? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१४ ?
"वैयावृत्त धर्म और आचार्यश्री"
किन्ही मुनिराज के अस्वस्थ होने पर वैयावृत्त की बात तो सबको महत्व की दिखेगी, किन्तु श्रावक की प्रकृति भी बिगड़ने पर पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज का ध्यान प्रवचन-वत्सलता के कारण विशेष रूप से जाता था। आचार्यश्री श्रेष्ट पुरुष होते हुए भी अपने को साधुओं में सबसे छोटा मानते थे।
एक बार १९४६ में कवलाना में ब्रम्हचारी फतेचंदजी परवार भूषण नागपुर वाले बहुत बीमार हो गए थे। उस समय आचार्य महराज
? अमृत माँ जिनवाणी से - २२८ ?
"अनुकम्पा"
पूज्य शान्तिसागरजी महराज के अंतःकरण में दूसरे के दुख में यथार्थ अनुकंपा का उदय होता था। एक दिन वे कहने लगे- "लोगों की असंयमपूर्ण प्रवृत्ति को देखकर हमारे मन में बड़ी दया आती है, इसी कारण हम उनको व्रतादि के लिए प्रेरणा देते हैं।
जहां जिस प्रकार के सदाचरण की आवश्यकता होती है, उसका प्रचार करने की ओर उनका ध्यान जाता है।
बेलगाँव, कोल्हापुर आदि की ओर जैन भाई ग्रहीत मिथ्यात्व की फेर में
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज के प्रसंग में आप पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा गाय के दूध के संबंध में एक महत्वपूर्व जिज्ञासा के दिए गए रोचक समाधान को जानेगे। आप अवश्य पढ़ें।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३२१ ?
"महत्वपूर्ण शंका समाधान"
अलवर में एक ब्राम्हण प्रोफेसर महाशय आचार्यश्री के पास भक्तिपूर्वक आए और पूछने लगे कि- "महराज ! दूध क्यों सेवन किया जाता है? दुग्धपान करना मुत्रपान के समान है?"
महराज ने कहा,"गाय जो घास खाती है, वह
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज का प्रसंग हर एक मनुष्य के मष्तिस्क में उठ सकने वाले प्रश्न का समाधान है। पूज्य आचार्यश्री शान्तिसागरजी महराज द्वारा दिया गया समाधान बहुत ही आनंद प्रद है।
अपने जीवन के प्रति गंभीर दृष्टिकोण रखने वाले पाठक श्रावक अवश्य ही इस समाधान को जानकर आनंद का अनुभव करेंगे।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१८ ?
"एक अंग्रेज का शंका समाधान"
एक दिन एक विचारवान भद्र स्वभाव वाला अंग्रेज आया।
उसने पूज्य शान्तिसागरजी मह
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१६ ?
"सरसेठ हुकुमचंद और उनका ब्रम्हचर्य प्रेम"
लेखक दिवाकरजी ने लिखा है कि सर सेठ हुकुमचंद जी के विषय में बताया कि आचार्य महराज ने उनके बारे ये शब्द कहे थे, "हमारी अस्सी वर्ष की उम्र हो गई, हिन्दुस्तान के जैन समाज में हुकुमचंद सरीखा वजनदार आदमी देखने में नहीं आया।
राज रजवाड़ों में हुकुमचंद सेठ के वचनों की मान्यता रही है। उनके निमित्त से जैनों का संकट बहुत बार टला है। उनको हमारा आशीर्वाद है, वैसे तो जिन भगवान की आज्ञा से चलने व
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जय जिनेन्द्र बंधुओं,
आज चारित्र चक्रवर्ती पूज्य शान्तिसागरजी महराज के जीवन पर्यन्त के एक महत्वपूर्ण विवरण को आपके सम्मुख प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह पोस्ट आप संरक्षित रखकर बहुत सारे रोचक प्रसंगों के वास्तविक समय का अनुमान लगा पाएँगे तथा उनके तपश्चरण की भूमि का समय के सापेक्ष में भी अवलोकन कर पाएँगे। विवरण ग्रंथ में उपलब्ध जानकारी के आधार पर ही है।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१५ ?
"चातुर्मास सूची"
पूज्य शान्तिसागर जी महराज की दीक्षा संबंधी जानकारी का
? अमृत माँ जिनवाणी से - ८६ ?
"आचार्यश्री का श्रेष्ट विवेक"
देशभूषणजी महाराज ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी के बारे में कहा- "आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज ने अपने जीवन की एक विशेष घटना हमें बताई थी-
एक ग्राम में एक गरीब श्रावक था। उसकी आहार देने की तीव्र इच्छा थी, किन्तु बहुत अधिक दरिद्र होने से उसका साहस आहार देने का नहीं होता था।
एक दिन वह गरीब पडगाहन के लिए खड़ा हो गया। उसके यहाँ आचार्यश्री की विध
? अमृत माँ जिनवाणी से - ५६ ?
"दीक्षा के समय व्यापक शिथिलाचार"
एक दिन शान्तिसागरजी महाराज से ज्ञात हुआ कि जब उन्होंने गृह त्याग किया था, तब निर्दोष रीति से संयमी जीवन नही पलता था।
प्रायः मुनि बस्ती में वस्त्र लपेटकर जाते थे और आहार के समय दिगम्बर होते थे।
आहार के लिए पहले से ही उपाध्याय ( जैन पुजारी ) गृहस्थ के यहाँ स्थान निश्चित कर लिया करता था, जहाँ दूसरे दिन साधु जाकर आहार किया करते थे।
ऐसी विकट स्थिति जब मुनियों
? अमृत माँ जिनवाणी से -१० ?
"वैभवशाली दया पात्र हैं"
दीन और दुखी जीवो पर तो सबको दया आती है । सुखी प्राणी को देखकर किसके अंतःकरण में करुणा का भाव जागेगा ?
आचार्य शान्तिसागर महाराज की दिव्य दृष्टि में धनी और वैभव वाले भी उसी प्रकार करुणा व् दया के पात्र हैं, जिस प्रकार दीन, दुखी तथा विपत्तिग्रस्त दया के पात्र हैं। एक दिन महाराज कहने लगे, "हमको संपन्न और सुखी लोगों को देखकर बड़ी दया आती है।"
मैंने पुछा, "महाराज ! सुखी जीवो पर दया भाव का
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३१३ ?
"ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर"
एक दिन पूज्य शान्तिसागरजी महराज कहने लगे-" हमारी भक्ति करने वाले को जैसे हम आशीर्वाद देते हैं, वैसे ही हम प्राण लेने वालों को भी आशीर्वाद देते हैं।उनका कल्याण चाहते हैं।"
इन बातों की साक्षात परीक्षा राजाखेड़ा के समय हो गई। ऐसे विकट समय पर आचार्य महराज का तीव्र पुण्य ही संकट से बचा सका, अन्यथा कौन शक्ति थी जो ऐसे योजनाबद्ध षड्यंत से जीवन की रक्षा कर सकती?
कदाच
? अमृत माँ जिनवाणी से - १२ ?
"बाहुबलीस्वामी के विषय मे आलौकिक दृष्टी"
जब हमने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पुछा- "महाराज गोमटेश्वर की मूर्ति का आपने दर्शन किया है उस सम्बन्ध मे आपके अंतरंग मे उत्पन्न उज्ज्वल भावो को जानने की बड़ी इच्छा है।"
उस समय महाराज ने उत्तर दिया था उसे सुनकर हम चकित हो गये।
उन्होंने कहा था- "बाहुबली स्वामी की मूर्ति बड़ी है। यह जिनबिम्ब हमे अन्य मूर्तियो के समान ही लगी। हम तो जिनेन्द्र के गुणों का चिंतवन करते हैं, इसीलिए ब
? अमृत माँ जिनवाणी से - १६ ?
"असाधारण शक्ति"
आचार्य शान्तिसागरजी महाराज का शरीर बाल्य-काल मे असाधारण शक्ति सम्पन्न रहा है। चावल के लगभग चार मन के बोरों को सहज ही वे उठा लेते थे। उनके समान कुश्ती खेलने वाला कोई नही था। उनका शरीर पत्थर की तरह कड़ा था।
वे बैल को अलग कर स्वयं उसके स्थान में लगकर, अपने हांथो से कुँए से मोट द्वारा पानी खेच लेते थे। वे दोनो पैर को जोड़कर १२ हाथ लंबी जगह को लांघ जाते थे। उनके अपार बल के कारण जनता उन्हें बहुत चाहती
? अमृत जिनवाणी से -१५ ?
"येलगुल मे जन्म"
जैन संस्कृति के विकास तथा उन्नति के इतिहास पर दृष्टि डालने पर यह ज्ञात होता है कि विश्व को मोह अंधकार से दूर करने वाले तीर्थंकरो ने अपने जन्म द्वारा उत्तर भारत को पवित्र किया तथा निर्वाण द्वारा उसे ही तीर्थस्थल बनाया, किन्तु उनकी धर्ममयी देशना रूप अमृत को पीकर, वीतरागता के रस से भरे शास्त्रो का निर्माण करने वाले धुरंधर आचार्यो ने अपने जन्म से दक्षिण भारत की भूमि को श्रुत तीर्थ बनाया।
उसी ज्ञा
? अमृत माँ जिनवाणी से - १४ ?
" लोकोत्तर वैराग्य "
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के ह्रदय मे अपूर्व वैराग्य था।
एक समय मुनि वर्धमान स्वामी ने महाराज के पास अपनी प्रार्थना भिजवायी- "महाराज ! मैं तो बानबे वर्ष से अधिक का हो गया। आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा है। क्या करूँ ? "
इस पर महाराज ने कहा- "हमारा वर्धमान सागर का क्या संबंध ? ग्रहस्थावस्था मे हमारा बड़ा भाई रहा है सो इसमें क्या ? हम तो सब कुछ त्याग कर चुके हैं।
पंच प
? अमृत माँ जिनवाणी से -१३ ?
"द्रोणागिरी क्षेत्र में सिंह का आना"
सन १९२८ मे वैसाख सुदी एकम को आचार्य शान्तिसागर महाराज का संघ द्रोणागिरी सिद्ध क्षेत्र पहुँचा।हजारो भाइयो ने दूर-२ से आकर दर्शन का लाभ लिया।
महाराज पर्वत पर जाकर जिनालय मे ध्यान करते थे। उनका रात्रि का निवास पर्वत पर होता था। प्रभात होते ही लगभग आठ बजे महाराज पर्वत से उतरकर नीचे आ जाते थे।
एक दिन की बात है कि महाराज समय पर ना आये। सोचा गया संभवतः वे ध्यान मे मग्न होंगे। दर्
? अमृत माँ जिनवाणी से - ११ ?
"आत्मबल"
आत्मबल जागृत होने पर बड़े-२ उपवास आदि तप सरल दिखते हैं।
बारहवे उपवास के दिन लगभग आधा मील चलकर मंदिर से आते हुए आचार्य शान्तिसागर महाराज के शिष्य पूज्य नेमिसागर मुनिराज ने कहा था- "पंडितजी ! आत्मा में अनंत शक्ति है।अभी हम दस मील पैदल चल सकते हैं।"
मैंने कहा था- "महाराज, आज आपके बारह उपवास हो गए हैं।" वे बोले, "जो हो गए, उनको हम नहीं देखते हैं।इस समय हमें ऐंसा लगता है, कि अब केवल पाँ
? अमृत माँ जिनवाणी से - ९ ?
सामयिक बात
आचार्य शान्तिसागरजी महाराज सामयिक बात करने में अत्यंत प्रवीण थे।
एक दिन की बात है, शिरोड के बकील महाराज के पास आकर कहने लगे -
"महाराज, हमे आत्मा दिखती है। अब और क्या करना चाहिए?"
कोई तार्किक होता, तो बकील साहब के आत्मदर्शन के विषय में विविध प्रश्नो के द्वारा उनके कृत्रिम आत्मबोध की कलई खोलकर उनका उपहास करने का उद्योग करता, किन्तु यहॉ संतराज आचार्य महाराज के मन में उन भले बकील
? अमृत माँ जिनवाणी से - ८ ?
"उपवास से क्या लाभ है?"
उपवास से क्या लाभ होता है इस विषय में आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज ने अपनी अनुभव-पूर्ण वाणी से कहा था - "मदोन्मत्त हाँथी को पकड़ने के लिए कुशल व्यक्ति उसे कृत्रिम हथिनी की ओर आकर्षित कर गहरे गड्ढे में फसाते हैं।
उसे बहुत समय तक भूखा रखते हैं।इससे उस हाँथी का उन्मत्तपना दूर हो जाता है और वह छोटे से अंकुश के इशारे पर प्रवृति करता है।
वह अपना स्वछन्द विचरना भूल जाता है।इ
? अमृत माँ जिनवाणी से - ७ ?
"शहद भक्षण में क्या दोष है"
एक दिन मैंने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूंछा, "महाराज, आजकल लोग मधु खाने की ओर उद्यत हो रहे हैं क्योंकि उनका कथन है, क़ि अहिंसात्मक पद्धति से जो तैयार होता है, उसमे दोष नहीं हैं।"
महाराज ने कहा, "आगम में मधु को अगणित त्रस जीवो का पिंड कहा है, अतः उसके सेवन में महान पाप है।
मैंने कहा, "महाराज सन् १९३४ को मै बर्धा आश्रम में गाँधी जी से मिला था।उस समय वे करीब पाव भर शहद खाया करते थे।मैं
? अमृत माँ जिनवाणी से - ६ ?
"अपूर्व दयालुता"
भोज ग्राम में गणु जयोति दमाले नामक एक मराठा किसान ८० वर्ष की अवस्था का था।वह एक ब्राम्हण के खेत में मजदूरी करता रहा था।उस बृद्ध मराठा को जब यह समाचार पहुँचा कि महाराज के जीवन के सम्बन्ध में परिचय पाने को कोई व्यक्ति बाहर से आया है, तो वह महाराज का भक्त मध्यान्ह में दो मील की दूरी से भूखा ही समाचार देने को हमारे पास आया| उस कृषक से इस प्रकार की महत्त्व की सामग्री ज्ञात हुई:
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? अमृत माँ जिनवाणी से - ५ ?
"शिखरजी की वंदना से त्याग और नियम"
आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज गृहस्थ जीवन में जब शिखरजी की वंदना को जब बत्तीस वर्ष की अवस्था में पहुंचे थे, तब उन्होंने नित्य निर्वाण भूमि की स्मृति में विशेष प्रतिज्ञा लेने का विचार किया और जीवन भर के लिए घी तथा तेल भक्षण का त्याग किया।घर आते ही इन भावी मुनिनाथ ने एक बार भोजन की प्रतिज्ञा ले ली।
रोगी व्यक्ति भी अपने शारीर रक्षण हेतु कड़ा संयम पालने में असमर्थ होता है किन्तु इन प्रचंड -बली सतपु
? अमृत माँ जिनवाणी से - ४ ?
"वानरो पर प्रभाव"
शिखरजी की तीर्थवंदना से लौटते हुए महाराज का संघ सन् १९२८ में विंध्यप्रदेश में आया। विध्याटवी का भीषण वन चारों ओर था। एक ऐसी जगह पर संघ पहुँचा, जहाँ आहार बनाने का समय हो गया था। श्रावक लोग चिंतित थे कि इस जगह वानरों की सेना स्वछन्द शासन तथा संचार है, ऐसी जगह किस प्रकार भोजन तैयार होगा और किस प्रकार इन सधुराज की विधि सम्पन्न होगी? उस स्थान से आगे चौदह मील तक ठहरने योग्य जगह नही थी।
? अमृत माँ जिनवाणी से - ३ ?
"माता की धर्म परायणता"
आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज के जीवन में उनके माता-पिता की धार्मिकता का बड़ा प्रभाव था।
सन १९४८ के दशलक्षण पर्व में फलटण नगर में उन्होंने बताया था कि, "हमारी माता अत्यंत धार्मिक थी, "वह अष्टमी चतुर्दशी को उपवास करती तथा साधुओ को आहार देती थी।
हम भी बचपन से ही साधुओ को आहार देने में योग दिया करते थे, उनके कमण्डलु को हाथ में रखकर उनके साथ जाया करते थे। छोटी अवस्था से ही हमारे मन मे
? अमृत माँ जिनवाणी से - २ ?
"मिथ्या देवों की उपासना का निषेध"
"जैन मंत्र का अपूर्व प्रभाव"
जैनवाणी नामक ग्राम में महाराज जैनियो को मिथ्यादेवों की पूजा के त्याग करा रहे थे, तब ग्राम के मुख्य जैनियो ने पूज्यश्री से प्रार्थना की, "महाराज ! आपकी सेवा में एक नम्र विनती है।"महाराज ने बड़े प्रेम से पूछा - "क्या कहना है कहो?"
जैन बन्धु बोले - "महाराज ! इस ग्राम में सर्प का बहुत उपद्रव है। सर्प का विष उतारने में निपुण
? अमृत माँ जिनवाणी से - १ ?
"स्थिर मन"
एक बार लेखक ने आचार्यश्री शान्तिसागरजी महाराज से पूछा, महाराज आप निरंतर स्वाध्याय आदि कार्य करते रहते है क्या इसका लक्ष्य मन रूपी बन्दर को बाँधकर रखना है जिससे वह चंचलता ना दिखाये।महाराज बोले, "हमारा बन्दर चंचल नहीं है"|
लेखक ने कहा, "महाराज मन की स्थिरता कैसे हो सकती है,वह तो चंचलता उत्पन्न करता ही है"
महाराज ने कहा, "हमारे पास चंचलता के कारण नहीं रहे है|जिसके पास