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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के शिखरजी की ओर ससंघ मंगल विहार का उल्लेख किया जा रहा है। इस उल्लेख में आपको अनेक रोचक बातें जानने मिलेंगी। आज के ही प्रसंग के माध्यम से भी आपको सभी स्थानों में पूज्यश्री द्वारा उस देशकाल में भी अपूर्व धर्मप्रभावना का भान होगा।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६१ ?
"मिरज नरेश द्वारा भक्ति"
सांगली से संघ सानंद प्रस्थान कर मिरज पहुंचा। महराज के शुभागमन का समाचार मिलने पर वहाँ के नरेश आचार्यश्री के दर्शन
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
७ फरवरी, दिन रविवार, माघ कृष्ण चतुर्दशी की शुभ तिथी को इस युग के प्रथम तीर्थंकर देवादिदेव श्री १००८ ऋषभनाथ भगवान का मोक्षकल्याणक पर्व है। हम सभी यह पर्व अत्यंत भक्ति भाव से उल्लास एवं प्रभावना पूर्वक मनाना चाहिए। हम सभी का यह प्रयास होना चाहिए कि जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ भगवान की जय जयकार पूरे विश्व में गूँजने लगे।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६० ?
"सांगली में संघ संचालक जवेरी
बंधुओं का सम्मान"
? अमृत माँ जिनवाणी से - २५९ ?
"सांगली में संघ संचालक जवेरी
बंधुओं का सम्मान"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का उपदेश सुनकर सांगली नरेश की आत्मा बड़ी हर्षित हुई। धर्म के अनुसार आचरण करने वाले महापुरुषों की वाणी का अंतःस्थल तक प्रभाव पड़ा करता है, कारण धर्म अंतःकरण की वस्तु है। अंतःकरण जब धर्माधिष्ठित हो जाता है, तब प्रवृत्ति में भी उसकी अभियक्ति हुए बिना नहीं रहती।
सांगली के समस्त श्रावकों ने संघ संचालक जवेरी बंधुओ का सम
? अमृत माँ जिनवाणी से - २५८ ?
"राजधर्म पर प्रकाश - १"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अपने सम्बोधन में कहा - "राजनीति तो यह है कि राज्य भी करे तथा पुण्य भी कमावे। पूर्व में तप करने वाला राजा बनता था। दान देने वाला धनी बनता है। राज्य पर कोई आक्रमण करे तो उसको हटाने के लिए प्रति आक्रमण करना विरोधी हिंसा है, उसका त्याग गृहस्थी में नहीं बनता है, उसे अपना घर सम्हालना है और चोर से भी रक्षा करना है।
सज्जन राजा गरीबों के उद्धार का उपाय करता है। गरीब
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का उस समय का उद्बोधन है जब वह सांगली होते हुए शिखरजी को ओर विहार कर रहे थे। प्रवचन में राजधर्म पर प्रकाश डाला गया। आप सोच सकते है कि वर्तमान में उस तरह की परिस्थितियाँ नहीं हैं इसलिए इन बातों की प्रासंगिकता नहीं है। लेकिन मैं सोचता हूँ कि देश में इन सभी बातों का अनुपालन बहुत आवश्यक है। भले ही परिस्थियाँ अलग तरह की हों लेकिन देश हर नागरिक, समाज और राष्ट के हित के लिए जो बातें अतिआवश्यक है वह अतिआवश्यक ही र
? अमृत माँ जिनवाणी से - २५६ ?
"सांगली"
अब संघ सांगली रियासत में आ गया। मार्गशीर्ष बदी सप्तमी को सांगली राज्य के अधिपति श्रीमंत राजा साहब, महराज के दर्शनार्थ पधारे, इन्होंने अवर्णनीय आनंद प्राप्त किया। आचार्य महराज के सच्चे धर्म का स्वरूप बताते हुए राजधर्म पर प्रकाश डाला।
सच्चे क्षत्रिय को यह जानकर बड़ा हर्ष होता है कि जैन धर्म का प्रकाश फैलाने का श्रेय जिन तीर्थंकर को था वे क्षत्रिय कुलावतंस ही थे। अहिंसा के ध्वज को सम्हालने वाले क
? अमृत माँ जिनवाणी से - २५५ ?
"मूलगुण-उत्तरगुण समाधान"
सन् १९४७ में पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का चातुर्मास सोलापूर में था। वहाँ वे चार मास से अधिक रहे, तब तर्कशास्त्रियों को आचार्यश्री की वृत्ति में आगम के आगम के अपलाप का खतरा नजर आया, अतः आगम के प्रमाणों का स्वपक्ष पोषण संग्रह प्रकाशित किया गया। उसे देखकर मैंने सोलापुर के दशलक्षण पर्व में महराज से उपरोक्त विषय की चर्चा की।
उत्तर में महराज ने कहा - "हम सरीखे वृद्ध मुनियों के एक स
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के इस प्रसंग से बहुत गंभीर चर्चा सामने आती है। आज भी कुछ श्रावक करणानुयोग, द्रव्यानुयोग आदि के ग्रंथों का अध्यन कर लेने के बाद चारित्र शून्य होते हुए भी निर्मल चारित्र के धारण साधु परमेष्ठीयों की आलोचना का कार्य करते हैं।
कल के प्रसंग में अजैन लोगों का पूज्य मुनिसंघ के प्रति कथन देखा था कि जन्म जन्मान्तर के पुण्य के फलस्वरूप ही दिगम्बर मुनियों के दर्शन वंदन का सानिध्य मिलता है।
कुछ लोगों के तीव्र अशुभ कर्मों का उदय होता है कि
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जय जिनेन्द्र भाइयों,
परमपूज्य चारित्र चक्रवर्ती शांतिसागरजी महराज का सन् १९२७ में शिखरजी के लिए विहार का वर्णन किया जा रहा है। यदि आप इन प्रसंगों को रुचि पूर्वक पूर्ण रूप से पढ़ते है तो पूज्यश्री के प्रति श्रद्धा भाव के कारण आपको उनके संघ के साथ शिखरजी यात्रा में चलने का सुखद अनुभव होगा।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २५३ ?
"अपूर्व आनंद तथा शुभोपयोग प्रवृत्ति"
संघ में रहने वाले कहते थे, ऐसा आनंद, ऐसी सात्विक शांति, ऐसी भावों की विशुध्दता जीव
? अमृत माँ जिनवाणी से - २५२ ?
"संघ का उत्तरापथ की ओर प्रस्थान"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के शिखरजी की ओर ससंघ विहार के वर्णन के क्रम में आगे-
अब "ओम नमः सिद्धेभ्यः" कह सन १९२७ की मार्गशीर्ष कृष्ण प्रतिपदा को प्रभु का स्मरण कर चतुर्विध संघ सम्मेदाचल पारसनाथ हिल की वंदनार्थ रवाना हो गया। अभी लक्ष्यगत स्थल को पहुंचने में कुछ देर है, यात्रा भी पैदल है, किन्तु पवित्र पर्वतराज की मनोमूर्ति महराज के समक्ष सदा विद्यमान रहती थी कारण दृष्टि उस ओर थी। संकल्प
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की ससंघ शिखरजी यात्रा का वर्णन चल रहा है। पूज्यश्री के जीवन से संबंधित हर एक बात निश्चित ही हम सभी भक्तों को आनंद से भर देती है।
आप सोच सकते हैं कि पूज्यश्री के जीवन चारित्र को जानने में संघस्थ सभी व्रती श्रावकों के उल्लेख की क्या आवश्यकता? इस संबंध में मेरा सोचना है कि ऐसे श्रावक जो पूज्यश्री के साथ में चले तथा उनकी द्वारा संयम ग्रहण कर मोक्षमार्ग मार्ग पर आगे बढे उनके बारे में भी जानना अपने आप में हर्ष का
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
कल से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन चरित्र को जानने के क्रम में एक नया अध्याय प्रारम्भ हो चुका है। मैं शिखरजी की यात्रा को एक नया अध्याय इसलिए मानता हूँ क्योंकि यही से इन सदी के प्रथम आचार्य के मंगल चरण उत्तर भारत में पड़कर वहाँ के लोगों को धर्मामृत का पान कराने वाले थे।
यह वर्णन उस समय पूज्यश्री ने जो ससंघ वंदना हेतु यात्रा की थी उसका उल्लेख है, आप यह सोच सकते हैं कि उससे हमारा क्या संबंध। यहाँ मेरे मानना है कि इस प्रसंगों के माध्यम से पूज्यश
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४९ ?
"शिखरजी बिहार की विज्ञप्ति"
सम्पूर्ण बातों का विचार कर ही पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने शिखरजी की ओर संघ के साथ विहार की स्वीकृति दी थी। यह समाचार कार्तिक कृष्ण प्रतिपदा वीर संवत २४५३, सन १९२७ के दिन विज्ञप्ति रूप इन शब्दों में प्रकाश में आया:
?संघ विहार (शिखरजी की यात्रा)?
"सम्पूर्ण दिगम्बर जैन समाज को सुनाते हुए आनंद होता है कि हम कार्तिक के आष्टनिहका पर्व के समाप्त होते ही मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४८ ?
"शिखरजी वंदना का विचार"
सन् १९२७ में कुम्भोज बाहुबली में चातुर्मास के उपरांत बम्बई के धर्मात्मा तथा उदीयमान पुण्यशाली सेठ पूनमचंद घासीलालजी जबेरी के मन में आचार्यश्री शान्तिसागर महराज के संघ को पूर्ण वैभव के साथ सम्मेदशिखरजी की वंदनार्थ ले जाने की मंगल भावना उत्पन्न हुई।
उन्होंने गुरुचरणों में प्रार्थना की। आचार्यश्री ने संघ को शिखरजी जाने की स्वीकृति प्रदान कर दी। वैसे पहले भी महराज की सेवा में शिखरजी चलने की
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४७ ?
"गुरु प्रभावशाली व्यक्तित्व"
मुनिश्री आदिसागरजी महराज ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गुरु के बारे में बताया कि "देवप्पा स्वामी का ब्रम्हचर्य बड़ा उज्ज्वल था। वे सिद्धिसम्पन्न सत्पुरुष थे। मैंने गोकाक में उनकी गौरवगाथा सुनी थी। उनकी प्रमाणिकता का निश्चय भी किया था।
वे गोकाक से कोंनुर जा रहे थे। वहाँ की भीषण पहाड़ी पर ही सूर्यास्त हो गया। उनके साथ एक उपाध्याय था। उसे कुग्गुड़ी पंडित कहते थे। स्वामी ने एक चक्क
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४६ ?
"उपयोगी उपदेश"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने सन १९२५ में श्रवणबेलगोला की यात्रा की थी। उस यात्रा से लौटते समय आचार्य संघ दावणगिरि में ठहरा था। बहुत से अन्य धर्मी गुरुभक्त महराज के पास रस, दूध, मलाई आदि भेंट लेकर पहुँचे। रात्रि का समय था।
चंद्रसागरजी ने लोगों से कहा कि महराज रात्रि को कुछ नहीं लेते हैं। वे लोग बोले- "महराज गुरु हैं। जो भक्तों की इच्छा पूर्ण नहीं करते, वे गुरु कैसे?" महराज तो मौन थे। वे भ
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग से पूज्य शान्तिसागरजी महराज के एक प्रसंग के माध्यम से भारत वसुधरा में विराजमान सभी साधु परमेष्ठीयों के जीवन में लगातार चलने वाले धोर तपश्चरण के एक बहुत सूक्ष्म अंश का अवलोकन करने का अवसर मिलता है।
दूसरी बात हम इस तरह से सोच सकते है कि हमारे बीच से कोई सामान्य श्रावक ही आत्मबोध और जीवन के महत्व को समझकर इस तरह सुख के रास्ते पर आगे बढ़ता है। हम भी इसी तरह इंद्रिय सुखों की इच्छाओं को धीरे-२ कम करके अपने जीवन को सार्थक बना सकते हैं
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४४ ?
"साधु विरोधी आंदोलन के संबंध में"
एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य वर्धमान सागरजी कहने लगे- "आजकल साधु के चरित्र पर पत्रों में चर्चा चला करती है। उनके विद्यमान अथवा अविद्यमान दोषों का विवरण छपता है। इस विषय में उचित यह है कि अखबारों में यह चर्चा न चले, ऐसा करने से अन्य साधुओं का भी अहित हो जाता है।
मार्ग-च्युत साधु के विषय में समाज में विचार चले, किन्तु पत्रों में यह बात न छपे। इससे सन्मार्ग के
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४२ ?
"अपूर्व केशलोंच"
ग्रंथ के लेखक दिवाकरजी ने पूज्य शान्तिसागरजी महराज के गृहस्थ जीवन के भाई, उस समय के मुनिश्री वर्धमान सागरजी के केशलोंच के समय का वर्णन किया -
ता. १८ फरवरी सन १९५७ को वर्धमानसागर जी ने केशलोंच किया। उस समय उनकी उम्र ९० वर्ष से अधिक थी। दूर-दूर से आये हजारों स्त्री-पुरुष केशलोंच देख रहे थे।
मैंने देखा कि आधा घंटे के भीतर ही उन्होंने केशलोंच कर लिया। किसी की सहायता नहीं
? अमृत माँ जिनवाणी से - २४१ ?
"अद्भुत समाधान"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी से एक दिन किसी ने पूंछा- "महराज ! कोई व्यक्ति निर्ग्रन्थ मुद्रा को धारण करके उसके गौरव को भूलकर कोई कार्य करता है, तो उसको आहार देना चाहिए कि नहीं?
उन्होंने कहा- "आगम का वाक्य है, कि भुक्ति मात्र प्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम। अरे दो ग्रास भोजन देते समय साधु की क्या परीक्षा करना? उसको आहार देना चाहिए। बेचारा कर्मोदयवश
? अमृत माँ जिनवाणी - २४० ?
"निरंतर आत्मचिंतन"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के जीवन का उल्लेख चल रहा था। उसी क्रम में आगे-
पूज्य पायसागरजी महराज आत्मध्यान में इतने निमग्न होते थे कि उनको समय का भान नहीं रहता था। कभी-कभी चर्या का समय हो जाने पर भी वे ध्यान में मस्त रहते थे। उस समय कुटी की खिड़की से कहना पढ़ता था कि महराज आपकी चर्या का समय हो गया।
इस अवस्था वाले पायसागर महराज के
? अमृत माँ जिनवाणी से - २३९ ?
"गुरुदेव की पावन स्मृति"
पूज्य पायसागरजी महराज की अपने गुरु पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रति बड़ी भक्ति थी। उनका उपकार वे सदा स्मरण करते थे।
प्रायः उनके मुख से ये शब्द निकलते थे, "मैंने कितने पाप किए? कौन सा व्यसन सेवन नहीं किया? मै महापापी ना जाने कहाँ जाता? मैं पापसागर था। रसातल में ही मेरे लिए स्थान था। मैं वहाँ ही समा जाता। मेरे गुरुदेव ने पायसागर बनाकर मेरा उद्धार कर दिया।" ऐसा कहते-कहते उनके नेत्र
? अमृत माँ जिनवाणी से - २३८ ?
"मृत्यु की पूर्व सूचना"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य मुनिश्री पायसागरजी महराज के वृतांत चल रहा था। उसी क्रम में आगे-
पायसागर महराज कहते थे- "मेरा समय अब अति समीप है। मै कब चला जाऊँगा, यह तुम लोगों को पता भी नहीं चलेगा।"
हुआ भी ऐसा ही। प्रभातकाल में वे आध्यात्मप्रेमी साधुराज ध्यान करने बैठे। ध्यान में वे मग्न थे। करीब ७.३० बजे लोगों ने देखा, तो ज्ञात हुआ कि महान ज्ञान
? अमृत माँ जिनवाणी से - २३७ ?
"आचार्यश्री के बारे में उदगार"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के योग्य शिष्य पूज्य पायसागरजी पावन जीवन वृतांत को हम सभी कुछ दिनों से जान रहे हैं। आचार्यश्री में उनकी अपार भक्ति थी। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज के स्वर्गारोहण के उपरांत मुनि श्री पायसागर महराज के उदगार इस प्रकार थे-
वे कहते थे- "मेरे गुरु चले गए। मेरे प्रकाशदाता चले गए। मेरी आत्मा की सुध लेने वाले चले गए। मेरे दोषों का शोधन क
? अमृत माँ जिनवाणी से - २३६ ?
"आचार्य महराज की विशेषता"
मुनिश्री पायसागरजी महराज ने कहा- "आचार्य महराज की मुझ पर अनंत कृपा रही। उनके आत्मप्रेम ने हमारा उद्धार कर दिया। महराज की विशेषता थी कि वे दूसरे ज्ञानी तथा तपस्वी के योग्य सम्मान का ध्यान रखते थे।
एक बार मैं महराज के दर्शनार्थ दहीगाव के निकट पहुँचा। मैंने भक्ति तथा विनय पूर्वक उनको प्रणाम किया। महराज ने प्रतिवंदना की।" मैंने कहा- "महराज मैं प्रतिवंदना के योग्य नहीं हूँ।"