? अमृत माँ जिनवाणी से - २८६ ?
"महान जैन महोत्सव"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ससंघ की शिखरजी वंदना के संघपति जबेरी बंधुओं द्वारा निश्चित शिखर में जिनेन्द्र पंचकल्याणक महोत्सव बड़े वैभव के साथ जिनेन्द्र भगवान की पूज्य तथा अत्यंत प्रभवना के साथ सम्पन्न हुआ।
भारतवर्षीय दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र कमेटी का उत्सव इंदौर के धन कुवेर सर राव राजा दानवीर सेठ हुकुमचंद की अध्यक्षता में बड़े उत्साह और उल्लासपूर्वक पूर्ण हुआ था। उस समय भीड़ अ
? अमृत माँ जिनवाणी से - २८५ ?
"सूक्ष्मचर्चा"
एक दिन महराज ने कहा, "कोई कोई मुनिराज कमण्डलु की टोटी को सामने मुँह करके गमन करते हैं, यह अयोग्य है।।"
मैंने पूंछा, "महराज ! इसका क्या कारण है, टोंटी आगे हो या पीछे हो। इसका क्या रहस्य है?"
महराज ने कहा, "जब संघ में कोई साधु का मरण हो जाता है, तब मुनि टोंटी आगे करके चलते हैं, उससे संघ के साधु के मरण का बोध हो जाएगा। वह अनिष्ट घटना का संकेत है।"
मै
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागर महराज का जीवन चरित्र देखते है तो निश्चित ही हम आत्म कल्याण के मार्ग पर उनकी उत्कृष्ट साधना का अवलोकन करते हैं, एक बात और यहाँ देखी जा सकती है कि हम जैसे सामान्य, सातगौड़ा के जीव ने उत्कृष्ट पुरुषार्थ द्वारा उत्कृष्ट साधना की स्थिति को प्राप्त किया और शान्तिसागर बन गए, सातगौड़ा की भांति हम भी सही दिशा में पुरुषार्थ कर कल्याण का रास्ता पकड़ सकते हैं।
यहाँ मैं आप सभी का ध्यान इस बात पर केंद्रित करना चाहता हूँ कि
? अमृत माँ जिनवाणी से - २८३ ?
"ज्ञानधर कूट"
कुछ घंटों के उपरांत भगवान कुन्थुनाथ स्वामी की टोंक (निर्वाण स्थल ) आ गई। उस स्थल पर विद्यमान सिध्द भगवान को प्रणाम करते हुए अपनी ज्ञान दृष्टि के द्वारा वे स्थल के ऊपर सात राजू ऊँचाई पर विराजमान सिद्धत्व को प्राप्त भगवान कुंथुनाथ आदि विशुध्द आत्माओं का ध्यान कर रहे थे। चक्रवर्ती, कामदेव, तथा तीर्थंकर पदवी धारी शांतिनाथ, कुंथुनाथ तथा अरनाथ प्रसिद्ध हुए हैं।
उन महामुनि की ध्यान मुद्
? अमृत माँ जिनवाणी से - २८२ ?
"निर्वाण भूमि सम्मेद शिखरजी की वंदना"
मंगल प्रभात का आगमन हुआ। प्रभाकर निकला। सामयिक आदि पूर्ण होने के पश्चात आचार्य महराज वंदना के लिए रवाना हो गए। ये धर्म के सूर्य तभी विहार करते हैं जब गगन मंडल में पौदगलिक प्रभाकर प्रकाश प्रदान कर इर्या समीति के रक्षण में सहकारी होता है। महराज भूमि पर दृष्टि डालते हुए जीवों की रक्षा करते पहाड़ पर चढ़ रहे थे।
?गंधर्व,सीतानाला स्याद्वाद
दृष्टि के प्रतीक
? अमृत माँ जिनवाणी से - २८१ ?
"संघ का राँची पहुँचना"
इस प्रकार सच्चा लोक कल्याण करते हुए आचार्य महराज का संघ १२ फरवरी को राँची पहुंचा। वहाँ बहुत लोगों ने अष्टमूलगुण धारण किए। वहाँ के सेठ रायबहादुर रतनलाल सूरजमलजी ने धर्मप्रभावना के लिए बड़ा उद्योग किया था।
"फाल्गुन सुदी तृतीया को शिखरजी पहुँचना"
संघ हजारीबाग पहुंचा तब वहाँ की समाज ने बड़ी भक्ति प्रगट की। ऐलक पन्नालाल जी संघ में सम्मलित हो गए, वहाँ से चलकर संघ फाल्गुन स
? अमृत माँ जिनवाणी से - २८० ?
"आदिवासियों की कल्याण साधना"
रायपुर में धर्म प्रभावना के उपरांत संघ २० जनवरी को रवाना होकर आरंग होते हुए संभलपुर पहुँचा। वहाँ से प्रायः जंगली मार्ग से संघ को जाना पड़ा था।
उस जगह इन दिगम्बर गुरु के द्वारा सरल ग्रामीण जनता का कल्याण हुआ था। रास्ते भर हजारों लोग इन नागा बाबा के दर्शन को दूर दूर से आते थे।
पूज्य शान्तिसागरजी महराज तथा मुनि संघ को भगवान सा समझ वे लोग प्रमाण करते थे तथा इनके उपद
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७९ ?
"नादिरशाही आदेश"
सन १९५१ की बात है। नीरा जिला पूना में नवनिर्मित सुंदर जिन मंदिर की प्रतिष्ठा के समय हजारों जैन बंधु आये थे। उस समय आचार्य शान्तिसागर महराज भी वहाँ विराजमान थे।
पूना जिलाधीश ने विवेक से काम न ले आचार्य शान्तिसागर महराज के सार्वजनिक विहार पर बंधन लगा दिया, जिससे भयंकर स्थिति उत्पन्न होने की संभावना थी।
उद्योगपति सेठ लालचंद हीराचंद, सदस्य, केंद्रीय परिषद तथा स्व.
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७८ ?
"अंग्रेज अधिकारी का भ्रम निवारण"
संघ १८ जनवरी सन १९२८ को रायपुर पहुँचा। यहाँ सुंदर जुलूस निकालकर धर्म की प्रभावना की गई। यहाँ अनंतकीर्ति मुनि महराज का केशलोंच भी हुआ था।
यहाँ के एक अंग्रेज अधिकारी की मेम ने दिगम्बर संघ को देखा, तो उसकी यूरोपियन पध्दति को धक्का सा लगा। उसने तुरंत अपने पति अंग्रेज साहब के समक्ष कुछ जाल फैलाया, जिससे संघ के बिहार में बाधा आए।
अंग्रेज अधिकारी अनर्थ पर उतर उतारू हो
? अमृत माँ जिनवाणी - २७७ ?
"पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है"
कल हमने देखा की पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने अनेकों अजैन भाइयों को मद्य, मांस तथा मदिरा का त्याग कराकर उनका उद्धार किया।
इसी संबंध में वर्धा में सन १९४८ के मार्च माह में मैं वर्तमान राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्रप्रसाद जी से मिला था, लगभग डेढ़ घंटे चर्चा हुई थी। उस समय हरिजन सेवक पत्र के संपादक श्री किशोर भाई मश्रुवाला भी उपस्थित थे। श्री विनोवा भावे से भी मिलना हुआ था।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७६ ?
"अगणित ग्रामीणों का व्रतदान द्वारा उद्धार"
छत्तीसगढ़ प्रांत के भयंकर जंगल के मध्य से संघ का प्रस्थान हुआ। दूर-२ के ग्रामीण लोग इन महान मुनिराज के दर्शनार्थ आते थे। महराज ने हजारों को मांस, मद्य आदि का त्याग कराकर उन जीवों का सच्चा उद्धार किया था। पाप त्याग द्वारा ही जीव का उद्धार होता है। पाप प्रवृत्तियों के परित्याग से आत्मा का उद्धार होता है।
कुछ लोग सुंदर वेशभूषा सहभोजनादि को आत्मा के उत्कर्ष का अंग सोचते
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७५ ?
"शिखरजी में पंचकल्याणक का निश्चय"
संघपति जवेरी बंधुओं को धन लाभ में धन के द्वारा मनोविकार आना चाहिए था, किन्तु आचार्यश्री के चरणों के सत्संग से उनकी आत्मा में स्वयं के भाव हुए कि इस द्रव्य को शिखरजी में जिनेन्द्र पंच कल्याणक महोत्सव रूप महापूजा में लगा देना अच्छा होगा।
गुरुचरण प्रसाद से जो निधि आई है उसे उनके पुण्य चरणों के समीप ही श्रेष्ठ कार्य में लगा देना चाहिए, ऐसा पवित्र भाव उनके चित्त में उदित हुआ। ऐसा होना
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
हम विचार कर सकते है कि वह श्रावक कितने भाग्यशाली होंगे जिनको पूज्य शान्तिसागर ससंघ तीर्थराज की वंदना को ले जाने में सम्पूर्ण व्यवस्था का लाभ मिला।
आज का प्रसंग हम सभी को उदारता का एक अच्छा प्रेरणास्पद उदाहरण, एक सच्चे गुरुभक्त श्रावक लक्षणों तथा सोच को व्यक्त करता है। उदारता तथा संतोष एक सच्चे धर्मात्मा की पहचान है।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७४ ?
"शुभ समाचार"
नागपुर धर्म प्रभावना
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७३ ?
"जैन धर्म की घटती का कारण"
एक भाई ने पूज्यश्री से पूंछा- "महराज जैन धर्म की घटती का क्या कारण है जबकि उसमें जीव को सुख और शांति देने की विपुल सामग्री विद्यमान है?"
महराज ने कहा- "दिगम्बर जैन धर्म कठिन है। आजकल लोग ऐहिक सुखों की ओर झुकते हैं। मोक्ष की चिंता किसी को नहीं है। सरल और विषय पोषक मार्ग पर सब चलते हैं, जैन धर्म की क्रिया कठिन है। अन्यत्र सब प्रकार का सुभीता है। स्त्री आदि के साथ भी अन्यत्र साध
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७२ ?
"शांति के बिना त्यागी नहीं"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने बताया कि महाव्रतों के पालन से उनकी आत्मा को अवर्णनीय शांति है। एक दिन सन १९५० में एक स्थानकवासी साधु महोदय आचार्य महराज के पास गजपंथा तीर्थ पर आए। उनने कहा- "महराज ! शांति तो है न?
महराज ने उत्तर दिया- "त्यागी को यदि शांति नहीं, तो त्यागी कैसे?"
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
सामान्यतः हम सभी के मन में प्रश्न रहता है कि क्यों इतनी सुख सुविधाओं को छोड़कर एक मनुष्य निर्ग्रन्थ का जीवन जीता है, सर्व सुख-सुविधाओं के स्थान पर कष्ट के जीवन में वह अत्यधिक प्रसन्न कैसे रहते हैं।
यह प्रश्न हम सभी का रहता है विशेषकर जैनेत्तर लोगों का तो रहता ही है। कभी-२ हमारे सामने अन्य लोगों को दिगम्बर मुनिराज की चर्या के रहस्य को व्यक्त करना दुविधा का कार्य होता है।
आज के प्रसंग में लेखक द्वारा व्यक्त की गई शंका हम सभी के
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग का पूज्य शान्तिसागरजी महराज का उद्बोधन बहुत ही महत्वपूर्ण उदभोधन है। यह हर श्रावक को अवश्य ही पढ़ना चाहिए।
संभव हो तो रोज पढ़ना चाहिए। यह उद्बोधन प्राणी मात्र को कल्याण का कारक है। उद्बोधन के अनुशरण से तो कल्याण होगा ही, उसको पढ़ने से भी अवश्य ही शांति की अनुभूति करेंगे।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २७० ?
"धर्म-पुरुषार्थ पर विवेचन"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज ने कहा था- "हिंसा आदि पापो
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६९ ?
"नागपुर के नागरिकों की भक्ति"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का शिखरजी की ओर विहार के क्रम में नागपुर नगर में भव्य मंगल प्रवेश हुआ। वहाँ के श्रावकों की अत्यंत भक्ति भावना को लेखक श्री दिवाकरजी ने उपमा देते हुआ लिखा है कि -
महाभारत में लिखा है कि नागनरेश श्रवणों के उपासक थे। नागकुलीन राजा तक्षक नग्न श्रमण हो गया था। दिगम्बर मुनियों के प्रति नागपुर प्रांतीय जनता की भक्ति ने पुरातन कथन की प्रमाणिकता प्रतिपाद
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६८ ?
"नागपुर प्रवेश"
पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज ने शिखरजी की ओर विहार के क्रम में सन् १९२८ को नागपुर नगर में प्रवेश किया। जुलूस तीन मील लंबा था। उसमें छत्र, चमर, पालकी, ध्वजा आदि सोने चाँदी आदि की बहुमूल्य सामग्री थी, इससे उसकी शोभा बड़ी मनोरम थी।
नागपुर नगर वासियों के सिवाय प्रांत भर के लोग जैन, अजैन तथा अधिकारी वर्ग आचार्यश्री के दर्शन द्वारा अपने को कृतार्थ करने को खड़े थे। लोगों की धारणा है कि
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६७ ?
"विदर्भ प्रांत में प्रवेश"
संघ २६ दिसम्बर को यवतमाळ पहुँचा। यहाँ खामगाँव के श्रावकों ने सर्व संघ की आहार व्यवस्था की। यहाँ प्रद्युम्नसाव जी कारंजा वालों के यहाँ पूज्य आचार्यश्री का आहार हुआ। रात्रि के समय श्री जिनगौड़ा पाटील का मधुर कीर्तन हुआ।
श्री पाटील गोविन्दरावजी ने संघ की आहार व्यवस्था हेतु दूध, लकड़ी का प्रबंध वर्धा पर्यन्त करके अपनी भक्ति तथा प्रेम भाव व्यक्त किया। ता. २८ को संघ पुलगाँव पहुँचा।
? अमृत माँ जिनवाणी से- २६६ ?
"विदर्भ प्रांत में प्रवेश"
श्री चंद्रसागरजी ने, जो कुछ समय के लिए नांदगाँव चले गए थे, लगभग दो सौ श्रावकों सहित नांदेड में आकर संघ में आकर संघ को वर्धमान बनाया। एक दिन वहाँ रहकर संघ ने १७ दिसम्बर को प्रस्थान किया, यहाँ तक निजाम की सीमा थी। अतः स्टेट के कर्मचारीयों और अधिकारियों ने सद्भावना पूर्वक आचार्य महराज को प्रणाम किया और वापिस लौट आये।
यह आचार्यश्री का आत्मबल था जिसमें निजाम स्टेट में से बिहार करते हु
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६५ ?
*"जाप का काल"*
एक दिन मैंने (७ सितम्बर सन् १९५१ के) सुप्रभात के समय आचार्य महराज से पूंछा था- "महराज आजकल आप कितने घंटे जाप किया करते है?"
महराज ने कहा - रात को एक बजे से सात बजे तक, मध्यान्ह में तीन घंटे तथा सायंकाल में तीन घंटे जाप करते हैं।" इससे सुहृदय सुधी सोच सकता है कि इन पुण्य श्लोक महापुरुष का कार्यक्रम कितना व्यस्त रहता है।
? स्वाध्याय चारित्र चक्रवर्ती ग्रंथ का ?
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६४ ?
"आलंद में प्रभावना"
आलंद की जैन समाज ने उत्साह पूर्वक संघ का स्वागत किया। वहाँ संघ सेठ नानचंद सूरचंद के उद्यान में ठहरा था।
पहले ऐंसी कल्पना होती थी, कि कहीं संकीर्ण चित्तवाले अन्य सम्प्रदाय के लोग विघ्न उपस्थित करें, किन्तु महराज शान्तिसागर जी के तपोबल से ऐंसा अद्भुत परिणमन हुआ कि ब्राम्हण, मुसलमान, लिंगायत, हिंदु आदि सभी धर्म वाले भक्तिपूर्वक दर्शनार्थ आए और प्रसाद के रूप में पवित्र धर्मोपदेश तथा कल्या
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग से आपको ज्ञात होगा कि परम पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज की चर्या के माध्यम से धीरे-२ पुनः सर्वत्र मुनिसंघ का विचरण प्रारम्भ हुआ।
वर्तमान में मुनिराजों द्वारा पू. शान्तिसागरजी महराज के निजाम राज्य प्रवेश संबंध में ज्ञात होता है कि उस समय दिगम्बरों के राज्य में विचरण में प्रतिबंघ था लेकिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज के प्रभाव से मुनिसंघ का विहार अप्रतिबंधित हुआ ही साथ ही राज्य प्रवेश में उनकी आगमानी स्वयं वहाँ के शासक ने अप
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग में केशलोंच के संबंध में पूज्यश्री द्वारा की गई विवेचना अत्यंत ही महत्वपूर्ण है।
सामान्यतः हम लोगों को मुनिराज के केशलोंच की क्रिया देखकर ही कष्ट होने लगता है और जिज्ञासा होती है कि मुनिराज इन कष्टकारक क्रियाओं को प्रसन्नता के साथ कैसे संपादित कर लेते हैं? इस प्रसंग को जैनों को जानना ही चाहिए जैनेतर जनों तक भी यह बातें पहुँचाना चाहिए।
? अमृत माँ जिनवाणी से - २६२ ?
"केशलोंच पर अनुभव पूर्ण प्रकाश"