मार्गदर्शक कडोरेलालजी भाई जी - १२
☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आत्मकथा प्रस्तुती में आज का खंड हमारी संवेदना को छूने वाला है। जिनधर्म पर श्रद्धा को आधार पर गणेश प्रसाद जी अपनी माँ तथा पत्नी का परित्याग हेतु तत्पर हो गए।
श्रद्धा का प्रवाह तो था मगर उस समय विवेक का अभाव था जो उन्होंने अपने परिजनों से ऐसा व्यवहार किया। इस बात को वर्णी जी ने स्वयं स्पष्ट किया है।
आत्मकथा के इन खंडों से गणेशप्रसादजी का जिनधर्म के प्रति दृढ़ श्रद्धान का परिचय अवश्य मिल रहा है।
?संस्कृति संवर्धक गणेशप्रसाद वर्णी?
*"मार्गदर्शक कड़ोरेलालजी भायजी"*
क्रमांक - १२
एक दिन हम सरोवर पर भ्रमण करने के लिए गए। वहाँ मैंने भायजी साहब से कहा- 'कुछ ऐसा उपाय बतलाइये, जिस कारण कर्म बंधन से मुक्त हो सकूँ।'
उन्होंने कहा- 'उतावली करने से कर्मबंधन से छुटकारा न मिलेगा, शनैः-शनैः कुछ-कुछ अभ्यास करो, पश्चात जब तत्व ज्ञान हो जावे, तब रागादि निरवृत्ति के लिए व्रतों का पालन करना उचित है।'
मैंने कहा- 'आपका कहना ठीक है परंतु मेरी स्त्री और माँ हैं, जो कि वैष्णव धर्म को पालने वाली हैं। मैंने बहुत कुछ उनसे आग्रह किया कि यदि आप जैनधर्म स्वीकार करें तो मैं आपके में रहूँगा, अन्यथा मेरा आपसे कोई संबंध नहीं।'
माँ ने कहा- 'बेटा इतना कठोर वर्ताव करना अच्छा नहीं, मैंने तुम्हारे पीछे क्या क्या कष्ट सहे, यदि उनका दिग्दर्शन कराऊँ, तो तुम्हे रोना आ जाएगा।'
परंतु मैंने एक न सुनी; क्योंकि मेरी श्रद्धा तो जैनधर्म की ओर गई थी। उस समय विवेक था ही नहीं, अतः माँ से यहाँ तक कह दिया- 'यदि तुम जैनधर्म अंगीकार न करोगी तो माँ ! मैं आपके हाथ का भोजन तक न करूँगा।' मेरी माँ सरल थीं, रह गईं और रोने लगीं।
उनकी यह धारणा थी कि अभी छोकरा है, भले ही इस समय मुझसे उदास हो जाय, कुछ हानि नहीं, परंतु स्त्री का मोह न छोड़ सकेगा। उसके मोहवश झक मारकर घर रहेगा।
परंतु मेरे ह्रदय में जैनधर्म का श्रद्धा होने से अज्ञानतावश ऐसी धारणा हो गई थी कि 'जितने जैनी होते हैं वे सब उत्तम प्रकृति के मनुष्य होते हैं। इसके सिवाय दूसरों से संबंध रखना अच्छा नहीं।'
अतः माँ से कह दिया- 'अब न तो हम तुम्हारे पुत्र ही हैं और न तुम हमारी माता हो।' यही बात स्त्री से भी कह दी; जब ऐसे कठोर वचन मेरे मुख से निकले, तब मेरी माता और स्त्री अत्यंत दुखी होकर रोने लगीं, पर मैं निष्ठुर होकर वहाँ से चला गया।
? *मेरी जीवन गाथा - आत्मकथा*?? आजकी तिथी- वैशाख शुक्ल १?
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