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पार्श्वपुराण-ग्रन्थका सार


 मंगलाचरण-पार्श्वस्तुति

मोह अंधकार को नाश करने के लिए सूर्य के समान, तप लक्ष्मी के पति भगवान पार्श्वनाथ मुझे सुमति प्रदान करें । हे वामा के नन्दन ! आपने संसार के कल्याण के लिए जन्म लिया है । मुनिजन आप का ध्यान कर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं । हे तीनों लोकों के तिलक, सज्जन पुरुषों के हृदय कमल को विकसित करने वाले जगत के बांधव, अनंत अनुपम गुणों के भंडार ! आपने रागरूपी सर्प के दातों को उखाड़ कर फेंक दिया और अरहंत पद प्राप्त कर संसार के समस्त प्राणियों के शरणभूत हो गये हो । हे स्वामी ! मेरे मन में आकर, निवास करो मेरे मंगल करो ।

आप निर्मल ज्ञान के दातार हो, केवलज्ञान के धनी ! आपका मुखचन्द्र रात्रि के चंद्रमा को लजाता है। आपके नाम के मंत्र की जाप पापरूपी सर्पों को भगाने में गरूड़ के समान काम करती है । आप सदा जयवंत रहें आपका प्रवचन संसाररूपी इस महल में रत्नों के दीपक समान प्रकाश करता है | हे सरस्वती देवी ! मेरे हृदयकमल में निवास कर मेरे सम्पूर्ण दारिद्र का नाश करो ।

मैं वृषभसेन आदि आचार्यों गुरूगौतम गणधर को नमस्कार करता हूँ जो संसार सागर से पार होने के लिए जहाज के समान हैं । और मैं कुन्दकुन्द आचार्यों को भी नमस्कार करता हूँ। जो जैन तत्त्वों के जाननहार है । इस प्रकार सम्पूर्ण पूज्यों को पूज्य कर मैं अपनी अल्प बुद्धि के अनुसार भाषा पार्श्वपुराण की रचना करता हूँ जो स्वपर कल्याण करने वाली है ।

जिनेन्द्र भगवान के गुण तो अगम हैं जिनसेनाचार्य ने भी जिनका वर्णन कर अंत नहीं पा पाया है तब मैं अल्प बुद्धिवाला कौन सी गिनती मैं हूँ । जैसे जो भार हाथी भी नहीं ढो सकता उसे खरगोस पर रखा जाय तो कैसे ढो सकेगा । यह कार्य तो ऐसा हुआ जैसे आकाश को हाथ से नापना, सागर के जल को चुल्लू में भरना । फिर भी मैं भगवान के गुणों का वर्णन करने को उद्यत हुआ हूँ । मुझ में शक्ति तो नहीं किन्तु भक्ति के बल मैं पार्श्वपुराण की रचना कर रहा हूँ। वह भी पूर्व आचार्यों के कहने के अनुसार ।

मगध देश में राजगृह नाम का बड़ा सुन्दर नगर है। उस में राजा श्रेणिक राज्य करते थे । उनके चेलना नाम की विदुषी पटरानी थी । राजा क्षायिक सम्यग्दृष्टि नीतिमान पुण्यपुरुष थे । एक दिन राजा राज्य सभा में बैठा था कि रोमांचित नामक वनमाली ने छहों ऋतुओं के फलफूल एक साथ लाकर राजा 

को समर्पित किए और प्रणाम करके बोला: हे नृपवर ! विपुलाचल पर्वत पर भगवान वर्धमान स्वामी का समोशरण आया है जिस की शोभा का वर्णन मैं मुख से नहीं कह सकता । इस प्रकार माली के वचन सुनकर राजा अत्यन्त हर्षित हुआ और अपने सभी वस्त्राभूषण उतारकर माली को दे दिए। आसन से उठ कर जिस दिशा में भगवान का समोशरण विराजमान था सात पैर चलकर परोक्ष नमस्कार किया । नगर में आनंद भेरी बजवाई | प्रातः सभी नगर निवासियों के साथ समोशरण में पहुँच कर तीन प्रदक्षिणा दे नमस्कार किया । पश्चात् श्री गौतम गणधर को नमस्कार कर मनुष्य के कोठे में बैठ गया । राजा श्रेणिक ने गौतम गणधर से पूछा कि मैं भगवान पार्श्वनाथ का जीवनचरित्र सुनना चाहता हूँ, जिसके सुनने से भव्य जीवों के पाप क्षय होते हैं । ऐसा सुनकर गौतम गणधर ने कहा कि हे नृप श्रेणिक ! तुमनें बड़ा सुन्दर प्रश्न किया है। मैं पार्श्वप्रभु का चरित्र कहता हूँ । जिसमें मनुष्यभव सफल होता है सो तुम सुनो।

जिस प्रकार मगधनरेश के प्रति पार्श्वचरित्र गौतम गणधर ने कहा उसी के अनुसार मैं भी कहता हूँ । जैन कथा कल्पित नहीं होती है ऐसा निश्चय समझो, जैन वचन तो समुद्र के समान अगाध होते हैं । उसमें अर्थ पानी के समान होता है, जिसकी जितनी बुद्धि होती है अपनी बुद्धि के अनुसार ग्रहण कर लेते हैं ।

प्रथम अधिकार

जम्बूद्वीप की दक्षिण दिशा में भरत क्षेत्र है। उसके आर्य खंड में एक सुरम्य देश है । उसके मध्य पोदनपुर नामका बड़ा सुन्दर नगर था । जो स्वर्ग पुरी के समान सुन्दर धन धान्य संपदाओं से युक्त था । वहां का राजा अरविन्द बहुत धर्मात्मा था । उसके विश्वभूति नामका ब्राह्मण मंत्री था। मंत्री की अनुन्धरी नाम की सुयोग्य पत्नी थी । इन दोनों के कमठ और मरुभूति दो पुत्र थे । जो विष और अमृत के समान थे । बड़ा कमठ स्वभाव से क्रूर अधर्मी और छोटा मरुभूति बड़ा धार्मिक सज्जन एवं कुशाग्र बुद्धि वाला था । पिता ने दोनों को बराबर शिक्षा दी, लेकिन कमठ में कोई अच्छे संस्कार नहीं आ पाये व मरुभूति पढ़ लिख कर विद्वान चतुर और नीतिज्ञ हो गया । विश्वभूति ने दोनों की शादी कर दी । कमठ की वरुणा नाम की पत्नी थी और मरुभूति की सुन्दर रूपवती वसुन्धरा नाम की पत्नी थी । एक दिन विश्वभूति मंत्री आईना के सामने खड़ा चहरा देख रहे थे उन्हें मस्तक पर एक सफेद बाल दिख गया । वे सोचने लगे कि यह मृत्यु का सन्देश वाहक है अतः मुझे अपना आत्मकल्याण कर लेना चाहिए । उसने अपने दोनों पुत्रों को राजा अरविन्द को सौंप कर जिनदीक्षा ले ली । मुनि बन कर तपस्या करने लगा । राजा अरविन्द ने मरुभूति को अपना मंत्री बना लिया । निशकंटक राज्य चल रहा था। एक बार राजा अरविन्द ने अपनी राज्य की सीमा बढ़ाने के लिए मंत्री मरुभूति को साथ लेकर राजा वज्रवीर्य मण्डलेश्वर पर चढ़ाई कर दी । इधर कमठ ने देखा राज सिंहासन खाली है । मंत्री भी नहीं है । सो अपने को राजा मान कर मनमानी करने लगा । लोगों को डराने धमकाने लगा । बहुत आतंक फैलाने लगा । एक दिन उसने मरुभूति की पत्नी वसुन्धरा को आभूषणों से युक्त सुन्दर वस्त्रों में देखा तो मोहित हो गया । कामविया में विह्वल होकर तड़पने लगा। उसे प्राप्त करने का उपक्रम करने लगा । उसके बिना बड़ा दुखी और उदास होकर वह अपने बगीचे के लताग्रह में पड़ा था कि उसका मित्र कलहंस वहा आ गया। उसने कमठ की ऐसी दशा देख कर पूछा मित्र उदास और दुखी क्यों हो ? कमठ ने अपने मन की सारी बात मित्र को बता दी और कहा कि तुम्हारे बिना मेरा काम और कौन कर सकता है ? तुम किसी भी तरह से बने मेरी सहायता करो । जब से मैंने मरुभूति की पत्नी को देखा मुझे चैन नहीं है। जब तक मैं उसे प्राप्त न कर लूं मेरा जीवन निष्फल है ।

पहले तो मित्र ने समझाने की कोशिश की उसने कहा कि यह काम महा निंदनीय है बहू और बेटी समान होती है । जग हसाई होगी। राजा दंड देगा । ऐसा अशोभनीय काम करना उचित नहीं हैं। पर कमट ने एक न मानी उसने कहा कि मित्र अगर तुम मेरा जीवन चाहते हो तो किसी बहाने से उसे इस लताग्रह तक ले आओ । कलहंस मरुभूति के महल में गया और वसुन्धरा से बोला कि कमठ बहुत तड़फ रहे है बीमार है बुखार है बगीचे के लताग्रह में पड़े आपको याद कर रहे हैं। उन्हें जाकर सम्हाल लो । वसुन्धरा बीमारी की बात सुनकर शीघ्र ही लताग्रह में पहुँची । हाल चाल पूछने लगी। तभी पापी कमठने उसे अपनी बाहों में जकड़ लिया । वह चिल्लाती रही । मगर कमठने अपनी हवस पूरी करली । यह समाचार नगर में अग्नि की तरह फैल गया । कुछ दिन बाद राजा अरविन्द एवं मंत्री मरुभूति अपनी विजय पताका फैलाते हुए अपने नगर वापिस लौटे | नगर में कमठ के अत्याचार की चर्चा हो रही थी। राजा ने सभी समाचारों को सुना और क्रोधित हो उसने मरुभूति को बुलाया । उसे कमठ के अत्याचारों से अवगत कराया और पूछा बताओ इसे क्या दंड दिया जाय । भातृ स्नेहपूरित हृदय से मरुभूति ने कहाः राजन कमठ का यह पहला अपराध है अतः उसे क्षमा कर देना चाहिए। नीतिकारों का कहना है कि प्रथम अपराध क्षमतव्य होता है । राजा ने कहा मंत्रीजी अगर अपराधियों को बिना दंड दिये छोड़ दिया जाय तो वे और अनेक अपराध करेंगे । इसलिए मैं अपराधी को दंड अवश्य दूंगा । ताकि कभी दुबारा अपराध न करें । जानते हो अन्याई दया के पात्र नहीं होते । मंत्री चुप रहे । राजा ने कमठ को बुलाया । उसका सिर मुंडवा कर काला मुंह किया । उसे गधे पर बैठाकर ढोल नगाड़ों के साथ सारे नगर में घुमाया और राज्य सीमा के बाहर निकल जाने का आदेश दिया । कमठ नीचा मुख किए लज्जित होकर राज्य सीमा के बाहर एक तपस्वियों का आश्रम था उसमें पहुँचा । और दुखी होकर वहाँ के मठाधीश से प्रार्थना कर तपस्वी बन घोर तपस्या करने लगा । वहां पर कोई जटा रखाये, पंचाग्नि तपते थे । कोई खड़े खड़े घंटों तप करते थे । कमठ भी भस्म रमाये एक बहुत बड़ी शिला को हाथों पर उठाये घंटों खड़ा रहकर तप करने लगा ।

मरुभूति ने सुना कि मेरा बड़ा भाई कमठ भूताचल पर्वत पर घोर तप कर रहा है। बड़ा दुखी है। उसे देखने के लिए एवं मनाने के लिए भूताचल पर्वत पर जाने का विचार किया और राजा से आज्ञा लेकर वह अकेला ही पर्वत पर गया। भाई को एक बड़ी शिला हाथों पर उठाये तप करते देखा तो विनम्र स्वर में कहा : भाई क्षमा कर देना। मैंने तो राजा से दंड देने को बहुत मना किया । पर राजा माना ही नहीं । इसमें मेरा क्या कसूर है ? ऐसा कहकर पैर छूने के लिए जैसे ही वह नीचे झुका कमठ ने वह बड़ी शिला उसके मस्तक पर पटक दी और क्रोधावेश में पैर पटक कर दूर खड़ा हो गया । शिला के गिरते ही मरुभूति के प्राण पखेरु उड़ गये । वह वहीं मर गया । ये समाचार जब तापसियों

सुने और उसकी लाश पड़ी वहां देखी तो मठाधीश ने उसे आश्रम से निकाल दिया । कहा यह पापी है। हिंसक है। हत्यारा है । निकालो इसको यहां से । कमठ वहां से भागकर भीलों के यहां रहकर चोरी आदि करके अपना काम चलाने लगा । वह एक नम्बर का चोर बन गया ।

उधर जब मंत्री मरुभूति बहुत दिनों तक लौट कर नहीं पहुंचे तो राजा अरविन्द बहुत चिन्तित हुए । एक दिन मुनिराज नगर में आए थे। वे अवधिज्ञानी थे । राजा ने उनसे राज मंत्री के न आने का कारण जानना चाहा । इससे मुनिराज से पूछा । मुनिराज ने सारा हाल राजा को कह दिया । जिसे सुनकर राजा को बहुत दुख हुआ ।

मरुभूति का जीव मरकर कुब्ज देश के सल्लकी बन में हस्ती हुआ । उसका नाम बज्रघोष था । वह सचमुच ही बज्र के समान कठोर । डीलडाल में बहुत भारी था । उधर कमट' की पत्नी वियोग एवं विरह में जलती हुई प्राण त्यागकर इसी बन में हस्तिनी हुई । बज्रघोष के साथ रमती रहती थी ।

दूसरा अधिकार

एक दिन राजा अरविन्द अपने महल की छत पर खड़े होकर बादलों को देख रहे थे । एक बादल के बहुत बड़े टुकड़े ने एक महल का दृश्य बनाया । राजा को वह महल बहुत अच्छा लगा। राजा ने सोचा मैं एक ऐसा ही महल बनाऊंगा । उसमें एक मंदिर बनाऊंगा । उसका चित्र खींचने के लिए ज्यों ही कागज पेंसिल उठाई कि एक हवा के झोके ने बादलों का महल बिखेर दिया। राजा को यह देखकर वैराग्य आ गया। उसने सोचा ऐसा ही मानव जीवन है। जो क्षणभंगुर है । बनाते बनाते बिगड़ जाता है । उसने अपने पुत्र को राज दिया और वन जाकर दीक्षा ले ली व अनेक मुनियों के साथ रह कर तपस्या करने लगे । एक बार मुनि अरविन्द मुनि संघ सहित शिखर सम्मेद की वंदना के लिए निकले । संघ में मुनि, आर्यिका श्रावक, श्राविका सभी थे । ईयापथ से चलते हुए मुनिसंघ इसी सल्लकी बन में पहुंचा । अपने अपने स्थान में ठहर कर सभी अपने अपने काम में लग गये । मुनि ध्यान में आरूढ़ हो गये । तभी वह वज्रघोष हस्ती बड़ी भयानक आवाज करता हुआ, वृक्षों को उखाड़ता हुआ, नष्ट भ्रष्ट करता हुआ संघ की ओर दौड़ा । सारे संघ में खलबली मच गई, कोई इधर भागा, कोई उधर भागा । कोई गिरकर मृत्यु को प्राप्त हुआ । सारा संघ तितर-बितर हो गया । हस्ती आवाज करता हुआ मुनि अरविन्द की ओर दौड़ा। ज्यों ही नजदीक आया, मुनि की ओर देखने लगा । मुनि के वक्षस्थल पर श्रीवत्स चिन्ह देखकर सहम गया । नीची गरदन करली । मुनिराज ने कहा गजराज पहचान लिया क्या ? मैं राजा अरविन्द था और तुम मेरे मंत्री मरुभूति थे । तुमनें मेरी बात नहीं मानी और कमठ से मिलने चले गये थे । उसने तुम पर शिला पटक दी । तुम मृत्यु को प्राप्त हुए। लेकिन संक्लेश परिणामों से मरण कर इस वन में पशु पर्याय पाकर हस्ती हुए हो। अब भी पाप कर रहे हो । मनुष्य से पशु बन गये अब और कहां जाने का विचार है ? क्या नरक के दुखों से भय नहीं लगता ? अगर ऐसा ही पाप करते जीवन बीतेगा तो निश्चित नरक जाओगे । मुनिराज ने धर्मोपदेश दिया | अणुव्रत पालन करने का निर्देश दिया । गजराज ने अणुव्रत धारण कर लिए | अपने किए पर पश्चाताप करने लगा । अष्टमी, चतुर्दशी उपवास करता । पार के दिन सूखे पत्ते खाकर जीवाणु रहित जल पीकर जीवन बिताने लगा । अब वह कमजोर हो गया, दिन रात चिंतन करता रहता था ।

उसका शरीर शिथिल हो गया था । एकदिन वह पानी पीने के लिए किसी नदी पर गया उसमें कर्दम था, ज्यों ही वह पानी में उतरा उसका पैर कीचड़ में फंस गया । उसने बहुत जोर लगाया लेकिन निकल नहीं पाया । उसने सोचा कि अब निकलना मुश्किल है । अतः जन्म-भर के लिए अन्न-जल का त्याग कर संन्यास ले लिया । समाधिपूर्वक सन्तोष के साथ दिन बिताने लगा । इसी वन में कमठ का जीव था । जो भीलों के साथ रहकर चोरी करता था | आयु क्षीण होने पर मरकर कुर्कुट नाम का सर्प हुआ । हाथी को फँसा देख कर पूर्व जन्म का वैर विचार कर हाथी को डस लिया । हाथी ने शान्तिपूर्वक मरण कर, बारहवें स्वर्ग में शशिप्रभ नाम का देव हुआ । अन्तर्मुहूर्त में वह अवधिज्ञान से युक्त पूर्ण युवा हो गया । उसने अवधिज्ञान से सारा पूर्व भवजान लिया कि व्रतों के प्रभाव से हस्ती से मैं देव हुआ हूँ । सोलह सागर की आयु थी । वैक्रियक शरीर था । अनेक देवांगनाएं थी । उन सभी को साथ लेकर सबसे पहले वह अकृत्रिम चैत्यालयों की पूजन वंदना के लिए गया । नंदीश्वर द्वीपों की वंदना की । नन्दन वनों में क्रीड़ा करता हुआ स्वर्गीय सुख भोगता रहा ।

तीसरा अधिकार

इधर वह कुटकुट सर्प आयुपूर्ण कर पांचवें नरक पहुँचा और नारकीय यातनाएँ भोगने लगा । छेदन भेदन भूख प्यास सर्दी की वेदना आदि प्राकृतिक दुःख नरकों में थे । वह शशिप्रभ देव नाना सुखों को भोगता हुआ अपनी आयु पूर्ण होने पर वहाँ से च्युत होकर जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में पुस्कलावासी देश के लोकोत्तम नगर के राजा विद्युतगति और रानी विद्युतमाला के यहां अग्निवेग नाम का पुत्र हुआ । अग्निवेग स्वभाव से ही सौम्य, सम्पूर्ण शुभलक्षणों से युक्त बड़ा बुद्धिमान था । धीरे धीरे पुत्र बड़ा हुआ । यौवन अवस्था को प्राप्त हुआ । एक दिन उसने समाधिगुप्त मुनिराज के दर्शन किए। उनसे धर्मश्रवण किया । मुनिराजने कहा कि संयम से ही मानव जीवन की सफलता है । मानव जन्म संयम के लिए ही होता है । यह संयम अन्य गतियों में संभव नहीं है । अतः अग्निवेग को वैराग्य आ गया और वह मुनिराज से दीक्षा ग्रहण कर तपस्या करने लगा । ये मुनिराज आत्मा को निर्मल बनाने के लिए नाना तपों को तपते वनों की गुफा में बैठ आत्मचिंतन करते । एक बार एक पर्वत की गुफा में बैठकर ध्यान कर रहे थे कि इसी गुफा में वह कमठ का जीव जो पहले कुटकुट सर्प हुआ, फिर पाचवें नरक गया, वहां से निकल कर इसी गुफा में अजगर सर्प हुआ । मुनिराज को देखते ही पूर्व वैर के अनुसार मुनि को निगल लिया । अजगर द्वारा किये गये घोर उपसर्ग को शान्तिपूर्वक सहन करते हुए समाधिपूर्वक मरण कर का जीव अच्युत स्वर्ग के पुष्कर विमान में विद्युतप्रभ नाम का देव हुआ । अणिमा महिमा आदि अष्ट ऋद्धियों के धारक इंस देव ने २२ सागर की आयु पाई । नाना प्रकार के दिव्य सुखों को भोगता हुआ यह विद्युतप्रभ देव अकृत्रिम जिनालयों की वंदना करता । अपनी इन्द्राणी के साथ नाना प्रकार की क्रीड़ा करता हुआ काल व्यतीत करने लगा । आयु पूर्ण होने पर यह देव अच्युत स्वर्ग से मरण कर जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह के अश्वपुर नगर के वज्रवीर्य राजा एवं विजयारानी की कुक्षि से वज्रनाभि नामका पुत्र हुआ । जो बड़ा शक्तिशाली सुयोग्य पुत्र था। जब वह युवा 'गया तो राजा वज्रवीर्यने उसे अपना राजपाट सम्हला दिया और स्वयं मुनि बन कर आत्मकल्याण में प्रवृत्त हुए । एक दिन राजा वज्रनाभि की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ । जिसकी एक हजार देव सेवा करते थे । उस चक्ररत्न को प्राप्त कर राजा वज्रनाभि ने अनेक राजाओं को जीत कर चक्रवर्तिपद प्राप्त किया । अनेक कन्याओं के साथ ब्याह किया । उनके छयानवे हजार नारियां थीं । नवनिधि चौदह रत्नों का स्वामी था । छह खंडो का अधिपति था । चौरासी लाख हाथी, अठारह करोड़ घोड़े, इत्यादि वैभव से सम्पन्न चक्रवर्ति वज्रनाभि अनेक वर्षों तक राज्य करता रहा। लेकिन हमेशा धर्म कार्य में तत्पर रहता था । इनके बारे में लिखा है कि

बीजख फल भोगवै ज्यों किसान जग माहिं ।

त्यों चक्री नृप सुख करे धर्म विसारे नाहिं ||

इस प्रकार राज्य करते हुए कितना काल व्यतीत हो गया है इसका उसे ध्यान नहीं था । एक बार इसी नगरी में क्षेमंकर मुनिराज पधारे। उनकी वंदना अर्चना हेतु नगर निवासी सभी के साथ राजा वज्रनाभि अपने कटक के साथ गये । उनकी पूजन अर्चन के बाद सभा में बैठ गये । मुनिराज ने संसार के दुःखों का वर्णन करते हुए कहा कि यह मोही प्राणी अनंतकाल से जन्म मरण करता हुआ संसार में भटक रहा है और दुख को ही सुख मान रहा है । चक्रवर्ति राजा वज्रनाभि को वैराग्य आ गया । उसने समस्त राजपाट छोड़ मुनिदीक्षा ले ली । एक दिन विहार करते हुए मुनि वज्रनाभि एक भयंकर जंगल में पहुँचकर ध्यान आरूढ़ थे । तभी वह कमठ का जीव जो अजगर सर्प हुआ था, मुनिराज को निगलकर महान पाप बंध कर, छठवें नरक में नारकी हुआ। वहां के दुखों

भोगता हुआ आयु पूर्ण कर कुरंग नाम का भील हुआ। शिकार की खोज में इसी जंगल में घूम रहा था। जहां उसने मुनिराज को बैठा देखा । धनुषबाण लिये यहां आ पहुचा और उसने मुनिपर धनुषबाण छोड़ दिया । मुनिराज इस उपसर्ग को शान्तिपूर्वक सहन करते हुए समाधि पूर्वक मरण कर मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र हुए । इनकी सत्ताईस सागर की आयु केवल धर्मचर्चा करते हुए व्यतीत हुई ।

चौथा अधिकार

वहाँ से चय कर जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में कौशल देश की अयोध्यानगरी के राजा वज्रबाहु और उनकी प्रभाकरी रानी की कुक्षि से आनंदकुमार नाम का पुत्र हुआ । आनंदकुमार यथानाम तथागुण को चरितार्थ कर रहा था । सर्वगुण सम्पन्न सबको आनंद देने वाला पुत्र धीरे धीरे बढ़ता हुआ नवयौवन को प्राप्त हुआ तब राजा ने अपना राज्यभार बेटे आनंद को सौंप कर आप बन में जाकर दीक्षा ले ली और तप करने लगे । आनंदकुमार ने अपने बलपौरुष से अनके राजाओं को अपने अधीनस्थ कर आप महा मंडलेश्वर बन गया । जिसे चार हजार राजा अपना राजा मानते उसकी आज्ञा शिरोधार्य करते थे । इस तरह राज्य करते हुए बहुत दिन व्यतीत हो गये। एक बार राजमंत्री स्वामिहित ने उसे बड़ी हितकारी बात कही, हे राजन यह वसन्तऋतु ऋतुराज कहलाती है इसमें देवलोग के देव बड़े उत्साह के साथ नंदीश्वर द्वीप की वंदना को जाते हैं । और यहां के नगर निवासी भी जिन मंदिर में बड़ा महोत्सव करके अष्टाह्निक महा पूजन करते हैं और महान पुण्य लाभ लेते हैं । यह बात सुनकर राजाने भी वसन्तोत्सव मनाने के लिए पूजन सामग्री लेकर बड़े ठाटबाट के साथ जिन मंदिर पहुँच कर बड़े भक्तिभाव से पूजन की । उसके मन में बार-बार एक शंका उठती थी । वहीं पर विपुलमति मुनिराज विराजमान थे । राजाने अपनी शंका का समाधान मुनिराज से चाहा । राजाने पूछा कि हे स्वामिन् बताइये कि मूर्तियां तो पाषाण व धातुकी अचेतन होती हैं । वे पूजक को पुण्य का फल कैसे देती हैं ? मुनिराज ने कहा राजन् मूर्ति तो नहीं देती हैं पर पूजक अपने परिणामों से पा जाता है । मूर्ति को देखकर उसके जो शुभ भाव बनते हैं वे पुण्य के कारण बनते हैं । कारण पाकर

व के शुभ-अशुभ भाव होते हैं। जैसे स्फटिक मणि के पीछे जिस रंग का फूल रख देने पर वह मणि उसी रंग की दिखने लगती है । उसी प्रकार आपके जैसे भाव होंगे वैसा ही फल मिलेगा । वीतराग की मूर्ति देख कर वीतरागता के भाव बनना स्वाभाविक है । इस प्रकार मुनिराज ने अनके दृष्टान्तों से समझाया । एक विशेष बात यह बताई कि सूर्यमंडल में अकृत्रिम चैत्यालय है । उसमें जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा है । चक्रवर्ती प्रातः काल और सायंकाल उसके दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं । यह बात सुनकर राजा ने भी प्रतिदिन सूर्य में स्थित प्रतिमा के दर्शन करने का कार्य प्रारंभ कर दिया । इस बात को देखकर नगर निवासी भी प्रतिदिन सूर्य को नमस्कार करने लगे । और आज तक यह प्रथा चली आ रही है । राजा ने ऐसा ही एक सूर्य के आकार का मंदिर बनवाया, प्रतिमा पधराई । उसे सूर्यमंदिर नाम दिया । इस प्रकार अनेक वर्षों तक राज्य  करता हुआ आनंद से काल व्यतीत होता जा रहा था । एक दिन उसने अपने शिर में एक सफेद बाल को देखा। तो उसे वैराग्य हो गया । वह सोचने लगा कि अब आयु कम रह गई है। सफेदबाल बुढ़ापे की निशानी है और बुढ़ापा मृत्यु मित्र हैं । यह सोचकर राजपाट छोड़ दीक्षा ग्रहण की और तप करने लगे । कुछ समय बाद मुनि आनंद विहार करते हुए क्षीरवन में पहुंचे और शिला पर बैठ कर ध्यान करने लगे । वह कमठ का जीव कुरंग भील की पर्याय पूर्ण कर मुनि हत्या के पाप से सातवें नरक में नारकी हुआ । वहां के दुख भोग कर इसी क्षीरवन में सिंह की पर्याय में आया । आज मुनि आनंद को देखते ही उसे जाति स्मरण हो गया । उसने पूर्व भव का वैरी समझ कर मुनि को अपनी विकाराल दाढ़ों और नखों से विदीर्ण कर मार डाला। मुनि ने उपसर्ग सहन करते शान्ति पूर्वक प्राणों को छोड़ कर आनत स्वर्ग में इन्द्र पद प्राप्त किया । वहां के स्वर्ग निवासी देवों ने उनका स्वागत किया और उन्हें अपना राजा मानते हुए इन्द्रासन पर अधिष्टित कर दिया ।

पाँचवा अधिकार

अब इन्द्र अपनी इन्द्राणियों के साथ अकृत्रिम जिनालयों की वंदना करता । जिनेन्द्र पंच कल्याणकों में पहुंच धर्मश्रवण करता । बीस सागर की आयु सुखपूर्वक पूर्ण करते हुए जम्बूद्वीप की दक्षिण दिशा में भरतक्षेत्र के मध्य वाराणसी नगरी है । इसके राजा विश्वसेन और रानी वामादेवी थी । राजा नीतिनिपुण सर्वगुण सम्पन्न था । एक दिन उसकी रानी वामादेवी ने रात्रि के पिछले पल बड़े सुन्दर सोलह स्वप्न देखे । प्रातः उठकर अपने पति से उनका फल पूछा । राजाने कहा देवी बड़े सुन्दर स्वप्न हैं । तुम बड़ी सौभाग्यशाली हो । तुम्हारी कूंख से तीर्थंकर होने वाला एक बालक उत्पन्न होगा । जो तीनों लोकों का राजा होगा । लोगों को धर्म मार्ग बताने वाला मोक्षगामी होगा । यह सुनकर वामादेवी खुशी में डूब गई और आनंदित हो सुखपूर्वक दिन बिताने लगी । प्रथम स्वर्ग के इन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी कि वह जाकर नगरी की सुन्दर रचना करे । माता की सेवा के लिए छप्पन कुमारी भेज दीं । पन्द्रह माह तक तीन समय रत्नों की वर्षा उस नगरी में होने लगी । आनत स्वर्ग का इन्द्र अपनी आयु पूर्ण कर वामादेवी के गर्भ में वैसाख कृष्ण द्वितीय के दिन अवतरित हुआ । नव मास माँ के उदर में रहे। उस समय मां की सेवा में षट कुमारिकाएं तत्पर रहती थीं । सदा मां को प्रसन्न रखती । उनसे बड़े सुन्दर और अटपटे प्रश्न पूछतीं । मां उनका उत्तर देती थीं । नौ मास पूर्ण होते ही पौष कृष्ण एकादशी के दिन एक पुत्र ने जन्म लिया ।

छटा अधिकार

इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए। देवों के यहां घंटा अपने आप बजने लगे । किसी के यहाँ शंख बजने लगे । नगाड़े बजने लगे । तब अवधिज्ञान से जाना कि तीर्थंकर प्रभु का जन्म हो गया है। प्रथम इन्द्र इन्द्राणी सहित तथा अन्य देव समूह के साथ वाराणसी नगरी में ऐरावत हाथी पर आरूढ़ होकर आये । सबसे पहले नगर की तीन प्रदिक्षणा दीं । पश्चात् इन्द्राणी को प्रसूतिगृह भेजकर बालक को उठवाया । भगवान का बड़ा सुन्दर रूप था । वे नीलमणि के समान सुन्दर लग रहे थे । इन्द्र ने एक हजार नेत्रों से उन्हें निहारा और ऐरावत हाथी पर बिराजमान करके सुमेरु पर्वत पर, पांडुकवन में निर्मित पांडुकशिला पर, रत्नों के सिंहासन पर बिराजमान कर, क्षीरसागर के जल से एक हजार आठ कलशों द्वारा उनका अभिषेक किया । इन्द्राणी ने उस बालक का शृंगार किया । स्वर्गीय वस्त्र आभूषण पहनाए और विनम्रता से उनकी स्तुति की। पश्चात् उनका नाम पार्श्वनाथ रखा । वहां से वापिस आकर पार्श्वकुमार को उनके माता पिता को सौंप इन्द्र अपने स्थान पर चला गया ।

सातवाँ अधिकार

पार्श्वकुमार दोज के चन्द्रमा की तरह दिनोंदिन बढ़ने लगे । जन्म से ही इन्हें तीन ज्ञान थे । मति, श्रुत और अवधिज्ञान । जब कुमार आठ वर्ष के हुए तो उन्होनें अणुव्रत धारण कर लिए। धीरे धीरे कुमार यौवन अवस्था को प्राप्त हुए । तब पिता ने उनके ब्याह का प्रस्ताव कुमार के समक्ष रखा । पार्श्वकुमार ने मना कर दिया । पिताने समझाने की कोशिश की और कहा बेटा बड़े बड़े पूर्व के महापुरुषों ने विवाह किया । वंश चलाने के लिए संतान उत्पन्न की। जैसे ऋषभ देव आदि उनके भरत, बाहुबलि आदि सौ पुत्र थे । पार्श्वकुमार ने कहा पिताजी जरा इनकी आयु भी तो देखो एक कोटी वर्ष पूर्व आयु थी । मेरी आयु कुल सौ वर्ष की। जिसमें सौलह वर्ष तो बचपन में ही निकल गये । अब शेष आयु बची ही कितनी सी । अतः मैं ब्याह के झंझट में नहीं पड़ना चाहता । पिता चुप रह गये । एक दिन पार्श्वकुमार अपने साथियों के साथ हाथी पर बैठ कर वन विहार को निकले। रास्ते में उन्हें एक तापसियों का आश्रम दिखा । वे उसे देखने हाथी से उतर कर आश्रम पहुँचे । वहां क्या देखते हैं कि एक तपस्वी पंच अग्नि जलाकर तप कर रहा है। उन्होंने अवधिज्ञान से जानकर कहा : रे भाई क्यों जीवों की विराधना कर रहे हो ? तुम क्यों ऐसा अज्ञान तप कर रहे हो, इस लकड़ी में अन्दर एक नाग- नागनी का जोड़ा जल रहा है। तापस क्रोध में लाल नेत्र करके बोला; हमारे तप को अज्ञान तप कहते हो। तुम्हीं अकेले ज्ञानी हो ?

कहां है सर्प का जोड़ा ? यूं कहकर ज्योंही उसने उस लकड़ी को फाड़ा उसमें से अधजले नाग नागनी का जोड़ा निकला । जो मरणासन्न था । पार्श्वकुमार ने उस नाग के जोड़े को णमोकार मंत्र सुनाया । धर्म का उपदेश दिया । उन दोनों नाग- नागनी ने शान्तिपूर्वक प्राण त्याग दिए और स्वर्ग में धरणेन्द्र - पद्मावती हुए । पार्श्वकुमार घर वापिस आकर विचारों में खो गये । इन्हें संसार की क्षणभंगुरता साफ नजर आने लगी और उनके कदम वैराग्य की और बढ़ने लगे । वे बारह भावनाओं का चिंतन करने लगे । उसी समय लौकान्तिक देव महल में आकर पार्श्वकुमार की भावनाओं का अनुमोदन करते हुए कहने लगे : धन्य है धन्य है प्रभु ! आप का यह सुन्दर विचार समयानुकूल है । आपने यह ठीक ही सोचा है । गृह त्याग कर ही सच्चा सुख खोजा जा सकता है । उसी समय प्रथम इन्द्र स्वर्ग से एक सुन्दर पालकी लाये । चारों स्वर्गों के इन्द्र एकत्र होकर पार्श्वनाथ का दीक्षाकल्याणक मनाने की तैयारी करने लगे । पार्श्वकुमार पालकी में आरूढ़ हुए । सबसे पहले नगर-निवासियों, राजा-महाराजों ने पालकी अपने कन्धों पर उठाई। कुछ दूर चलने पर देवों ने पालकी ले ली और अश्ववन की ओर ले चले । बन में पहुंच कर पार्श्वकुमार ने पालकी से उतर कर अपने राजकीय वस्त्राभूषण उतार डाले । केशलुंच किए । इन्द्रों ने उनकी पूजन की । पार्श्वनाथ वट-वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यान में लीन हो गये ।

आठवाँ अधिकार

कुछ समय बाद मुनि पार्श्वनाथ वहां से विहार करके गुजर खेटपुर नगर पहुंचे | वहां के राजा ब्रह्मदत्तने मुनिराज को आहारदान दिया । पश्चात् मुनिराज आगे को विहार कर गये । एक वन में पत्थर की एक स्वच्छ शिला पर बैठ कर ध्यान करने लगे । इसी समय वह तापिसी जो अज्ञान तप कर रहा था, आयु पूर्ण कर स्वर्ग में संवर नाम का देव हुआ । एक दिन वह संवर देव अपने विमान बैठा हुआ वहां से निकला जहां पार्श्वनाथ शिला पर ध्यान कर रहे थे । उसका विमान ठीक उनके उपर जा रहा था रुक गया । उसने सोचा क्या बात है । यकायक विमान क्यों रुक गया । नीचे झांक कर देखा कि नीचे कोई तपस्वी बैठा है । उसने ही मेरे विमान को रोक दिया है । ऐसा नियम है कि तद्भव मोक्षगामी के ऊपर से लांघ कर कोई निकल नहीं सकता । पर उस देव को क्या मालूम ? वह क्रोधाभिभूत होकर भयानक उपसर्ग करने लगा । अपनी माया से उसने पत्थर-कंकड़ बरसाये। आंधी तूफान चलाया । घनघोर वर्षा होने लगी । यहां तक कि पानी छाती से ऊपर तक बहने लगा । उसी समय वे नाग-नागनी जो धरणेन्द्र पद्मावती हुए थे, तत्काल वहाँ आये और जिस शिला पर पार्श्वनाथ

 

ध्यानारूढ़ थे उसे धरणेन्द्र ने अपने शिर पर उठा लिया । पद्मावतीने उन्हें नमस्कार किया और धरणेन्द्रने उनकी रक्षाके भावसे अपना फण फैलाकर छत्ता तान दिया, पर भगवान ध्यान में डूबते गये और चार घातियां कर्मों को नष्ट कर केवलज्ञान प्राप्त किया। उस संवरदेव ने यह हाल देखा तो भागा जी छोड़ कर | भगवान को केवलज्ञान होते ही सारे उपसर्ग समाप्त हो गये ।

नौवा अधिकार

इन्द्रों के आसन कम्पायमान हुए । उन्होंने अवधिज्ञान से जाना और जिस दिशा में भगवान विराजमान थे सात पैर चल कर उन्हें परोक्ष नमस्कार किया । तत्क्षण कुबेर को समोशरण की रचना के लिए आदेश दिया । उसने समोशरण की बड़ी सुन्दर रचना की । जिसमें बारह सभाएँ थी । गंधकुटी बीच में थी । जिस पर रत्नों का सिंहासन था। तीन छत्र, चौसठ चमर आदि अष्ट प्रातिहार्य उपलब्ध थे । मुनि, आर्यिका, देव, देवियां, नर, नारियां और पशु एक साथ बैठ कर भगवान की दिव्यध्वनि सुन, धर्म के स्वरूप को समझ रहे थे । भगवान का सात तत्त्व, नव पदार्थ, षट् द्रव्य, पंचास्तिकाय आदि जैन सिद्धान्त अनेकान्त रूप से तत्व के निर्णय पर सारगर्भित उपदेश हुआ। कई वर्षों तक उपदेश देते हुए जीवों के कल्याण का मार्ग प्रशस्त किया । पश्चात् शिखर सम्मेद पर्वत पर पहुंच कर योगनिरोध करते हुए श्रावण शुक्ल सप्तमी को निर्वाण प्राप्त किया । इनके जीवन की विशेषता यह रही कि १० भव तक एक तरफा वैर चलता रहा । कमठ दसभव तक वैर भंजाता रहा पर पार्श्वनाथ ने किसी भी भव में अपनी ओर से कम के जीव को सताने का भाव नहीं बनाया ।

-पं. कमलकुमार शास्त्री

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