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JainSamaj.World
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विद्याध्ययन का सुयोग - ५६


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,


        बम्बई में गणेश प्रसाद का अध्ययन प्रारम्भ हो गया लेकिन जलवायु उनके स्वास्थ्य के अनुकूल न थी अस्वस्थ्य हो गये। यहाँ से पूना गए।

         स्वास्थ्य ठीक होने पर बम्बई आए, वहाँ कुछ दिन बार पुनः ज्वर आने लगा। वहाँ से अजमेर का पास केकड़ी गया। कुछ दिन ठहरा वहाँ से गणेशप्रसाद चिरकाल से प्रतीक्षित स्थान जयपुर गए। कल से उसका वर्णन रहेगा।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


            *"विद्याध्ययन का सुयोग"*

                     *क्रमांक - ५६*


    मेरा परीक्षाफल देखकर देहली के एक जवेरी लक्ष्मीचंद्रजी ने कहा कि 'दस रुपया मासिक हम बराबर देंगे, तुम सानंद अध्ययन करो।' 

       मैं अध्ययन करने लगा किन्तु दुर्भाग्य का उदय इतना प्रबल था कि बम्बई का पानी मुझे अनुकूल न पड़ा। शरीर रोगी हो गया। गुरुजी और स्वर्गीय पं. गोपालदासजी ने बहुत ही समवेदना प्रगट की। तथा यह आदेश दिया कि तुम पूना जाओ, तुम्हारा सब प्रबंध हो जायेगा। एक पत्र भी लिख दिया।

       मैं उनका पत्र लेकर  पूना चला गया। धर्मशाला में ठहरा। एक जैनी के यहाँ भोजन करने लगा। वहाँ की जलवायु सेवन करने से मुझे आराम हो गया। पश्चात एक मास बाद मैं बम्बई आ गया। वहाँ कुछ दिन ठहरा फिर ज्वर आने लगा।

     श्री गुरुजी ने मुझे अजमेर के पास केकड़ी है, वहाँ भेज दिया। केकड़ी में पं. धन्नालालजी, साहब रहते थे। योग्य पुरुष थे। आप बहुत ही दयालु और सदाचारी थे। आपके सहवास से मुझे बहुत लाभ हुआ। आपका कहना था कि 'जिसे आत्म-कल्याण करना हो वह जगत के प्रपंचों से दूर रहे।' आपके द्वारा यहाँ एक पाठशाला चलती थी।

      मैं श्रीमान रानीवालों की दुकान पर ठहर गया। उनके मुनीम बहुत योग्य थे। उन्होंने मेरा सब प्रबंध कर दिया। यहाँ औषधालय में जो वैद्यराज दौलतराम जी थे, वह बहुत ही सुयोग्य थे। मैंने कहा- महराज मैं तिजारी से बहुत दुखी हूँ। कोई ऐसी औषधि दीजिए जिससे मेरी बीमारी चली जावे। 

      वैद्यराज ने मूँग के बराबर गोली दी और कहा- 'आज इसे खा लो तथा S४ दूध की S चावल डालकर खीर बनाओ तथा जितनी खाई जाए उतनी खाओ। कोई विकल्प न करना।'

       मैंने दिनभर खीर खाई। पेट खूब भर गया। पन्द्रह दिन केकड़ी में रहकर जयपुर चला गया।


? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
 ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल १०?

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