युवा अवस्था व्यक्ति की महत्वपूर्ण अवस्था है
आचार्य योगीन्दु कहते हैं कि व्यक्ति की जीवन यात्रा का सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव उसकी युवावस्था है। बच्चे का जब बचपन होता है तब उसके माता-पिता की युवावस्था होती है। उस युवावस्था में माता-पिता का जीवन अनुशासन में होता है तो वे बच्चे की परवरिश बहुत अच्छी कर पाते हैं। जब बच्चा युवा अवस्था को प्राप्त होता है तो तो वही बच्चा युवा अवस्था प्राप्त कर वृद्धावस्था को प्राप्त हुए अपने माता-पिता की परवरिश अच्छी तरह से कर पाता है। इस प्रकार बच्चों और माता-पिता का सम्पूर्ण जीवन आनन्दमय, सुख और शान्ति के साथ व्यतीत होता चलता है। इसके लिए मात्र आवश्यक्ता है युवावस्था में जीवन को अनुशासित बनाये रखने की। आज जितने हालात बिगड़ते दिखायी दे रहे हैं वे मात्र युवावस्था में उत्पन्न हुए दोषों के कारण ही हैं। आचार्य योगिन्दु युवावस्था में अनुशासनमय जीवन जीने वालों के लिए कहते हैं कि इस जीवलोक में वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष हैं, और वे ही जीवनदशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा हैं, जो युवारूपी यौवन समुद्र में गिरे हुए भी आसानी से तैर जाते है। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
117. ते चिय धण्णा ते चिय सप्पुरिसा ते जियंतु जिय-लोए।
वोद्दह-दहम्मि पडिया तरंति जे चेव लीलाए।।
अर्थ - इस जीवलोक में वे ही धन्य हैं, वे ही सत्पुरुष हैं, (और) वे ही जीवनदशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा हैं, जो युवारूपी (यौवन) समुद्र में गिरे हुए भी आसानी से तैर जाते है।
शब्दार्थ - ते -वे, चिय-ही, धण्णा -धन्य हैं, ते-वे, चिय-ही, सप्पुरिसा-सत्पुरुष हैं, ते- जियंतु-जीवन दशा में ही संसार बन्धन से मुक्त महा आत्मा, जिय-लोए-जीव लोक में, वोद्दह-दहम्मि- यौवनरूपी समुद्र में, पडिया-गिरे हुए, तरंति - तैर जाते हैं, जे - जो, चेव-ही, लीलाए-आसानी से।
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