पाठ 14 कारक
प्रथमा विभक्ति : कर्ता कारक
१. कर्तृवाच्य के कर्ता में प्रथमा विभक्ति होती है।
२. कर्मवाच्य के कर्म में प्रथमा विभक्ति होती है।
द्वितीया विभक्ति : कर्म कारक
१. कर्तृवाच्य के कर्म में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है। ।
२. द्विकर्मक क्रियाओं के योग में मुख्य कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है। तथा गौण कर्म में अपादान, अधिकरण, सम्प्रदान, सम्बन्ध आदि विभक्तियों के होने पर भी द्वितीया विभक्ति होती है।
३. सभी गत्यार्थक क्रियाओं के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
४. सप्तमी विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है।
५. वस क्रिया के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग हो तो क्रिया के आधार में द्वितीया विभक्ति होती है; अन्यथा कारक के अनुरूप विभक्ति का प्रयोग होता है।
६. उभओ (दोनों ओर), सव्वओ (सब ओर), धि ( धिक्कार), समया (समीप) के साथ द्वितीया विभक्ति होती है। |
७. अन्तरेण (बिना) और अन्तरा (बीच में, मध्य में) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है। ।
८. पडि (की ओर, की तरफ) के योग में द्वितीया विभक्ति होती है।
तृतीया विभक्ति : करण कारक
कर्ता के लिए अपने कार्य की सिद्धि में जो अत्यन्त सहायक होता है, वह करण कारक कहा जाता है। करण कारक में तृतीया विभक्ति होती है।
१. भाववाच्य व कर्मवाच्य में कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। ।
२. कारण व्यक्त करनेवाले शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
३. फल प्राप्त या कार्य सिद्ध होने पर कालवाचक ओर मार्गवाचक शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
४. सह, सद्धिं, समं (साथ) अर्थवाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
५. विणा शब्द के साथ तृतीया विभक्ति होती है।
६. तुल्य ( समान, बराबर ) का अर्थ बतानेवाले शब्दों के साथ तृतीया विभक्ति होती है। (षष्ठी विभक्ति भी होती है)
७. शरीर के विकृत अंग को बताने के लिए तृतीया विभक्ति होती है।
८. क्रिया विशेषण शब्दों में तृतीया विभक्ति होती है।
९. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग होता है।
१०. प्रयोजन प्रकट करनेवाले शब्दों के योग में तृतीया विभक्ति होती है।
चतुर्थी विभक्ति : सम्प्रदान कारक |
दान आदि कार्य या कोई क्रिया जिसके लिए की जाती है, उसे सम्प्रदान कहते हैं। सम्प्रदान में चतुर्थी विभक्ति होती है।
१. किसी प्रयोजन के लिए जो वस्तु या क्रिया होती है, उसमें चतुर्थी विभक्ति होती है।
२. रुच (अच्छा लगना) अर्थ की धातुओं के साथ चतुर्थी विभक्ति होती है।
३. कुज्झ (क्रोध करना), दोह (द्रोह करना), ईस (ईष्या करना), असूय (घृणा करना) क्रिया के योग में तथा इसके समानार्थक क्रिया के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
४. णमो (नमस्कार) क्रिया के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
५. कह (कहना) अर्थ की क्रियाओं के योग में चतुर्थी विभक्ति होती है।
पंचमी विभक्ति : अपादान कारक
जिससे कोई वस्तु आदि अलग हो, उसे अपादान कहते हैं। अपादान में पंचमी विभक्ति होती है।
१. भय अर्थवाली धातुओं के साथ अथवा भय के कारण में पंचमी विभक्ति होती है।
२. जिससे छिपना चाहता है, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। ३. जिस वस्तु से किसी को हटाया जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है। ४. जिससे विद्या पढ़ी जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
५. दुगुच्छ ( घृणा), विरम ( हटना), पमाय (भूल, असावधानी) तथा इनके समानार्थक शब्दों व धातुओं के साथ पंचमी विभक्ति होती है।
६. उपज्ज, पभव (उत्पन्न होना) क्रिया के योग में पंचमी विभक्ति होती है। ७. जिससे किसी वस्तु की तुलना की जाए, उसमें पंचमी विभक्ति होती है।
८. विणा के योग में पंचमी विभक्ति होती है।
षष्ठी विभक्ति : सम्बन्ध कारक
एक समुदाय में से जब एक वस्तु विशिष्टता के आधार से छाँटी जाती है, तब जिसमें से छाँटी जाती है, उसमें षष्ठी व सप्तमी विभक्ति होती है।
१. सम्बन्ध का बोध कराने के लिए षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।
२. स्मरण करना, दया करना अर्थवाली क्रिया के साथ कर्म में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग होता है।
सप्तमी विभक्ति : अधिकरण कारक
किसी क्रिया के आधार को अधिकरण कहते हैं। जहाँ पर या जिसमें कोई कार्य किया जाता है, उस आधार या अधिकरण में सप्तमी विभक्ति होती है।
१. जब एक कार्य के हो जाने पर दूसरा कार्य होता है, तब हो चुके कार्य में सप्तमी विभक्ति का प्रयोग होता है।
२. द्वितीया और तृतीया विभक्ति के स्थान में सप्तमी विभक्ति का भी प्रयोग हो जाता है।
३. फेंकने के अर्थ की क्रियाओं के साथ सप्तमी विभक्ति होती है।
वाक्य रचना –
- सो गावि (२/१) दुद्ध (२/१) दुहइ- वह गाय से (अपादान) दूध दुहता है।
- सो नरिंदु (२/१) धणु (२/१) मग्गइ - वह राजा से (अपादान) धन मांगता है।
- सो रुक्खु (२/१) फलाइं (२/२) चुणइ - वह वृक्ष के (सम्बन्ध) फलों को इकट्ठा करता है
- सो पुत्तु (२/१) गामु (२/१) णेइ - वह पुत्र को गाँव में (अधिकरण) ले जाता है।
- सो घरु (२/१) गच्छइ (गत्यार्थक) - वह धर जाता है।
- सूर पयासो दिणु (२/१) पसरइ - सूर्य का प्रकाश दिन में (सप्तमी अर्थ) फैलता है।
- हरि सग्गु (२/१) उववसइ, अनुवसइ, अहिवसइ- हरि स्वर्ग में रहता है।
- णयरजणा अरिंदु (२/१) उभओ, सव्वओ चिट्ठहिं - नागरिक राजा के दोनों ओर, सब ओर बैठते हैं।
- माया (२/१) विणा सिक्खा ण हवइ - माता के बिना शिक्षा नहीं होती।
- जलु (२/१) विणा णरु ण जीवइ - जल के बिना मनुष्य नहीं जीता।
- णाणु (२/१) अन्तरेण ण सुहु - ज्ञान के बिना सुख नहीं है।
- गंगा (२/१) जउणा (२/१) य अन्तरा पयागु अत्थि- गंगा और यमुना के बीच में प्रयाग है।
- माया ( २/१) पडि तुहं सणेह करहि – माया के प्रति तुम स्नेह करो।।
- महिला सलिलेण (३/१) वत्थाइं धोवइ - महिला पानी से वस्त्र धोती है।
- सो भये (३/१) लुक्कइ - वह डर के कारण छिपता है।
- तेण दसहिं ( ३/२) दिणेहिं (३/२) गंथो पढिओ - उसके द्वारा दस दिनों में ग्रंथ पढ़ा गया।
- सो मित्तेण (३/१) सह, समं गच्छइ – वह मित्र के साथ जाता है।
- जलें (३/१) विणा णरु ण जीवइ - जल के बिना मनुष्य नहीं जीता है।
- सो देवें (३/१) तुल्लो अत्थि - वह देव के बराबर है।
- सो कण्णेणं (३/१) बहिरु अत्थि - वह कान से बहरा है।
- नरिंदु सुहेण (३/१) जीवइ - राजा सुख पूर्वक जीता है।
- तेणं (३/१) कालेणं (३/१) पइं काइं किउ - उस समय में (सप्तमी) तुम्हारे द्वारा क्या किया गया?
- मूढे (३/१) मित्ते (३/१) किं - मूर्ख मित्र से क्या लाभ है?
- को अत्थो तेण (३/१) पुत्तेण (३/१) जो ण विउसो ण धम्मिओ - उस पुत्र से क्या प्रयोजन जो न विद्वान है, न धार्मिक।
- राओ णिद्धणहो (४/१) धण देइ - राजा निर्धन के लिए धन देता है।
- सो धणस्सु ( ४/१) चेट्ठइ - वह धन के लिए प्रयत्न करता है।
- बालहो (४/१) खीरु आवडइ - बालक को दूध अच्छा लगता है।
- लक्खणु रावणहो (४/१) कुज्झइ - लक्ष्मण रावण पर क्रोध करता है।
- महिला हिंसाहे (४/१) असूसइ - महिला हिंसा से घृणा करती है।
- दुज्जणु सज्जणहो (४/१) दोहइ - दुर्जन सज्जन से द्रोह करता है।
- अरिहंताहं (४/२) णमो - अरिहंतों को नमस्कार।
- हउं तुज्झ (४/१) कहा कहउँ - मैं तुम्हारे लिए कथा कहता हूँ।
- बालओ सप्पहे (५/१) डरइ - बालक सर्प से डरता है।
- बालओ गुरुहे (५/१) लुक्कइ - बालक गुरु से छिपता है।
- गुरु सिस्सु पावहे (५/१) रोक्कइ - गुरु शिष्य को पाप से रोकता है।
- सो गुरुहे (५/१) गंथु पढइ - वह गुरु से ग्रंथ पढता हैं।
- सज्जन पावहे (५/१) दुगुच्छइ - सज्जन पाप से घृणा करता है।
- मुक्खु अज्झयणहे (५/१) विरमइ - मूर्ख अध्ययन से हटता है।
- तुहुं भत्तिहे (५/१) मं पमायहि - तुम भक्ति में असावधानी मत करो।
- खेत्तहु (५/१) धन्नु उपज्जइ - खेत से धान उत्पन्न होता है।
- लोभहे (५/१) कुज्झु पभवइ - लोभ से क्रोध उत्पन्न होता है।
- धणहे (५/१) णाणु गुरुतर अत्थि - धन से ज्ञान बड़ा है।
- रहुणन्दणहे ( ५/१) विणा सीया ण सोहइ - राम के बिना सीता सुशोभित नहीं होती।
- पुप्फहं (६/२) कमलु अईव सोहइ - फूलों में कमल का फूल अत्यन्त शोभता है।
- सो मायाहे (६/१) सुमरइ- वह माता का स्मरण करता है।
- सो बालअहो (६/१) दयइ - वह बालक पर दया करता है।
- पइं भोयणे (७/१) खाए (७/१) सो हरिसइ- तुम्हारे द्वारा भोजन खा लेने पर वह प्रसन्न होता है।
- हउँ णयरे ( ७/१) (द्वितीया के अर्थ में) जाउं - मैं नगर जाता हूँ।
- तहिं तीसु (७/२) (तृतीया के अर्थ में) पुहइ अंलकिया - वहाँ उन तीनों के द्वारा पृथ्वी अलंकृत हुई।
साभार - अपभ्रंश अनुवाद कला
उपसंहार
•इस प्रकार अपभ्रंश विद्या ऑनलाइन पाठ्यक्रम यहाँ पूर्ण हुआ। मैं भी आप सभी के समान अध्ययनरत हूँ, और इस पाठ्यक्रम में जहाँ भी चूक हुई हो, वे सब आप लोगों के द्वारा क्षम्य हो।
•हाल हे में एक विडियो बहुत विरल हुआ जिसमे एक बहन के द्वारा णमोकार मंत्र का मतलब बताया जा रहा है, वो भी गलत और वो जैनियों में बहुत फैलाया जा रहा है। बंधुओं मैं आप से कहना चाहूँगा कृपया अपनी भाषाओं को ignore मत करें अन्यथा हमें भविष्य में बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड सकती है।
•आप सब से अनुरोध है, प्राकृत - अपभ्रंश भाषा का पठन करें, पाठशालाओं में पढ़ाएँ। अपभ्रंश साहित्य अकादमी द्वारा अपभ्रंश में डिप्लोमा कोर्स होता है, वहाँ से आप इस भाषा में डिप्लोमा कर सकते हैं। इसी के साथ आप इन modules का भी प्रयोग कर सकते हैं।
•यह भाषात्मक ज्ञान मुझे प्राप्त हुआ परम पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज की वत्सल छाँव में , जो प्राकृत को जन – जन तक पहुंचाने का दुष्कर कार्य सहजता से कर रहे हैं। मुनि श्री ने प्राकृत की अद्भुत अलख जगायी, लोगों का रुझान प्राकृत की ओर बढ़ा, कईं लोगों ने मंदिर में प्राकृत कक्षा शुरू की, कई महिलाओं ने प्राकृत अध्ययन अपनी किट्टी में शुरू किया। आप लोग भी पाठशाला में इन भाषाओं को पढ़ाएँ।
•मित्रों एक विशेष बात यह कि यहाँ प्रशिक्षक के रूप में भले ही नाम मेरा हो पर सत्य तो यह है कि यह दुष्कर कार्य मेरे जैसे लघु-धी के द्वारा तो नहीं किया जा सकता। यह सब पूज्य आचार्य गुरुवर श्री विद्यासागर जी महाराज और पूज्य मुनि श्री प्रणम्य सागर जी महाराज के ही आशीर्वाद का प्रभाव है।
•इस प्रकार जिनका नाम स्मरण ही बोधि लाभ का कारण है, ऐसे पूज्य गुरुदेव आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के चरणों में नमस्कार करके मैं आप सब से विदा लेता हूँ।
खम्मामि - खम्मंतु
जय जिनेन्द्र
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