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?मूल्यवान मनुष्य भव - अमृत माँ जिनवाणी से - २१०


Abhishek Jain

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?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१०   ?


             "मूल्यवान मनुष्य भव"


            एक बार बारामती में सेठ गुलाबचंद खेमचंदजी सांगली ने पर्युषण पर्व में पूज्य आचार्यश्री के उपदेश तथा प्रेरणा से व्रत प्रतिमा ग्रहण करने का निश्चय किया।

         उस दिन के उपदेश में अनेक मार्मिक एवं महत्वपूर्ण बातें कहते हुए महराज ने कहा था कि तुम लोगों की असंयमी वृत्ति देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है कि तुम लोग जीवन के इतने दिन व्यतीत हो जाने पर भी अपने कल्याण के विषय में जाग्रत नहीं होते हो।

        मनुष्य भव और उसका एक-एक क्षण कितना मूल्यवान है, यह नहीं विचारते। शास्त्रों में लिखा है कि-

 "जो विषयों का उपभोग किए बिना उनको त्यागते हैं, वे श्रेष्ठ हैं और जो भोगने के पश्चात त्यागते हैं, वे मध्यम हैं, किन्तु जो विषयों को भोगते ही रहते हैं और छोड़ने का नाम नहीं लेते, वे अधम हैं।"

          व्रती बनने से डरना नहीं चाहिए। व्रत में त्रुटि आने पर प्रायश्चित लेना चाहिए। मुनियों तक को प्रायश्चित कहा गया है। बड़ा दोष हो जाने पर भी उसका प्रायश्चित किया जाता है।


? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?

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