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अपभ्रंश भाषा की मुख्य कोटियाँ - पाठ 1


Sneh Jain

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किसी भी भाषा को सीखने व समझने के लिए उस भाषा के मूल तथ्यों की जानकारी होना आवश्यक है। अपभ्रंश भाषा को सीखने व समझने के लिए भी इस भाषा के मूल तथ्यों को समझना होगा जो निम्न रूप में हैं -

 

1. ध्वनि - फेफड़ों से श्वासनली में होकर मुख तथा नासिका के मार्ग से बाहर निकलने वाली प्रश्वास वायु ही ध्वनियों को उत्पन्न करती है। प्रत्येक ध्वनि के लिए एक भिन्न वर्ण का प्रयोग होता है। प्रश्वास को मुख में जीभ द्वारा नहीं रोकने तथा रोकने के आधार पर ध्वनियाँ दो प्रकार की मानी गई हैं - (1) स्वर ध्वनि और (2) व्यंजन ध्वनि

(1) स्वर ध्वनि - जिन ध्वनियों के उच्चारण में जीभ प्रश्वास को मुख में किसी भी तरह नहीं रोकती तथा प्रश्वास बिना किसी रुकावट के बाहर निकलता है, वे स्वर ध्वनियाँ कहलाती हैं। इनका उच्चारण बिना किसी वर्ण की सहायता के स्वतन्त्र रूप में किया जाता है। अपभ्रंश में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ओ स्वर होते हैं। हिन्दी के ऋ, ऐ, औ स्वर यहाँ नहीं होते।

(2) व्यंजन ध्वनि - जिन ध्वनियों के उच्चारण में प्रश्वास मुख में जीभ द्वारा रोका जाता है और यह इधर उधर रगड़ खाता हुआ बाहर निकलता है, वे व्यंजन ध्वनियाँ कहलाती हैं -

क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण....

अपभ्रंश में असंयुक्त अवस्था में ङ और अ का प्रयोग नहीं पाया जाता है। ङ और अ के स्थान पर संयुक्त अवस्था में अनुस्वार का प्रयोग बहुलता से मिलता है।

 

2. चिन्ह - अपभ्रंश में निम्न चिन्हों का प्रयोग होता है -

(१) अनुस्वार - स्वर के ऊपर जो बिन्दी लगाई जाती है, उसे अनुस्वार कहते हैं। अनुस्वार का स्वरों के बिना प्रयोग नहीं होता अर्थात् स्वरों की सहायता से ही इनका उच्चारण हो सकता है। जैसे -

क ख ग घ ह से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘’ङ" की तरह होता है। उदाहरणार्थ - पंक - पक, अंग - अङ्ग आदि ।

च छ ज झ य से पूर्व आये अनुस्वार का उच्चारण ञ् ' की तरह होता है। उदाहरणार्थ - पंच - पञ्च , संयम - सञ्यम आदि।

ट ठ ड ढ से पूर्व आये अनुस्वार का उच्चारण ‘ण’ की तरह होता है। उदाहरणार्थ - टंटा–टण्टा, अंडा–अण्डा आदि।

त थ द ध न र से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘न्' की तरह होता है। उदाहरणार्थ - अंत-अन्त।

प फ ब भ म व से पहले आये अनुस्वार का उच्चारण ‘म्' के समान होता है। उदाहरणार्थ - संमाण–सम्मान् आदि।

(२) अनुनासिक - अनुस्वार का कोमल रूप अनुनासिक कहलाता है | उदाहरणार्थ - आँखें, अँगूठी, हँसना आदि।

(३) अर्धचन्द्र - हिन्दी व अंग्रेजी की तरह अपभ्रंश में भी कुछ स्वरों पर ऐसा चिन्ह स्वरों को ह्रस्व दिखाने हेतु लगाया जाता है - रणे, ताणन्तरे, खग्गएँ, पअहिराएँ आदि।

 

3. वचन - संज्ञा सर्वनाम तथा विशेषण के जिस रूप से यह पता चले कि वह एक को बता रहा है या अनेक को, उसे वचन कहते हैं। अपभ्रंश में दो ही वचन होते हैं - एकवचन और बहुवचन।

(१) एकवचन - संज्ञा, सर्वनाम और विशेषण के जिस रूप से एक का बोध हो, उसे एकवचन कहते हैं। जैसे - देवो, माउलो, णरो आदि।

(२) बहुवचन - संज्ञा सर्वनाम और विशेषण के जिस रूप से एक से अधिक का बोध हो, उसे बहुवचन कहते हैं। जैसे - देवा, माउला, णरा आदि। कई बार सम्मानार्थ व अभिमानार्थ भी एक के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है।

 

4. शब्द - प्रयोग की दृष्टि से शब्द पाँच प्रकार के हैं -

(क) संज्ञा (ख) सर्वनाम (ग) विशेषण (घ) क्रिया (ङ) अव्यय

(क) संज्ञा - किसी व्यक्ति, जाति, स्थान, वस्तु, विचार भाव आदि के नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे - रहुणन्दण, कमल, सीया, धेणु, वारि आदि।

संज्ञा शब्द लिंगभेद के आधार पर तीन प्रकार के तथा शब्द संरचना के आधार पर चार प्रकार के होते हैं।

लिंग भेद - (1) पुल्लिंग (2) स्त्रीलिंग (3) नपुंसकलिंग

शब्द संरचना - (1) अकारान्त (2) आकारान्त (3) इकारान्त/ ईकारान्त (4) उकारान्त/ ऊकारान्त।।

सामान्यत: अकारान्त शब्द पुल्लिंग व नपुंसकलिंग होते हैं तथा आकारान्त शब्द स्त्रीलिंग होते हैं। इकारान्त, उकारान्त शब्द पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंग होते हैं; किन्तु अपभ्रंश में कई स्थानों पर एक ही वस्तु के लिए प्रयुक्त अलग–अलग शब्द अलग–अलग लिंग से युक्त भी देखे जाते हैं।

जैसे - स्त्री शब्द हेतु अपभ्रंश में दार, भज्जा और कलत्त शब्द हैं। इनमें दार पुल्लिंग, भज्जा स्त्रीलिंग और कलत्त नपुंसकलिंग हैं। शरीर के लिए तणु स्त्रीलिंग, देह पुल्लिंग और सरीर नपुंसक लिंग अर्थ में प्रयुक्त होता है। जल के लिए प्रयुक्त सलिल शब्द पुल्लिंग तथा उदग शब्द नपुंसकलिंग है। इसीप्रकार अनेक अकारान्त संज्ञा शब्द पुल्लिंग व नपुंसकलिंग दोनों ही अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। अत: अपभ्रंश में लिंग का ज्ञान कोश के आधार से ही किया जाना चाहिए।

( ख ) सर्वनाम - संज्ञा की पुनरुक्ति के निवारण के लिए जिन शब्दों का प्रयोग होता है, वे सर्वनाम शब्द कहलाते हैं।

सर्वनाम छ: प्रकार के हैं -

1. पुरुषवाचक सर्वनाम - बोलनेवाले, सुननेवाले तथा अन्यपुरुष की संज्ञा के स्थान पर जिन सर्वनामों का प्रयोग होता है, वे पुरुषवाचक सर्वनाम कहलाते हैं। पुरुषवाचक सर्वनाम के तीन भेद हैं -

(1) उत्तमपुरुष - बोलनेवाला या लिखने वाला जिन सर्वनामों का अपने लिए प्रयोग करता है, वे उत्तमपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।

जैसे - हउं-मैं, अम्हे/अम्हइं–हम सब

(2) मध्यमपुरुष - बोलनेवाला या लिखनेवाला जिस व्यक्ति को बोलता है या लिखता है, वे मध्यमपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।

जैसे - तुहुं—तुम/तुम्हे, तुम्हइं–तुम सब

(3) अन्यपुरुष - बोलनेवाला तथा सुननेवाला जिस अन्य व्यक्ति के विषय में कुछ कहता है, वे सब अन्यपुरुष वाचक सर्वनाम शब्द हैं।

जैसे - सो—वह (पुल्लिंग), ते–वे सब (पुल्लिंग), सा-वह (स्त्रीलिंग), ता–वे सब (स्त्रीलिंग)।

नोट - सभी संज्ञा शब्द भी अन्यपुरुष के अन्तर्गत ही आते हैं।

2. निश्चयवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम किसी व्यक्ति या वस्तु के लिए निश्चित संकेत करे, वह निश्चयवाचक सर्वनाम है। जैसे - यह, ये, वह, वे आदि।

3. अनिश्चयवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम किसी निश्चित वस्तु या व्यक्ति के लिए संकेत न करे, वे अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं। जैसे - कोई, कुछ आदि।

4. सम्बन्धवाचक सर्वनाम - जो सर्वनाम अन्य उपवाक्य में प्रयुक्त होकर संज्ञा या सर्वनाम का सम्बन्ध प्रकट करे, वह सम्बन्धवाचक सर्वनाम है। जैसे - जो करेगा सो भरेगा, जिसे देखो वही खुश है। यह सम्बन्धवाचक सर्वनाम उसी संज्ञा की ओर संकेत करता है, जो उसके पहले आ चुकी है।

5. प्रश्नवाचक सर्वनाम - किसी व्यक्ति या वस्तु के विषय में कुछ प्रश्न पूछने के लिए जिस सर्वनाम का प्रयोग होता है, वह प्रश्नवाचक सर्वनाम है। जैसे - कौन, क्या आदि।।

6. निजवाचक सर्वनाम - जो उत्तमपुरुष, मध्यमपुरुष तथा अन्यपुरुष का अपने आप बोध करावे, वह निजवाचक सर्वनाम है। जैसे - आप स्वयं करके देखें। तुम स्वयं अपना काम सुधारो।

(ग) विशेषण - जो शब्द संज्ञा अथवा सर्वनाम की विशेषता को प्रकट करते हैं, वे विशेषण कहलाते हैं। इनके विभक्ति, लिंग और वचन विशेष्य के अनुसार ही होते हैं।

विशेषण के तीन भेद है -

1. सार्वनामिक विशेषण 2. गुणवाचक विशेषण 3. संख्यावाचक विशेषण

(घ) क्रिया - जिन शब्दों से किसी काम का होना या करना प्रकट हो, उसे क्रिया कहते है। जैसे जाता है, गया, जायेगा, पढाता है आदि।

क्रिया दो प्रकार की होती है - अकर्मक, सकर्मक ।

(1) अकर्मक क्रिया - अकर्मक क्रिया वह होती है, जिसका कोई कर्म नहीं होता और जिसका प्रभाव कर्ता पर ही पड़ता है। । (२) सकर्मक क्रिया - सकर्मक क्रिया वह होती है, जिसका कर्म होता है तथा जिसमें कर्ता की क्रिया का प्रभाव भी कर्म पर ही पड़ता है।

क्रियाओं का प्रेरणार्थक रूप - कर्ता स्वयं जब किसी भी क्रिया (अकर्मक, सकर्मक) को करने हेतु किसी को प्रेरित करता है या अन्य किसी को क्रिया करने हेतु प्रेरित करवाता है, तब वहाँ प्रेरित करने तथा प्रेरित करवाने के अर्थ में प्रेरणार्थक क्रिया होती है। अकर्मक व सकर्मक क्रियाओं में ही प्रेरणार्थक प्रत्यय लगाकर उनको प्रेरणार्थ क्रिया बनाया जाता है। अकर्मक क्रिया जैसे ही प्रेरणार्थक क्रिया बनती है. उसमें कर्म का समावेश हो जाता है और वही सकर्मक क्रिया का रूप लेकर प्रेरणार्थक क्रिया बन जाती है।

(ङ) अव्यय - ऐसे शब्द जिनके रूप में कोई विकार/परिवर्तन उत्पन्न न हो और जो सदा सभी विभक्ति, सभी वचन और सभी लिंगों में एक समान रहे तथा लिंग, विभक्ति और वचन के अनुसार जिनके रूपों में घटती-बढ़ती न हो, वे अव्यय शब्द कहलाते हैं। इनको अविकारी शब्द भी कहा जाता है। अपभ्रंश में सम्बन्धक भूत कृदन्त (पूर्वकालिक क्रिया) तथा हेत्वर्थक कृदन्त भी अव्यय का ही काम करते हैं।

5. लिंग -  जिस चिन्ह से यह पता चले कि संज्ञा पुरुष जाति की है या स्त्री जाती की, उसे लिंग कहते हैं।

अपभ्रंश भाषा में ३ लिंग होते हैं -

1.पुल्लिंग 2. स्त्रीलिंग 3. नपुंसकलिंग

 

6. काल - क्रिया के जिस रूप से क्रिया के होने के समय का पता चलता है, उसे काल कहते हैं।

अपभ्रंश भाषा में ४ प्रकार के काल होते हैं -

1.वर्तमानकाल 2.विधि एवं आज्ञा 3.भविष्यत्काल 4.भूतकाल - अपभ्रंश भाषा में भूतकाल को व्यक्त करने के लिए भूतकालिक कृदन्त का प्रयोग किया जाता है।

 

7. कारक - संज्ञा व सर्वनाम के जिस रूप से उसका क्रिया अथवा दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित होता है, उसे कारक कहते हैं। संज्ञा व सर्वनाम के रूप रचना विधान से ही इनका क्रिया व दूसरे शब्द के साथ सम्बन्ध सूचित होता है।

अपभ्रंश भाषा में कारक ८ होते हैं -

1.कर्ता 2.कर्म 3.करण 4.सम्प्रदान 5.अपादान 6.सम्बन्ध 7.अधिकरण ८.सम्बोधन

रूप रचना विधान (संज्ञा)

कारक

एकवचन बहुवचन

कर्ता

राजा, राजा ने राजा, राजाओं ने

कर्म

राजा को राजाओं को

करण

राजा से, द्वारा राजाओं से

सम्प्रदान

राजा के लिए, को राजाओं के लिए, को

अपादान

राजा से राजाओं से

सम्बन्ध

राजा का, के, की राजाओं का, के, की

अधिकरण

राजा में/पर राजाओं में, पर

सम्बोधन

हे राजा ! हे राजाओं !

 

रूप रचना विधान (सर्वनाम)

उत्तम पुरुष 'मैं' के सब कारकों में रूप

 कारक

एकवचन बहुवचन

कर्ता

मैं, मैंने हम, हमने

कर्म

मुझको, मुझे हमको, हमें

करण

मुझसे, मेरे द्वारा हमसे, हमारे द्वारा

सम्प्रदान

मुझको, मुझे, मेरे लिए हमको, हमें, हमारे लिए

अपादान

मुझसे हमसे

सम्बन्ध

मेरा, मेरे, मेरी हमारा, हमारे, हमारी

अधिकरण

मुझमें, पर हममें, पर

शब्द रूपावली से स्पष्ट है कि अपभ्रंश में चतुर्थी और षष्ठी विभक्ति के लिए एक समान ही प्रत्यय हैं। सर्वनाम में सम्बोधन नहीं होता।

 

8. वाच्य - वाक्य रचना का मुख्य आधार वाच्य होता है। क्रिया के जिस रूप से पता चले कि उसके वर्णन का मुख्य विषय कर्ता है, कर्म है या धातु का भाव है, उसे वाच्य कहते हैं। वाच्य तीन प्रकार के होते हैं -

(1) कर्तृवाच्य (2) भाववाच्य (3) कर्मवाच्य 

(1) कर्तृवाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय 'कर्ता' हो, वहाँ कर्तृवाच्य होता है। कर्तृवाच्य का प्रयोग अकर्मक व सकर्मक दोनों क्रियाओं के साथ होता है। अकर्मक क्रिया से कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता सदैव प्रथमा विभक्ति में होता है तथा कर्ता के लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार क्रियाओं के लिंग, वचन व पुरुष होते हैं। सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य बनाने के लिए कर्ता में प्रथमा तथा कर्म में द्वितीया विभक्ति होती है और क्रिया के पुरुष और वचन कर्ता के पुरुष और वचन के अनुसार होते हैं। अकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग चारों कालों - वर्तमान, विधि-आज्ञा, भविष्यत्काल तथा भूतकाल में होता है; जबकि सकर्मक क्रिया के साथ कर्तृवाच्य का प्रयोग प्रायः भूतकाल में नहीं होता, बाकी तीनों कालों में होता है।

(2) भाववाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय न कर्ता हो और न कर्म; बल्कि क्रिया का अर्थ (भाव) ही विधान का विषय बने, वहाँ भाववाच्य होता है। इसमें क्रिया के लिंग, वचन, पुरुष न तो कर्ता के अनुसार होते हैं, और न कर्म के अनुसार होते हैं। इसमें क्रिया सदैव अन्य पुरुष एकवचन में तथा कृदन्त सदैव नपुंसक लिंग प्रथमा एकवचन में रहते हैं। भाववाच्य में सदैव अकर्मक क्रियाएँ ही प्रयुक्त होती हैं।

(3) कर्मवाच्य - जहाँ क्रिया के विधान का विषय ‘कर्म' हो, वहाँ कर्मवाच्य होता है। कर्मवाच्य में सकर्मक क्रियाएँ व प्रेरणार्थक क्रियाएँ प्रयुक्त होती हैं। इसमें क्रिया के लिंग, वचन व पुरुष - कर्म के लिंग, वचन व पुरुष के अनुसार होते हैं। कर्मवाच्य क्रिया व कृदन्त दोनों से बनाये जाते हैं।

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