?निरंतर आत्मचिंतन - अमृत माँ जिनवाणी से - २४०
? अमृत माँ जिनवाणी - २४० ?
"निरंतर आत्मचिंतन"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के जीवन का उल्लेख चल रहा था। उसी क्रम में आगे-
पूज्य पायसागरजी महराज आत्मध्यान में इतने निमग्न होते थे कि उनको समय का भान नहीं रहता था। कभी-कभी चर्या का समय हो जाने पर भी वे ध्यान में मस्त रहते थे। उस समय कुटी की खिड़की से कहना पढ़ता था कि महराज आपकी चर्या का समय हो गया।
इस अवस्था वाले पायसागर महराज के चित्र से क्या पूर्व के व्यसनी नाटकी रामचंद्र गोगाककर के जीवन की तुलना हो सकती है? जिस प्रकार राहु और चंद्र में तुलना असंभव है, इसी प्रकार उनके पूर्व जीवन तथा वर्तमान में रंच मात्र भी साम्य नहीं था। तप, स्वाध्याय तथा ध्यान के द्वारा उनका जीवन स्वर्ण के समान मोहक बन गया था।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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