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☀शरीरविस्मृति - 327


Abhishek Jain

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? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२७  ?

                    *शरीरविस्मृति*


        सन् १९५२ के आरम्भ में पूज्य आचार्य महराज शान्तिसागर जी महराज दहीगाँव नाम के तीर्थक्षेत्र में विराजमान थे। एक दिन वहाँ के मंदिर से दूसरी जगह जाते हुए उनका पैर ठीक सीढ़ी पर न पड़ा, इसलिए वे जमीन पर गिर पड़े।

       यह तो बड़े पुण्य की बात थी कि वह प्राण लेने वाली दुर्घटना एक पैर में गहरा घाव ही दे पाई। महराज के पैर में डेढ़ इंच गहरा घाव हो गया, जिसमें एक बादाम सहज ही समा सकती थी। उस स्थिति में महराज ने पैर में किसी प्रकार की पट्टी वगैरह नहीं बंधवाई, एक साधारण सी निर्दोष औषधि पैर में लगती थी।

          उनके पास सिवनी से दो व्यक्ति दर्शनार्थ पहुँचे थे। उन्होंने आकर हमें सुनाया कि महराज के पास हमें तीन चार घंटे रहने का सौभाग्य मिला था। उस समय हम लोगों ने यह विलक्षण बात देखी कि पैर में भयंकर चोट होते हुए भी उन्होंने हमारे सामने एक बार भी अपने पैर के घाव की ओर दृष्टि नहीं दी।

        उनकी शरीर के प्रति कितनी निर्ममता थी इसका ज्ञान उनके पैर के घाव के प्रति उपेक्षा भाव से स्पष्ट होता था।

*?स्वाध्याय चा. चक्रवर्ती ग्रंथ का ?*

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