तप के फल की प्राप्ति के लिए भोजन में आसक्ति का त्याग आवश्यक
बन्धुओं, मैं नहीं जानती कि आप सब इन दोहों के माध्यम से कितना आनन्द ले पा रहे हैं, लेकिन मुझे तो बहुत आनन्द आ रहा है। मुझे ऐसा लग रहा है जैसे हमारे घर में हमारे माता-पिता हमको हमारी गलतियाँ बताकर अच्छा जीवन जीना सीखाते हैं, वैसे ही आचार्य योगीन्दु अपने साधर्मी साधुओं को साधु जीवन की शिक्षा दे रहे हैं। वे कहते हैं, हे साधु! यदि तू बारह प्रकार के तप के फल की इच्छा करता है तो मन, वचन काय के द्वारा भोजन की आसक्ति का त्याग कर। देखिये इससे सम्बन्धित आगे का दोहा -
111.3 जइ इच्छसि भो साहू बारह-विह-तवहलं महा-विउलं।
तो मण-वयणे काए भोयण-गिद्धी विवज्जेसु।।
अर्थ - हे साधु! यदि (तू) बहुत बडे़ बारह प्रकार के तप के फल की इच्छा करता है तो मन, वचन काय के द्वारा भोजन की आसक्ति का त्याग कर।
शब्दार्थ - जइ-यदि, इच्छसि-इच्छा करता है, भो-हे, साहू -साधु, बारह-विह-तवहलं -बारह प्रकार के तप फल की, महा-विउलं-बहुत बड़े, तो-तो, मण-वयणे -मन और वचन, काए-काय के द्वारा, भोयण-गिद्धी -भोजन की आसक्ति को, विवज्जेसु-छोड़।
0 Comments
Recommended Comments
There are no comments to display.