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JainSamaj.World
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रामटेक - ४२


Abhishek Jain

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जय जिनेन्द्र बंधुओं,


     पूज्य वर्णीजी की दृष्टि धर्म के मूल पर हमेशा रही। अतः वर्णीजी ने सभी तीर्थ स्थानों में विद्वान द्वारा हमेशा धार्मिक सिद्धांतों की व्याख्या तथा नियमित शास्त्र प्रवचन को बहुत आवश्यक कार्य बताया।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?


                      *"रामटेक"*

                     *क्रमांक - ४२*

             हम लोग मेले के अवसर पर हजारों रुपया व्यय कर देते हैं, परंतु लोगों को यह पता नहीं चलता कि मेला करने का उद्देश्य क्या है? समय की बलवत्ता है जो हम लोग बाह्य कार्यों में द्रव्य का व्ययकर ही करने को कृतार्थ मान  लेते हैं।   

           मंदिरों में चाँदी के किवाड़ों की जोड़ी, चाँदी की चौकी, चाँदी का रथ, सुवर्ण के चमर, चाँदी की पालकी आदि बनवाने में ही व्यय करना पुण्य समझते हैं।

       जब इन चाँदी के सामान को अन्य लोग देखते हैं तब यही अनुमान करते हैं कि जैनी लोग बड़े धनाढ्य हैं, किन्तु यह नहीं समझते कि जिस धर्म का यह पालन करने वाले हैं उस धर्म का मर्म क्या है?

         यदि उसको वह लोग समझ जावें तो अनायास ही जैनधर्म से प्रेम करने लगें। श्री अमृतचंदसूरि ने तो प्रभावना का यह लक्षण लिखा है कि-

'आत्मा प्रभावनीयो रत्नत्रयतेजसा सततमेव।
     दानतपोजिनपूजाविद्यातिशयैर्जिनधर्मः।।'

   
          वास्तविक प्रभावना तो यह है कि अपनी परिणति जो अनादि काल से पर को आत्मीय मान कलुषित हो रही है तथा परमें निजत्व का अवबोध कर विपर्यय ज्ञानवाली हो रही है एवं परपदार्थों में रागद्वेष कर मिथ्या-चारित्रमयी हो रही है, उसे आत्मीय श्रद्धान ज्ञानचारित्र के द्वारा ऐसी निर्मल बनाने का प्रयत्न किया जाय, इससे इतर धर्मावलंबियों के ह्रदय में स्वयमेव समा जावे कि धर्म तो यह वस्तु है। इसी को निश्चय प्रभावना कहते हैं। 
        

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?
   ?आजकी तिथी- ज्येष्ठ शुक्ल ३?

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