गजपंथा से बम्बई - ५१
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
शायद आपने सोचा भी नहीं होगा कि जैनधर्म इतना बड़ा मर्मज्ञ इतनी विषम परिस्थितियों से गुजरा होगा। बड़ा ही रोचक है पूर्ण वर्णीजी का जीवन।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"गजपंथा से बम्बई"*
*क्रमांक - ५१*
मैंने वह एक आना मुनीम को दे दिया। मुनीम ने लेने में संकोच किया। सेठजी भी हँस पड़े और मैं भी संकोचवश लज्जित हो गया, परंतु मैंने अंतरंग से दिया था, अतः उस एक आना के दान ने मेरा जीवन पलट दिया।
सेठजी कपढ़ा खरीदने बम्बई जा रहे थे। आरवी में उनकी दुकान थी। उन्होंने मुझसे कहा- 'बम्बई चलो, वहाँ से गिरिनारजी चले जाना।' मैंने कहा- 'मैं पैदल यात्रा करूँगा।'
यद्यपि साधन कुछ भी न था- साधन के नाम पर एक पैसा साथ न था, फिर भी अपनी दरिद्र अवस्था वचनों द्वारा सेठ के सामने व्यक्त न होने दी- मन में याचना का भाव नहीं आया।
सेठजी को मेरे ऊपर अन्तरंग से प्रेम हो गया। प्रेम के साथ मेरे प्रति दया की भावना भी हो गई। बोले 'तुम आग्रह मत करो, हमारे साथ बम्बई चलो, हम तुम्हारे हितैषी हैं।'
उनके आग्रह करने पर मैंने भी उन्हीं के साथ बम्बई प्रस्थान कर दिया। नाशिक होता हुआ रात्रि के नौ बजे बम्बई के स्टेशन पर पहुँचा। रौशनी आदि की प्रचुरता देखकर आश्चर्य में पड़ गया।
यह चिंता हुई कि पास में तो पैसा नहीं, क्या करूँगा? नाना विकल्पों के जाल में पड़ गया, कुछ भी निश्चित न कर सका। सेठजी के साथ घोड़ा-गाड़ी में बैठकर जहाँ सेठ साहब ठहरे उसी मकान में ठहर गया।
मकान क्या था स्वर्ग का एक खंड था। देखकर आनंद के बदले खेद-सागर में डूब गया। क्या करूँ? कुछ भी निश्चित न कर सका। रात्रि भर नींद नहीं आई। प्रातः शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर बैठा था कि सेठजी ने कहा- 'चलो मंदिर चलें और आपका जो भी समान हो वह भी लेते चलें। वहीं मंदिर के नीचे धर्मशाला में ठहर जाना।' मैंने कहा- 'अच्छा।'
समान लेकर मंदिर गया, नीचे धर्मशाला में समान रखकर ऊपर दर्शन करने गया। लज्जा के साथ दर्शन किये, क्योंकि शरीर क्षीण था। वस्त्र मलिन थे। चेहरा बीमारी के कारण विकृत था। शीघ्र दर्शनकर एक पुस्तक उठा ली और धर्मशाला में स्वाध्याय करने लगा। सेठजी आठ आने देकर चले गए।
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
?आजकी तिथी- आषाढ़ कृ. अमा.?
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