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JainSamaj.World
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गजपंथा से बम्बई - ५२


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,


       हम देख रहे हैं, जिनधर्म के मर्म को जानने की प्यास लिए गणेश प्रसाद कैसे अपने लक्ष्य प्राप्ति की और आगे बड़ रहे हैं। उनके पास तात्कालिक साधनों का तो अभाव था लेकिन धर्म के प्रति नैसर्गिक श्रद्धान व पुण्य का उदय जो अभावपूर्ण स्थिति में भी उनकी व्यवस्था बनती जा रही थी।

      अगली प्रस्तुती में आप देखेंगे कि धर्म की इतनी प्रभावना करने वाले महापुरुष पूज्य वर्णीजी ने कभी बम्बई में कापियाँ बेचकर अपने आगे के अध्यन हेतु धनार्जन किया था।

      बहुत ही रोचक है वर्णीजी का जीवन चरित्र। आप अवश्य ही पढ़ें पूज्य वर्णीजी की आत्मकथा "मेरी जीवन गाथा।"

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


                *"गजपंथा से बम्बई"*

                     *क्रमांक - ५३*


       समान लेकर मंदिर गया, नीचे धर्मशाला में समान रखकर ऊपर दर्शन करने गया। लज्जा के साथ दर्शन किये, क्योंकि शरीर क्षीण था। वस्त्र मलिन थे। चेहरा बीमारी के कारण विकृत था। शीघ्र दर्शनकर एक पुस्तक उठा ली और धर्मशाला में स्वाध्याय करने लगा। सेठजी आठ आने देकर चले गए।

         मैं किंकर्तव्यविमूढ़की तरह स्वाध्याय करने लगा। इतने में ही एक बाबा गुरुदयालसिंह, जो खुरजा के रहने वाले थे, मेरे पास आये और पूछने लगे- 'कहाँ से आये हो और बम्बई आकर क्या करोगे?' मुझसे कुछ नहीं कहा गया, प्रत्युत गदगद हो गया।
       
         श्रीयुत बाबा गुरुदयालसिंहजी ने कहा- 'हम आध घंटा बाद आवेंगे तुम यहीं मिलना।' मैं शांतिपूर्वक स्वाध्याय करने लगा।

       उनकी अमृतमयी वाणी से इतनी तृप्ति हुई कि सब दुख भूल गया। आध घंटे के बाद बाबाजी आ गए और दो धोती, दो जोड़े दुपट्टे, रसोई के सब बर्तन, आठ दिन का भोजन का सामान, सिगड़ी, कोयला तथा दस रुपया नगद देकर बोले- 'आनंद से भोजन बनाओ, कोई चिंता न करना, हम तुम्हारी सब तरह रक्षा करेंगे।'

       अशुभकर्मं के विपाक में मनुष्यों को अनेक विपत्तियों का सामना करना पड़ता है और जब शुभ कर्म का विपाक आता है तब अनायास जीवों को सुख सामग्री का लाभ हो जाता है। कोई न कर्ता है हर्ता है, देखो, हम खुरजा के निवासी हैं। आजीविका के निमित्त बम्बई में रहते हैं। दलाली करते हैं, तम्हे मंदिर में देख स्वयमेव हमारे परिणाम हो गए कि इस जीवकी रक्षा करनी चाहिए।

      आप न तो हमारे संबंधी हैं। और न हम तुमको जानते ही हैं तुम्हारे आचारादि से अभिज्ञ नहीं हैं फिर भी हमारे परिणामों में तुम्हारे रक्षा के भाव हो गए।

        इससे अब तुम्हे सब प्रकार की चिंता छोड़ देना चाहिए तथा ऊपर भी जिनेन्द्रदेव के प्रतिदिन दर्शननादि कर स्वाध्याय में उपयोग लगाना चाहिए। तुम्हारी जो आवश्यकता होगी हम उसकी पूर्ति करेंगे।' इत्यादि वाक्यों द्वारा मुझे संतोष कराके चले गए।

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
   ?आजकी तिथी- आषाढ़ शुक्ल १?

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