भूदेव जगत से वन्दित पद में रमण करूँ।
चराचरों को शान्तिनाथ वे परम शान्ति का दान करें।
थुति करने वाले मुझमें भी परम तत्त्व का ज्ञान भरें॥१३॥
पहने कुण्डल मुकुट हार हैं सुर हैं सुरगण पालक हैं।
जिनसे निशि दिन पूजित अर्चित जिनपद भवदधि तारक हैं।
विश्व विभासक-दीपक हैं जिन विमलवंश के दर्पण हैं।
तीर्थंकर हो शान्ति विधायक यही भावना अर्पण है॥१४॥
भक्तों को भक्तों के पालन - हारों को औ यक्षों को।
यतियों मुनियों मुनीश्वरों को तपोधनों को दक्षों को।
विदेश - देशों उपदेशों को पुरों गोपुरों नगरों को।
प्रदान कर दें शान्ति जिनेश्वर विनाश कर दें विघनों को॥१५॥
क्षेम प्रजा का सदा बली हो धार्मिक हो भूपाल फले।
समय-समय पर इन्द्र बरस ले व्याधि मिटे भूचाल टले।
अकाल दुर्दिन चोरी आदिक कभी रोग ना हो जग में।
धर्मचक्र जिनका हम सबको सुखद रहे सुर शिव मग में॥१६॥
ध्यान शुक्ल के शुद्ध अनल से घातिकर्म को ध्वस्त किया।
पूर्णबोध-रवि उदित हुआ सो भविजन को आश्वस्त किया।
वृषभदेव से वर्धमान तक चार - बीस तीर्थंकर हैं।
परम शान्ति की वर्षा जग में यहाँ करें क्षेमंकर हैं॥१७॥
(दोहा)
पूर्ण शान्ति वर भक्ति का करके कायोत्सर्ग ।
आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु तव संसर्ग॥१८॥
पंचमहाकल्याणक जिनके जीवन में हैं घटित हुये
समवसरण में महा दिव्य वसु प्रातिहार्य से सहित हुये।
नारायण से रामचन्द्र से छहखण्डों के अधिपति से।
यति अनगारों ऋषि मुनियों से पूजित जो हैं गणपति से॥१९॥
वृषभदेव से महावीर तक महापुरुष मंगलकारी।
लाखों स्तुतियों के भाजन हैं तीस-चार अतिशयधारी।
भक्ति भाव से चाव शक्ति से निर्मल कर कर निज मन को।
वन्दूँ पूजूँ अर्चन करलूँ नमन करूँ मैं जिनगण को॥२०॥
कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधि लाभ हो सद्गति हो।
वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ !॥२१॥