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JainSamaj.World
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चिरकांक्षित जयपुर - ५७


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,


        गणेश प्रसाद के अंदर लंबे समय से जयपुर जाकर अध्ययन करने की भावना चल रही थी। विभिन्न परिस्थितियों का सामना करते हुए वह जयपुर पहुँचे।

       वर्णीजी बहुत ही सरल प्रवृत्ति के थे। आर्जव गुण अर्थात मन, वचन व काय की एकरूपता उनके जीवन से सीखी जा सकती है।

        आज की प्रस्तुती में कलाकंद का प्रसंग आया, आत्मकथा में उनके द्वारा इसका वर्णन उनके ह्रदय की स्वच्छता का परिचय देता है। उस समय वह एक विद्यार्थी से व्रती नहीं थे।

      अगली प्रस्तुती में उनके अध्ययन के विषय तथा पत्नी की मृत्यु आदि बातों को जानेंगे।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


            *"चिरकांक्षित जयपुर"*

                     *क्रमांक - ५८*


                जयपुर की ठोलिया की धर्मशाला में ठहर गया। यहाँ जमनाप्रसादजी काला से मेरी मैत्री हो गई। उन्होंने श्रीवीरेश्वर शास्त्री के पास, जोकि राज्य के मुख्य विद्वान थे, मेरा पढ़ने का प्रबंध कर दिया। मैं आनंद से जयपुर में रहने लगा। यहाँ पर सब प्रकार की आपत्तियों से मुक्त हो गया।

        एक दिन श्री जैनमंदिर के दर्शन करने के लिए गया। मंदिर के पास श्री नेकरजी की दुकान थी।  उनका कलाकंद भारत में प्रसिद्ध था। मैंने एक पाव कलाकंद लेकर खाया। अत्यंत स्वाद आया। फिर दूसरे दिन भी एक पाव खाया। कहने का तात्पर्य यह है कि मैं बारह मास जयपुर में रहा, परंतु एक दिन भी उसका त्याग न कर सका। अतः मनुष्यों को उचित है कि ऐसी प्रकृति न बनावें जो कष्ट उठाने पर उसे त्याग न सके। जयपुर छोड़ने के बाद ही वह आदत छूट सकी।

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
 ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल १२?

पूज्य वर्णीजी के जीवन चरित्र को जानने के लिए अनेकों लोगों की जिज्ञासा देखने मिल रही है। मेरा प्रयास है कि मैं पूरी आत्मकथा को नियमित रूप से आप सभी के सम्मुख प्रस्तुत करता रहूँ, लेकिन कभी-२ संभव नहीं हो पाता। 

     वर्णीजी की आत्मकथा के प्रति आप लोगों की जिज्ञासा को जानकर मुझे प्रस्तुती के लिए उत्साह वर्धन होता रहता है।

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