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JainSamaj.World
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खुरई में तीन दिन - २८


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

       जैनधर्म की महान प्रभावना करने वाले पूज्य वर्णी जी से उनके प्रारंभिक समय में जब वह अपनी ज्ञान लिप्सा के आधार पर आत्मकल्याण हेतु जैनधर्म के मर्म को जानने हेतु पुरुषार्थ शील थे,

      विद्धवान ने गणेश प्रसाद से कहा- *मनुष्य जैनधर्म को कुछ समझते तो है नहीं, केवल खानपान के लोभ में जैन बन जाते हैं।*

     आत्मकथा का यह प्रसंग वर्णी को जिनागम के ज्ञान प्राप्ति हेतु उनके जीवन का एक महत्वपूर्ण बिंदु था।

    विद्धवान के इस तरह के व्यवहार से ही वर्णी जी संकल्पित हुए जिनधर्म के मर्म जानने को। उनकी प्रतिज्ञा का उल्लेख अगली प्रस्तुती में रहेगा।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

             *"खुरई में तीन दिन"*

                    क्रमांक - २८

             श्री प्रभु पार्श्वनाथ के दर्शन के अनन्तर श्रीमान पंडितजी का प्रवचन सुना। पंडितजी बहुत ही रोचक व मार्मिक विवेचन के साथ तत्व की व्याख्या करते थे। यद्यपि पण्डितजी का विवेचन सारगर्भित था, परंतु हम अज्ञानी लोग उसका विशेष लाभ नहीं ले सके।

      फिर भी विशुद्ध भाव होने से पुण्य का संचय करने में समर्थ हुए। शास्त्र समाप्ति के अनन्तर डेरापर आकर सो गये। प्रातः काल शौचादि से निरवृत्त होकर श्री मंदिरजी में दर्शनार्थ करने के निमित्त चले गए। प्रातःकाल का समय था। लोग स्वर के साथ पूजन कर रहे थे। सुनकर मैं गदगद हो गया। देव-देवांगनाओं की तरह मंदिर में पुरुष और नारियों का समुदाय था। इन सबके स्तवनादि पाठ से मंदिर गूँज उठता था।

            ऐसा प्रतीत होता था, मानो मेघध्वनि हो रही हो। पूजा समाप्त होने के अनन्तर श्रीमान पण्डितजी का प्रवचन हुआ। पण्डितजी समयसार और पद्मपुराण शास्त्रों का रहस्य इतनी स्वच्छ प्रणाली से कह रहे थे कि दो सौ स्त्री पुरुष चित्रलिखित मनुष्यों के समान स्थिर हो गये थे। मेरी आत्मा में विलक्षण स्फूर्ति हुई। 

       जब शास्त्र विराजमान हो गए, तब मैंने श्रीमान वक्ताजी से कहा- हे भगवन ! मैं अपनी मनोवृत्ति मे जो कुछ आया उसे आपको श्रवण कराना चाहता हूँ।' आज्ञा हुई- 'सुनाओ।'

      मैंने कहा- 'ऐसा भी कोई उपाय है जिससे मैं जैनधर्म का रहस्य जान सकूँ?' आपने कहा- 'तुम कौन हो?'

     मैंने कहा- 'भो भगवन ! मैं वैष्णव कुल के असाटी वंश में उत्पन्न हुआ हूँ। मेरे वंश के सभी लोग वैष्णव धर्म के उपासक हैं, किन्तु मेरी श्रद्धा भाग्योदय से इस जैनधर्म में दृढ़ हो गई है। निरंतर इसी चिंता में रहता हूँ कि जैनधर्म का कुछ ज्ञान हो जाए।'

      पण्डितजी महोदय ने प्रश्न किया- कि 'तुमने जैनधर्म में कौन सी विलक्षणता देखी, जिससे कि तुम्हारी अभिरुचि जैनधर्म की ओर हो गई है? '      मैंने कहा- 'इस धर्म वाले दया का पालन करते हैं, छानकर पानी पीते हैं, रात्रि भोजन नहीं करते, स्वच्छता पूर्वक रहते हैं, स्त्री पुरुष प्रतिदिन मंदिर जाते हैं, मंदिर मे मूर्तियाँ बहुत सुंदर होती हैं, प्रतिदिन मंदिर में शास्त्र प्रवचन होता है, किसी दूसरी जाति का भोजन नहीं करते हैं और भोजन की सामग्री सम्यक प्रकार देखकर उपयोग में लाते हैं इत्यादि शुभाचरण की विशेषता देखकर मैं जैनधर्म मैं दृढ़ श्रद्धावान हो गया हूँ।'

       पण्डितजी ने कहा- 'यह क्रिया तो हर धर्म वाले कर सकते हैं, हर कोई दया पालता है। तुमने धर्म का मर्म नहीं समझा। आजकल मनुष्य न तो कुछ समझें और न जानें, केवल खान-पान के लोभ से जैनी हो जाते हैं। तुमने बड़ी भूल की, जो जैनी हो गए, ऐसा होना सर्वथा अनुचित है। वंचना करना महापाप है।

       जाओ, मैं क्या समझाऊँ। मुझे तो तुम्हारे ऊपर तरस आता है। न तो तुम वैष्णव ही रहे और न जैनी ही। व्यर्थ ही तुम्हारा जीवन जायेगा।'                  ? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?  ? आजकी तिथी- ज्येष्ठ कृष्ण ८ ?

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