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JainSamaj.World
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जयपुर की असफल यात्रा - २२


Abhishek Jain

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☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

       ज्ञानार्जन की तीव्र लालसा रखने वाले गणेश प्रसाद निकले तो ज्ञान प्राप्ति हेतु जयपुर के लिए थे लेकिन समान चोरी होने के कारण वापिस लौटना पड़ा।

     भोजन की कोई व्यवस्था नहीं। अत्यंत भूखा होने पर बर्तनों के अभाव में भी पथ्थर पर पेड़ के पत्तों में भोजन बना अपनी भूख को शांत किया। और आगे भी कुछ समय तक यह क्रम चला।

      महापुरुषों का जीवन जीवन सामान्य नहीं होता, उनके सम्मुख परिस्थितियाँ असामान्य होती हैं लेकिन वह धर्म के प्रति उनकी असामान्य आस्था के आधार पर आगे बढ़ते जाते हैं।

      भूख की अवस्था में वर्णी जी के भोजन का यह वर्णन बड़ा ही रोचक है।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

        *"जयपुर की असफल यात्रा"*

                    क्रमांक - २२

                दो पैसे के चने लेकर एक कुएँ पर चाबे, फिर चल दिया, दूसरे दिन झाँसी पहुँचा। जिनालयों की वंदना कर बाजार में आ गया, परंतु पास में तो साढ़े पाँच आना ही थे, अतः एक आने के चने लेकर, गाँव के बाहर एक कुँए पर आया और खाकर सो गया।

      दूसरे दिन बरुआ सागर पहुँच गया। यह वही बरुआसागर है जो स्वर्गीय श्री मूलचंद जी सराफ और पंडित देवकीनन्दन जी महाशय की जन्मभूमि है।

        उन दिनों मेरा किसी से परिचय नहीं था, अतः जिनालय की वंदना कर बाजार से एक आने के चने लेकर गाँव के लिए प्रस्थान कर दिया।

     यहाँ से चलकर कटेरा आया। थक गया। कई दिन से भोजन नहीं किया था। पास में कुल तीन आना शेष थे। यहाँ एक जिनालय है उसके दर्शन कर बाजार से एक आने का आटा, एक पैसे उड़द की दाल, आध आने का घी और एक पैसे का नमक धनिया आदि लेकर गाँव के बाहर एक कुँए पर आया।

       पास में एक बर्तन न थे, केवल एक लोटा और छन्ना था। केवल दाल बनाई जाए? यदि लोटा में दाल बनाई जाए तो पानी कैसे छानूँ? आटा कैसे गूनूँ ?

      आवश्यकता अविष्कार की जननी है' यह बात चरितार्थ हुई। आटा को तो पत्थर पर गून लिया। परंतु दाल कैसे बने? यह उपाय सूझा कि पहले उड़द की दाल को कपढ़े के पल्ले में भिंगो दी।

       उसके भीग चुकने पर आटे की रोटी बनाकर उसके अंदर उसे रख दिया। उसी में नमक धनिया व मिर्च भी मिला दी। पश्चात उसका गोला बनाकर और उस पर पलाश के पत्ते लपेटकर जमीन खोदकर उसे एक गड्ढे में उसे रख दिया।

       ऊपर कंडा रख दिए। उसकी आग तैयार होने पर शेष आटे की  बाटियाँ बनाई और उन्हें सेककर घी से चुपड़ दिया। धीरे-२ उसके ठंडा होने पर उसके ऊपर से अधजले पत्तों को दूर कर दिया।

       फिर गोले को फोड़कर छेवले की पत्तर में  दाल निकाल लिया। दाल पक गई थी। उसको खाया। मैंने आज तक बहुत जगह भोजन किया  है, परंतु उस दाल का जो स्वाद था, वैसी दाल आज तक भोजन में नहीं आई।

        इस प्रकार चार दिन के बाद भोजन कर जो तृप्ति हुई उसे मैं ही जानता हूँ। अब पास मैं एक आना रह गया। यहाँ से चलकर फिर वही चाल अर्थात दो पैसे के चने लेकर चाबे और वहाँ से चलकर पार के गाँव पहुँच गया।                     

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल१४?

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