Jump to content
फॉलो करें Whatsapp चैनल : बैल आईकॉन भी दबाएँ ×
JainSamaj.World
  • entries
    335
  • comments
    11
  • views
    30,956

About this blog

जाने प्रथमाचार्य शान्तिसागरजी महराज को

Entries in this blog

?नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता - अमृत माँ जिनवाणी से - २३५

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,             पूज्य पायसागरजी महराज के जीवन वृत्तांत के क्रम आज के प्रसंग में कल के प्रसंग के कुछ अंशों का पुनः समावेश प्रसंग को स्पष्ट बनाने हेतु किया गया है। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३५   ?         "नररत्न की परीक्षा में प्रवीणता"              उस समय आचार्य महराज ने चंद्रसागरजी के आक्षेप का उत्तर दिया कि तुम्हीं बताओ ऐसे को दीक्षा देना योग्य था या नहीं? लोगों को ज्ञात हुआ कि महराज मनुष्य के परीक्षण में कितने प्रवीण थे। गुरुप्रसाद से छः वर्ष बा

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन ५ - अमृत माँ जिनवाणी से - २३४

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         प्रतिदिन प्रसंग भेजने का उद्देश्य सभी के मन में अपने आचार्यों के जीवन चरित्र को जानने के हेतु रूची जाग्रत करना है। प्रस्तुत प्रसंग पूज्य शान्तिसागरजी महराज की जीवनी "चारित्र चक्रवर्ती" ग्रंथ से लिए जाते हैं। आप उस ग्रंथ का अध्यन करके क्रमबद्ध तरीके से शान्तिसागरजी महराज के उज्ज्वल चरित्र को जानने का लाभ ले सकते हैं। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३४   ?  "मुनिश्री पायसागरजी का जीवन- प्रसंग- ५"              आज का प्रसंग पूज्य आचार्यश्री शान्त

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?आध्यात्मिक अंध को नेत्र तुल्य - अमृत माँ जिनवाणी से - २३३

☀जय जिनेन्द्र बंधुओं,             पूज्य शान्तिसागरजी महराज के सुयोग्य शिष्य मुनि श्री पायसागर जी महराज के अद्भुत जीवन प्रसंग के वर्णन की श्रृंखला में आज चौथा दिन है। प्रतिदिन प्रसंग के  आकार का निर्धारण मुख्य रूप से मेरे द्वारा प्रसंग टाइप करने की सुविधा तथा गौड़रूप से प्रसंग प्रस्तुती हेतु मनोविज्ञान पर आधारित होता है। प्रसंग अक्षरशः चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ से प्रस्तुत किए जा रहे हैं।  ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३३   ?        "आध्यात्मिक अंध को नेत्र तुल्य"         मैंन

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन २ - अमृत माँ जिनवाणी से - २३२

☀☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,             पिछले दो प्रसंगों से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य पायसागरजी महराज के अद्भुत जीवन चरित्र का हम सभी अवलोकन कर रहें हैं। इन प्रसंगों को आप अवश्य पढ़ें और दूसरों को भी प्रेरणा दें यह जानने की। क्योंकि यह प्रसंग कई लोगों का जीवन ही बदल सकते हैं।              यह पूरी जैन समाज और मानव समाज के लिए एक महत्वपूर्ण संदेश भी है कि हमें बुराई के रास्ता तय करने वाले लोगों को सर्वतः हेय नहीं समझना चाहिए। योग्य निमित्त पाकर उनमें भी अपना जीवन बहुत स्वच्छ

Abhishek Jain

Abhishek Jain

मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन -१ - अमृत माँ जिनवाणी से - २३१

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २३१   ? मुनि पायसागरजी का अद्भुत जीवनचरित्र-१          कल हमने पूज्य शांतिसागरजी महराज के शिष्य पूज्य मुनि श्री पायसागरजी महराज के अद्भुत जीवन चरित्र को देखना प्रारंभ किया था। उसी में आगे-             गंगा में गहरे गोते लगाए। काशी विश्वनाथ गंगे के सानिध्य में समय व्यतीत करता हुआ हर प्रकार के साधुओं के संपर्क में आया। मैं लौकिक कार्यों में दक्ष था। इसलिए साधु बनने पर भी मेरी विचार शक्ति मृत नहीं हुई थी। वह मूर्छित अवश्य थी।            जब मै जटा

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?मुनिश्री पायसागर जी का अद्भुत जीवन - अमृत माँ जिनवाणी से - २३०

☀☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,         प्रस्तुत प्रसंग तीन या चार चरणों में पूर्ण होगा, इन प्रसंगों को अवश्य ही पढ़ें। इन प्रसंगों को पढ़कर आपको पूज्य शान्तिसागरजी महराज के श्रेष्ठ तपश्चरण व चारित्र का अद्भुत प्रभाव जीवों के जीवन पर देखने को मिलेगा। इन प्रसंगों के माध्यम से आपको ज्ञात होगा कि कैसी-२ जीवन शैली वाले मनुष्य भी अपना कल्याण कर सकते हैं, उनके घोर तपश्चरण को देखकर कभी कोई सोच भी नहीं सकता था कि यह जीव कल्याण मार्ग पर इस तरह से प्रवृत्ति करेगा।        इन प्रसंगों से हम सभी को यह भी श

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?उत्तर प्रांत में शिथिलाचार सुधारने हेतु प्रतिज्ञा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२९

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,       प्रस्तुत प्रसंग को पढ़कर शायद आप सोचें की पहले के समय की बात थी कि अशुद्ध आचरण वालों से जल भरवाना तथा घर के काम करवाये जाते थे, लेकिन मुझे लगता है आज के समय मे स्थिति उससे कहीं भयावह है।          आचार-विचार का ध्यान रखने वाले कुछ श्रावकों को छोड़कर अधिकांशतः हम सभी में खान-पान का विवेक घट गया है। वर्तमान में ऊपरी स्टेंडर्ड जरूर बढ गया लेकिन खान-पान की सामग्री व तरीके में बहुत परिवर्तन आया है।               यह पूर्णतः सत्य है कि जब तक हमारे आहार में शुद

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?अनुकंपा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२८   ?                     "अनुकम्पा"         पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं।           जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है।           बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव - अमृत माँ जिनवाणी से - २२७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२७   ?      "वृत्ति परिसंख्यान तप के अनुभव"             एक बार की बात है। पूज्य शान्तिसागरजी महराज वृत्ति परिसंख्यान तप की बड़ी कठिन प्रतिज्ञाएँ लेते थे, और पुण्योदय से उनकी प्रतिज्ञा की पूर्ति होती थी।           एक दिन महराज ने प्रतिज्ञा की थी कि आहार के लिए जाते समय यदि तत्काल प्रसूत बछड़े के साथ गाय मिलेगी तो आहार लेंगे। यह प्रतिज्ञा उन्होंने मन के भीतर ही की थी और किसी को इसका पता नहीं था। अंतराय का योग नहीं होने से ऐसा योग तत्काल मिल गया और महरा

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?कांजी चर्चा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२६   ?                      "कानजी चर्चा"               एक बार पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने बताया- "गिरिनारजी की यात्रा से लौटते समय कानजी हमको दूर तक लेने गए। सोनगढ़ में आकर हमने कानजी से एक प्रश्न किया- "इस दिगम्बर धर्म में तुमने क्या देखा? और तुम्हारे धर्म में क्या बुरा था?"                इस प्रश्न के उत्तर में कानजी ने कुछ नहीं कहा। बहुत देर तक मुख से एक शब्द तक नहीं कहा। इस पर आचार्यश्री ने कानजी से कहा- "हम तुम्हारा उपदेश सुनने नहीं आये हैं। ह

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?कण्ठ पीड़ा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२५   ?                     "कण्ठ पीढ़ा"             कवलाना में पूज्य शान्तिसागरजी महराज का वर्षायोग व्यतीत हो रहा था। गले में विशेष रोग के कारण अन्न का ग्रास लेने में अपार कष्ट होता था। बड़े कष्ट से वह थोड़ा-२ आहार लेते थे।             उस समय एक ग्रास जरा बड़ा हो गया, उसे मुँह में लेकर ग्रहण कर ही रहे थे कि वह गले में अटक गया और उस समय उनके मूरछा सरीखे चिन्ह दिखाई पड़े।         चतुर आहार दाता ने दूध से अंजली भर दी और उस दूध से वह ग्रास उतर गया, नही

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?मूक व्यक्ति को वाणी मिली - अमृत माँ जिनवाणी से - २२४

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२४   ?           "मूक व्यक्ति को वाणी मिली"                       भोजग्राम से वापिस लौटने पर स्तवनिधि क्षेत्र में १०८ पूज्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के सन् १९५२ में पुनः दर्शन हुए। उस समय उन्होंने कहा, "आपको एक महत्व की बात और बताना है।"            मैंने कहा, "महराज अनुग्रहित कीजिए।"            उन्होंने कहा, "कोल्हापुर में नीमसिर ग्राम में एक पैंतीस वर्ष का युवक रहता था। उसे अणप्पा दाढ़ी वाले के नाम से लोग जानते थे। वह शास्त्र चर्चा में प्रवीण थ

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?समता तथा सजग वैराग्य - अमृत माँ जिनवाणी से - २२३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२३   ?              "समता एवं सजग वैराग्य"               पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिष्य पायसागर महराज ने बताया कि, जब हजारों व्यक्ति भव्य स्वागत द्वारा गुरुदेव पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रति जयघोष के पूर्व अपनी अपार भक्ति प्रगट करते थे और जब कभी कठिन परिस्थिति आती थी, तब वे एक ही बात कहते थे, "पायसागर ! यह जय-जयकार क्षणिक है, विपत्ति भी क्षणस्थायी है।         दोनों विनाशीक हैं, अतः सभी त्यागियों को ऐसे अवसर पर अपने परिणामों में हर्ष विषाद नही

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?पागल द्वारा उपसर्ग - अमृत माँ जिनवाणी से - २२२

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२२   ?                  "पागल द्वारा उपसर्ग"              कोगनोली चातुर्मास के समय पूज्य शान्तिसागरजी महराज कोगनोली की गुफाओं में ध्यान करते थे। एक रात्रि को ग्राम से एक पागल वहाँ आया। पहले उसने इनसे भोजन माँगा। इनको मौन देखकर वह हल्ला मचाने लगा। पश्चात गुफा के पास रखी ईटो की राशी को फेककर उपद्रव करता रहा, किन्तु शांति के सागर के भावों में विकार की एक लहर भी नहीं आई।          वह दृढ़ता पूर्वक ध्यान करते रहे। अंत में वह पागल उपद्रव करते-२ स्वयं थक गय

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?वैराग्य का कारण - अमृत माँ जिनवाणी से - २२१

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२१   ?                  "वैराग्य का कारण"            एक दिन मैंने पूंछा, "महराज वैराग्य का आपको कोई निमित्त तो मिलता होगा? साधुत्व के लिए आपको प्रेरणा कहाँ से प्राप्त हुई। पुराणों में वर्णन आता है कि आदिनाथ प्रभु को वैराग्य की प्रेरणा देवांगना नीलांजना का अपने समक्ष मरण देखने से प्राप्त हुई थी"          महराज ने कहा, "हमारा वैराग्य नैसर्गिक है। ऐसा लगता है कि जैसे यह हमारा पूर्व जन्म का संस्कार हो। गृह में, कुटुम्ब में, हमारा मन प्रारम्भ से ही नहीं

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?उत्तूर में क्षुल्लक दीक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - २२०

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २२०   ?             "उत्तूर में क्षुल्लक दीक्षा -१"              पूज्य शान्तिसागरजी महराज के क्षुल्लक दीक्षा की संबंधित जानकारी कल के प्रसंग में प्रस्तुत की गई थी, उसी में आगे-         चंपाबाई ने बताया दीक्षा का निश्चय हमारे घर पर हुआ था। दीक्षा का संस्कार घर से लगे छोटे मंदिर में हुआ था। उस गाँव में १३ घर जैनों के हैं।         अप्पा जयप्पा वणकुदरे ने कहा मेरे समक्ष दीक्षा का जलूस निकला था। भगवान पार्श्वनाथ की मूर्ति का अभिषेक भी हुआ था। महराज

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?उत्तूर ग्राम में क्षुल्लक दीक्षा - अमृत माँ जिनवाणी से - २१९

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,        पिछले प्रसंग में पूज्य शान्तिसागरजी महराज की क्षुल्लक दीक्षा के प्रसंग का उपलब्ध वर्णन प्रस्तुत करना प्रारम्भ हुआ था। उसी क्रम में आज का प्रसंग है। पहले भी पूज्यश्री की क्षुल्लक दीक्षा के संबंध की कुछ जानकारी प्रसंग क्रमांक ५३ में प्रस्तुत की गई थी।  ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१९   ?            "उत्तूर ग्राम में क्षुल्लक दीक्षा"            जब गुरुदेव देवेन्द्रकीर्ति महराज ने देखा कि सातगौड़ा का यह वैराग्य श्मसान वैराग्य नहीं है, किन्तु संस

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?संयमपथ - अमृत माँ जिनवाणी से - २१८

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१८   ?                     "संयम-पथ"             पिता के स्वर्गवास होने पर चार वर्ष पर्यन्त घर में रहकर सातगौड़ा ने अपनी आत्मा को निर्ग्रन्थ मुनि बनने के योग्य परिपुष्ट कर लिया था। जब यह ४१ वर्ष के हुए, तब कर्नाटक प्रांत के दिगम्बर मुनिराज देवप्पा स्वामी देवेन्द्रकीर्ति महराज उत्तूर ग्राम में पधारे।          उनके समीप पहुँचकर सातगौड़ा ने कहा, "स्वामिन् ! मुझे निर्ग्रन्थ दीक्षा देकर कृतार्थ कीजिए।"          उन्होंने कहा, "वत्स ! यह पद बड़ा कठिन है

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?शिथिलाचारी साधुओं के प्रति आचार्यश्री का अभिमत - अमृत माँ जिनवाणी से - २१७

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१७   ?    "शिथिलाचारी साधु के प्रति आचार्यश्री                      का अभिमत"               मैंने एक बार पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज से पूंछा- "शिथिलाचरण करने वाले साधु के प्रति समाज को या समझदार व्यक्ति को कैसे व्यवहार रखना चाहिए?"        महराज ने कहा- "ऐसे साधु को एकांत में समझाना चाहिए। उसका स्थितिकरण करना चाहिए।"       मैंने पूंछा- "समझाने पर भी यदि उस व्यक्ति की प्रवृत्ति न बदले तब क्या कर्तव्य है? पत्रों में उसके संबंध में समाचा

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?आत्महित में शीघ्रता करना चाहिए - अमृत माँ जिनवाणी से - २१६

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१६   ?      "आत्महित में शीघ्रता करनी चाहिए"              पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज कह रहे थे, "भविष्य का क्या भरोसा, अतः शीघ्र आत्मा के कल्याण के लिए व्रत ग्रहण कर लो।" इस प्रसंग में पद्मपुराण का एक वर्णन बड़ा मार्मिक है-        सीता के भाई भामंडल अपने कुटुम्ब परिवार में उलझते हुए यह सोचते थे कि यदि मैंने जिनदीक्षा ले ली, तो मेरे वियोग में मेरी रानियाँ आदि का प्राणांत हुए बिना नहीं रहेगा, अतः कठिनता से त्यागे जाने योग्य, कठिनाई से प्राप्त

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?रूढ़ि से बड़ी है आगम की आज्ञा - अमृत माँ जिनवाणी से - २१५

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१५   ?     "रूढ़ि से बड़ी है आगम की आज्ञा"           व्रताचरण के विषय में पूज्य शान्तिसागरजी महराज से किसी ने पूंछा था "महराज ! रुधिवश लोग तरह-२ के प्रतिबंध व्रतों में उपस्थित करते हैं, ऐसी स्थिति में क्या किया जाए?"         आचार्य महराज ने कहा था, "व्रतों के विषय में शास्त्राज्ञा को देखकर चलो, रूढ़ि को नहीं। शास्त्राज्ञा ही जिनेन्द्र आज्ञा है। लोक आज्ञा रूढ़ि है।         धर्मात्मा जीव सर्वज्ञ जिनेन्द्र की आज्ञा को बताने वाले शास्त्र को अपना मार्ग

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?गृहस्थी के झंझट - अमृत माँ जिनवाणी से - २१४

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,        जिनेन्द्र भगवान की वाणी मनुष्य की चिंताओं को समाप्त करने वाली तथा अद्भुत आनंद का भंडार है। अतः हम सभी को भले ही थोड़ा हो लेकिन माँ जिनवाणी का अध्यन प्रतिदिन अवश्य ही करना चाहिए।          नए लोगों को इस कार्य का प्रारम्भ महापुरुषों के चरित्र वाले ग्रंथों अर्थात प्रथमानुयोग के ग्रंथों से करना चाहिए। ?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१४   ?                 "गृहस्थी के झंझट"           लेखक दिवाकरजी लिखते हैं कि पूज्य शान्तिसागरजी महराज का कथन कि

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?जनकल्याण - अमृत माँ जिनवाणी से - २१३

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २१३   ?                       "जनकल्याण"       पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपना लोककल्याण का उदार दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए एक बार कहा, "हमें अपनी तनिक भी चिंता नहीं है। जगत के जीवों का कैसे हित हो, यह विचार बार-बार मन में आया करता है। जगत के कल्याण का चिंतन करने से तीर्थंकर का पद प्राप्त होता है।"        यदि करुणा का भाव नहीं तो क्षायिक सम्यक्त्व के होते हुए भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं होता है। उपशम, क्षयोपशम सम्यक्त्व में भी वह नहीं होगा।

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?संयम में कष्ट नहीं - अमृत माँ जिनवाणी से - २१२

☀ जय जिनेन्द्र बंधुओं,      आज का प्रसंग अवश्य पढ़ें। अपने जीवन के कल्याण की चाह रखने वाले सभी श्रावको को पूज्यश्री का यह उदबोधन बहुत आनंद प्रदान करेगा।        ऐसी बातों को हम सभी को धर में ऐसी जगह लिखकर रखना चाहिए जहाँ हमारी निगाह बार-२ जाये। ?    अमृत माँ जिनवाणी से - २१२   ?                "संयम में कष्ट नहीं"            जो लोग सोचते है कि संयम पालने में कष्ट होता है, उनके संदेह को दूर करते हुए पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने मार्मिक देशना में कहा, "संसा

Abhishek Jain

Abhishek Jain

?व्रत के समर्थन में समर्थ वाणी - अमृत माँ जिनवाणी से - २११

?   अमृत माँ जिनवाणी से - २११   ?          "व्रत के समर्थन में समर्थ वाणी"            व्रत ग्रहण करने में जो भी भयभीत होते हैं, उनको साहस प्रदान करते हुए पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज बोले, "जरा धैर्य से काम लो और व्रत धारण करो। डर कर बैठना ठीक नहीं है। ऐसा सुयोग अब फिर कब आएगा?        कई लोगों ने व्रतों का विकराल रूप बता-बता कर लोगों को डरा दिया है और भीषणता की कल्पनावश लोग अव्रती रहे आये हैं, यह ठीक नहीं।"         उन्होंने यह भी कहा, "हमारे भक्त, शत्रु, मित्र, स

Abhishek Jain

Abhishek Jain

×
×
  • Create New...