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JainSamaj.World
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विद्याध्ययन का सुयोग - ५४


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,


      गणेशप्रसाद के अंदर ज्ञानार्जन के प्रति तीव्र लालसा का पता इसी बात से लगता है कि वह अभावग्रस्त परिस्थितियों में भी अपने अध्ययन के लिए प्रयासरत थे। कुछ राशी जमा कर अध्ययन का ही प्रयास किया।

    संस्कृत अध्ययन में परीक्षा उत्तीर्ण करने के कारण उन्हें पच्चीस रुपये का पुरुस्कार मिला। समाज के लोगों को प्रसन्नता हुई।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


            *"विद्याध्ययन का सुयोग"*

                     *क्रमांक - ५४"*


      यहाँ पर मंदिर में एक जैन पाठशाला थी। जिसमें श्री जीवाराम शास्त्री गुजराती अध्यापक थे (वे संस्कृत के प्रौढ़ विद्वान थे)। ३०) मासिक पर दो घंटा पढ़ाने आते थे। साथ में श्री गुरुजी पन्नालालजी बकलीवाल सुजानगढ़ वाले ऑनरेरी धर्मशिक्षा देते थे।

       मैंने उनसे कहा- 'गुरुजी ! मुझे भी ज्ञानदान दीजिए।' गुरुजी ने मेरा परिचय पूंछा, मैंने आनुपूर्वी अपना परिचय उनको सुना दिया। वह बहुत प्रसन्न हुए और बोले तुम संस्कृत पढ़ो।

    उनकी आज्ञा शिरोधार्य कर कातन्त्र व्याकरण श्रीयुत शास्त्री जीवारामजी से पढ़ना प्रारम्भ कर दिया। और रत्नकरण्ड श्रावकाचार जी पंडित पन्नालालजी से पढ़ने लगा। मैं पण्डितजी को गुरुजी कहता था। 
      
       बाबा गुरुदयालजी से मैंने कहा- 'बाबाजी ! मेरे पास ३१।=) कापियों के आ गए। १०) आप दे गए थे। अब मैं भाद्र तक के लिए निश्चिंत हो गया। आपकी आज्ञा हो तो संस्कृत अध्यनन करने लगूँ।'

       उन्होंने हर्षपूर्वक कहा- 'बहुत अच्छा विचार है, कोई चिंता मत करो, सब प्रबंध कर दूँगा, जिस किसी पुस्तक की आवश्यकता हो, हमसे कहना।'

      मैं आनंद से अध्ययन करने लगा और भाद्रमास में रत्नकरण्डश्रावकाचार तथा कातन्त्र व्याकरण की पञ्चसंधि में परीक्षा दी। उसी समय बम्बई परीक्षालय खुला था। रिजल्ट निकला। मैं दोनों विषय में उत्तीर्ण हुआ। साथ में पच्चीस रुपये इनाम भी मिला। समाज प्रसन्न हुई।

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
 ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल ४?

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