सुरुपचन्द बनपुरिया और खुरई यात्रा - २५
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आत्मकथा के प्रस्तुत उल्लेख के माध्यम से हम पूज्य वर्णीजी की ज्ञानपिपासा शांत होने हेतु उनके उस मार्ग पर आरोहण के क्रम को जान रहे हैं।
निश्चित ही रुचिवान पाठक रोचकता पूर्वक वर्णीजी के ज्ञानाभ्यास प्राप्ति के क्रम को जान रहे होंगे।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"सुरुपचंद्रजी बनपुरिया और खुरई यात्रा"*
क्रमांक - २५
स्वरूपचंद जी बनपुरया के यहाँ प्रतिवर्ष श्री जिनेन्द्र की जलयात्रा होती थी। इनके यहाँ आनन्द से दो माह बीत गये। अनंतर श्री स्वरूपचंद जी बनपुरिया का किसी कार्यवश श्रीमंत के यहाँ जाने का विचार हुआ।
उन्होंने आग्रह के साथ मुझसे कहा- 'जब तक मैं वापिस न आ जाऊँ तब तक यहाँ से अन्यत्र न जाएँ।'
इस समय मोतीलाल जी वर्णी जतारा चले गए। इससे मेरा चित्त खिन्न हो गया। किन्तु संसार की दशा का विचार कर यही निश्चिय किया कि 'जहाँ संयोग है वहाँ वियोग है और जहाँ वियोग है वहाँ संयोग है।' अन्य की कथा छोड़िये, संसार का वियोग होने पर ही मोक्ष का संयोग होता है। जब वस्तु स्थिति ही इस रूप है तब शोक करना व्यर्थ है।'
इतना विचार किया तो भी मोतीलालजी वर्णी के वियोग में मैं उदास ही रहने लगा। इससे इतना लाभ अवश्य हुआ कि मेरा माची रहना छूट गया। यदि मोतीलाल वर्णीजी महोदय जतारा न जाते तो मैं माची कदापि नहीं छोड़ता।
स्वरूपचंद बनपुरिया के साथ मेरे भी भाव खुरई जाने को हो गए। उन्होंने भी हार्दिक प्रेम के साथ चलने की अनुमति दे दी। दो दिनों में हम लोग टीकमगढ़ पहुँच गए।
उन दिनों यहाँ जैनधर्म के मार्मिक ज्ञाता दो विद्धवान थे। एक का नाम श्री गोटीराम भायजी था। आप संस्कृत के प्रकांड विद्धवान तो थे ही, साथ ही श्रीगोमटसारादि ग्रंथों के मार्मिक विद्धवान थे।
उनकी वचनिका में अच्छा जनसमुदाय उपस्थित रहता था। मैं भी आपके प्रवचन में गया और आपकी व्याख्यान शैली सुन मुग्ध हो गया। मन में यही भाव हुआ कि- 'हे प्रभो ! क्या आपके दिव्यज्ञान में यह देखा गया है कि मैं भी किसी दिन जैनधर्म का ज्ञाता होऊँगा।'
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*? ? आजकी तिथी- ज्येष्ठ कृष्ण ३?
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