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JainSamaj.World

Category

Swadhyay (Study Group)

Jain Type

Digambar
Shwetambar

Country

Worldwide

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N/A
  1. What's new in this club
  2. हा मै परीक्षा देना चाहती हू इनाम नही चाहिये परन्तु पेपर किस प्रकार का होगा
  3. हां मैं परीक्षा देना चाहती हैं उपहार की कोई आवश्यकता नहीं लोग तो उपहार बांटने के लिए दान देते हैं हमें तो अपना थोड़ा बहुत ज्ञान बढ़ाना है
  4. हा मै exam देना चाहती हूँ। जय जिनेन्द्र उपहार की जरुरत नही परिग्रह नही बढाना ञान बढाना हे।
  5. क्या तत्वार्थ सूत्र स्वाध्याय में परीक्षा भी आयोजित होनी चाहिये ? क्या आप परीक्षा में भाग लेंगे ? अगर प्रतियोगिता में उपहार न हो, क्या आप फिर भी भाग लेंगे ? ---------- यहाँ पर उत्तर देने के लिए आपको इस वेबसाइट पर अकाउंट बनाना पड़ेगा इस समूह तत्वार्थ सूत्र स्वाध्याय से जुड़ना होगा क्या आपके पास आचार्य श्री विद्यासागर मोबाइल एप्प इनस्टॉल हैं ? https://play.google.com/store/apps/details?id=com.app.vidyasagar&showAllReviews=true
  6. निक्षेप कहते हैं रखने को। सम्यक दर्शन आदि ।और जीवआदि ।पदार्थों को जानने के लिए उनका निक्षेप करना चाहिए। निक्षेप के चार भेद होते हैं। नाम निक्षेेप। स्थापना निक्षेप ।द्रव्य और भाव निक्षेप।
  7. सूक्ष्म का अर्थ होता है जिनको हम साधारण चक्षुऔ से नहीं देख सकते हैं। परम परम सूक्ष्म का अर्थ है कि आगे आगे के शरीर क्रमश: पहले पहले शरीर से सूक्ष्म सूक्ष्म होते जाते हैं।मनुष्य और तिर्यंचो काऔदायिक शरीर होता है। औदायिक शरीर से असंख्यात गुना सूक्ष्म वैक्रियक शरीर (देवों और नारकीयों) काहोता है,तथा वैक्रियक शरीर से असंख्यात गुना सूक्ष्म आहारक शरीर (६वें गुणस्थान वर्दी मुनिराज के दाहिने कंधे से एक सफ़ेद पुतला निकलता है जो मुनि के शंका निदान हेतु केवली भगवान के पास जाकर शंका का समाधान पाकर वापिस मुनि में समा जाता है) होता है।।आहारक शरीर से अनन्त गुना सूक्ष्म तैजस शरीर (शरीर में जो तापहोता है ,उसे तेजस शरीर कहते हैं)एवं तेजस शरीर से अनन्तगुना सूक्ष्म कार्मण (कर्मों का समूह) शरीर होता है।
  8. परं परन सूक्ष्मम।। 37।। इस सूत्र में सूक्ष्म का मतलब क्या छोटे बडे आकार से है ?
  9. प्राण जिनके द्वारा जीव जीता है,उसे प्राण कहते हैं।साधारण तया किसी भी जीव के ४ प्राण होते हैं। इन्द्रिय बल आयू और श्वासोच्छवास एक इन्द्रिय जीव। १इन्द्रिय ,१काय बल ,आयू और श्वासोच्छवा कुल ४ प्राण दो इन्द्रिय जीव २इंद्रियां १काय बल ,१ वचन बल, आयू और श्वासोच्छवा कुल ६ प्राण तीन इन्द्रिय जीव ३ इन्द्रिय १ कायबल,१ वचन बल ,आयू और श्वासोच्छवास कुल ७प्राण चार इंद्रिय जीव ४इन्द्रिय १काय बल १ बचन बल ,आयू और श्वासोच्छवा कुल ८ प्राण असंज्ञी पंचेन्द्रिय ५इंद्रिय, १ काय बल,१ वचन बल, आयू और श्वासोच्छवास कुल ९ प्राण संज्ञी पंचेन्द्रिय ५ इंद्रिय,१ काय बल,१ वचन बल,१ मनोबल,आयू और श्वासोच्छवास कुल १० प्राण
  10. प्राण कितने होते हैं, तथा इनके वारेे में संक्षिप्त जानकारी देने कृृपा करे।
  11. जीव और अजीव की स्वाभाविक और वैभाविक अवस्था को भाव कहते हैं। भाव ५ होते हैं १. ओपशमिक भाव कर्म के उपशम से होने वाले भावों को औप़शमिक भाव कहते हैं।यह भाव केवल मोहनीश कर्म में ही पाया जाता हैं। अर्थात हम अपनी कषायों का कुछ समय के लिए दबाने पर हमारे भावों की जो शुभ स्थिति उत्पन्नहोती है उसेऔपशमिक भाव कहते हैं। जैसे गन्दे जल को एक ग्लास में कुछ समय के लिए रख दिया जाए तो गंदगी नीचे बैठ जातीहैऔर ऊपरपानी साफ़ दिखता है लेकिन यदि उसे हिला दिया जाए तो पानी पुन:गंदा हो जाता है। इसी प्रकार हम अपनीकषायों को थोड़े समय के दबा लें तो उतने समय में हमारे भाव शुभ हो जातेहैं।इसी स्थिति में उत्पन्न शुभ भावों को औपशमिक भाव कहते हैं। लेकिन भावों का शमन अधिकतम एक मुहुर्त (४८मिनट) तक ही किया जा सकता है इसके पश्चात पूर्व स्थिति में आना ही पड़ता है। २ क्षायिक भाव कर्म के सम्पूर्ण रूप से क्षय होने से उत्पन्न होने वाले भाव क्षायिक भाव कहलाते हैं। यह भाव आठों कर्मों में पाया जाता है।जैसे ज्ञानावरणी कर्म के क्षय से केवलज्ञान,दर्शनावरणीय कर्म के क्षय से केवल दर्शन, मोहनीय कर्म के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व,तथा अन्तराय कर्म के क्षय से क्षायिक दान,लाभ,भोग,उपभोग वीर्य आदि क्षायिक का अर्थ स्थायी नाश।उदाहरण गन्दे जल से भरे हुए गिलास को कुछ समय तक रखने के पश्चात गंदगी नीचे बैठ जाने पर ऊपर के साफ़ जल को किसी दूसरे ग्लास में अलग कर लेना। अब यह दूसरे ग्लास का साफ़ जल कितना भी हिलाने पर कभीपुन: गंदा नहीं होगा।इसी प्रकार कर्मों के क्षय होने से उत्पन्न शुभ भाव फिर कभी दूषित नहीं होते।इसे ही क्षायिक भाव कहतेहें।स्थायी हैं। क्षायोपशमिक भाव उदय में आये हुएकर्मों का क्षय तथा जो कर्म बँधे तो हैं,लेकिन अभी उदय में नहीं हें,भविष्य में उदय में आयेंगें,उनका शमन करने के परिणाम स्वरूप जो भाव उत्पन्न होते हैं,उन्हें क्षायोपशमिक भाव कहते हैं।केवल ४ घातिया कर्मों में ही क्षायोपशमिक होते हैं।अघातिया कर्म क्षायोपशमिक नहीं होते।आपने कहते सुना होगा कि हमारे क्षयोपशम कम है यानि हम हमने विभिन्न पुरुषार्थों से ज्ञान की वृध्दि कर लेते हैं,अन्तराय कर्म के क्षयोपशम से साता कर्म की वृध्दि करते हैं,आदि आदि। इसमें ४घातिया कर्मों ज्ञानावरणीय,दर्शनावरणीय मोहनीय और अन्तराय कर्मों का तप आदि के बल से आंशिक रूप से कुछ कर्मों का(जो उदय में रहते हैं) उनका तो स्थायी नाश कर दिया जाता है एवं जो कर्म उदय में आने वाले हैं,उन्हें कुछ समय के लिए तपस्या के बल से कुछ समय के लिए उदय में आने से रोक देते हैं। इस स्थिति में उत्पन्न शुभ भावों को क्षायोपशमिक भाव कहते हैं।उदाहरण गंदे जल से भरे ग्लास को कुछ समय रखने के अधिकतर गंदगी तो नीचे बैठ जातीहै लेकिन बहुत सूक्ष्म गंदगी ऊपरके जल में फिर भी तैरती रहती है जिसके कारण पानी का रंग हल्का हल्का मटमैला सा रहता है। अब इस ऊपर कम गंदगी वाले जल को अलग बर्तन में निकाल लें। इस जल को हिलाने से भी अब बड़ी गंदगी जल में नहीं आयेगी अपितु सूक्ष्म प्रकार की गंदगी अवश्य दिखेगी,।बस यही स्थिति क्षायोपशमिक भावों की होतीहैं। अर्थात क्षायोपशमिक भावों में स्थ्ति जीव अधिकांश रूप में शुभ भावों में स्थिर रहताहै ओदायिक भाव कर्मों के उदय से होने वाले भावों को औदायिक भाव कहते हैं।यह आठों कर्मों में पाये जाते हैं।जब जिस कर्म का उदय होता है,उसी के अनुरूप उत्पन्न भावों को औदायिक भाव कहते हैं। यह सामान्य भाव है, जैसे ४ गति,४कषाय ६ लेश्या,३ वेद(स्त्री,पुरुष,नपुंसक),मिथ्यात्व,अज्ञान,असंयम और असिध्दत्व यह सब अशुभ भावहैं जो कर्मों के उदय मैं होते हैं। पारिणामिक भाव इस संबंध में विस्तार से पूर्व में बताया जा चुका है।
  12. जीव के पांचों भावों को क्या सरल उदाहरण रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है?
  13. पृथ्वी जीव पृथ्वी कायिक नाम कर्म के उदय वाला जब तक विग्रहगति में रहता है तब तक वह पृथ्वीजीव कहलाता है। पृथ्वीकाय जिस शरीर में पृथ्वीकायिक जीव जन्म लेता है उसे पृथ्वीकाय कहते हैं।निर्जीव ईंट पत्थर आदि पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकाय में जन्मलेने वालाजीव पृथ्वीकायिक जीव कहलाता हैअर्थात पृथ्वी है शरीरजिसका उसे पृथ्वी कायिक जीव कहते हैं। उदाहरण जब तक सोना चाँदी तांबा कोयला मार्बल आदि खनिज पदार्थ खान में रहते हैं,उनमें वृध्दि होती रहती है तब तक वह पृथ्वी कायिक जीव कहलाताहै लेकिन जब उसे खान से बाहरनिकाल लिया जाता है तो उसमें वृध्दि रुक जाती है क्यों कि खान से बाहर निकलने पर पृथ्वीकायिकजीव का मरण हो जाता है और वहाँ केवल पृथ्वी काय (शरीर) शेष रह जाता है। इसी प्रकार जब तक जल अपने स्वाभाविक रूप(सामान्य) रूप में रहता है तब तक उसमें जलकायिक जीव रहता है लेकिनजैसे ही जल को गर्म करते हैं तो गर्म करनेसे जलकायिक जीव का मरण हो जाता है और वहाँ केवल जलकाय शेष रह जाता है। पृथ्वी मार्ग की उपमर्दित धूल को पृथ्वी कहते हैं।अपनी मूल स्थिति में(without disturbed) में भूमि को पृथ्वी कहतेहैं।खुदाई करने के बाद तो बह पृथ्वी काय रह जाता है जिसमें पृथ्वी कासिक जीव की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। पृथ्वी और पृथ्वीकाय दोनों अचित्त है तथापिपृथ्वी में जीव पुन:उत्पन्न होसकता है लेकिन पृथ्वीकाय मेंनहीं। इसी प्रकार जलकायिक,अग्नि कायिक वायू कायिक आदिमें लगालेना चाहिए।
  14. पांचों स्थावरों के चार चार भेद कहे हैं जैसे पृथ्वी के पृथ्वी, पृथ्वीकाय ,पृथ्वीकायिक,पृवीजीव तो इन चारों क्या भिन्नता हैै।
  15. अस्तित्व जिसका लोक में हमेशा अस्तित्व रहता है जिसको किसी के द्वारा न तो उत्पन्न किया जासकता है एवं न ही किसीके द्वारा नाश किया जा सकता है। नित्यत्व जो नित्य है अर्थात नाशवान नहीं है। प्रदेशत्व जिसके निश्चित प्रदेश है उन्हें न कम किया जा सकता एवं न ज्यादा।जिस शक्तियों के कारण द्र्व्य का कोई न कोई आकार अवश्य होता है। पर्याय एक द्रव्य के विभिन्न अवस्थाओं,रूपों आदि को उस द्रव्य की पर्याय कहते हैं
  16. असाधारण पारिणामिक भाव पारिणामिक भाव उन्हें कहते हैं जो स्वभाव रूप में जीव और अजीव दोनों द्रव्यों में पाये जाते हैं। वह स्वभाव जोअचलित हो तथा जिससे कोई द्रव्य कभी भी चलित न हो ,च्युत न हो उसे ही पारिणामिक भाव कहते हैं। उदाहरण के तौर पर जीव द्रव्य कभी अजीव द्रव्य नहीं हो सकता तथा अजीव द्रव्य कभी जीव द्रव्य नहीं हो सकता।पारिणामिक भाव दो प्रकार के होते हैं। १. असाधारण पारिणामिक भाव जीव के वो भाव जो केवल जीव द्रव्य में ही पाये जाते हैं,अन्य शेष पाँच द्रव्यों में नहीं पायेजाते हैं।जैसे जीवत्व,भव्यत्व और अभव्यत्व ।ये जीव के असाधारण पारिणामिक भाव हैं। साधारण पारिणामिक भाव एसे पारिणामिक भाव जो जीव व अजीव दोनों में पाये जाए,उन्हें साधारण पारिणामिकभाव कहतें हैं।जैसे अस्तित्व,नित्यत्व ,प्रदेशतत्व,पर्यायत्व ,वस्तुत्व,द्रव्यत्व,प्रमेयत्व ,अगुरूलघुत्व आदि आदि
  17. मोहनीय कर्म की कुल २८ प्रकृतियाँ होती हैं जिसमें से तीन दर्शन मोहनीय की(मिथ्यात्व,सम्यक् मिथ्यात्व तथा सम्यक् प्रकृति) एवं ४ चारित्र मोहनीय(अनन्तानुबंधी क्रोध, मान ,माया और लोभ) इन ७ प्रकृतियाँ के उपशम,क्षायोपशम अथवा क्षय से क्रमश: औपशमिक,क्षायोपशमिक और क्षायिक सम्यक् दर्शन की उत्पत्ति होती है। शेष २१ प्रकृतियाँ निम्न हैं प्रत्याख्यानावरणीय क्रोध,मान,माया,लोभ ४ प्रकृतियाँ अप्रत्याख्यावरणीय क्रोध मान माया लोभ ४ प्रकृतियाँ संज्वलन क्रोध मान माया लोभ ४ प्रकृतियाँ नोकषाय हास्य, रति,अरति जुगुत्सा ,शोक भय स्त्री वेद,पुरुष वेद और नपुंसक वेद ९ प्रकार इस प्रकार कुल शेष २१ प्रकृतियाँ हैं।
  18. हाँ आप का समझना सही है।रूपी को मूर्तिक एवं अमूर्तिक को अरूपी कहा जा सकता है।इनको एक दूसरे का पर्यायवाची माना जा सकता है।
  19.  

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