मोक्ष मार्ग में प्रीति ही मनुष्य जीवन का सार है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि सभी प्रकार के जीवों में मनुष्य ही श्रेष्ठ जीव है। जीवन में सुख-शान्ति का मतलब जितना वह समझ सकता है उतना कोई तिर्यंच आदि जीव नहीं। किन्तु देखने को यह मिलता है कि मनुष्य ही सबसे अशान्त जीव है। आचार्य ऐसे अशान्त जीव को शान्ति का मार्ग बताते हुए कहते हैं कि तू सांसारिक सुखों में उलझकर मोक्ष मार्ग को मत छोड़। मोक्ष का तात्पर्य शब्द कोश में शान्ति, दुःखों से निवृत्ति ही मिलता है। आचार्य के अनुसार जब हमारे जीवन का ध्येय शान्ति की प्राप्ति होगा तो हम सांसारिक सुखों को सही रूप में भोगते हुए भी उनमें भटकेंगे नहीं। जब हमारा ध्येय शान्ति की प्राप्ति होगा तब तदानुरूप ही हमारी क्रिया होगी। अतः शुद्ध मोक्षमार्ग में प्रीति आवश्यक है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
128. मूढा सयलु वि कारिमउ भुल्लउ मं तुस कंडि।
सिव-पहि णिम्मलि करहि रइ घरु परियणु लहु छंडि।।
अर्थ - हे मूर्ख! यह समस्त जगत ही कृत्रिम है,(सांसारिक सुखों में) भटका हुआ तू भूसी को कूटकर भूसी अलग मत कर। (समय व्यर्थ बरबाद मत कर) । घर, (और) परिवार को छोड़कर शुद्ध मोक्ष मार्ग में प्रीति कर।
शब्दार्थ -मूढा - हे मूर्ख, सयलु-समस्त, वि-ही, कारिमउ-कृत्रिम, भुल्लउ-भटका हुआ, मं-मत, तुस-भूसी को, कंडि-कूटकर भूसी अलग कर, सिव-पहि-मोक्ष मार्ग में, णिम्मलि-शुद्ध, करहि -कर, रइ -प्रीति, घरु -घर, परियणु-परिवार, लहु-शीघ्र, छंडि-छोड़कर।
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