Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • entries
    70
  • comments
    0
  • views
    7,178

धर्ममाता श्री चिरोज़ा बाई जी -१५


Abhishek Jain

560 views

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,

           आत्मकथा के आज के वर्णन से उन महत्वपूर्ण महिला का भी वर्णन प्रारम्भ हो रहा है जिनका जैनधर्म की पताका फहराने वाले गणेश प्रसाद जी वर्णी के धर्म-ध्यान में विशेष योगदान रहा है। वह महिला है वर्णीजी की धर्ममाता चिरौंजा बाईजी।

          जिनधर्म के सम्बर्धन में पूज्य वर्णीजी का बड़ा योगदान है तो वर्णीजी की धर्मसाधना में बाईजी का बहुत बड़ा सहयोग रहा है।

       बाई एक अत्यंत धार्मिक महिला थी। ऐसी विरली ही माँ होती हैं जो अपने पुत्र का पालन पोषण तो करती है साथ ही उसकी धर्म साधना में भी मार्गदर्शक बनती हैं।

        वर्णीजी के पूर्ण आत्मकथा को जानकर हम सभी यह निर्णय भी अवश्य करेंगे कि जिस प्रकार बाई जी के योगदान के माध्यम से गणेशप्रसाद ने जिनधर्म का महान संवर्धन किया अतः हमको भी धर्ममार्ग में आगे बढ़ रहे सधर्मी के धर्मध्यान में यथासंभव सहभागी बनना चाहिए।

?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?

      *"धर्ममाता श्री चिरौंजाबाई जी"*

                       क्रमांक - १५

                     एक दिन श्री भायजी व मोतीलाल वर्णीजी ने कहा - 'सिमरामें चिरौंजाबाई बहुत सज्जन और त्याग की मूर्ति हैं, उनके पास चलो।'

           मैंने कहा- 'आपकी आज्ञा शिरोधार्य है, परंतु मेरा उनसे परिचय नहीं है, उनके पास कैसे चलूँ?'

        तब उन्होंने कहा- 'वहाँ पर एक क्षुल्लक रहते हैं। उनके दर्शन के निमित्त चलो, अनायास बाईजी का भी परिचय हो जायेगा।'

       मैं दोनों महाशयों के साथ सिमरा गया। यह गाँव जतारा से चार मील पूर्व है। उस समय वहाँ दो जिनालय और जैनियों के बीस घर थे। वे सब सम्पन्न थे। जिनालयों का दर्शन कर चित्त बहुत प्रसन्न हुआ।

         एक मंदिर बाईजी के श्वसुर का बनवाया हुआ है। इसमें संगमरमर की वेदी और चार फुट की एक सुंदर मूर्ति है, जिसके दर्शन करने से बहुत आनंद आया।

         दर्शन करने के बाद शास्त्र पढ़ने का प्रसंग आया। भायजी ने मुझसे शास्त्र पढ़ने को कहा। मैं डर गया। मैंने कहा- 'मुझे तो ऐसा बोध नहीं जो सभा में शास्त्र पढ़ सकूँ। फिर क्षुल्लक महराज आदि अच्छे-अच्छे विज्ञ पुरुष विराजमान हैं। उनके सामने मेरी हिम्मत नहीं होती।'

             परंतु भायजी साहब के आग्रह से शास्त्र गद्दी पर बैठ गया। देवयोग से शास्त्र पद्मपुराण था, इसलिए विशेष कठिनाई नहीं हुई। दस पत्र बाँच गया। शास्त्र सुनकर जनता प्रसन्न हुई, क्षुल्लक महराज भी प्रसन्न हुए।

      उस दिन भोजन भी बाईजी के घर था। बाईजी साहब हम हम तीनों को भोजन के लिए ले गई। चौकामें पहुँचने पर अपरिचित होने के कारण मैं भयभीत होने लगा, किन्तु अन्य दोनों जन चिरकाल से परिचित होने के कारण बाईजी से वार्तालाप करने लगे। परंतु मैं चुपचाप भोजन करने बैठ गया। यह देखकर बाई ने मुझसे स्नेह भरे शब्दों में कहा- 'भय की कोई बात नहीं सुख पूर्वक भोजन करो।'

      मैं फिर भी नीची दृष्टि किये चुपचाप भोजन करता रहा। यह देखकर बाईजी से न रहा गया। उन्होंने भायजी व वर्णीजी से पूंछा- 'क्या यह मौन से भोजन करता है?' उन्होंने कहा- 'नहीं यह आप से परिचित नहीं है। इसी से इसकी ऐसी दशा हो रही है।'

     इस पर बाईजी ने कहा- 'बेटा सानंद भोजन करो, मैं तुम्हारी धर्ममाता हूँ, यह घर तुम्हारे लिए है, कोई चिंता न करो, मैं जब तक हूँ तुम्हारी रक्षा करूँगी।'

? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल ६?

0 Comments


Recommended Comments

There are no comments to display.

Guest
Add a comment...

×   Pasted as rich text.   Paste as plain text instead

  Only 75 emoji are allowed.

×   Your link has been automatically embedded.   Display as a link instead

×   Your previous content has been restored.   Clear editor

×   You cannot paste images directly. Upload or insert images from URL.

  • अपना अकाउंट बनाएं : लॉग इन करें

    • कमेंट करने के लिए लोग इन करें 
    • विद्यासागर.गुरु  वेबसाइट पर अकाउंट हैं तो लॉग इन विथ विद्यासागर.गुरु भी कर सकते हैं 
    • फेसबुक से भी लॉग इन किया जा सकता हैं 

     

×
×
  • Create New...